क्रिया के पूर्ण होने का ध्वन्यात्मक मूल है ‘स्वाहा‘, अर्थात् घी को आग में डालने पर स्वाहा नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह पूरा जल नहीं जाता। जब कोई दिव्य कार्य करना होता है तभी स्वाहा बोला जाता है। पवित्र काम के लिये चाहे वह भौतिक, मानसिक या आध्यात्मिक कोई भी हो उसका नियंत्रक ध्वन्यात्मक मूल है स्वाहा। विशेषतः स्वाहा को आहुति देते समय कहा जाता है अतः इस अर्थ में वह ध्वन्यात्मक मूल ‘स्वधा’ से संबंधित है। स्वधा का सामान्य अर्थ है ‘जो आत्म विश्वासी हो‘ इसलिये स्वधा का उपयोग पूर्वजों को आहुति देने में किया जाता है। प्राचीन काल में स्वाहा और स्वधा समानार्थी थे पर बाद में स्वाहा ‘‘ कल्याण हो‘‘ के अर्थ में और स्वधा ‘‘ भगवान आपको शान्ति दे‘‘ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसीलिये स्वाहा का उपयोग देवी देवताओं के लिये और स्वधा का उपयोग पूर्वजों की स्मृति के लिये किया जाने लगा।
प्राचीन काल में देवताओं और पूर्वजों को आहुति देने के पहले लोगों को बड़े संयम के काल से गुजरना पड़ता था अतः इस प्रारंभिक तैयारी के समय को अधिवास कहते थे। जहॉ तक ज्ञात है वैदिक युग में लोगों की सबसे कमजोरी थी सुरा या सोमरस या मद्य, को पीने की। अतः अधिवास के समय पुजारी लोग अपने कंधे पर मृगचर्म डाले रहते थे ताकि अधिवास के समयान्तर में कोई उन्हें सुरापान के लिये निमंत्रित न करे। जब धार्मिक कार्य किया करते थे और स्वाहा उच्चारित करते थे तब वे मृगचर्म को बॉंयें कँधे पर ले लेते थे और मृगचर्म को यज्ञोपवीत कहा जाता था, पर यदि वे पूर्वजों के लिये धार्मिक कार्य करते थे तो स्वधा मंत्र का उच्चारण करते और मृगचर्म को दायें कँधे पर डाल लेते थे इसे प्राचीणवीत कहा जाता था। जब वे इन में से कोई कर्म नहीं कर रहे होते तो वे मृगचर्म को गले में चारों ओर लपेट लेते थे जिसे निवीत कहा जाता था। देवताओं के कार्य के लिये स्वाहा मंत्र के साथ सम्प्रदान मुद्रा का, त्योहारों पर वोषट और वषट मंत्रों के साथ वरद मुद्रा का और स्वधा मंत्रों का उपयोग करते समय अंकुश मुद्रा का उपयोग किया करते थे।
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