Saturday, 23 August 2025

432 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) भगवान शिव का चौथा उपदेश है कि :-


भगवान शिव का चौथा उपदेश है कि :-

‘‘ न मुक्तिः शास्त्रव्याख्याने न मुक्तिर्विधिपूजने, केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः’’

अर्थात्, न तो केवल शास्त्रों की व्याख्या करने से मुक्ति मिलती है और न ही देवताओं की शास्त्रों में वर्णित विधियों से पूजा करने से । वह, जो निष्ठापूर्वक बह्म के प्रति आत्मसमर्पण कर देता है उसे ही मुक्ति मिलती है इसमें कोई संशय नहीं है।

स्पष्टीकरण :

(1) ‘शास्त्रव्याख्याने’ अर्थात् शास्त्र की व्याख्या करने से। शास्त्र क्या है? ‘शासनात् तारयेत् यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’ अर्थात् वह जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति प्रदान करता है वह शास्त्र के नाम से जाना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक संरचना का कोई न कोई नियंत्रक बल अवश्य होता है जिसके अभाव में वह संरचना विकृत होकर नष्ट हो जाती है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक संरचना के ये नियंत्रक बल तीन प्रकार के होते है क्योंकि किसी भी अस्तित्व के तीन ही घटक होते हैं। भौतिक जगत के जीवित प्राणी या यंत्र सभी का नियंत्रण मनुष्य करता है। मानसिक जगत में नियंत्रक बल होता है ‘यथार्थ और व्यावहारिक दर्शन’, और आध्यात्मिक जगत में नियंत्रक बल होता है ’परमात्मा की अनुभूति करने के तीब्र लालसा’। इस प्रकार की तीब्र लालसा वाले व्यक्ति कहा करते हैं कि मैं इस संसार को जीत लूंगा तलवार के बल पर नहीं बल्कि परमात्मा की अनुभूति के द्वारा। तलवार के द्वारा पाई जीत तो तलवार में जंग लगने के पहले ही समाप्त हो जाती है, वह क्षणिक है। तो इस भौतिक जगत में चाहे कोई व्यक्ति नियंत्रक हो या मशीन यानि यंत्र वह अल्प समय के लिए ही यह कर सकता है अधिक दिन तक नहीं क्योंकि मनुष्य और मशीन दोनों की आयु सीमित है। परन्तु भौतिक जगत में नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि यहॉं अनेक लोग पशु की तरह जीवन जीते हुए पागल कुत्ते की तरह दूसरों के मुंह का कौर छीन लेते हैं। मनुष्य के शरीर में रहते हुए भी वे जड़ता से भरे भ्रामक सिद्धान्तों का पालन कते हैं और कट्टरता को बढ़ावा देकर धन के भूखे यह लोग  असंगठित,सरल और निरपराधी लोगों की आवाज सदा के लिए दबा कर धीरे धीरे मौत की ओर धकेलते रहते हैं, वे अपनी आन्तरिक इच्छाओं को कभी किसी से कह ही नहीं पाते। इसीलिए भौतिक जगत में एक अनुशासन की संहिता पुस्तक के रूप में आवश्यक हो जाती है; बल्कि आध्यात्मिक और कल्याणकारी व्यक्ति पुस्तक की अपेक्षा इस क्षेत्र में अधिक प्रभावी होता है। भौतिक जगत में कोई भी संरचना हमेशा नहीं बनी रहती वह धीरे धीरे रूपान्तरित होती रही है। अतः यदि लिखित संहिता की जगह कोई नियंत्रणकर्ता अपने प्रशासनिक अधिकार का उपयोग करके किसी संरचना को बनाए रचाना चाहता है तो उसे शास्त्र या संहिता की तरह ही कल्याणकारी होना चाहिए। कल्याणकारी या अकल्याणकारी होने से तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति अपने आदर्शों से एक इंच भी नहीं हटेगा और न ही किसी को भी आदर्श से दूर हटने देगा। यदि वह जनता की आलोचना पर ध्यान देगा तो वह कभी भी मानव कल्याण नहीं कर सकेगा। इसलिए संहिता की व्याख्या करने वाले नहीं उसके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले सत्यनिष्ठ व्यक्ति ही भौतिक क्षेत्र में नियंत्रक हो सकते है।

(2) मानसिक क्षेत्र की संरचनाएं विशेष प्रकार के आदर्शों पर आधारित होती हैं। ये आदर्श या तो लिखित निर्देशों के रूप में होते है या दूसरों को मार्गदर्शन कर सकने  वाला असाधारण व्यक्ति। परतु व्यावहारिक क्षेत्र में क्या होता है? यह आदर्श दो प्रकार के पाए जाते हैं आंतरिक और बाह्य । जब यह आदर्श इस प्रकार प्रचारित किए जाते हैं कि उनकी आन्तरिक मधुरता बाहर आकर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और बाहर सुसंतुलन स्थापित कर सके तो ये आदर्श स्थायी हो जाते है। यह कहना उचित नहीं है कि  इस प्रकार के आदर्श कभी स्थापित नहीं किए जा सकते  परन्तु हॉं इनका पालन करने और अनुशासन में लाने वालों को पद पद पर विपरीत आघातों का सामना करना पड़ता है। विरोध से यहॉं तात्पर्य यह है कि वह हमारी प्रगति में सहायक होता है । वास्तव में यह विरोध आदर्श दर्शन से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयॉं ही होती हैं जिन्हें उसके सही जानकार ही समाधान कर पाते हैं। हम जानते हैं कि पूर्वकाल में अनेक महापुरुष अपना अपना दर्शन लेकर आए परन्तु जब विरोध का सामना हुआ तो वे स्वयं आडम्बर फैलाने लगे, इस स्थिति में अन्य लोगों से आदर्श पर चलने की क्या अपेक्षा रखी जाए। इसलिए शिव का कहना है कि भौतिक जगत की अपेक्षा चूंकि मनुष्य अपने मानसिक कार्यों, आशाओं और अपेक्षाओं में अधिक उलझा रहता है अतः उसे अपने मानसिक क्षेत्र में विस्तार करने के अनेक अवसर होते हैं परन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में न केवल एक व्यक्ति बल्कि पूरा समाज निराशा के चौराहे पर खड़ा नष्ट हो जाता है। इसलिए ये आडम्बरी लोग जो शास्त्र का व्याख्यान लच्छे पुच्छेदार भाषा में करते देखे जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। अतः मानसिक संसार में नियंत्रण करने वाले व्यक्ति में भौतिक संसार की अपेक्षा आदर्श का कठोरता से पालन करने और कराने का विशेष गुण होना चाहिए।ष्

