भगवान शिव का पहला उपदेश है कि :-
‘‘एकम् ज्ञानम् नित्यम् आद्यन्तशून्यम् नान्यात् किंचित वर्तते वस्तुसत्यम्।
तयोर्भेदोस्मिन इंद्रियोदाधिना वै ज्ञानस्याद्यम् भास्यते नान्यथैव।’’
अर्थात्, ‘’केवल एक अलौकिक ज्ञान जिसका कोई न आदि है और न अन्त’’ वही एकमात्र परम सत्य है अन्य कोई वस्तु नहीं। क्योंकि, जब ‘उपाधि’ अर्थात् इंद्रियों की तन्मात्राओं के कंपनों को ग्रहण या प्रसारित करने की विशेष शक्ति को निलंबित करके आन्तरिक तथा वाह्य संसार को एक दूसरे में मिलाकर एक कर दिया जाता है तब केवल एक ही सत्ता का ज्ञान रह जाता है।
स्पष्टीकरण :
(1) इसलिए शिव का कहना है कि जो समय, स्थान और पात्र के आधार पर अपना परिवर्तन कर लेती है उसे अविद्या कहते हैं और जो इन तीनों घटकों से अप्रभावित रहती है उसे विद्या कहते हैं। अविद्या के प्रभाव से ही हमें अस्थायी वस्तु स्थायी, अशुद्ध वस्तु शुद्ध, दुख में सुख और अनाध्यात्मिक में आध्यात्मिक लक्षण दिखाई देने लगते हैं। परन्तु विद्या का प्रभाव सदा ही स्थायी होता है। अविद्या की दोषपूर्ण मनोविज्ञान कभी कभी अज्ञानता से या कभी जानबूझकर भी हमेशा अस्थायित्व को ही सब कुछ मानने के लिए विवश कर देती है। परन्तु विद्या एक मात्र परमसत्ता की ओर ले जाने की प्रेरणा देती है जो कि सदा स्थायी हैं। मनुष्य का लक्ष्य केवल इस स्थायी सत्ता को पाने का होना चाहिए अन्य का नहीं। इस प्रकार मन जब सदा ही परमसत्ता के बारे में सोचेगा तो एक समय ऐसा आएगा कि वह उस अनन्त सत्ता के भाव में तल्लीन होकर मस्त हो जाएगा और अपनी सीमाओं को भूलकर अन्तहीन शान्ति का अनुभव करेगा। मनुष्य की यह सर्वोच्च उपलब्धि है।
(2) जब कोई सीमित जानकारी वाला व्यक्ति असीमित की जानकारी पा लेता है तो वह गुणहीन और कर्महीन हो जाता है। भले ही वह इस धरती पर असंख्य सीमित वस्तुओं के बीच बैठा हो उसका मन उस अनन्त सत्ता के रंग में ही रंग जाएगा और अन्य लोग उसे पागल समझने लगेंगे। परन्तु केवल इतने से ही उसे पूर्ण अनुभूति नहीं होगी। इसीलिए शिव ने कहा है कि पूर्णानुभूति के लिए परमसत्ता अर्थात् परमपुरुष के समक्ष आत्मसमर्पण करना होता है। इसीलिए परमसत्ता को आदि अंत विहीन कहा गया है।
(3) जब कोई अस्तित्व सत, रज और तम के संयुक्त बंधन से निर्मित होता है तो उसे ‘वस्तु’ या ‘मैटर’ कहते हैं। जो इन तीनों से मुक्त होता है उसे ‘अवस्तु’ या ‘नानमैटर’ कहते हैं। इसलिए शिव कहते हैं कि जब उस परमसत्ता का कोई कर्म नहीं होता तब उसे अवस्तु कहा जाता है परन्तु जब वह कर्म से संयुक्त होता है तब उसे वस्तु कहा जाता है। प्रश्न उठता है कैसी वस्तु? वास्तव में जब कोई अस्तित्व चाहे वह आकार में अभिव्यक्त हो या निराकार उसमें कुछ न कुछ गुण होते हैं परन्तु जब गुण होते हुए भी वे अन्य निर्मित लोगों को अभिव्यक्त नहीं होते तो उस अवस्था को ‘सदवस्तु’ कहते हैं। परन्तु जब यही, लोगों की धारणा और अवधारणा में