Saturday, 26 March 2016

55  बाबा की क्लास (गुरु)
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रवि- अब तो लगता है  परमपुरुष को पा सकना बड़ा ही कठिन है! सच्चे अर्थो में उचित मार्गदर्शन  कौन दे सकता है, यह बताइये?
बाबा- उस निर्विकार परम सत्ता को पाने का रास्ता और उस पर चलने की विधि वही बता सकता है जिसने उसे पा लिया हो और भली भाॅंति अनुभव भी किया हो। ऐंसा महान आत्मा, तन्त्र में महाकौल कहलाता है।

चंदू- महाकौल की क्या पहचान है?
बाबा- महाकौल के संबंध में कहा गया है,
शान्तोदान्तोकुलीनश्च   विनीतशुद्धवेशवान्, शुद्धाचारी सुप्रतिष्ठित शुचिर्दक्ष सुबुद्धिमान।
आश्रमी ध्याननिष्ठश्च  तंत्रमंत्र विशारद निग्रहानुग्रहे शक्तो गुरुरित्यभिधीयते।

इन्दु- इसे विस्तार से स्पष्ट कर दीजिये?
बाबा- ठीक है इस श्लोक  में महाकौल गुरु के जो लक्षण दिये गये हैं उनको समझ लेने पर उन्हें पहचान पाना सरल हो जाता हैं
(1) शान्त. अर्थात् जिन्होंने अपने मन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है।
(2)दान्त. अर्थात् जिनकी इन्द्रिय समूह की कर्म प्रणाली बहुमुखी है। श्रवण, मनन और निदिध्यासन के कार्य में इन्द्रियोंकी महती भूमिका है, अतः इन तीनों कार्यों को छोड़ इंन्द्रियों की समस्त कर्मधाराओं को जिन्होंने नियंत्रित कर लिया है।
(3)कुलीन. जो कुलकुंडलिनी की साधना करते हैं, जो पुरश्चरण  में सिद्ध हैं, इन्हें ही कुलगुरु कहते हेंै।
(4)विनीत, जिसके प्रत्येक व्यवहार से विनम्रता का उत्सारण होता हो।
(5)शुद्धवेशवान   , अर्थात् आचरण में शुद्ध और शुद्ध आजीविका युक्त तथा मन से शुचिता यानि शुद्धता जिनमें हो।
(6) आध्यात्म जगत में दक्षता , यह गुरु का आन्तरिक गुण है। दक्ष का अर्थ है जो सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान दोनों में पारंगत हैं। जिन्हें केवल सैद्धान्तिक ज्ञान है उन्हें कहा जाता है विद्वान। गुरु के विद्वान होने से काम नहीं चलेगा उन्हें दक्ष होना पड़ेगा, इसी प्रकार उन्हें बुद्धिमान नहीं सुबुद्धिमान होना पड़ेगा।
(7)आश्रमी अर्थात् तंत्र विधानानुसार ग्रही ही ग्रही के गुरु हो सकते हैं अन्य नहीं। केवल ध्यान की विधि सिखाने का काम ही नहीं उन्हें ध्याननिष्ठ होना होगा।
(8) तंत्रमंत्र विशारद, इस संबंध में कहा गया है कि  ‘‘मननात् तारयेत्यस्तु सः मंत्रः परिकीर्तितः‘‘ अतः किसके लिये कौन मंत्र उपयुक्त है, कौन सिद्धमंत्र है कौन नहीं, कौल गुरु में यह ज्ञान अवश्य  ही होना चाहिये , इसीलिये कहा गया है कि उन्हें तंत्रमंत्र विशारद होना चाहिये। जो एकसाथ दक्ष और विद्वान हैं उन्हें विशारद कहा जाता है।
(9) निग्रहानुग्रहे शक्तो अर्थात् अभ्यास कराते समय द्रढ़ता और दयालुता का यथा समय प्रयोग करना।