(3) शिव का कहना है कि शास्त्र की तरह नियंत्रण करने वाले वाले का व्यक्तित्व लिखी हुई पुस्तक से भी प्रबल होना चाहिए और मानसिक स्तर पर उसे सब कुछ समाहित किए हुए दर्शन शास्त्र में प्रवीण होना चाहिए।  समाज में इस दर्शन को प्रचारित करने वालों का उत्तम चरित्र और बुद्धिमान होना चाहिए । यदि दर्शन में कुछ कमी है और दर्शन के प्रचारक में कोई कमी नहीं है तो वह समाज में  अपने जीवन में समाज की कोई क्षति नहीं कर सकता। परन्तु यदि उस व्याख्याकार व्यक्ति में दोष हैं परन्तु दर्शन शास्त्र में नहीं तो वह दर्शग्न किताबों में ही रह जाएगा और समाज पतन के गर्त में डूब जाएगा। पूर्व में अनेक दर्शन आए जिन्होंने मानव का मन उन्नत किया पर वे उनके मनों में पहले से जमे हुए विचारों को दूर नहीं कर पाए। इसलिए वे जो समाज में स्थायी दर्शन स्थापित करना चाहते हैं उन्हें बड़ी जिम्मेवारी उठाना होगी। इसमें सफलता तभी मिलेगी जब उनमें जिम्मेदारी का अनुभव कराने वाला उन्नत दार्शनिक ज्ञान और मानवता के प्रति निर्दोष प्रेम का सुसामंजस्य हो। वे दर्शन जो सिखाते हैं कि केवल उनकी समाज के लोग ही परमात्मा की प्रिय संताने हैं अन्य सभी अभिशप्त और अवांछित वे दोषपूर्ण दर्शन कहलाते हैं । उनके व्याख्याकार दूसरे समाज के लोगों को मार डालने को पवित्र कार्य मानते हैं। इसी प्रकार की असत्य विचारधारा के लोग जनसाधारण का धर्म के नाम पर शोषण करते हैं और कहते हैं कि यदि हम अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हैं तो क्या दोष है? इस प्रकार की विचारधारा ने लाखों लागों को मार डाला और असंख्य केवल अपना अस्थिपंजर लादे हुए हैं। इससे अनेक लोगों को आदर्श से भटका कर धर्मविहीन कर डाला है। इस प्रकार की छद्म विचारधारा मानवता की घातक है अतः अवांछनीय है।

(4) सभी युगों और सभी क्षेत्रों में यह सार्वभौमिक सत्य माना गया है कि मानव जीवन की मुख्यधारा ‘धर्म’ है। वही जीवधारियों का उपक्रम है, धन है और जीवन यात्रा का मार्गदर्शक। व्यापक रूप से सभी जड़ ओर चेतन का अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म  किसी  वस्तु के अस्तित्व को प्रकट करता है। मानव का धर्म अन्य प्राणियों की तुलना में जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश पाकर व्यापक होता है। इसलिए वास्तव में धर्म मनुष्यों का सच्चा मार्गदर्शक, नियंत्रक, प्रेरक और रक्षक होता है। इतना ही नहीं वह उत्तम और  व्यापक आदर्श का संवाहक होता है जो मनुष्य को आध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट और साहसिक दिशा बतलाता है और व्यक्तिगत तथा सामाजिक और आध्यात्मिक गतिविधियों  में सामूहिक रूप से ईश्वर के निकट ले जाने में प्रेरक होता है। अतः शिव का निर्देश है कि जिसमें इन सब शर्तों का समावेश नहीं पाया जाता उसे शास्त्र नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार के ग्रंथों में शास्त्र की इस परिभाषा की चेतना नहीं होती ‘‘ शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’’(जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति दिलाता है वही शास्त्र कहलाता है)।  इसप्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में आवश्यक शास्त्र को ‘धर्मशास्त्र’ कहते हैं और गुरु के रूप में ब्रह्म उसका नियंत्रक होता है। मानसिक संसार का अन्य घटक होता है दार्शनिक तथ्य, लिखित रूप में इसे ‘दर्शनशास्त्र’ कहते हैं इसमें किसी भी प्रकार का अंधानुकरण या जड़ता मूलक तत्व नहीं होना चाहिए। इससे जुड़ा हुआ होता है दर्शन प्रवक्ता जो सही ढंग से दार्शनिक तथ्यों को समझ कर जनसामान्य को समझा सके। भूतकाल में दार्शनिक तथ्यों की गलत व्याख्या का परिणाम मानवता को हजारों साल तक भोगना पड़ा (जैसे, पशु बलि, नर बलि और सती प्रथा)। इस पार्थिव जगत में जो शास्त्र  मानव जीवन के मनोवैज्ञानिक,राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक तथ्यों से प्रसारित होने वाली तरंगों को व्यवस्थित रूप नियंत्रित कर सकता है उसे ‘सामाज शास्त्र’ कहते हैं। यह सामाजिक संहिता मानव मन में सामाजिक चेतना को उत्पन्न करती है। 

जब किसी श्लोक, सूत्र या तथ्य को किसी प्रश्नकर्ता को समुचित महत्वपूर्ण ढंग से समझाया जाता है तो उसे व्याख्या या व्याख्यान कहते हैं। इसमें जिन ष्शब्दों  को सामान्य व्याख्याकारों द्वारा छोड़ दिया जाता है उन्हें सही व्याख्या करने वाला उचित कथानक के साथ प्रश्नकर्ता के सामने महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। आज धर्मशास्त्र, धर्मगुरु, दर्शन शास्त्र, दर्शन प्रवक्ता, समाजशास्त्र, समाजनेता और समाज आदर्श को उचित प्रकार से समझाना ही शास्त्र व्याख्यान का मूल उद्देश्य है। यदि उसे उचित प्रकार से नहीं समझाया जाता है तो लोग सही ढंग से तथ्य को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इसलिए शास्त्र को योग्य विद्वान, स्पर्धावान दार्शनिक और गहराई से सोच सकने वाले व्यक्ति से ही व्याख्या कराना चाहिए। कुछ लोग न तो विद्वान होते हैं न ही दार्शनिक और न गहराई से सोच सकने वाले फिर भी वे जीवन यापन के लिए शास्त्र व्याख्या करते देखे जाते हैं , इतना ही नहीं कुछ लोग शास्त्र व्याख्या इसलिए करते हैं कि उन्हें समाज में उत्कृष्ट स्तर का ज्ञाता और शोधकर्ता माना जा सके, कुछ व्याख्याता लोगों की मान्यता पाकर घमंड से फूल जाते हैं, इस प्रकार के लोगों से शिव का स्पष्ट कहना है कि ‘न मुक्तिः शास्त्र व्याख्याने’  ऐसे व्याख्यकारों को मुक्ति नही मिल सकती। 

(5) ‘विधि’ का अर्थ है अनुशासन संहिता। अनुशासन क्या है? ‘‘हितार्थे शासनम् इति अनुशासनम्।’’ अर्थात् अनियमितता के विरुद्ध नियमितता, अनुशासनहीनता के विरुद्ध अनुशासन, नैतिक ह्रास के विरुद्ध नैतिक सुधार, अपमानजनक और विश्लेष्णात्मक गति को सम्मानजनक और संश्लेष्णात्मक गति द्वारा संयोजित करने के लिए जो नियंत्रण या शासन किया जाता है उसे अनुशासन कहते हैं। अनुशासन भी अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होता है, किसी को छोटे अपराध के लिए कड़ा दंड और किसी को बड़े अपराध के लिए छोटा दंड मिलता है। शिव का कहना है कि यह उचित नहीं है ‘जब ज्ञानी, कुशाग्र बुद्धि और संतुलित मस्तिष्क के विद्वान लोग न्याय पर आधारित अनुशासन संहिता का निर्माण करते हैं तो उसे ‘‘विधि’’ कहते हैं।श्परन्तु क्रिया की प्रतिक्रिया, अधिकार पाने पर घमंड, अपने को शक्तिमान कर्ता मानकर उद्दंडता करना आदि के संबंध में कितना ही प्रकांड विद्वान हो वह कानून नहीं बना सकता,  केवल परमपुरुष ही इस संबंध में नियम कानून बना सकते है। इन्हें ईश्वरीय विधान कहते हैं जिनके माध्यम से वह परमसत्ता पूरे ब्रह्मांड पर नियंत्रण करता है। इन्हें  वह स्वयं नहीं तोड़ सकता, ‘‘विधिलिपिः अखंडनीया विधातापि खंडने असमर्थः’’।  चूंकि परमपुरुष ने ही यह अखंडनीय नियम बनाए हैं अतः उनका एक नाम है ‘विधाता’।