आने लगता है तो उसे ‘पदार्थ’ कहते हैं। चूंकि मानव मन और बुद्धि धारणा के विस्तार से भी बहुत ऊपर तक जा सकते है इसीलिए अनेक विद्वान मन को एकादश इंद्रिय भी कहते हैं। अतः उपोत्पादन के विस्तार के समय बुद्धि की प्रकृति अज्ञात ‘सदवस्तु’ को ज्ञात या अर्धज्ञात पदार्थ में बदलने की होती है। यही कारण है कि प्रकृति दोनों (अर्थात् जड़ता और सूक्ष्मता) ओर होती है। अतः जब पदार्थ स्वयं ही क्रमशः परमसत्ता की ओर रूपान्तरित होने लगता है तो कहा जाता है कि प्राकृत भाव उस पदार्थ को सूक्ष्मता की ओर क्रमशः ले जा रहा है। यही कारण है कि प्रकृति को ‘नित्यनिवृत्ता’ अर्थात् सतत परिवर्तनशील कहा जाता है।
(4) शिव ने कहा ‘वस्तुसत्यम्’ अर्थात् सत्य वस्तु। अब प्रश्न यह है कि ‘सत्य वस्तु’ और ‘सद् वस्तु’ क्या एक ही हैं? इसके उत्तर में शिव का स्पष्टीकरण है कि हमारे इस संसार में ये तीन घटक पाए जाते हैं। सद्वस्तु यथार्थ में, सद्वस्तु सूक्ष्मता में और सद्वस्तु आभास में। इनमें से ‘सद्वस्तु सूक्ष्मता में’ वाला घटक हमारी धारणा और अवधारणा के सीमा क्षेत्र से परे है। ‘सद्वस्तु आभास में’ वाला घटक हमारी धारणा में आता है जिसे हम अपने बौद्धिक विश्लेषण और वैज्ञानिक अनुसंधान से पदार्थ में बदल सकते है। ‘सद्वस्तु यथार्थ में’ वाला घटक हमारे आभास क्षेत्र में होता है परन्तु वह हमारी धारणा में नहीं आता उसे केवल अनुभव किया जा सकता है पर पदार्थ में नहीं बदला जा सकता। इसे हम अपने हृदय की अनुभति में ला सकते हैं परन्तु उसे इस संसार में नहीं। यदि हम उसे इस संसार में लाने का प्रयास करते हैं तो हमारा पूरा अस्तित्व पारमार्थिक सत्ता में ही मिल जाता है। इस प्रकार इस सद्वस्तु सूक्ष्मता वाला घटक अन्ततः उस व्यक्ति के अस्तित्व को ‘‘प्रत्यक सत्ता’’ अर्थात् साक्षी सत्ता में मिला देता है जो अवस्तु अर्थात् नानमैटर है। संसार के अन्य सभी अस्तित्व पदार्थ हैं जिनमें कुछ अवधारणा में कुछ धारणा और अवधारणा दोनों में आते हैं। इसलिए सद्वस्तु जो किसी भी प्रकार का रूपान्तरण नहीं करती वही वास्तविक सत्य है। यदि हम इसके अलावा किसी अन्य को सत्य मानते हैं तो हम ‘दर्शन’ को निम्न स्तर की ओर ढकेल देंगे और मानव बुद्धि पर संकट छा जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘नान्यात किंचित वर्तते वस्तु सत्यम’’ अर्थात् ‘सत्य वस्तु के अलावा किसी का अस्तित्व नहीं है’।
(5) शिव ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘इंद्र’ का अर्थ है, ‘‘वह घटक जो किसी क्रिया में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है’’। इसलिए वे जो किसी के अस्तित्व को क्रियाशील बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं उन्हें ‘इंद्रियॉं’ कहते हैं। इंद्रियॉं किसी भी जीव को तन्मात्राओं (उस परमसत्ता की सूक्ष्मतम मात्रा) के द्वारा आन्तरिक और बाह्य दोनों स्थितियों में मन में