भगवान शिव का चौथा उपदेश है कि :-
‘‘ न मुक्तिः शास्त्रव्याख्याने न मुक्तिर्विधिपूजने, केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः’’
अर्थात्, न तो केवल शास्त्रों की व्याख्या करने से मुक्ति मिलती है और न ही देवताओं की शास्त्रों में वर्णित विधियों से पूजा करने से । वह, जो निष्ठापूर्वक बह्म के प्रति आत्मसमर्पण कर देता है उसे ही मुक्ति मिलती है इसमें कोई संशय नहीं है।
स्पष्टीकरण :
(1) ‘शास्त्रव्याख्याने’ अर्थात् शास्त्र की व्याख्या करने से। शास्त्र क्या है? ‘शासनात् तारयेत् यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’ अर्थात् वह जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति प्रदान करता है वह शास्त्र के नाम से जाना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक संरचना का कोई न कोई नियंत्रक बल अवश्य होता है जिसके अभाव में वह संरचना विकृत होकर नष्ट हो जाती है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक संरचना के ये नियंत्रक बल तीन प्रकार के होते है क्योंकि किसी भी अस्तित्व के तीन ही घटक होते हैं। भौतिक जगत के जीवित प्राणी या यंत्र सभी का नियंत्रण मनुष्य करता है। मानसिक जगत में नियंत्रक बल होता है ‘यथार्थ और व्यावहारिक दर्शन’, और आध्यात्मिक जगत में नियंत्रक बल होता है ’परमात्मा की अनुभूति करने के तीब्र लालसा’। इस प्रकार की तीब्र लालसा वाले व्यक्ति कहा करते हैं कि मैं इस संसार को जीत लूंगा तलवार के बल पर नहीं बल्कि परमात्मा की अनुभूति के द्वारा। तलवार के द्वारा पाई जीत तो तलवार में जंग लगने के पहले ही समाप्त हो जाती है, वह क्षणिक है। तो इस भौतिक जगत में चाहे कोई व्यक्ति नियंत्रक हो या मशीन यानि यंत्र वह अल्प समय के लिए ही यह कर सकता है अधिक दिन तक नहीं क्योंकि मनुष्य और मशीन दोनों की आयु सीमित है। परन्तु भौतिक जगत में नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि यहॉं अनेक लोग पशु की तरह जीवन जीते हुए पागल कुत्ते की तरह दूसरों के मुंह का कौर छीन लेते हैं। मनुष्य के शरीर में रहते हुए भी वे जड़ता से भरे भ्रामक सिद्धान्तों का पालन कते हैं और कट्टरता को बढ़ावा देकर धन के भूखे यह लोग असंगठित,सरल और निरपराधी लोगों की आवाज सदा के लिए दबा कर धीरे धीरे मौत की ओर धकेलते रहते हैं, वे अपनी आन्तरिक इच्छाओं को कभी किसी से कह ही नहीं पाते। इसीलिए भौतिक जगत में एक अनुशासन की संहिता पुस्तक के रूप में आवश्यक हो जाती है; बल्कि आध्यात्मिक और कल्याणकारी व्यक्ति पुस्तक की अपेक्षा इस क्षेत्र में अधिक प्रभावी होता है। भौतिक जगत में कोई भी संरचना हमेशा नहीं बनी रहती वह धीरे धीरे रूपान्तरित होती रही है। अतः यदि लिखित संहिता की जगह कोई नियंत्रणकर्ता अपने प्रशासनिक अधिकार का उपयोग करके किसी संरचना को बनाए रचाना चाहता है तो उसे शास्त्र या संहिता की तरह ही कल्याणकारी होना चाहिए। कल्याणकारी या अकल्याणकारी होने से तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति अपने आदर्शों से एक इंच भी नहीं हटेगा और न ही किसी को भी आदर्श से दूर हटने देगा। यदि वह जनता की आलोचना पर ध्यान देगा तो वह कभी भी मानव कल्याण नहीं कर सकेगा। इसलिए संहिता की व्याख्या करने वाले नहीं उसके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले सत्यनिष्ठ व्यक्ति ही भौतिक क्षेत्र में नियंत्रक हो सकते है।