राजू- इतने कठिन तपस्यापूर्ण गुणों का किसी एक व्यक्ति में होना क्या संभव है?
बाबा- हाॅं, इन सभी गुणों से युक्त बीसवीं सदी में हुए सद्गुरु, महासम्भूति और तारक ब्रह्म श्रीश्री आनन्दमूर्ति ने  विश्व  में प्रचलित सभी मतों के निचोड़ को वैज्ञानिक सूत्र में बाॅंध कर बिलकुल नयी विधि से हजारों व्यक्तियों को दीक्षित कर इन सभी रहस्यों से पर्दा हटा दिया है।

रवि- उन्होंने यह किस प्रकार किया है क्या हम उसका संक्षेप में विवरण जान सकते हैं?
बाबा- उन्होंने अष्टाॅंग योग पर आधारित छः स्तरों पर प्रयुक्त की जाने वाली पद्धति को सिखाने की व्यवस्था बनाई है, जिसमें पहले स्तर पर संबंधित के संस्कारों के आधार पर उसके बीज मंत्र की सहायता से साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कार धीरे धीरे क्षय करता जाता है इसे इष्ट मंत्र कहते हैं। दूसरे स्तर पर नये संस्कारों का जन्म ही न हो पाये  इसकी विधि और मंत्र दिया जाता है इसे गुरुमंत्र कहते हैं। तीसरे स्तर पर शरीर में स्थित पंचतत्वों के मंत्र और उनके उचित स्थान पर चिंतन करना सिखाया जाता है जिसे तत्व धारणा कहते हैं। चौथे स्तर पर मन और प्राणों पर नियंत्रण करने की विधि सिखाई जाती है जिसे प्राणायाम कहते हैं। पाॅंचवे स्तर पर शरीर के ऊर्जा केन्द्रों को इष्ट मंत्र की सहायता से शोधन करना सिखाया जाता है इसे चक्रशोधन कहते हैं। छठवें स्तर पर ध्यान की विधि सिखाकर परमपुरुष के साथ वार्तालाप करना सिखाया जाता है। इस प्रकार सभी स्तरों का लगातार अभ्यास करने और नियमित साधना करते रहने पर कुछ ही दिनों में यह समझ में आ जाता है कि अब नये संस्कार नहीं बन रहे हैं तथा पुराने शीघ्रातिशीघ्र क्षय होते जा रहे हैं। इसी क्रम में जब संस्कार शून्य हो जाते हैं तब आत्मसाक्षात्कार होता है। इस भौतिक मनोआध्यात्मिक विधि से विश्व  के हजारों लोग लाभान्वित हो चुके हैं और होते जा रहे हैं।

चंदु-वह हमें कहाॅं मिल सकते हैं?
बाबा- वह अपनी भौतिक देह त्याग चुके हैं परंतु यह विधि उनके द्वारा प्रवर्तित आध्यात्मिकदर्शन  ‘आनन्दमार्ग‘ (path of bliss) के किसी भी आचार्य से निःशुल्क सीखी जा सकती है । इस दर्शन  के मूल्याॅंकन के अनुसार ‘ ब्रह्मसद्भाव‘ सर्वोत्तम, ‘ध्यान धारणा‘ मध्यम, ‘अर्चना प्रार्थना ‘ अधम और ‘मूर्तिपूजा‘ सर्वाधम मानी गई है। उत्तमो ब्रह्म सदभावो, मध्यो भावो ध्यान धारणा, अर्चना प्रार्थना अधमो भावो मूर्तिपूजा धमोधमा। अतः निराकार ब्रह्म के साथ एक्य स्थापित करने की यह विज्ञान सम्मत पद्धति है।

Sunday, 20 March 2016

54 बाबा की क्लास (होली: बसंतोत्सव)

