भगवान शिव का दूसरा उपदेश है कि :-
‘‘ आत्मज्ञानम विदुर्ज्ञानम ज्ञानान्यानि यानि तु,
तानि ज्ञानावभासानि सारस्य नैव वोधनात्।’’
अर्थात्, आत्मज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। अन्य सभी ज्ञान केवल ज्ञान की छायामात्र हैं; वे सत्य की अनुभूति की ओर नहीं ले जाते।
(1) ज्ञान क्या है? प्राचीन संस्कृत का मूल क्रिया ‘ज्ञा’ में ‘अनट’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘ज्ञान’ शब्द निष्पन्न होता है और, जानने की प्रक्रिया क्या है? परिवेशगत किसी पंच भौतिक तत्व या उससे उत्सर्जित तन्मात्र के आन्तरिक अधिग्रहण को जानने की क्रिया कहते है। दूसरे शब्दों में वस्तुनिष्ठता का विषयीकरण ही ज्ञान का संकाय कहलाता है और वे इकाइयॉं जिन्हें विषयगत किया जा रहा होता है, उन्हें वस्तुनिष्ठता कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या मानसिक संसार की किसी वस्तुनिष्ठता को ग्रहण कर विषयीकृत किया जा सकता है? उत्तर है हॉं। अस्तित्वगत ‘‘मैं’’ की अनुभूति को स्वयं के अलावा भीतरी और बाहरी संसार के सभी अन्य अस्तित्व उसकी जानने की सीमा में आते हैं।
(2) शिव ने समझाया है कि मानसिक संसार का सबसे पहला स्तर है ‘अपने अस्तित्व की सूक्ष्मतम भावना’ जिसकी क्रियाशीलता की साक्षीसत्ता को कहते हैं ‘चितिसत्ता’। जब हम कहते हैं कि ‘‘ मैं जानता हॅूं कि मेरा अस्तित्व है’’ तो यहॉं मेरा अस्तित्व है का ‘‘मैं’’ मन का पहला स्तर है और उसका साक्ष्य देता है ‘मैं जानता हॅूं’ का ‘मैं’ । इससे स्पष्ट है कि मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता मन के प्रथम स्तर से अधिक सूक्ष्म है, वास्तव में वह सबसे अधिक सूक्ष्म होती है। जब मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता के रूपमें चितिसत्ता कार्य करती है तो उसे ‘‘सकलचितिसत्ता’’ और जब नहीं करती तब उसे ‘‘निष्कलचितिसत्ता’’ कहते है। जब यह चितिसत्ता समग्र ब्रह्मांड की साक्षी सत्ता के रूपमें कार्य करती हैं तो इसे कहते हैं ‘प्रत्यगात्मा’ जो कि गुणों से प्रभावित होकर ‘सकल’ कहलाती है और जब गुणों से प्रभावित नहीं होती तब ‘निष्कल’।
(3) ज्ञानात्मक सत्ता अर्थात् मन का परमज्ञाता व्यावहारिक क्षेत्र में ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है? वास्तव में जब प्रथम स्तर का मन अर्थात् आस्तित्विक ‘मैं’ का मैं जब ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, अर्थात् मेरा अस्तित्व है ’’ के ‘मैं’ का चिंतन करता है तो वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो जाता है और अंततः ज्ञानात्मक संता में विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञानात्मक सत्ता को जानने का अर्थ है उसमें मिलकर एक हो जाना अर्थात् नमक के पुतले की तरह समुद्र में घुलकर एक हो जाना। समुद्र को नापने नमक का पुतला वापस आकर नहीं बता सकता कि समुद्र कितना गहरा है। ज्ञानात्मक सत्ता से इस तरह का एक हो जाना ही ‘आत्मज्ञान’ कहलाता है। सैद्धान्तिक रूपसे यही आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है अन्य ज्ञान और सभी सांसारिक ज्ञान केवल इस ज्ञान की छाया और उपछाया हैं।