(2) मानसिक क्षेत्र की संरचनाएं विशेष प्रकार के आदर्शों पर आधारित होती हैं। ये आदर्श या तो लिखित निर्देशों के रूप में होते है या दूसरों को मार्गदर्शन कर सकने वाला असाधारण व्यक्ति। परतु व्यावहारिक क्षेत्र में क्या होता है? यह आदर्श दो प्रकार के पाए जाते हैं आंतरिक और बाह्य । जब यह आदर्श इस प्रकार प्रचारित किए जाते हैं कि उनकी आन्तरिक मधुरता बाहर आकर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और बाहर सुसंतुलन स्थापित कर सके तो ये आदर्श स्थायी हो जाते है। यह कहना उचित नहीं है कि इस प्रकार के आदर्श कभी स्थापित नहीं किए जा सकते परन्तु हॉं इनका पालन करने और अनुशासन में लाने वालों को पद पद पर विपरीत आघातों का सामना करना पड़ता है। विरोध से यहॉं तात्पर्य यह है कि वह हमारी प्रगति में सहायक होता है । वास्तव में यह विरोध आदर्श दर्शन से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयॉं ही होती हैं जिन्हें उसके सही जानकार ही समाधान कर पाते हैं। हम जानते हैं कि पूर्वकाल में अनेक महापुरुष अपना अपना दर्शन लेकर आए परन्तु जब विरोध का सामना हुआ तो वे स्वयं आडम्बर फैलाने लगे, इस स्थिति में अन्य लोगों से आदर्श पर चलने की क्या अपेक्षा रखी जाए। इसलिए शिव का कहना है कि भौतिक जगत की अपेक्षा चूंकि मनुष्य अपने मानसिक कार्यों, आशाओं और अपेक्षाओं में अधिक उलझा रहता है अतः उसे अपने मानसिक क्षेत्र में विस्तार करने के अनेक अवसर होते हैं परन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में न केवल एक व्यक्ति बल्कि पूरा समाज निराशा के चौराहे पर खड़ा नष्ट हो जाता है। इसलिए ये आडम्बरी लोग जो शास्त्र का व्याख्यान लच्छे पुच्छेदार भाषा में करते देखे जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। अतः मानसिक संसार में नियंत्रण करने वाले व्यक्ति में भौतिक संसार की अपेक्षा आदर्श का कठोरता से पालन करने और कराने का विशेष गुण होना चाहिए।ष्
(3) शिव का कहना है कि शास्त्र की तरह नियंत्रण करने वाले वाले का व्यक्तित्व लिखी हुई पुस्तक से भी प्रबल होना चाहिए और मानसिक स्तर पर उसे सब कुछ समाहित किए हुए दर्शन शास्त्र में प्रवीण होना चाहिए। समाज में इस दर्शन को प्रचारित करने वालों का उत्तम चरित्र और बुद्धिमान होना चाहिए । यदि दर्शन में कुछ कमी है और दर्शन के प्रचारक में कोई कमी नहीं है तो वह समाज में अपने जीवन में समाज की कोई क्षति नहीं कर सकता। परन्तु यदि उस व्याख्याकार व्यक्ति में दोष हैं परन्तु दर्शन शास्त्र में नहीं तो वह दर्शग्न किताबों में ही रह जाएगा और समाज पतन के गर्त में डूब जाएगा। पूर्व में अनेक दर्शन आए जिन्होंने मानव का मन उन्नत किया पर वे उनके मनों में पहले से जमे हुए विचारों को दूर नहीं कर पाए। इसलिए वे जो समाज में स्थायी दर्शन स्थापित करना चाहते हैं उन्हें बड़ी जिम्मेवारी उठाना होगी। इसमें सफलता तभी मिलेगी जब उनमें जिम्मेदारी का अनुभव कराने वाला उन्नत दार्शनिक ज्ञान और मानवता के प्रति निर्दोष प्रेम का सुसामंजस्य हो। वे दर्शन जो सिखाते हैं कि केवल उनकी समाज के लोग ही परमात्मा की प्रिय संताने हैं अन्य सभी अभिशप्त और अवांछित वे दोषपूर्ण दर्शन कहलाते हैं । उनके व्याख्याकार दूसरे समाज के लोगों को मार डालने को पवित्र कार्य मानते हैं। इसी प्रकार की असत्य विचारधारा के लोग जनसाधारण का धर्म के नाम पर शोषण करते हैं और कहते हैं कि यदि हम अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हैं तो क्या दोष है? इस प्रकार की विचारधारा ने लाखों लागों को मार डाला और असंख्य केवल अपना अस्थिपंजर लादे हुए हैं। इससे अनेक लोगों को आदर्श से भटका कर धर्मविहीन कर डाला है। इस प्रकार की छद्म विचारधारा मानवता की घातक है अतः अवांछनीय है।