हम सभी जानते हैं कि जब कोई विपत्ति आ घेरती है तो हम सिपर पीटते हैं आंसू बहाते हैं और कहने लगते हैं ‘ हे विधाता यह तूने क्या किया, मुझे ही पूरी दुनिया के कष्ट क्यों दे रहा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है’ आदि। परन्तु दुखों का सामना करने पर इस प्रकार भगवान को दोष देना न्यायोचित नहीं है क्योंकि सभी अलौकिक मामलों में परमपुरुष अपने वैधानिक नियमों के अनुसार की कार्य करते है; वह अपने द्वारा काई भी कार्य नहीं करते। उसके वैधानिक नियमों का पालन कते हुए ही आग सभी को जलाती है फिर चाहे कोई बुंजुर्ग हो या बच्चा। यदि वह अपने नियम तोड़कर सीधे ही कुछ करना चाहेंगे तो पूरा ब्रह्मांड ही नष्ट हो जाएगा, इसलिए वह समर्थ होते हुण् भी अपने नियम नहीं तोड़ते। यदि वे किसी को क्षमा भी करते हैं तो परोक्ष रूप से यह प्रेरणा देते हैं कि कुछ अच्छा काम करो। परन्तु यह सत्य है कि अच्छा कर्म करने के अच्छे और बुरे कर्म के बुरे परिणाम स्वयं कर्ता को ही भोगना पड़ते हैं। कठिनाई या दुखों के समय सहनशक्ति को पाना उनकी कृपा से संभव है, अतः जब व्यक्ति अपार कष्ट में हो और अपने पर नियंत्रण न कर पा रहा हो तो परमपुरुष से यह निवेदन कर सकता है कि प्रभो! मुझे इस कष्ट को सहन करने की शक्ति दे दो।

(6) पूजा अथवा पूजन-जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।

अर्चा या अर्चना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।

प्रार्थना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यंन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।

विधिपूजन- ऊपर वर्णित पूजा की विधियॉं धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।

अब विधिपूजन को समझने में कोई अधिक मानसिक प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि पूजा करने वाले का मन अपने इष्ट की अपेक्षा बाहरी क्रियाओं पर अधिक केन्द्रित होता है। इसके अलावा यदि यह पूजा पंडित के द्वारा कराई जा रही हो (पूजा का नियम है कि उसे निराहार रहकर ही सम्पन्न करें) और उसे अनेक स्थानों पर पूजा करने जाना हो तो नियमानुसार उसे भूखा रहकर यह कार्य सम्पन्न करना होगा। इसलिए दिन के पहले आधे भाग में तो कुछ नहीं कह सकते पर दूसरे भाग में उसके पेट में चूहे दौड़ने लगेंगे और उसका ध्यान इष्ट से बार बार हटकर भोजन की ओर होगा तो इस प्रकार की पूजा को विधिपूजन नहीं कहा जा सकता न ही साधारण पूजा। इसके अलावा पूजा के समय भेंट की गई सामग्री पर भी पंडित का ध्यान रहेगा इसलिए शिव ने सही कहा है कि ‘ न मुक्तिः विधिपूजने’।

(7) शाब्दिक रूप से ‘ब्रह्म’ का अर्थ है ‘जो बहुत बड़ा है’ परन्तु लक्षणात्मक रूप से उसका अर्थ है ‘ब्रहत्वाद ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद ब्रह्म’। अर्थात् वह जो स्वयं तो बहुत बड़ा है ही लेकिन उसमें दूसरों को भी बड़ा बनाने की क्षमता है। अब मानलो कोई व्यक्ति जो दूसरों को पैरों के नीचे आई चीटी की तरह नष्ट करता है वह पूर्वोक्त शब्दिक अर्थ में बड़ा हो सकता है परन्तु शब्द में निहित आदर्श भावना के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। अतः वह व्यक्तित्व जो दूसरों को प्रगति का नया मार्ग खोलता है,पतित का उत्थान करता है, वही ब्रह्म शब्द के भीतर की यथार्थ भावना को पारिभाषित करता है। ब्रह्म किसी को नष्ट नहीं करता, वह चाहता है कि सभी विस्तार की चरमावस्था की अनुभूति करें, सभी अपने अस्तित्व आभा की अनुभूति करें। इस प्रकार का व्यक्तित्व ही ब्रह्मांड के हर अस्तित्व के लिए पूर्ण ब्रह्म कहलाएगा। अर्थात् वह पूर्ण है, पूर्ण से ही उसका उद्गम होता है और यदि उससे पूर्ण को निकाला जाय तो भी वह पूर्ण ही बचा रहता है। इसलिए पूर्ण का एक अर्थ है त्रुटिहीन या निर्दोष और दूसरा अर्थ है जिसे मापा नहीं जा सके अर्थात् अमाप्य। इसलिए वह सभी लोकों और उनसे भी आगे जो भी हो उनमें पूर्ण ही है। सभी इकाई सत्ताएं उसी पूर्ण  से निकलकर आई हैं उसी पूर्ण में व्यवस्थित बनी हुई हैं और अन्त में उसी पूर्ण में मिल जाऐंगी।  इसलिए वह स्वयं महान है और दूसरों को भी महान बना देता है ताकि वे भी उसके निकट आ सकें। इस जीपन में वह पूर्ण ब्रह्म ही हम सभी का लक्ष्य होना चाहिए।

इसप्रकार जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी सभी प्रवृत्तियॉं, सभी विचार और मन की निर्लिप्तता को इस परमकल्याणकारी परमसत्ता की ओर भेजता जाता है इस पवित्र भावना के साथ गति करने को कहा जाता है ‘निष्ठा’। इस प्रकार जो भी निष्ठावान ब्रह्म साधना करता है वह अन्त में ‘ब्रह्मसद्भाव’’ में प्रतिष्ठित होगा ही, इस अवस्था के लिए कहा जाता है आत्मसाक्षात्कार। ध्यान रहे इस प्रकार की ब्रह्म साधना की प्रारंभिक अवस्था में भी बाहरी किसी भी प्रकार की ढेरों विविध वस्तुओं ( फूल, माला, नैवेद्य, फल, मिष्ठान्न और श्रंगार सामग्री ) और साज सामान की आवश्यकता नहीं होती।  इसलिए शिव का कहना है कि, इस प्रकार का आत्म जिज्ञासु जिसे ब्रह्म निष्ठा के साथ ब्रह्मसाधना करने का आशीष मिला है वह अवश्य ही ब्रह्मसद्भाव को पाएगा इसमें कोई संशय नही है, ‘‘केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः।’’


