भगवान शिव का तीसरा उपदेश है कि :-
न मुक्तिर्तपनादहोमातुपवासशहस्त्रेरपि, ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति देहभ्रत्।
अर्थात्, तप करने, आहुतियॉं देकर बलि अनुष्ठान करने, और हजारों उपवास करने से मुक्ति नहीं मिलती। मनुष्य देहधारी को तब मुक्ति मिलती है जब वह अनुभव कर लेता है कि ‘‘मैं ब्रह्म ही हूॅं।’’
स्पष्टीकरण :
(1) शब्द ‘‘मुक्ति’’ का निर्माण होता है क्रिया ‘मुच’ और प्रत्यय ‘क्तिन’ के मेल से। इसलिए मुक्ति का अर्थ हुआ सभी प्रकार के मौलिक बंधनों का दूर हो जाना। अब प्रश्न है कि बंधनों से दूर किसको होना है? निश्चित ही जिसके हाथ पैर बंधे हों,बोल न पाता हो,हृदय की भावनाएं दब गई हों, जीवन की आशाएं खीण हो गई हों, जो भौतिक रूप से सलाखों के पीछे हो, जिसका मन हठधमिता के चंगुल में हो, जिसकी आत्मा आनन्ददायी अमृत के प्रवाह की अनुभूति से दूर हो, जिसकी प्रगति का पथ अवरुद्ध हो गया हो वह निश्चय ही बंधन में है। इन सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होने के लिए जो कठिन पराक्रम किया जाता है उसका नाम है ‘‘साधना’’ जिसका उद्ेश्य इस प्रकार के प्रयत्न करने की प्रेरणा देता है वह कहलाता है ‘मुक्ति’।
(2) बंधनों को तीन प्रकार का बताया गया है, आधिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक। व्यापक रूप से इस भौतिक जगत से जुड़े घर गृहस्थी, कामधंधे आदि के बंधन आधिभौतिक बंधन कहलाते हैं। मानसिक विकृतियॉं, भ्रम, मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, श्रेष्ठता बोध, हीनता बोध, पूर्व जन्म के बचे हुए संस्कार(प्रारब्ध) आधिदैविक अर्थात् मानसिक बंधन कहलाते हैं। चेतना, परमचेतना, परमचेतना के अनुभव न कर पाने की पीड़ा आदि आघ्यात्मिक बंधन कहलाते हैं। आधिभौतिक बंधन तीन प्रकार के होते है। जिन्हें भावगत(हठधर्मिता) बंधन, कालगत (समय से जुड़े)बंधन और आधारगत (स्थानीय)बंधन कहा जाता है। इन तीनों में से सबसे खतरनाक भावगत बंधन होते हैं जो हठधर्मिता और जड़ता के प्रभाव से मनुष्य में जन्म से ही भर दिए जाते हैं। इस प्रकार पाए गए क्रियाकलाप प्रगति के मार्ग से दूर करते हैं। वे जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में अंधविश्वासों के रंगीन प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं होते। जैसे, यह मत करो, वह करोगे तो नर्क में जाओगे आदि। मनुष्य इस प्रकार के हठधर्मी विचारों कोमन में दबाए अपनी आवाज नहीं निकाल पाता और आंसू बहाते हुए अपने को जनबूझकर भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। समय के साथ होने वाले परिवर्तन अनेक प्रकार की समस्याओं से जुड़ते जाते हैं और स्थानिक घटक इन स्थितियों को भी बदल डालते हैं। इतना तक कि लोगों की भावनाएं विकृत हो जाती है और वे उस स्थान,राज्य, या देश को भी छोड़ कर चले जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। यदि एक उदात्त (सार्वभैमिक) विचारधारा को व्यक्तिगत जीवन में उतारा जाए तो सभी प्रकार के मानसिक बंधन दूर हो सकते है। इसी प्रकार जब वह सोचता है कि परमपुरुष मेंरे ही ह,ैं अभिन्न हैं फिर मेरा हृदय उन्हें क्यों अनुभव नहीं कर रहा है, इस प्रकार मैं कब तक उन्हें अनुभव करने से बंचित रहॅूंगा आदि उन्हें न पाने की मानसिक पीड़ा आध्यात्मिक बंधन कहलाते हैं।