(4) सामान्यतः तथ्यात्मक ज्ञान को केवल जानना कहा जाता है पर वह वास्तविक नहीं है। सांसारिक ज्ञान के लिए संस्कृत की क्रिया ‘विद’ का उपयोग करना अधिक न्यायसंगत है। ‘वद’ को मुख्यतः दो भागों में प्रयुक्त किया जाता हें पहला ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या अपरिमित से परिमित और परिमित से अपरिमित का ज्ञान कराती है। पराविद्या मनुष्य को आत्मज्ञान की उस सुनहली रेखा तक ले जाती है जो तथ्यात्मक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा से आगे सर्वज्ञाता ज्ञान संकाय का मधुर स्मरण आता है। अपराविद्या सांसारिक ज्ञान कराती है। पराविद्यज मोक्ष तक ले जाती है जबकि अपराविद्या इसी संसार में ही फॅंसाती है। इसीलिए ज्ञानियों का कहना है कि मनुष्य को ‘परा और अपरा’ दोनों के बीच संतुलन स्थापित करके चलना चाहिए । इसी लिए शिव का कहना है कि मनुष्य का उद्देश्य होना चाहिए ‘‘आत्म मोक्षार्थं जगद हिताय च।’’
(5) अतः आत्मज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है परन्तु मनुष्य को परा और अपनर दोनों का उचित उपयोग करना होगा। कोई सोचे कि वह तो केवल परविद्या के सहारे साधना करके मोक्ष पा लेगा तो वह गलत है, इसी प्रकार कोई कहे कि वह तो अपना विद्या के सहारे भौतिक जगत की सर्व सुख सुविधाऐं ही पाता रहेगा तो वह भी गलत है। वास्तव में पराविद्या हमें परमार्थ की ओर तो अपराविद्या हमें अर्थ की ओर ले जाती है। चूंकि मानव जीवन के लिए दोनों ही अनिवार्य हैं अतः ज्ञानी लोग दोनों विद्याओं के उचित समन्वय के साथ ही अपना जीवन गुजारते है। इसलिए जब हम साधना में अधिक सूक्ष्मता की ओर बढ़ने लगते हैं तो अनावश्यक तथ्यों को छोड़ते जाते हैं और हम कहते हैं कि हम निस्सार से सार तत्व की ओर जा रहे है। इस प्रकार बढ़ते हुए जब तथ्यात्मक संसार में हम सूक्ष्मतम विन्दु पा लेते हैं तो हम अनुभव करते हैं कि सर्वाधिक सारतत्व है ‘ब्रह्मांण्डीय मन’ (दार्शनिक भाषा में भूमा मन) और परमाप्रकृति। यह भी जान लेना आवश्यक है कि तत्यात्मक ज्ञान से वह असाधारण शक्ति को नहीं पाया जा सकता जो सीधे परमसत्ता के पास ले जा सके। उस शक्ति को पाने के लिए साधना से प्राप्त अखंड ज्ञान की आवश्यकता होती है, अब जब परमसत्ता और परमा प्रकृति का ये हाल है तो उस परमसत्ता को कैसे पाया जा सकता है? इसका उत्तर ज्ञानीजन देते हैं कि गुरु ब्रह्म, तारक ब्रह्म ही वह सारात्सार हैं जो उस परमसत्ता तक ले जाने में पुल का काम करते हैं। इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि भूमा मन और परमा प्रकृति को उच्च स्तारीय ज्ञान से पाया जा सकता है परन्तु उस परमसत्ता को नहीं। उस परमसत्ता को पाने के लिए मधुर हृदय, बुद्धि और स्वतंत्र भावना प्रवाह की आवश्यकता होती है जिसकी अनुभूति में मानव चिल्ला उठता है ‘प्रभो! तुम ही हो केवल तुम्हारा ही अस्त्ति्व है मैं कुछ नहीं हॅूं। इसलिए हृदय की अंतिम मधुर अनुभूति आत्मज्ञान ही है।
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