Monday, 18 August 2025

431 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

 

भगवान शिव का तीसरा उपदेश है कि :-

न मुक्तिर्तपनादहोमातुपवासशहस्त्रेरपि, ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति देहभ्रत्।

अर्थात्, तप करने, आहुतियॉं देकर बलि अनुष्ठान करने, और हजारों उपवास करने से मुक्ति नहीं मिलती। मनुष्य देहधारी को तब मुक्ति मिलती है जब वह अनुभव कर लेता है कि ‘‘मैं ब्रह्म ही हूॅं।’’

स्पष्टीकरण :

(1) शब्द ‘‘मुक्ति’’ का निर्माण होता है क्रिया ‘मुच’ और प्रत्यय ‘क्तिन’ के मेल से। इसलिए मुक्ति का अर्थ हुआ सभी प्रकार के मौलिक बंधनों का दूर हो जाना। अब प्रश्न है कि बंधनों से दूर किसको होना है? निश्चित ही जिसके हाथ पैर बंधे हों,बोल न पाता हो,हृदय की भावनाएं दब गई हों, जीवन की आशाएं खीण हो गई हों, जो भौतिक रूप से सलाखों के पीछे हो, जिसका मन हठधमिता के चंगुल में हो, जिसकी आत्मा आनन्ददायी अमृत के प्रवाह की अनुभूति से दूर हो, जिसकी प्रगति का पथ अवरुद्ध हो गया हो वह निश्चय ही बंधन में है। इन सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होने के लिए जो कठिन पराक्रम किया जाता है उसका नाम है ‘‘साधना’’ जिसका उद्ेश्य इस प्रकार के प्रयत्न करने की प्रेरणा देता है वह कहलाता है ‘मुक्ति’।
(2) बंधनों को तीन प्रकार का बताया गया है, आधिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक। व्यापक रूप से इस भौतिक जगत से जुड़े घर गृहस्थी, कामधंधे आदि के बंधन आधिभौतिक बंधन कहलाते हैं। मानसिक विकृतियॉं, भ्रम, मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, श्रेष्ठता बोध, हीनता बोध, पूर्व जन्म के बचे हुए संस्कार(प्रारब्ध) आधिदैविक अर्थात् मानसिक बंधन कहलाते हैं। चेतना, परमचेतना, परमचेतना के अनुभव न कर पाने की पीड़ा आदि आघ्यात्मिक बंधन कहलाते हैं। आधिभौतिक बंधन तीन प्रकार के होते है। जिन्हें भावगत(हठधर्मिता) बंधन, कालगत (समय से जुड़े)बंधन और आधारगत (स्थानीय)बंधन कहा जाता है। इन तीनों में से सबसे खतरनाक भावगत बंधन होते हैं जो हठधर्मिता और जड़ता के प्रभाव से मनुष्य में जन्म से ही भर दिए जाते हैं। इस प्रकार पाए गए क्रियाकलाप प्रगति के मार्ग से दूर करते हैं। वे जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में अंधविश्वासों के रंगीन प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं होते। जैसे, यह मत करो, वह करोगे तो नर्क में जाओगे आदि। मनुष्य इस प्रकार के हठधर्मी विचारों कोमन में दबाए अपनी आवाज नहीं निकाल पाता और आंसू बहाते हुए अपने को जनबूझकर भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। समय के साथ होने वाले परिवर्तन अनेक प्रकार की समस्याओं से जुड़ते जाते हैं और स्थानिक घटक इन स्थितियों को भी बदल डालते हैं। इतना तक कि लोगों की भावनाएं विकृत हो जाती है और वे उस स्थान,राज्य, या देश को भी छोड़ कर चले जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। यदि एक उदात्त (सार्वभैमिक) विचारधारा को व्यक्तिगत जीवन में उतारा जाए तो सभी प्रकार के मानसिक बंधन दूर हो सकते है। इसी प्रकार जब वह सोचता है कि परमपुरुष मेंरे ही ह,ैं अभिन्न हैं फिर मेरा हृदय उन्हें क्यों अनुभव नहीं कर रहा है, इस प्रकार मैं कब तक उन्हें अनुभव करने से बंचित रहॅूंगा आदि उन्हें न पाने की मानसिक पीड़ा आध्यात्मिक बंधन कहलाते हैं।
(3) जब कोई व्यक्ति इन तीनों प्रकार के बंधनों को दूर करने का उपाय करते हुए अस्थायी सफलता पाता है तो उसे ‘अर्थ’ कहते हैं। जब यह अस्थायी सफलता कुछ अधिक स्तर पर होती है तो उसे ‘मध्यार्थ’ कहते हैं और जब स्थायी सफलता मिल जाती है तो उसे ‘परमार्थ’ कहते हैं। जैसे कोई भूख से तड़प रहा है और उसे कुछ रुपए दे दिए जाएं तो उस दिन की भूख का दुख दूर हो जाएगा पर अगले दिल फिर भूख लगेगी अतः इस दिए गए रुपयों को कहेंगे ‘अर्थ’। अब यदि उसे बहुत सा धन दे दिया जाए तो कुछ दिन की भूख का कष्ट दूर होगा इसलिए यह कहलाएगा ‘मध्यार्थ’ परन्तु ‘परमार्थ’ नहीं। भूख को स्थायी रूप से दूर करने के लिए भूमि, जल, बीज और खेती की सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना होगी और साथ ही अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए यह प्रार्थना परमात्मा से करना होगी कि हे प्रभो! आपने हमें अर्थ और मध्यार्थ तो दिया है परन्तु अंतिम रूप से सफलता की कुंजी तो आपके हाथ में ही है। अर्थात् परमार्थ तो आपके पास ही है, बिना उसके हम बंधनों से मुक्त कैसे होंगे।
(4) मुक्ति के बाद पूर्वोक्त श्लोक में आता है ‘तपन’। यह शब्द, क्रिया ‘तप’ और प्रत्यय ‘अनट’ के मेल से बनता है। इसका अर्थ है ‘तपाना’। किसी समय तपना और तपाना आवश्यक हो सकते हैं परन्तु हमेशा नहीं। बोलचाल की भाषा में तपन का अर्थ है वह कार्य करना जो शरीर और मन को गर्म करता है। यह दो प्रकार से हो सकता है पहला यदि मन और शरीर किसी गर्म वस्तु या स अनुभूति के संपर्क में आए या शारीरिक परिश्रम जिसमें अंगों का व्यायाम हो तो शरीर या मन गर्म हो सकता है। तपः और तपन की मूल क्रिया एक ही है परन्तु तपः विशेष प्रकार से उपयोग किया जाता है अर्थात् ‘ दूसरों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए स्वयं को भौतिक और मानसिक कष्टों के साथ जोड़ लेना’। इतना ही नहीं उन कठिनाइयों को इस प्रकार पकड़ कर