Thursday, 8 June 2023

409 जिसे केवल बिग बेंग कहा जाता है उसे उपनिषदों इस प्रकार समझाया गया है-

 

जो व्यष्टि भाव में जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएं कहलाती हैं वही समष्टि भाव में क्रमशः क्षीरसागर, गर्भोदक और कारणार्णव कहलाती हैं।

इन तीनों अवस्थाओं के व्यष्टिभाव में जो बीज होता है वह क्रमशः विश्व, तैजस और प्राज्ञ कहलाता है यही समष्टिभाव में क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ और सूत्रेश्वर कहलाता है।

कहा गया है कि तुरीयावस्था में जहॉं सूत्रेश्वर भी लुप्त रहता है, वह परमसत्ता निस्प्रह, और निष्काम सुसुप्तावस्था में होता है। परन्तु प्रकृति के आलोडन से जब उनमें अस्मिता का बोध होता है तो एक से अनेक होने की भावना से कारणार्णव यानी सुसुप्तावस्था से गर्भोदक अर्थात् स्वप्नावस्था में आकर हिरण्यगर्भ का बीजारोपण होता है और जाग्रद अवस्था में यही क्षीरसागर में ( स्थूलावस्था में)  विश्व रूप में अस्तित्व पाता है। इसे पुराणों में विष्णु का स्वप्न कहा गया है।

आधुनिक वैज्ञानिक केवल बिग बेंग का नाम लेकर इस विश्व को अचानक ही अस्तित्व में आ जाना कहते हैं। वे टाइम और स्पेस के निर्माण अथवा वायु,ऊष्मा, थल और जल के निर्माण बारे में स्पष्टतः कुछ नहीं कहते परन्तु उपनिषद स्पष्टतः  कहते हैं कि -

कारणार्णव से गर्भोदक की अवधि में वह परमसत्ता अपनी शिवानी शक्ति के उपयोग से, बिना किसी वक्रता के अनन्त तरंग लंबाई की ऊर्जा को प्रसारित करते हैं जो आधार का कार्य करता है (जिसे हम आज स्पेस कहते हैं।) इस शिवानी का संवेग जब कुछ धीमा होने लगता है तो भैरवी शक्ति से पूर्वोक्त तरंगों में वक्रता उत्पन्न होने लगती है जो कला कहलाती है और यहीं से ‘काल अर्थात् टाइम’ अस्तित्व में आता है। वक्रता के क्रमशः बढ़ने पर स्पेस और टाइम आपस में और अधिक द्रढ़ता लाकर नए स्तर को बनाते हैं जहॉं भैरवी, भवानी शक्ति में परिवर्तित होकर इस दृश्य प्रपंच भौतिक जगत का निर्माण क्रमशः करती रहती है । कारणार्णव से क्षीरसागर तक की यात्रा का क्रम ‘संचर धारा’ और फिर क्षीरसागर से पुनः कारणार्णव तक वापस जाने की प्रक्रिया को ‘प्रतिसंचर’ कहा गया है।

स्पष्ट है कि हमारे पास यह ज्ञान हजारों वर्ष से सो रहा है और हम केवल दंभ भरते रहे हैं कि हमारे ऋषियों ने यह खोजा वह खोजा ।

यदि तथाकथित पंडितों ने यथासमय इसे ढंग से समझा और समझाया होता तो आज हमारा ज्ञान विज्ञान कितने उच्च स्तर पर होता यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मेरा निवेदन है कि केवल यह कहकर कि ‘‘हमारी उपनिषदों में तो यह बहुत पहले से लिखा है जो वैज्ञानिक आज खोज रहे हैं’’ काम नहीं चलेगा, आवश्यकता है इस पर तर्क, विज्ञान और विवेक पूर्ण चिंतन करते हुए उसे नए आयाम देना। इसके लिए सभी प्रबुद्धों को एकसाथ आकर शोध करना होगा, समय की यही मांग है।


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