54 बाबा की क्लास  (होली: बसंतोत्सव)
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रवि- बाबा! होली आने वाली है इसका यथार्थ रूप क्या वैसा ही है जो हर वर्ष हम देखते हैं, या कुछ और? 
बाबा-  लोगों ने काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी कैसी विचित्र परम्पराएँ बना ली हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़/ रंग फेकते हैं , अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि ‘‘बुरा न मानो होली है‘‘। होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकडि़याँ जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड खराब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड  मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं, रंगों / कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते  हैं। परंतु होली अर्थात् बसंतोत्सव का उद्देश्य  बाहरी रंगों से खेलना नहीं है, उसका उद्देषश्य  है कि संसार की जिन वस्तुओं ने मन को पकड़ रखा है अपने रंग में जकड़ रखा है उनके रंगों को परमपुरुष को भेंट कर देना। जब तुम अपने आकर्षणों और रंगों को इस प्रकार परमपुरुष को भेंट करने के खूब अभ्यस्थ हो जाओगेे तब तुम उन्हीं में मिल जाओगे, तुम्हें किसी रंग की आवश्यकता ही नहीं रहेगी तुम रंगहीन हो जाओगे, कोई रंग तुम्हें आकर्षित नहीं कर सकेगा। तुम्हारा इकाई अहं, महततत्व में मिल जायेगा और तुम्हें हर दिशा  में उन्हीं का कीर्तिगान सुनाई देगा उन्हीं की भव्यता दिखाई देगी। फिर मेरे तेरे की भावना के बीच पड़ा पर्दा सदा के लिये हट जायेगा। इस अवस्था में तुम उन्हें ‘मैं‘, ‘तुम‘ अथवा ‘वह‘ कुछ भी संबोधित कर सकते हो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि तुम्हारा उनके प्रति समर्पण भाव किस स्तर का है।

राजू- इस कार्य को सभी लोग कर सकते हैं या कोई विशेष प्रशिक्षित व्यक्ति?
बाबा- यह कार्य है तो सभी के लिये परंतु जो अष्टाॅंगयोग की साधना करते हैं उन्हें इसका अभ्यास करना सरल हो जाता है। इसीलिये मैं कहता हॅूं कि अपने निर्णय और विचारों के प्रवाह में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाओ। फिर बाहरी रंगों के आकर्षण से मुक्त होकर देखोगे कि तुम्हारा मन परमपुरुष के भव्य रंग में किस प्रकार झलकने लगा है। अष्टाॅंग योग  में निम्न स्तर की वृत्तियों की ओर से मन को खींच कर उस महान की ओर संचालित करने का कार्य प्रत्याहार योग अथवा वर्णार्ध्यदान कहलाता है। सभी लोग किसी न किसी कार्य या वस्तु से किसी न किसी प्रकार आकर्षित होते हैं , ज्योंही वे उससे आकर्षित होते हैं उनका मन उसके रंग में रंग जाता है। तुम उस वस्तु के रंग से अपने मन को हटाकर परमपुरुष को भेंट कर अपने मन को परमपुरुष के रंग में रंग सकते हो। यही सच्चा प्रत्याहार योग है, प्रत्याहार माने मन को उसके विषय से खींच लेना।

चंदू- आपने जो कहा है उसका वैज्ञानिक आधार क्या है?
बाबा-
- भौतिकवेत्ता  (physicists) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं।  प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाइयां (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती  हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की  सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह सफेद और सभी को शोषित कर ले तो काली दिखाई देती है। सफेद और काला कोई पृथक रंग नहीं हैं।   

- मनोभौतिकी विद (psycho-physicist) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली  मानसिक तरंगें (psychic wave) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना रंग पैटर्न बनाती हैं जिसे ‘‘आभामण्डल‘‘ (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।   
 - मनोआत्मिक  विज्ञानी  (psycho-spiritualists)  इन तरंगों ( wave patterns) को वर्ण (colours) कहते हैं।  यह लोग यह भी कहते हैं कि जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह अवर्ण (colourless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही  वर्ण (colours) होते हैं क्योंकि ये सब उसी परमसत्ता की विचार तरंगें ही हैं।  अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण  बनाना होगा।  इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टांगयोगी प्रतिदिन अपनी त्रिकाल संध्या में  इन वर्णो को ईशचिंतन, मनन, कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वर्णार्घ्य  दान कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं। 