(3) जब कोई व्यक्ति इन तीनों प्रकार के बंधनों को दूर करने का उपाय करते हुए अस्थायी सफलता पाता है तो उसे ‘अर्थ’ कहते हैं। जब यह अस्थायी सफलता कुछ अधिक स्तर पर होती है तो उसे ‘मध्यार्थ’ कहते हैं और जब स्थायी सफलता मिल जाती है तो उसे ‘परमार्थ’ कहते हैं। जैसे कोई भूख से तड़प रहा है और उसे कुछ रुपए दे दिए जाएं तो उस दिन की भूख का दुख दूर हो जाएगा पर अगले दिल फिर भूख लगेगी अतः इस दिए गए रुपयों को कहेंगे ‘अर्थ’। अब यदि उसे बहुत सा धन दे दिया जाए तो कुछ दिन की भूख का कष्ट दूर होगा इसलिए यह कहलाएगा ‘मध्यार्थ’ परन्तु ‘परमार्थ’ नहीं। भूख को स्थायी रूप से दूर करने के लिए भूमि, जल, बीज और खेती की सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना होगी और साथ ही अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए यह प्रार्थना परमात्मा से करना होगी कि हे प्रभो! आपने हमें अर्थ और मध्यार्थ तो दिया है परन्तु अंतिम रूप से सफलता की कुंजी तो आपके हाथ में ही है। अर्थात् परमार्थ तो आपके पास ही है, बिना उसके हम बंधनों से मुक्त कैसे होंगे।
(4) मुक्ति के बाद पूर्वोक्त श्लोक में आता है ‘तपन’। यह शब्द, क्रिया ‘तप’ और प्रत्यय ‘अनट’ के मेल से बनता है। इसका अर्थ है ‘तपाना’। किसी समय तपना और तपाना आवश्यक हो सकते हैं परन्तु हमेशा नहीं। बोलचाल की भाषा में तपन का अर्थ है वह कार्य करना जो शरीर और मन को गर्म करता है। यह दो प्रकार से हो सकता है पहला यदि मन और शरीर किसी गर्म वस्तु या स अनुभूति के संपर्क में आए या शारीरिक परिश्रम जिसमें अंगों का व्यायाम हो तो शरीर या मन गर्म हो सकता है। तपः और तपन की मूल क्रिया एक ही है परन्तु तपः विशेष प्रकार से उपयोग किया जाता है अर्थात् ‘ दूसरों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए स्वयं को भौतिक और मानसिक कष्टों के साथ जोड़ लेना’। इतना ही नहीं उन कठिनाइयों को इस प्रकार पकड़ कर रखना कि मन और शरीर गर्म हो जाए। जब किसी हठधर्मी (डोग्मा प्रभावित) व्यक्ति की भावनाएं लगातार उत्प्रेरित की जाती हैं तो उसका मन गर्म हो जाता है और उसके नर्वसैल और नर्व फाइबर के बीच सूक्ष्म संयोजन हो जाता है और वह अपनी शान्त मनोभावना को छोड़ कर अमानवीय गतिविधियों में लग जाता है। देखा जाता है कि जो लोग डोग्मा से प्रभावित होते हैं उनका मन भाषा, लेखन और चित्रों को देखकर जल्दी ही गर्म हों जाता है। कुछ लोग कष्टदायी तपस्या, जैसे लंबे समय तक हाथ ऊपर किए खड़े रहना, या पैर ऊपर किए सिर नीचे किए रहना, या चारों ओर आग का घेरा बनाकर बीच में बैठना आदि में जुटे रहते हैं। क्या इस स्थिति में उनका मन स्थिर रह सकता है? बाहरी ऊष्मा उनके मन और ष्शरीर के बीच असंतुलन कर गतिरोध करती है। शिव का कहना है कि इन लोगों को परमपपुरुष की समीपता कभी नहीं प्राप्त हो सकती, जो लोग प्रकृति के विरुद्ध आचरण करते हैं वे असामान्य हो जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। शिव का कहना है कि सभी लोग अपने मन की भावनाओं को केवल एक परमसत्ता की ओर ही प्रवाहित करते रहो सभी के सुख दुख अपने मानकर परस्पर मदद करते रहो, ‘संगच्छघ्वं संवदघ्वं सं वो मनांसि जानताम्।’
