Thursday, 22 June 2023

412 स्वर्ग और नर्क का मनोवैज्ञानिक, योगवैज्ञानिक और आधुनिक वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण

कुछ विद्वानों ने  स्वर्ग और नर्क के भी अनेक स्तरों का वर्णन किया है और कहा है कि जघन्य पाप करने वाले ‘रसातल‘ को जाते हैं और अच्छे कर्म करने वाले स्वर्ग को। परन्तु इनके भौतिक अस्तित्व को मनोविज्ञान, योग और आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाया जा सकता हो तभी मान्य किया जाना चाहिए।

वास्तव में, मन की अपरिपक्व अवस्था ही नर्क का आधार होती है और इसी अपरिपक्वता के स्तर को उसकी गहनता के आधार पर सात स्तरों में समझाया गया है जिन्हें तल, अतल, वितल, तलातल, पाताल, अतिपाताल, और रसातल नाम दिये गये हैं। अविद्या की उपासना करने वाले या घोर पाप कर्म से जुड़े व्यक्ति से कहा जाता है कि रसातल के अंधकार में  जाओगे, इसका मतलब यही है मन का स्तर इतना निम्न हो जायेगा  कि वह ज्ञान का प्रकाश  नहीं पा सकेगा अतः अंधकार में रहेगा, मन की निम्नतम (crudest state of mind)  अवस्था में पड़ा रहेगा । इसी तरह उन्नत मन की उच्चतर अवस्थाओं को महः ,जनः ,तपः और सत्यम कहा गया है। सत्यम और हिरण्यमय कोश एक ही हैं । हिरण्यमय का अर्थ है स्वर्णमय , सोने जैसा । योग और विद्यातन्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि परमपुरुष हिरण्यमय कोश  के पर्दे के पीछे रहते हैं। यथार्थता यह है कि जब साधना के द्वारा मन को इतना पवित्र और स्वच्छ कर लिया जाता है कि उसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता हो तो वह स्वर्ण की भॉंति कॉंतिमान लगता है और परमसत्ता का पूर्णतः  परावर्तन उसमें होने लगता है और फिर इकाई मन और भूमा मन अर्थात् परमपुरुष के मन में कोई अन्तर नहीं रहता यह अवस्था आत्मसाक्षात्कार कहलाती है।  इसलिये कर्मों के अनुसार ही मन की विभिन्न अवस्थायें होती रहतीं हैं इसलिये कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक अवस्थाओं के अनुसार एक ही दिन में अनेक बार स्वर्ग और नर्क की यात्रा करता रह सकता है। इसलिये विद्यातंत्र वह विधि समझाता है जिससे हमेशा  ब्रह्मभाव में मन को बनाये रखने पर वह स्वर्ग और नर्क दोनों से ऊपर रहने लगता और क्रमशः  परमपुरुष के निकट होता जाता है।

 आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनोमय कोश  को अवचेतन मन (subconscious mind) कहते हैं। यह विज्ञान कहता है कि अवचेतन मन में हमारे भूतकाल के अनेक जन्मों और वर्तमान की सभी स्मृतियों का संग्रह होता है। बिना अवचेतन मन के हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते क्योंकि सभी ज्ञान और स्मृति इसी में केन्द्रित रहते हैं। मनोविज्ञान में मन के केवल तीन स्तर माने गये हैं चेतन (conscious) अवचेतन (subconscious) और अचेतन (unconscious) जबकि योग विज्ञान में अचेतन को भी तीन और स्तरों में बॉंटा गया है अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय, जो मन की क्रमानुसार अत्यन्त कम आवृत्तियों की सूचक हैं। अतिमानस पराज्ञान, विज्ञानमय पराशक्तियों  और हिरण्यमय परम उपलब्धियों  का क्षेत्र है। 

आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक अस्तित्व की मूल आवृत्ति (fundamental frequency) होती है और यह जड़ता (crudity)  की ओर अधिक और सूक्ष्मता (subtlety) की ओर कम होती जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मन की आवृत्ति का अत्यधिक बढ़ जाना जड़ता अर्थात् पर्वत या पत्थर हो जाना या नर्क की ओर जाना, और आवृत्ति का लगभग शून्य  हो जाना अर्थात् स्वयं को जान लेना या परमात्मा अर्थात् स्वर्ग को पा लेना ही है। परमात्मा की तरंगदैर्घ्य  (wave length) अनन्त कही गई है अर्थात् आवृत्ति शून्य  अर्थात् हिरण्यमय कोश । योग का व्यावहारिक ज्ञान और विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियॉं अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय क्षेत्रों की यात्रा कराते हुए अन्त में परमात्मा से एकाकार करा देती हैं जो मानव मात्र के जीवन का लक्ष्य है।


Thursday, 15 June 2023

411स्वर्ग और नर्क क्या हैं?

 

अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम् में कहा गया है कि ‘‘न स्वर्गो न रसातलः’’।

अतः यदि इसे इस प्रकार कहें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है तो स्वर्ग और नर्क दोनों के स्वामी वही हुए।  उपनिषदों में भी कहा गया है - ‘‘उतामृतस्येशानो  = उत + अमृत+  ईशान‘‘। उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्ग,  ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला । अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं? 

परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन अर्थात् मानव मन की विभिन्न पॉंच पर्तें हैं दार्शनिक  इन्हें कोश  या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पॉंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन (cosmic mind)    के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों में कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः  भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind )  की विभिन्न विचार तरंगों के समूह (wave pattern) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियॉं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं, को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश  कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसीलिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे  (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा  दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश  ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा  आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियॉं सुनाकर उनके  अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले जाते हैं।


410 पृथकता विरुद्ध एकता।


वह परमसत्ता केवल एक ही है। दार्शनिकों ने उसे अपने अपने ढंग से समझाने के लिए अनेक दार्शनिक नाम दिये हैं जैसे, परमब्रह्म, परमपुरुष आदि। स्वयंभू का अर्थ है केवल ‘‘स्वयं होना’’ अर्थात् स्वयं अस्तित्व में आना। इसलिए सभी कुछ जो हम देख पाते हैं और नहीं देख पाते, उनके मन में ही हैं अतः वे निर्पेक्ष हैं और पूरा ब्रह्मांण्ड सापेक्ष।

जैसे, हमारा शरीर हमारे मन का ही विस्तार है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत, गेलेक्सीज, ब्लेकहोल सहित पूरा ब्रह्माण्ड और स्पेस, टाइम आदि सब उनके मन का ही विस्तार है। हमें यह जानकर अजीब लगता है क्योंकि हम सभी उन्हें अपने से पृथक मानते हैं जबकि हम सब उन्हीं के मन में हैं। इसीलिए  उपनिषदें बार बार उनसे अपनी पृथकता को भूलकर अपने ही हृदय में अनुभव करने की विधियों का पालन करने का मार्गदर्शन करती है।

जब तक हम अपने को उनसे पृथक मानते रहेंगे हम उस अमरत्व को अनुभव नहीं कर सकते। समुद्र के किनारे पर बैठकर समुद्र की गहराई का अनुभव नहीं किया जा सकता उसमें डूबना ही पड़ता है। इस तरह जब हम समुद्र के साथ अपनी एकता स्थापित कर लेते हैं तब हमें समुद्र क्या है यह अनुभूति हो जाती है। वास्तव में लोगों को पौराणिक कहानियों ने भ्रमित कर रखा है। हमें अपने तर्क, विज्ञान और विवेक का उपयोग करना चाहिए।



Thursday, 8 June 2023

409 जिसे केवल बिग बेंग कहा जाता है उसे उपनिषदों इस प्रकार समझाया गया है-

 

जो व्यष्टि भाव में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं कहलाती हैं वही समष्टि भाव में क्रमशः क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव कहलाती हैं।

इन तीनों अवस्थाओं के व्यष्टिभाव में जो बीज होता है वह क्रमशः विश्व, तैजस और प्राज्ञ कहलाता है यही समष्टिभाव में क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ और सूत्रेश्वर कहलाता है।

कहा गया है कि तुरीयावस्था में जहॉं सूत्रेश्वर भी लुप्त रहता है, वह परमसत्ता निस्प्रह, और निष्काम सुसुप्तावस्था में होता है। परन्तु प्रकृति के आलोडन से जब उनमें अस्मिता का बोध होता है तो एक से अनेक होने की भावना से कारणार्णव यानी सुसुप्तावस्था से गर्भोदक अर्थात् स्वप्नावस्था में आकर हिरण्यगर्भ का बीजारोपण होता है और जाग्रद अवस्था में यही क्षीरसागर में ( स्थूलावस्था में)  विश्व रूप में अस्तित्व पाता है। इसे पुराणों में विष्णु का स्वप्न कहा गया है।

आधुनिक वैज्ञानिक केवल बिग बेंग का नाम लेकर इस विश्व को अचानक ही अस्तित्व में आ जाना कहते हैं। वे टाइम और स्पेस के निर्माण अथवा वायु,ऊष्मा, थल और जल के निर्माण बारे में स्पष्टतः कुछ नहीं कहते परन्तु उपनिषद स्पष्टतः  कहते हैं कि -

कारणार्णव से गर्भोदक की अवधि में वह परमसत्ता अपनी शिवानी शक्ति के उपयोग से, बिना किसी वक्रता के अनन्त तरंग लंबाई की ऊर्जा को प्रसारित करते हैं जो आधार का कार्य करता है (जिसे हम आज स्पेस कहते हैं।) इस शिवानी का संवेग जब कुछ धीमा होने लगता है तो भैरवी शक्ति से पूर्वोक्त तरंगों में वक्रता उत्पन्न होने लगती है जो कला कहलाती है और यहीं से ‘काल अर्थात् टाइम’ अस्तित्व में आता है। वक्रता के क्रमशः बढ़ने पर स्पेस और टाइम आपस में और अधिक द्रढ़ता लाकर नए स्तर को बनाते हैं जहॉं भैरवी, भवानी शक्ति में परिवर्तित होकर इस दृश्य प्रपंच भौतिक जगत का निर्माण क्रमशः करती रहती है । कारणार्णव से क्षीरसागर तक की यात्रा का क्रम ‘संचर धारा’ और फिर क्षीरसागर से पुनः कारणार्णव तक वापस जाने की प्रक्रिया को ‘प्रतिसंचर’ कहा गया है।

स्पष्ट है कि हमारे पास यह ज्ञान हजारों वर्ष से सो रहा है और हम केवल दंभ भरते रहे हैं कि हमारे ऋषियों ने यह खोजा वह खोजा ।

यदि तथाकथित पंडितों ने यथासमय इसे ढंग से समझा और समझाया होता तो आज हमारा ज्ञान विज्ञान कितने उच्च स्तर पर होता यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मेरा निवेदन है कि केवल यह कहकर कि ‘‘हमारी उपनिषदों में तो यह बहुत पहले से लिखा है जो वैज्ञानिक आज खोज रहे हैं’’ काम नहीं चलेगा, आवश्यकता है इस पर तर्क, विज्ञान और विवेक पूर्ण चिंतन करते हुए उसे नए आयाम देना। इसके लिए सभी प्रबुद्धों को एकसाथ आकर शोध करना होगा, समय की यही मांग है।