(4) सभी युगों और सभी क्षेत्रों में यह सार्वभौमिक सत्य माना गया है कि मानव जीवन की मुख्यधारा ‘धर्म’ है। वही जीवधारियों का उपक्रम है, धन है और जीवन यात्रा का मार्गदर्शक। व्यापक रूप से सभी जड़ ओर चेतन का अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म किसी वस्तु के अस्तित्व को प्रकट करता है। मानव का धर्म अन्य प्राणियों की तुलना में जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश पाकर व्यापक होता है। इसलिए वास्तव में धर्म मनुष्यों का सच्चा मार्गदर्शक, नियंत्रक, प्रेरक और रक्षक होता है। इतना ही नहीं वह उत्तम और व्यापक आदर्श का संवाहक होता है जो मनुष्य को आध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट और साहसिक दिशा बतलाता है और व्यक्तिगत तथा सामाजिक और आध्यात्मिक गतिविधियों में सामूहिक रूप से ईश्वर के निकट ले जाने में प्रेरक होता है। अतः शिव का निर्देश है कि जिसमें इन सब शर्तों का समावेश नहीं पाया जाता उसे शास्त्र नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार के ग्रंथों में शास्त्र की इस परिभाषा की चेतना नहीं होती ‘‘ शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’’(जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति दिलाता है वही शास्त्र कहलाता है)। इसप्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में आवश्यक शास्त्र को ‘धर्मशास्त्र’ कहते हैं और गुरु के रूप में ब्रह्म उसका नियंत्रक होता है। मानसिक संसार का अन्य घटक होता है दार्शनिक तथ्य, लिखित रूप में इसे ‘दर्शनशास्त्र’ कहते हैं इसमें किसी भी प्रकार का अंधानुकरण या जड़ता मूलक तत्व नहीं होना चाहिए। इससे जुड़ा हुआ होता है दर्शन प्रवक्ता जो सही ढंग से दार्शनिक तथ्यों को समझ कर जनसामान्य को समझा सके। भूतकाल में दार्शनिक तथ्यों की गलत व्याख्या का परिणाम मानवता को हजारों साल तक भोगना पड़ा (जैसे, पशु बलि, नर बलि और सती प्रथा)। इस पार्थिव जगत में जो शास्त्र मानव जीवन के मनोवैज्ञानिक,राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक तथ्यों से प्रसारित होने वाली तरंगों को व्यवस्थित रूप नियंत्रित कर सकता है उसे ‘सामाज शास्त्र’ कहते हैं। यह सामाजिक संहिता मानव मन में सामाजिक चेतना को उत्पन्न करती है।
जब किसी श्लोक, सूत्र या तथ्य को किसी प्रश्नकर्ता को समुचित महत्वपूर्ण ढंग से समझाया जाता है तो उसे व्याख्या या व्याख्यान कहते हैं। इसमें जिन ष्शब्दों को सामान्य व्याख्याकारों द्वारा छोड़ दिया जाता है उन्हें सही व्याख्या करने वाला उचित कथानक के साथ प्रश्नकर्ता के सामने महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। आज धर्मशास्त्र, धर्मगुरु, दर्शन शास्त्र, दर्शन प्रवक्ता, समाजशास्त्र, समाजनेता और समाज आदर्श को उचित प्रकार से समझाना ही शास्त्र व्याख्यान का मूल उद्देश्य है। यदि उसे उचित प्रकार से नहीं समझाया जाता है तो लोग सही ढंग से तथ्य को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इसलिए शास्त्र को योग्य विद्वान, स्पर्धावान दार्शनिक और गहराई से सोच सकने वाले व्यक्ति से ही व्याख्या कराना चाहिए। कुछ लोग न तो विद्वान होते हैं न ही दार्शनिक और न गहराई से सोच सकने वाले फिर भी वे जीवन यापन के लिए शास्त्र व्याख्या करते देखे जाते हैं , इतना ही नहीं कुछ लोग शास्त्र व्याख्या इसलिए करते हैं कि उन्हें समाज में उत्कृष्ट स्तर का ज्ञाता और शोधकर्ता माना जा सके, कुछ व्याख्याता लोगों की मान्यता पाकर घमंड से फूल जाते हैं, इस प्रकार के लोगों से शिव का स्पष्ट कहना है कि ‘न मुक्तिः शास्त्र व्याख्याने’ ऐसे व्याख्यकारों को मुक्ति नही मिल सकती।