रखना कि मन और शरीर गर्म हो जाए। जब किसी हठधर्मी (डोग्मा प्रभावित) व्यक्ति की भावनाएं लगातार उत्प्रेरित की जाती हैं तो उसका मन गर्म हो जाता है और उसके नर्वसैल और नर्व फाइबर के बीच सूक्ष्म संयोजन हो जाता है और वह अपनी शान्त मनोभावना को छोड़ कर अमानवीय गतिविधियों में लग जाता है। देखा जाता है कि जो लोग डोग्मा से प्रभावित होते हैं उनका मन भाषा, लेखन और चित्रों को देखकर जल्दी ही गर्म हों जाता है। कुछ लोग कष्टदायी तपस्या, जैसे लंबे समय तक हाथ ऊपर किए खड़े रहना, या पैर ऊपर किए सिर नीचे किए रहना, या चारों ओर आग का घेरा बनाकर बीच में बैठना आदि में जुटे रहते हैं। क्या इस स्थिति में उनका मन स्थिर रह सकता है? बाहरी ऊष्मा उनके मन और ष्शरीर के बीच असंतुलन कर गतिरोध करती है। शिव का कहना है कि इन लोगों को परमपपुरुष की समीपता कभी नहीं प्राप्त हो सकती, जो लोग प्रकृति के विरुद्ध आचरण करते हैं वे असामान्य हो जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। शिव का कहना है कि सभी लोग अपने मन की भावनाओं को केवल एक परमसत्ता की ओर ही प्रवाहित करते रहो सभी के सुख दुख अपने मानकर परस्पर मदद करते रहो, ‘संगच्छघ्वं संवदघ्वं सं वो मनांसि जानताम्।’
(5) शिव का कहना है कि ‘तपः’ को यम और नियमों के अन्तर्गत भी रखा गया है परन्तु यह तप पूर्वाक्त तप से भिन्न है। नियम के अन्तर्गत आने वाला ‘तपः’ दूसरों के हित के लिए स्वयं भौतिक कठिनाइयॉ स्वीकार कर लेना है। इस प्रकार के तप से साधारण व्यक्ति भी आध्यात्मिकता के उच्च स्तर पर पहॅुंच जाता है। इस प्रकार का तप भौतिक और मानसिक शुद्धता लाता है और मुक्ति का सुनहला मार्ग खोल देता है।ं
(6) पहले बलि अनुष्ठान के समय ‘होम’ और ‘हवन’ का उपयोगष्अलग अलग महत्व के लिए किया जाता था। सामान्यत बलि अनुष्ठान में होम किसी धार्मिक या सामाजिक समारोह की समाप्ति पर किया जाता था और होम करते समय केवल शुद्ध घी का उपयोग किया जाता था। हवन में शुद्ध घी के साथ साथ विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों का भी उपयोग होता था जो वैदिक देवी देवताओं को प्रसन्न कर उनसे वरदान पाने के लिए किया जाता था। धीरे धीरे इनका यह अन्तर समाप्त हो गया और अब वे एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। लोग सोचते थे कि हवन और होम से उत्पन्न सुगंधित धुआं ऊपर जाकर देवताओं को प्रसन्न करेगा और उनके मन और स्वास्थ्य की क्रियाशालता को बढ़ा कर ईश्वर तक ले जाएगा। शिव का निर्देश है कि सुगंधित धुआं नाक को भले ही आनंदित करे पर उसमें पाए जाने वाले अधजले कार्बन के कण फेंफड़ों के लिए घातक सिद्ध होते है। इसके अलावा उससे आध्यात्मिक उपलब्धि नगणय है। कुछ लोग इससे वायु के शुद्ध होने का तर्क देते हैं, परन्तु सब जानते हैं कि धुंआ वायु को प्रदूषित करता है अतः यह सही नहीं है। इस प्रकार उपयोगी खाद्य सामग्री को आग में जला कर नष्ट करने का कोई औचित्य ही नहीं है और न ही उसका किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक विकास या मुक्ति होने से संबंध है।
(7) शब्द उपवास ,उपसर्ग ‘उप, मूल क्रिया ‘वस’ और प्रत्यय ‘घई’ को मिलाकर बनता है। ‘उप का अर्थ है निकट’ (जैसे उपाध्यक्ष अर्थात् अध्यक्ष के निकट) और ‘वास का अर्थ है निवास करना या बैठना’। इसलिए ‘‘उपवास का अर्थ हुआ निकट वैठना ’’। प्रश्न उठता है कि किसके निकट बैठना? उत्तर है ईश्वर के निकट बैठना। चूंकि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि आध्यात्मिक अभ्यास करके आत्म साक्षात्कार करे। परन्तु उसका मन और शरीर तो पंच भौतिक घटकों से बना होता है जो इस भौतिक जगत से दूर नहीं होना चाहता। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आध्यात्मिक अभ्यास अपने जीवन का प्रारंभिक उद्देश्य मानते हुए सांसारिक जिम्मेवारियों को ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य मानकर करता रहे। परन्तु मनुष्य का मनोविज्ञान यह है कि वह सांसारिक कार्य करते हुए अपने जरीवन के मुख्य उद्देश्य से भटकने लगता है। इतना तक कि वह सांसारिक कामों में ही अपना उत्थान मानने लगता है और फिर उसका पतन हो जाता है। तो अब इसका समाधान क्या है? शिव ने कहा कि ठीक है सामान्य दिनों में वह ऊपर बताए गए अनुसार अपना आध्यात्मिक अभ्यास जारी रखे और संसार के काम भी ,परन्तु कुछ दिनों में केवल आध्यात्मिक साधना ही करे और सांसारिक काम बंद रखे। इन विशेष दिनों को शिव ने ‘उपवास’ का नाम दिया है। अर्थात् इन दिनों में वह केवल ईश्वर के निकट ही रहेगा, उन्हीं का ध्यान, भजन, चिंतन और स्वाध्याय करेगा। परन्तु कालान्तर में इसके साथ मुख्य बातें भूलकर उपवास को निराहार रहने से जोड़ा गया और आडम्बर फैलाया गया कि इससे उनके पूरे खानदान को मरने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा। इस प्रकार के निराहार (वास्तव में फलाहार या अन्य तथाकथित फलाहारी भोजन कर) रहने के अनेक दिनों को चिन्हित कर हर माह में कुछ न कुछ उपवासों को कलेंडर में बताया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिव द्वारा बताए गए ‘उपवास’ को आडम्बर से जोड़ कर उसके पवित्र लक्ष्य को ही नष्ट कर दिया गया है। निराहार रहने से मन और शरीर शुद्ध होता है और साधना के लिए अनुकूल अवसर बनाता है लेकिन साधना को छोड़कर केवल निराहार रहने से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।

