शत्रु और मित्र में विभेद करना कठिन है क्योंकि उनकी कोई स्पष्ट पहचान कहीं नहीं मिलती। कब मित्र शत्रु हो जाए और शत्रु मित्र यह भी ज्ञात नहीं होता। विद्वान लोग मित्रों की महिमा में कहते हैं कि जिसे सच्चा मित्र मिल गया उसे सब कुछ मिल गया।
परन्तु शास्त्र क्या कहते हैं?
शास्त्र कहते हैं कि
‘‘न कस्यकस्यचित मित्रम न कस्यकस्यचित रिपुम्,
व्यवहारेण जायन्ति मित्राणी रिपवस्तथा।’’
अर्थात् न तो कोई किसी का मित्र होता है और न कोई शत्रु। वह तो अपना अपना व्यवहार ही है जो मित्र या शत्रु को जन्म देता है।
यह बात तार्किक और सत्य लगती है। श्रीमद्भवदगीता में भी मोक्ष मार्ग पर बढ़ने वालों के लिए ही नहीं सबके लिए यह स्पष्ट कहा गया है कि,
‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम्वसादयेत्,
आत्मैवात्मानम् बंधु आत्मैव रिपुरात्मनः।’’
अर्थात् अपने आप की उन्नति करना चाहिए न कि अवनति क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र है तथा अपना आप ही अपना शत्रु।
स्पष्ट है कि उस विचारधारा और संगति को ही प्रश्रय देना चाहिए जो आत्मोन्नति में सहायक हो। आत्मोत्थान करना ही मानव जीवन का मूल उद्देश्य है, इसलिए अपने आपको अपना मित्र बनाने में ही भलाई है।
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