(5) ‘विधि’ का अर्थ है अनुशासन संहिता। अनुशासन क्या है? ‘‘हितार्थे शासनम् इति अनुशासनम्।’’ अर्थात् अनियमितता के विरुद्ध नियमितता, अनुशासनहीनता के विरुद्ध अनुशासन, नैतिक ह्रास के विरुद्ध नैतिक सुधार, अपमानजनक और विश्लेष्णात्मक गति को सम्मानजनक और संश्लेष्णात्मक गति द्वारा संयोजित करने के लिए जो नियंत्रण या शासन किया जाता है उसे अनुशासन कहते हैं। अनुशासन भी अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होता है, किसी को छोटे अपराध के लिए कड़ा दंड और किसी को बड़े अपराध के लिए छोटा दंड मिलता है। शिव का कहना है कि यह उचित नहीं है ‘जब ज्ञानी, कुशाग्र बुद्धि और संतुलित मस्तिष्क के विद्वान लोग न्याय पर आधारित अनुशासन संहिता का निर्माण करते हैं तो उसे ‘‘विधि’’ कहते हैं।श्परन्तु क्रिया की प्रतिक्रिया, अधिकार पाने पर घमंड, अपने को शक्तिमान कर्ता मानकर उद्दंडता करना आदि के संबंध में कितना ही प्रकांड विद्वान हो वह कानून नहीं बना सकता, केवल परमपुरुष ही इस संबंध में नियम कानून बना सकते है। इन्हें ईश्वरीय विधान कहते हैं जिनके माध्यम से वह परमसत्ता पूरे ब्रह्मांड पर नियंत्रण करता है। इन्हें वह स्वयं नहीं तोड़ सकता, ‘‘विधिलिपिः अखंडनीया विधातापि खंडने असमर्थः’’। चूंकि परमपुरुष ने ही यह अखंडनीय नियम बनाए हैं अतः उनका एक नाम है ‘विधाता’।
हम सभी जानते हैं कि जब कोई विपत्ति आ घेरती है तो हम सिपर पीटते हैं आंसू बहाते हैं और कहने लगते हैं ‘ हे विधाता यह तूने क्या किया, मुझे ही पूरी दुनिया के कष्ट क्यों दे रहा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है’ आदि। परन्तु दुखों का सामना करने पर इस प्रकार भगवान को दोष देना न्यायोचित नहीं है क्योंकि सभी अलौकिक मामलों में परमपुरुष अपने वैधानिक नियमों के अनुसार की कार्य करते है; वह अपने द्वारा काई भी कार्य नहीं करते। उसके वैधानिक नियमों का पालन कते हुए ही आग सभी को जलाती है फिर चाहे कोई बुंजुर्ग हो या बच्चा। यदि वह अपने नियम तोड़कर सीधे ही कुछ करना चाहेंगे तो पूरा ब्रह्मांड ही नष्ट हो जाएगा, इसलिए वह समर्थ होते हुण् भी अपने नियम नहीं तोड़ते। यदि वे किसी को क्षमा भी करते हैं तो परोक्ष रूप से यह प्रेरणा देते हैं कि कुछ अच्छा काम करो। परन्तु यह सत्य है कि अच्छा कर्म करने के अच्छे और बुरे कर्म के बुरे परिणाम स्वयं कर्ता को ही भोगना पड़ते हैं। कठिनाई या दुखों के समय सहनशक्ति को पाना उनकी कृपा से संभव है, अतः जब व्यक्ति अपार कष्ट में हो और अपने पर नियंत्रण न कर पा रहा हो तो परमपुरुष से यह निवेदन कर सकता है कि प्रभो! मुझे इस कष्ट को सहन करने की शक्ति दे दो।
(6) पूजा अथवा पूजन-जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।
अर्चा या अर्चना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।
प्रार्थना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यंन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।
विधिपूजन- ऊपर वर्णित पूजा की विधियॉं धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।