(8) शब्द ‘भ्रत’ की मूल क्रिया है ‘भ्र’ इसलिए ‘भ्रत’ का अर्थ होता है जो दूसरों को भोजन कराता है। ‘भ्रता’ का अर्थ है वह जिसे दूसरा कोई भोजन कराता है। इसलिए ‘देहभ्रत’ का अर्थ हुआ जो शरीर को भोजन कराने पर जीवित रहता है। इसलिए हर जीवधारी देहभ्रत है। अब देहभ्रत के पास तो भौतिक और मानसिक बंधन होते हैं वह उनके रहते कैसे मुक्ति पा सकता है? आदर्श जीवों को अवश्य ही तप के साथ साधना करके मुक्ति मिलेगी परन्तु घी, खाद्यान्न, प्राणियों के खून को अग्नि में झोंककर नहीं। इसी प्रकार आडम्बरपूर्ण उपवासों से मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है। तो अब समाधान क्या है? शिव का कहना है कि आदर्श व्यक्ति को अपनी सभी मानसिक प्रवृत्तियां, मानसिक तरंगों के गतिशील प्रवाह को एक बिंदु पर केन्द्रित कर सभी बंधनों के होते हुए भी उस परमसत्ता के साथ मिलाकर एकीकृत करना होगा। इस प्रकार उसका छुद्र ‘मैं’ वृहद ‘मैं’ में मिलकर एक हो जाएगा जिसे सम्पूर्ण समर्पण कहते हैं। इस आल्हादित स्थिति में उसे अनुभव होता है कि करोड़ों व्यक्तिगत सत्ताएं उस महासागरीय ब्रह्म के भीतर मात्र बुलबुले हैं। इस स्थिति को ही ‘ब्रह्मैवाहम’ या ‘ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म ही हॅूं ) कहते हैं जो आत्म साक्षात्कार की अवस्था है। इसीलिए यह कहा गया है कि यदि आदर्श मनुष्य साधना के माध्यम से परम सत्ता के सक्ष सम्पूर्ण समर्पण कर सके तो इस शरीर में रहते हुए भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है। परन्तु भले ही कुछ पाने के लोभ से उसने हजारों किताबें पढ़ी हों, असंख्य आडम्बरी व्रत उपवास किए हों, हवन अग्नि में हजारों बलि दे दी हों, उसे मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होने की लेश मात्र भी आशा नहीं करना चाहिए।




430 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

 

भगवान शिव का दूसरा उपदेश है कि :-

‘‘ आत्मज्ञानम विदुर्ज्ञानम ज्ञानान्यानि यानि तु,
तानि ज्ञानावभासानि सारस्य नैव वोधनात्।’’

अर्थात्, आत्मज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। अन्य सभी ज्ञान केवल ज्ञान की छायामात्र हैं; वे सत्य की अनुभूति की ओर नहीं ले जाते।

स्पष्टीकरण :
(1) ज्ञान क्या है? प्राचीन संस्कृत का मूल क्रिया ‘ज्ञा’ में ‘अनट’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘ज्ञान’ शब्द निष्पन्न होता है और, जानने की प्रक्रिया क्या है? परिवेशगत किसी पंच भौतिक तत्व या उससे उत्सर्जित तन्मात्र के आन्तरिक अधिग्रहण को जानने की क्रिया कहते है। दूसरे शब्दों में वस्तुनिष्ठता का विषयीकरण ही ज्ञान का संकाय कहलाता है और वे इकाइयॉं जिन्हें विषयगत किया जा रहा होता है, उन्हें वस्तुनिष्ठता कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या मानसिक संसार की किसी वस्तुनिष्ठता को ग्रहण कर विषयीकृत किया जा सकता है? उत्तर है हॉं। अस्तित्वगत ‘‘मैं’’ की अनुभूति को स्वयं के अलावा भीतरी और बाहरी संसार के सभी अन्य अस्तित्व उसकी जानने की सीमा में आते हैं।
(2) शिव ने समझाया है कि मानसिक संसार का सबसे पहला स्तर है ‘अपने अस्तित्व की सूक्ष्मतम भावना’ जिसकी क्रियाशीलता की साक्षीसत्ता को कहते हैं ‘चितिसत्ता’। जब हम कहते हैं कि ‘‘ मैं जानता हॅूं कि मेरा अस्तित्व है’’ तो यहॉं मेरा अस्तित्व है का ‘‘मैं’’ मन का पहला स्तर है और उसका साक्ष्य देता है ‘मैं जानता हॅूं’ का ‘मैं’ । इससे स्पष्ट है कि मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता मन के प्रथम स्तर से अधिक सूक्ष्म है, वास्तव में वह सबसे अधिक सूक्ष्म होती है। जब मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता के रूपमें चितिसत्ता कार्य करती है तो उसे ‘‘सकलचितिसत्ता’’ और जब नहीं करती तब उसे ‘‘निष्कलचितिसत्ता’’ कहते है। जब यह चितिसत्ता समग्र ब्रह्मांड की साक्षी सत्ता के रूपमें कार्य करती हैं तो इसे कहते हैं ‘प्रत्यगात्मा’ जो कि गुणों से प्रभावित होकर ‘सकल’ कहलाती है और जब गुणों से प्रभावित नहीं होती तब ‘निष्कल’।
(3) ज्ञानात्मक सत्ता अर्थात् मन का परमज्ञाता व्यावहारिक क्षेत्र में ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है? वास्तव में जब प्रथम स्तर का मन अर्थात् आस्तित्विक ‘मैं’ का मैं जब ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, अर्थात् मेरा अस्तित्व है ’’ के ‘मैं’ का चिंतन करता है तो वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो जाता है और अंततः ज्ञानात्मक संता में विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञानात्मक सत्ता को जानने का अर्थ है उसमें मिलकर एक हो जाना अर्थात् नमक के पुतले की तरह समुद्र में घुलकर एक हो जाना। समुद्र को नापने नमक का पुतला वापस आकर नहीं बता सकता कि समुद्र कितना गहरा है। ज्ञानात्मक सत्ता से इस तरह का एक हो जाना ही ‘आत्मज्ञान’ कहलाता है। सैद्धान्तिक रूपसे यही आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है अन्य ज्ञान और सभी सांसारिक ज्ञान केवल इस ज्ञान की छाया और उपछाया हैं।
(4) सामान्यतः तथ्यात्मक ज्ञान को केवल जानना कहा जाता है पर वह वास्तविक नहीं है। सांसारिक ज्ञान के लिए संस्कृत की क्रिया ‘विद’ का उपयोग करना अधिक न्यायसंगत है। ‘वद’ को मुख्यतः दो भागों में प्रयुक्त किया जाता हें पहला ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या अपरिमित से परिमित और परिमित से अपरिमित का ज्ञान कराती है। पराविद्या मनुष्य को आत्मज्ञान की उस सुनहली रेखा तक ले जाती है जो तथ्यात्मक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा से आगे सर्वज्ञाता ज्ञान संकाय का मधुर स्मरण आता है। अपराविद्या सांसारिक ज्ञान कराती है। पराविद्यज मोक्ष तक ले जाती है जबकि अपराविद्या इसी संसार में ही फॅंसाती है। इसीलिए ज्ञानियों का कहना है कि मनुष्य को ‘परा और अपरा’ दोनों के बीच संतुलन स्थापित करके चलना चाहिए । इसी लिए शिव का कहना है कि मनुष्य का उद्देश्य होना चाहिए ‘‘आत्म मोक्षार्थं जगद हिताय च।’’
(5) अतः आत्मज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है परन्तु मनुष्य को परा और अपनर दोनों का उचित उपयोग करना होगा। कोई सोचे कि वह तो केवल परविद्या के सहारे साधना करके मोक्ष पा लेगा तो वह गलत है, इसी प्रकार कोई कहे कि वह तो अपना विद्या के सहारे भौतिक जगत की सर्व सुख सुविधाऐं ही पाता रहेगा तो वह भी गलत है। वास्तव में पराविद्या हमें परमार्थ की ओर तो अपराविद्या हमें अर्थ की ओर ले जाती है। चूंकि मानव जीवन के लिए दोनों ही अनिवार्य हैं अतः ज्ञानी लोग दोनों विद्याओं के उचित समन्वय के साथ ही अपना जीवन गुजारते है। इसलिए जब हम साधना में अधिक सूक्ष्मता की ओर बढ़ने लगते हैं तो अनावश्यक तथ्यों को छोड़ते जाते हैं और हम कहते हैं कि हम निस्सार से सार तत्व की ओर जा रहे है। इस प्रकार बढ़ते हुए जब तथ्यात्मक संसार में हम सूक्ष्मतम विन्दु पा लेते हैं तो हम अनुभव करते हैं कि सर्वाधिक सारतत्व है ‘ब्रह्मांण्डीय मन’ (दार्शनिक भाषा में भूमा मन) और परमाप्रकृति। यह भी जान लेना आवश्यक है कि तत्यात्मक ज्ञान से वह असाधारण शक्ति को नहीं पाया जा सकता जो सीधे परमसत्ता के पास ले जा सके। उस शक्ति को पाने के लिए साधना से प्राप्त अखंड ज्ञान की आवश्यकता होती है, अब जब परमसत्ता और परमा प्रकृति का ये हाल है तो उस परमसत्ता को कैसे पाया जा सकता है? इसका उत्तर ज्ञानीजन देते हैं कि गुरु ब्रह्म, तारक ब्रह्म ही वह सारात्सार हैं जो उस परमसत्ता तक ले जाने में पुल का काम करते हैं। इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि भूमा मन और परमा प्रकृति को उच्च स्तारीय ज्ञान से पाया जा सकता है परन्तु उस परमसत्ता को नहीं। उस परमसत्ता को पाने के लिए मधुर हृदय, बुद्धि और स्वतंत्र भावना प्रवाह की आवश्यकता होती है जिसकी अनुभूति में मानव चिल्ला उठता है ‘प्रभो! तुम ही हो केवल तुम्हारा ही अस्त्ति्व है मैं कुछ नहीं हॅूं। इसलिए हृदय की अंतिम मधुर अनुभूति आत्मज्ञान ही है।