उत्पन्न होने वाले विचारों को ग्रहण करती हैं और प्रसारित करती हैं और उसके बंधनकारी बलों को प्रभावित करती हैं। ब्रह्म चक्र की प्रतिसंचर क्रिया में इंद्रियॉं इस साहचर्य को विकसित कर लेती हैं। इंद्रियों का इस प्रकार का साहचर्य उनकी ‘उपाधी’ कहलाता है। इसी उपाधी के कारण कोई भी जीवधारी उस ‘एक’ परमसत्ता को अनेक रूपों में देखता है। अतः उस एक परमसत्ता से निकलने वाले असंख्य कंपनों से असंख्य आकार प्रकारों से जहॉं एक ओर जीव आनंदित होता है वहीं वह एक परमसत्ता को अनेक होने की अवधारणा देने की गलती भी कर बैठता है। उसकी इस गलत अवधारणा से वह सुख और दुख दोनों पाता है। अर्थात् पूर्णता अपूर्णता मधुरता और विषैलापन सभी कुछ इंद्रियों की उपाधी से ही अनुभव होता है।
(6) इसलिए पहले स्तर पर बाहरी संसार के विभिन्न रंगों में वह अपने को सुखी मानने लगता है इसलिए जब उसे उसके भीतरी संसार के बारे में कुछ भी कहा जाता है तो उसे क्रोध आता है और कहता है कि मैं यहीं ठीक हॅू। वह इस भौतिक संसार से प्रभावित होकर वह कहने लगता है ‘‘ केवल मेरा ही अस्तित्व ’’ है। परन्तु जब जीवन के उतार चढ़ाव उसे असहज बनाते हैं तो वह ‘कारण और प्रभाव’ के नियम का विश्लेषण करने लगता है और पाता है कि मुझसे कोई अधिक बड़ी सत्ता है जो मेरे घायल हृदय को गुणकारी मरहम लगाकर ठीक कर सकती है। वह सत्ता उसके पाने की सीमा में हो या नहीं वह उसे अपने दुखों से मुक्ति पाने के लिए खोजने लगता है और कहता है ‘‘त्राहि माम, पाहि माम’’। इस स्थिति में वह अपने मन की तरंगों को परिवर्तित कर कहने लगता है ‘‘ हे प्रभो ! मैं हॅूं और तुम भी हो’’। जब यह संबंध उसकी आशा को पूर्ण न कर असंतोष को बढ़ाने लगता है और बाहरी संसार से सब आशाऐं छिन्न भिन्न हो जाती हैं तो वह हृदय के औरष्भीतर जाकर इस समस्या को हल करने का उपाय खोजता है। फिर भी वह कुछ नहीं पाता तो वह रोता है सिर पीटता है और उस अज्ञात सत्ता से कह उठता है, ‘परमपुरुष ही जानने योग्य सत्ता हैं जो सभी को दुखों से दूर कर प्रकाशित मार्ग की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करते है। वह इस स्तर पर आनंदित होकर कह उठता है, ’‘‘हे प्रभो! तुम हो और मैं भी हॅूं।’’ इस प्रकार जब अपने हृदय के भीतर वह और अधिक गहराई में जाता है तो उसका मन इस बाहरी संसार के आकर्षण से दूर होकर भीतर और बाहर दोनों में एकत्व का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार उसे समझ में आ जाता है कि इंद्रियों का तन्मात्राओं द्वारा आन्तरिक और वाह्य खेल और कुछ नहीं ‘माया’ है। इस प्रकार वह आन्तरिक और बाहरी संसार में अपने एकत्व का अनुभव करते ही चिल्ला उठता है ‘‘प्रभो! केवल तुम ही हो, केवल तुम एकमेव तुम।’’ शिव के पूर्वोक्त श्लोक में इसी तथ्य को एकमेव सत्य ‘‘एकम् ज्ञानम् नित्यम् आद्यन्तशून्यम्’’ कहा गया है।
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