अब विधिपूजन को समझने में कोई अधिक मानसिक प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि पूजा करने वाले का मन अपने इष्ट की अपेक्षा बाहरी क्रियाओं पर अधिक केन्द्रित होता है। इसके अलावा यदि यह पूजा पंडित के द्वारा कराई जा रही हो (पूजा का नियम है कि उसे निराहार रहकर ही सम्पन्न करें) और उसे अनेक स्थानों पर पूजा करने जाना हो तो नियमानुसार उसे भूखा रहकर यह कार्य सम्पन्न करना होगा। इसलिए दिन के पहले आधे भाग में तो कुछ नहीं कह सकते पर दूसरे भाग में उसके पेट में चूहे दौड़ने लगेंगे और उसका ध्यान इष्ट से बार बार हटकर भोजन की ओर होगा तो इस प्रकार की पूजा को विधिपूजन नहीं कहा जा सकता न ही साधारण पूजा। इसके अलावा पूजा के समय भेंट की गई सामग्री पर भी पंडित का ध्यान रहेगा इसलिए शिव ने सही कहा है कि ‘ न मुक्तिः विधिपूजने’।
(7) शाब्दिक रूप से ‘ब्रह्म’ का अर्थ है ‘जो बहुत बड़ा है’ परन्तु लक्षणात्मक रूप से उसका अर्थ है ‘ब्रहत्वाद ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद ब्रह्म’। अर्थात् वह जो स्वयं तो बहुत बड़ा है ही लेकिन उसमें दूसरों को भी बड़ा बनाने की क्षमता है। अब मानलो कोई व्यक्ति जो दूसरों को पैरों के नीचे आई चीटी की तरह नष्ट करता है वह पूर्वोक्त शब्दिक अर्थ में बड़ा हो सकता है परन्तु शब्द में निहित आदर्श भावना के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। अतः वह व्यक्तित्व जो दूसरों को प्रगति का नया मार्ग खोलता है,पतित का उत्थान करता है, वही ब्रह्म शब्द के भीतर की यथार्थ भावना को पारिभाषित करता है। ब्रह्म किसी को नष्ट नहीं करता, वह चाहता है कि सभी विस्तार की चरमावस्था की अनुभूति करें, सभी अपने अस्तित्व आभा की अनुभूति करें। इस प्रकार का व्यक्तित्व ही ब्रह्मांड के हर अस्तित्व के लिए पूर्ण ब्रह्म कहलाएगा। अर्थात् वह पूर्ण है, पूर्ण से ही उसका उद्गम होता है और यदि उससे पूर्ण को निकाला जाय तो भी वह पूर्ण ही बचा रहता है। इसलिए पूर्ण का एक अर्थ है त्रुटिहीन या निर्दोष और दूसरा अर्थ है जिसे मापा नहीं जा सके अर्थात् अमाप्य। इसलिए वह सभी लोकों और उनसे भी आगे जो भी हो उनमें पूर्ण ही है। सभी इकाई सत्ताएं उसी पूर्ण से निकलकर आई हैं उसी पूर्ण में व्यवस्थित बनी हुई हैं और अन्त में उसी पूर्ण में मिल जाऐंगी। इसलिए वह स्वयं महान है और दूसरों को भी महान बना देता है ताकि वे भी उसके निकट आ सकें। इस जीपन में वह पूर्ण ब्रह्म ही हम सभी का लक्ष्य होना चाहिए।
इसप्रकार जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी सभी प्रवृत्तियॉं, सभी विचार और मन की निर्लिप्तता को इस परमकल्याणकारी परमसत्ता की ओर भेजता जाता है इस पवित्र भावना के साथ गति करने को कहा जाता है ‘निष्ठा’। इस प्रकार जो भी निष्ठावान ब्रह्म साधना करता है वह अन्त में ‘ब्रह्मसद्भाव’’ में प्रतिष्ठित होगा ही, इस अवस्था के लिए कहा जाता है आत्मसाक्षात्कार। ध्यान रहे इस प्रकार की ब्रह्म साधना की प्रारंभिक अवस्था में भी बाहरी किसी भी प्रकार की ढेरों विविध वस्तुओं ( फूल, माला, नैवेद्य, फल, मिष्ठान्न और श्रंगार सामग्री ) और साज सामान की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए शिव का कहना है कि, इस प्रकार का आत्म जिज्ञासु जिसे ब्रह्म निष्ठा के साथ ब्रह्मसाधना करने का आशीष मिला है वह अवश्य ही ब्रह्मसद्भाव को पाएगा इसमें कोई संशय नही है, ‘‘केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः।’’