शास्त्र में परमपुरुष के बारे में कहा गया है ’रसो वै सः।’ अर्थात् वे आनन्दमय, रसमय सत्ता हैं। अणुमन अर्थात् यूनिट माइंड को जब तक शतप्रतिशत सरस नहीं बना लिया जाता वह रसघन आनन्दमय सत्ता के साथ एकात्मता स्थापित नहीं कर पाता है। जो वास्तव में भक्त हैं, वे इस तत्त्व को जानते हैं, इसीलिए भक्तगण क्या करते हैं? वे परमपुरुष से कहेंगे- मेरी जो त्रुटि-विच्युति है वह सभी रहने दो, किन्तु यह, विद्वत्ता की अभिव्यक्ति या विद्या या धन को पाने के प्रति मेरी जो दुर्बलता है ये समाप्त कर दो, क्योंकि तुम्हें छोड़ अब अन्य कुछ माँगना मेरी भूल होगी। यह भौतिक जगत की रंगीन वस्तुएं मांगकर जो मैंने भूल की है, अन्याय किया है, इससे वर्णमय जागतिक वस्तु माँगते ही मुझमें जो सामयिक रंगीनता आ गई, उसे मैं अपनी भूल स्वीकार करता हूँ। मैं अपनी भूल सुधार कर अपने मन के वर्ण अर्थात् मन पर चिपके जागतिक रंगों को तुम्हारे वर्ण अर्थात् रंग में मिला कर मैं वर्णहीन (रंगहीन) होना चाहता हूँ।
इस प्रकार अपनी मानस चिन्तन से हुई वर्णाधीनता की त्रुटि के लिए मैं मिटा देना चाहता हूँ। भक्त की इस प्रकार की वर्णातीत होने की भाव साधना को ही वसन्तोत्सव या रंगोत्सव या होली कहा जाता है। यही इसका मूल आध्यात्मिक यथार्थ है।
दर्शन में कहा गया है ‘‘परमपुरुष ही एकमात्र वर्णातीत अर्थात् रंगहीन सत्ता हैं’’ उनकी इच्छा से ही इस ब्रह्मांड के अजस्र वर्णों की सृष्टि हुई है। मनुष्य यदि अपने स्वयं के वर्णों को परमपुरुष को दे दे तो वह भी वर्णहीन हो जाएगा, परमपुरुष में मिल जाएगा। वह परमपुरुष से कुछ नहीं मांगेगा। यदि माँगना ही है तो एक ही वस्तु माँगना चाहिए वह है, “हे परमपुरुष, तुम यदि वास्तव में कुछ देना चाहते हो तो मेरी बुद्धि को शुभत्व के साथ संयुक्त करो- मुझे सद्बुद्धि दो, ताकि मैं तुम्हारे चरण कमलों में स्वयं को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर सकूँ।“
अर्थात् अपने सभी रंगों (वर्णों) को उन्हें ही समर्पित कर देना चाहिए, इसी के लिए वर्णार्घ्य दान करना कहते हैं। यह केवल होली को ही नहीं प्रतिदिन करना चाहिए। योगी प्रतिदिन होली खेलते हैं।
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