नन्दू- लेकिन, आधुनिक विज्ञान के नियम तो अपेक्षतया बहुत बाद के हैं अष्टाॅंगयोग विज्ञान तो बहुत पुरातन है? वर्णार्घ्य दान  की पद्धति का प्रारंभ और प्रचार कैसे और कब से हुआ?
बाबा- भारतीय योगदर्शन  पूर्णतः वैज्ञानिक सिद्धान्तों और मनोवैज्ञानिक विधियों पर आधारित है जो हमारे ऋषियों ने अपार पराक्रम से अनुसंधान कर हमें सौंपा है। यह लोग और कोई नहीं उन्नत श्रेणी के वैज्ञानिक ही थे। मन के रहस्यों के बारे में उन्होंने अनुभव किया कि मन के दो खंड होते हैं एक व्यक्तिनिष्ठ (subjective mind) और दूसरा वस्तुनिष्ठ (objective mind) । मानलो एक बिल्ली दिखाई दी, अब यदि आॅंख बंद कर उस बिल्ली को फिर से याद किया जाता है तो मन का जो भाग बिल्ली का आकार बनाने लगता है उसे वस्तुनिष्ठ मन और जो भाग केवल देखता रहता है अर्थात् साक्ष्य देता है कि हाॅं बिल्ली का रूप बन गया, उसे  व्यक्तिनिष्ठ भाग कहते हैं। वस्तुनिष्ठ मन के कार्य करने का दूसरा प्रकार यह  है, मानलो अब उसकी कल्पना करते हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे भूत,  तो अस्तित्व न होते हुए भी जो सोचा जा रहा है कि इस अंधेरे कमरे में भूत रहता है जिसके बड़े बड़े दाॅंत और उल्टे पैर होते हैं, यह बिल्कुल कल्पना है परंतु फिर भी वह वस्तुनिष्ठ मन में अपना प्रतिविंब बनाता है और इस कल्पित भूत को जो देखने का काम करता है वह भी इसी मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग है। अनेक प्रयोगों के आधार पर ऋषियों ने अनुभव किया कि यथार्थ निर्णय करने के लिये मन के व्यक्तिनिष्ठ भाग को (अर्थात् जो देख रहा है या साक्ष्य दे रहा है), वस्तुनिष्ठ भाग  ( अर्थात् जो देखा जा रहा है) से अधिक षक्तिषाली होना चाहिये अन्यथा वस्तुनिष्ठ मन में लगातार एकत्रित होते जाने वाले यह काल्पनिक प्रतिबिम्व (पूर्वोक्त अर्थों में वर्ण या रंग)  भ्रमित करते रहते हैं और सत्य के रास्ते से दूर हटा देते हैं। इन्हीं सिद्धान्तों का व्यावहारिक स्वरूप श्रीकृष्ण ने अपने बाल सखाओं, गोप और गोपियों को सबसे पहले बताया था कि किस प्रकार वस्तुनिष्ठ मन के प्रतिबिंवों अर्थात् रंगों को व्यक्तिनिष्ठ मन की सहायता से वापस परमपुरुष को भेट कर देना चाहिये क्योंकि सभी रंग उन्हीं के हैं। सभी गोप और गोपियों को सामूहिक रूप से जिस दिन यह प्रत्याहार योग या वर्णार्घ्य दान  की साधना सिखाई गयी थी उसे ही बसंतोत्सव का नाम दिया गया है। उसके बाद पौराणिक काल से अनेक प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों के कारण इसमें अनेक विरूपतायें आ गयीं हैं और अब उसका स्वरूप कैसा हो गया है यह बताने की आवश्यकता नहीं  है। 