(5) शिव का कहना है कि ‘तपः’ को यम और नियमों के अन्तर्गत भी रखा गया है परन्तु यह तप पूर्वाक्त तप से भिन्न है। नियम के अन्तर्गत आने वाला ‘तपः’ दूसरों के हित के लिए स्वयं भौतिक कठिनाइयॉ स्वीकार कर लेना है। इस प्रकार के तप से साधारण व्यक्ति भी आध्यात्मिकता के उच्च स्तर पर पहॅुंच जाता है। इस प्रकार का तप भौतिक और मानसिक शुद्धता लाता है और मुक्ति का सुनहला मार्ग खोल देता है।ं
(6) पहले बलि अनुष्ठान के समय ‘होम’ और ‘हवन’ का उपयोगष्अलग अलग महत्व के लिए किया जाता था। सामान्यत बलि अनुष्ठान में होम किसी धार्मिक या सामाजिक समारोह की समाप्ति पर किया जाता था और होम करते समय केवल शुद्ध घी का उपयोग किया जाता था। हवन में शुद्ध घी के साथ साथ विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों का भी उपयोग होता था जो वैदिक देवी देवताओं को प्रसन्न कर उनसे वरदान पाने के लिए किया जाता था। धीरे धीरे इनका यह अन्तर समाप्त हो गया और अब वे एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। लोग सोचते थे कि हवन और होम से उत्पन्न सुगंधित धुआं ऊपर जाकर देवताओं को प्रसन्न करेगा और उनके मन और स्वास्थ्य की क्रियाशालता को बढ़ा कर ईश्वर तक ले जाएगा। शिव का निर्देश है कि सुगंधित धुआं नाक को भले ही आनंदित करे पर उसमें पाए जाने वाले अधजले कार्बन के कण फेंफड़ों के लिए घातक सिद्ध होते है। इसके अलावा उससे आध्यात्मिक उपलब्धि नगणय है। कुछ लोग इससे वायु के शुद्ध होने का तर्क देते हैं, परन्तु सब जानते हैं कि धुंआ वायु को प्रदूषित करता है अतः यह सही नहीं है। इस प्रकार उपयोगी खाद्य सामग्री को आग में जला कर नष्ट करने का कोई औचित्य ही नहीं है और न ही उसका किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक विकास या मुक्ति होने से संबंध है।
(7) शब्द उपवास ,उपसर्ग ‘उप, मूल क्रिया ‘वस’ और प्रत्यय ‘घई’ को मिलाकर बनता है। ‘उप का अर्थ है निकट’ (जैसे उपाध्यक्ष अर्थात् अध्यक्ष के निकट) और ‘वास का अर्थ है निवास करना या बैठना’। इसलिए ‘‘उपवास का अर्थ हुआ निकट वैठना ’’। प्रश्न उठता है कि किसके निकट बैठना? उत्तर है ईश्वर के निकट बैठना। चूंकि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि आध्यात्मिक अभ्यास करके आत्म साक्षात्कार करे। परन्तु उसका मन और शरीर तो पंच भौतिक घटकों से बना होता है जो इस भौतिक जगत से दूर नहीं होना चाहता। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आध्यात्मिक अभ्यास अपने जीवन का प्रारंभिक उद्देश्य मानते हुए सांसारिक जिम्मेवारियों को ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य मानकर करता रहे। परन्तु मनुष्य का मनोविज्ञान यह है कि वह सांसारिक कार्य करते हुए अपने जरीवन के मुख्य उद्देश्य से भटकने लगता है। इतना तक कि वह सांसारिक कामों में ही अपना उत्थान मानने लगता है और फिर उसका पतन हो