अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम् में कहा गया है कि ‘‘न स्वर्गो न रसातलः’’।
अतः यदि इसे इस प्रकार कहें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है तो स्वर्ग और नर्क दोनों के स्वामी वही हुए। उपनिषदों में भी कहा गया है - ‘‘उतामृतस्येशानो = उत + अमृत+ ईशान‘‘। उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्ग, ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला । अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं?
परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन अर्थात् मानव मन की विभिन्न पॉंच पर्तें हैं दार्शनिक इन्हें कोश या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पॉंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन (cosmic mind) के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों में कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind ) की विभिन्न विचार तरंगों के समूह (wave pattern) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियॉं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं, को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसीलिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियॉं सुनाकर उनके अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले जाते हैं।
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