429 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

 

भगवान शिव का पहला उपदेश है कि :-
‘एकम् ज्ञानम् नित्यम् आद्यन्तशून्यम् नान्यात् किंचित वर्तते वस्तुसत्यम्।
तयोर्भेदोस्मिन इंद्रियोदाधिना वै ज्ञानस्याद्यम् भास्यते नान्यथैव।’’

अर्थात्, ‘’केवल एक अलौकिक ज्ञान जिसका कोई न आदि है और न अन्त’’ वही एकमात्र परम सत्य है अन्य कोई वस्तु नहीं। क्योंकि, जब ‘उपाधि’ अर्थात् इंद्रियों की तन्मात्राओं के कंपनों को ग्रहण या प्रसारित करने की विशेष शक्ति को निलंबित करके आन्तरिक तथा वाह्य संसार को एक दूसरे में मिलाकर एक कर दिया जाता है तब केवल एक ही सत्ता का ज्ञान रह जाता है।

स्पष्टीकरण :
(1) इसलिए शिव का कहना है कि जो समय, स्थान और पात्र के आधार पर अपना परिवर्तन कर लेती है उसे अविद्या कहते हैं और जो इन तीनों घटकों से अप्रभावित रहती है उसे विद्या कहते हैं। अविद्या के प्रभाव से ही हमें अस्थायी वस्तु स्थायी, अशुद्ध वस्तु शुद्ध, दुख में सुख और अनाध्यात्मिक में आध्यात्मिक लक्षण दिखाई देने लगते हैं। परन्तु विद्या का प्रभाव सदा ही स्थायी होता है। अविद्या की दोषपूर्ण मनोविज्ञान कभी कभी अज्ञानता से या कभी जानबूझकर भी हमेशा अस्थायित्व को ही सब कुछ मानने के लिए विवश कर देती है। परन्तु विद्या एक मात्र परमसत्ता की ओर ले जाने की प्रेरणा देती है जो कि सदा स्थायी हैं। मनुष्य का लक्ष्य केवल इस स्थायी सत्ता को पाने का होना चाहिए अन्य का नहीं। इस प्रकार मन जब सदा ही परमसत्ता के बारे में सोचेगा तो एक समय ऐसा आएगा कि वह उस अनन्त सत्ता के भाव में तल्लीन होकर मस्त हो जाएगा और अपनी सीमाओं को भूलकर अन्तहीन शान्ति का अनुभव करेगा। मनुष्य की यह सर्वोच्च उपलब्धि है।
(2) जब कोई सीमित जानकारी वाला व्यक्ति असीमित की जानकारी पा लेता है तो वह गुणहीन और कर्महीन हो जाता है। भले ही वह इस धरती पर असंख्य सीमित वस्तुओं के बीच बैठा हो उसका मन उस अनन्त सत्ता के रंग में ही रंग जाएगा और अन्य लोग उसे पागल समझने लगेंगे। परन्तु केवल इतने से ही उसे पूर्ण अनुभूति नहीं होगी। इसीलिए शिव ने कहा है कि पूर्णानुभूति के लिए परमसत्ता अर्थात् परमपुरुष के समक्ष आत्मसमर्पण करना होता है। इसीलिए परमसत्ता को आदि अंत विहीन कहा गया है।
(3) जब कोई अस्तित्व सत, रज और तम के संयुक्त बंधन से निर्मित होता है तो उसे ‘वस्तु’ या ‘मैटर’ कहते हैं। जो इन तीनों से मुक्त होता है उसे ‘अवस्तु’ या ‘नानमैटर’ कहते हैं। इसलिए शिव कहते हैं कि जब उस परमसत्ता का कोई कर्म नहीं होता तब उसे अवस्तु कहा जाता है परन्तु जब वह कर्म से संयुक्त होता है तब उसे वस्तु कहा जाता है। प्रश्न उठता है कैसी वस्तु? वास्तव में जब कोई अस्तित्व चाहे वह आकार में अभिव्यक्त हो या निराकार उसमें कुछ न कुछ गुण होते हैं परन्तु जब गुण होते हुए भी वे अन्य निर्मित लोगों को अभिव्यक्त नहीं होते तो उस अवस्था को ‘सदवस्तु’ कहते हैं। परन्तु जब यही, लोगों की धारणा और अवधारणा में आने लगता है तो उसे ‘पदार्थ’ कहते हैं। चूंकि मानव मन और बुद्धि धारणा के विस्तार से भी बहुत ऊपर तक जा सकते है इसीलिए अनेक विद्वान मन को एकादश इंद्रिय भी कहते हैं। अतः उपोत्पादन के विस्तार के समय बुद्धि की प्रकृति अज्ञात ‘सदवस्तु’ को ज्ञात या अर्धज्ञात पदार्थ में बदलने की होती है। यही कारण है कि प्रकृति दोनों (अर्थात् जड़ता और सूक्ष्मता) ओर होती है। अतः जब पदार्थ स्वयं ही क्रमशः परमसत्ता की ओर रूपान्तरित होने लगता है तो कहा जाता है कि प्राकृत भाव उस पदार्थ को सूक्ष्मता की ओर क्रमशः ले जा रहा है। यही कारण है कि प्रकृति को ‘नित्यनिवृत्ता’ अर्थात् सतत परिवर्तनशील कहा जाता है।
(4) शिव ने कहा ‘वस्तुसत्यम्’ अर्थात् सत्य वस्तु। अब प्रश्न यह है कि ‘सत्य वस्तु’ और ‘सद् वस्तु’ क्या एक ही हैं? इसके उत्तर में शिव का स्पष्टीकरण है कि हमारे इस संसार में ये तीन घटक पाए जाते हैं। सद्वस्तु यथार्थ में, सद्वस्तु सूक्ष्मता में और सद्वस्तु आभास में। इनमें से ‘सद्वस्तु सूक्ष्मता में’ वाला घटक हमारी धारणा और अवधारणा के सीमा क्षेत्र से परे है। ‘सद्वस्तु आभास में’ वाला घटक हमारी धारणा में आता है जिसे हम अपने बौद्धिक विश्लेषण और वैज्ञानिक अनुसंधान से पदार्थ में बदल सकते है। ‘सद्वस्तु यथार्थ में’ वाला घटक हमारे आभास क्षेत्र में होता है परन्तु वह हमारी धारणा में नहीं