जाता है। तो अब इसका समाधान क्या है? शिव ने कहा कि ठीक है सामान्य दिनों में वह ऊपर बताए गए अनुसार अपना आध्यात्मिक अभ्यास जारी रखे और संसार के काम भी ,परन्तु कुछ दिनों में केवल आध्यात्मिक साधना ही करे और सांसारिक काम बंद रखे। इन विशेष दिनों को शिव ने ‘उपवास’ का नाम दिया है। अर्थात् इन दिनों में वह केवल ईश्वर के निकट ही रहेगा, उन्हीं का ध्यान, भजन, चिंतन और स्वाध्याय करेगा। परन्तु कालान्तर में इसके साथ मुख्य बातें भूलकर उपवास को निराहार रहने से जोड़ा गया और आडम्बर फैलाया गया कि इससे उनके पूरे खानदान को मरने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा। इस प्रकार के निराहार (वास्तव में फलाहार या अन्य तथाकथित फलाहारी भोजन कर) रहने के अनेक दिनों को चिन्हित कर हर माह में कुछ न कुछ उपवासों को कलेंडर में बताया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिव द्वारा बताए गए ‘उपवास’ को आडम्बर से जोड़ कर उसके पवित्र लक्ष्य को ही नष्ट कर दिया गया है। निराहार रहने से मन और शरीर शुद्ध होता है और साधना के लिए अनुकूल अवसर बनाता है लेकिन साधना को छोड़कर केवल निराहार रहने से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।
(8) शब्द ‘भ्रत’ की मूल क्रिया है ‘भ्र’ इसलिए ‘भ्रत’ का अर्थ होता है जो दूसरों को भोजन कराता है। ‘भ्रता’ का अर्थ है वह जिसे दूसरा कोई भोजन कराता है। इसलिए ‘देहभ्रत’ का अर्थ हुआ जो शरीर को भोजन कराने पर जीवित रहता है। इसलिए हर जीवधारी देहभ्रत है। अब देहभ्रत के पास तो भौतिक और मानसिक बंधन होते हैं वह उनके रहते कैसे मुक्ति पा सकता है? आदर्श जीवों को अवश्य ही तप के साथ साधना करके मुक्ति मिलेगी परन्तु घी, खाद्यान्न, प्राणियों के खून को अग्नि में झोंककर नहीं। इसी प्रकार आडम्बरपूर्ण उपवासों से मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है। तो अब समाधान क्या है? शिव का कहना है कि आदर्श व्यक्ति को अपनी सभी मानसिक प्रवृत्तियां, मानसिक तरंगों के गतिशील प्रवाह को एक बिंदु पर केन्द्रित कर सभी बंधनों के होते हुए भी उस परमसत्ता के साथ मिलाकर एकीकृत करना होगा। इस प्रकार उसका छुद्र ‘मैं’ वृहद ‘मैं’ में मिलकर एक हो जाएगा जिसे सम्पूर्ण समर्पण कहते हैं। इस आल्हादित स्थिति में उसे अनुभव होता है कि करोड़ों व्यक्तिगत सत्ताएं उस महासागरीय ब्रह्म के भीतर मात्र बुलबुले हैं। इस स्थिति को ही ‘ब्रह्मैवाहम’ या ‘ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म ही हॅूं ) कहते हैं जो आत्म साक्षात्कार की अवस्था है। इसीलिए यह कहा गया है कि यदि आदर्श मनुष्य साधना के माध्यम से परम सत्ता के सक्ष सम्पूर्ण समर्पण कर सके तो इस शरीर में रहते हुए भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है। परन्तु भले ही कुछ पाने के लोभ से उसने हजारों किताबें पढ़ी हों, असंख्य आडम्बरी व्रत उपवास किए हों, हवन अग्नि में हजारों बलि दे दी हों, उसे मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होने की लेश मात्र भी आशा नहीं करना चाहिए।
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