आता उसे केवल अनुभव किया जा सकता है पर पदार्थ में नहीं बदला जा सकता। इसे हम अपने हृदय की अनुभति में ला सकते हैं परन्तु उसे इस संसार में नहीं। यदि हम उसे इस संसार में लाने का प्रयास करते हैं तो हमारा पूरा अस्तित्व पारमार्थिक सत्ता में ही मिल जाता है। इस प्रकार इस सद्वस्तु सूक्ष्मता वाला घटक अन्ततः उस व्यक्ति के अस्तित्व को ‘‘प्रत्यक सत्ता’’ अर्थात् साक्षी सत्ता में मिला देता है जो अवस्तु अर्थात् नानमैटर है। संसार के अन्य सभी अस्तित्व पदार्थ हैं जिनमें कुछ अवधारणा में कुछ धारणा और अवधारणा दोनों में आते हैं। इसलिए सद्वस्तु जो किसी भी प्रकार का रूपान्तरण नहीं करती वही वास्तविक सत्य है। यदि हम इसके अलावा किसी अन्य को सत्य मानते हैं तो हम ‘दर्शन’ को निम्न स्तर की ओर ढकेल देंगे और मानव बुद्धि पर संकट छा जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘नान्यात किंचित वर्तते वस्तु सत्यम’’ अर्थात् ‘सत्य वस्तु के अलावा किसी का अस्तित्व नहीं है’।
(5) शिव ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘इंद्र’ का अर्थ है, ‘‘वह घटक जो किसी क्रिया में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है’’। इसलिए वे जो किसी के अस्तित्व को क्रियाशील बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं उन्हें ‘इंद्रियॉं’ कहते हैं। इंद्रियॉं किसी भी जीव को तन्मात्राओं (उस परमसत्ता की सूक्ष्मतम मात्रा) के द्वारा आन्तरिक और बाह्य दोनों स्थितियों में मन में उत्पन्न होने वाले विचारों को ग्रहण करती हैं और प्रसारित करती हैं और उसके बंधनकारी बलों को प्रभावित करती हैं। ब्रह्म चक्र की प्रतिसंचर क्रिया में इंद्रियॉं इस साहचर्य को विकसित कर लेती हैं। इंद्रियों का इस प्रकार का साहचर्य उनकी ‘उपाधी’ कहलाता है। इसी उपाधी के कारण कोई भी जीवधारी उस ‘एक’ परमसत्ता को अनेक रूपों में देखता है। अतः उस एक परमसत्ता से निकलने वाले असंख्य कंपनों से असंख्य आकार प्रकारों से जहॉं एक ओर जीव आनंदित होता है वहीं वह एक परमसत्ता को अनेक होने की अवधारणा देने की गलती भी कर बैठता है। उसकी इस गलत अवधारणा से वह सुख और दुख दोनों पाता है। अर्थात् पूर्णता अपूर्णता मधुरता और विषैलापन सभी कुछ इंद्रियों की उपाधी से ही अनुभव होता है।
(6) इसलिए पहले स्तर पर बाहरी संसार के विभिन्न रंगों में वह अपने को सुखी मानने लगता है इसलिए जब उसे उसके भीतरी संसार के बारे में कुछ भी कहा जाता है तो उसे क्रोध आता है और कहता है कि मैं यहीं ठीक हॅू। वह इस भौतिक संसार से प्रभावित होकर वह कहने लगता है ‘‘ केवल मेरा ही अस्तित्व ’’ है। परन्तु जब जीवन के उतार चढ़ाव उसे असहज बनाते हैं तो वह ‘कारण और प्रभाव’ के नियम का विश्लेषण करने लगता है और पाता है कि मुझसे कोई अधिक बड़ी सत्ता है जो मेरे घायल हृदय को गुणकारी मरहम लगाकर ठीक कर सकती है। वह सत्ता उसके पाने की सीमा में हो या नहीं वह उसे अपने दुखों से मुक्ति पाने के लिए खोजने लगता है और कहता है ‘‘त्राहि माम, पाहि माम’’। इस स्थिति में वह अपने मन की तरंगों को परिवर्तित कर कहने लगता है ‘‘ हे प्रभो ! मैं हॅूं और तुम भी हो’’। जब यह संबंध उसकी आशा को पूर्ण न कर असंतोष को बढ़ाने लगता है और बाहरी संसार से सब आशाऐं छिन्न भिन्न हो जाती हैं तो वह हृदय के औरष्भीतर जाकर इस समस्या को हल करने का उपाय खोजता है। फिर भी वह कुछ नहीं पाता तो वह रोता है सिर पीटता है और उस अज्ञात सत्ता से कह उठता है, ‘परमपुरुष ही जानने योग्य सत्ता हैं जो सभी को दुखों से दूर कर प्रकाशित मार्ग की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते है। वह इस स्तर पर आनंदित होकर कह उठता है, ’‘‘हे प्रभो! तुम हो और मैं भी हॅूं।’’ इस प्रकार जब अपने हृदय के भीतर वह और अधिक गहराई में जाता है तो उसका मन इस बाहरी संसार के आकर्षण से दूर होकर भीतर और बाहर दोनों में एकत्व का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार उसे समझ में आ जाता है कि इंद्रियों का तन्मात्राओं द्वारा आन्तरिक और वाह्य खेल और कुछ नहीं ‘माया’ है। इस प्रकार वह आन्तरिक और बाहरी संसार में अपने एकत्व का अनुभव करते ही चिल्ला उठता है ‘‘प्रभो! केवल तुम ही हो, केवल तुम एकमेव तुम।’’ शिव के पूर्वोक्त श्लोक में इसी तथ्य को एकमेव सत्य ‘‘एकम् ज्ञानम् नित्यम् आद्यन्तशून्यम्’’ कहा गया है।