Sunday, 13 March 2016

53 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -3)

( मित्रो पिछली क्लासों में अष्टाॅंगयोग के चार सोपानों, यम , नियम, आसन, और प्राणायाम पर विस्त्रित चर्चा की जा चुकी है, आज हम इसके आगे के शेष चारों सोपानों पर  चर्चा करेंगे )

53 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -3)
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राजू-  बाबा! अभी तक के चारों सोपान तो लगातार कठिन ही होते गये हैं, पांचवाॅं सोपान तो सरल है या और कठिन?
बाबा- पहले समझ लो फिर विचार करना कि सरल है या कठिन। पाॅंचवें स्तर को कहते हैं ‘‘ प्रत्याहार‘‘ ।  इसमें मन को उसके विषयों से हटाकर उसे निर्धारित विंदु पर स्थिर करने का अभ्यास किया जाता है। तुम लोग जानते हो कि हमारा मन पाॅंच ज्ञानेन्द्रियों (आॅंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) तथा पाॅंच कर्मेन्द्रियों (वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और पायु)  की सहायता से सभी काम करता है और सदैव चलायमान रहता है। परंतु यह इंद्रियाॅं, सभी प्रकार की वाह्य सूचनाओं को पाॅंच प्रकार की तन्मात्राओं की सहायता से ही प्राप्त कर पाती हैं। ये तन्मात्रायें शब्द, स्पर्श , रूप, रस और गंध के माध्यम से उन तक पहुॅच पाती हैं अतः यदि धीरे धीरे अभ्यास करते हुए इन तन्मात्राओं से उत्सर्जित होने वाले संवेदनों को मन तक पहुंचने से रोकने का प्रयास करना होता है । इसी अभ्यास का नाम प्रत्याहार है। योग मार्ग में प्रवीण आचार्यगण इस संबंध में अपने अपने अनुभव के अनुसार विभिन्न प्रकार की  विधियों को उपयोग में लाते पाये गये हैं ।

रवि- तो हम लोगों को इस का अभ्यास किस प्रकार करने में सरलता होगी?
बाबा- सरल और कठिन की अवधारणा को ही भूल जाओ। सभी कार्य प्रारंभ में कठिन लगते हैं परंतु अभ्यास की निरंतरता उन्हें सरल कर देती है। तुम लोग पूछ सकते हो कि कैसे भूल जाओ; जिस कार्य की जो प्रकृति है उसे तो अनुभव करना ही पड़ेगा? हाॅं, इसी अनुभूति को अभ्यास के द्वारा धीरे धीरे कम किया जा सकता है जिसके लिये किये गये सभी प्रयास प्रत्याहार की परिधि में आयेंगे। जैसे ‘शब्द तन्मात्रा‘‘ अर्थात् ध्वनि। कोई भी ध्वनि हो वह कानों के माध्यम से ही मन तक पहुंचेगी अतः कानों तक उसे पहुंचने के रास्ते को बंद करने का  उपाय करना अनिवार्य होगा, यही उपाय करने का कार्य प्रत्याहार की परिधि में आयेगा, जैसे कमरे को बंद करना, ध्वनि अवरोधकों का उपयोग करना आदि । धीरे धीरे इन संवेदनों के प्रति मन स्वयं उपेक्षा भाव लेने का अभ्यस्थ होता जाता है और एक ऐसी  स्थिति आती है कि कोई कितना ही शोरगुल क्यों न करता रहे वह उससे प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार के अन्य उपायों द्वारा अन्य तन्मात्राओं को मन तक पहुंचने से रोका जा सकता है। परंतु , अचानक इस प्रकार वाह्य संवेदनों से विच्छेदित  मन और अधिक विचलित होने लगता है अतः उसे  यदि उचित स्थान पर वैठा कर उचित कार्य दे दिया जाये तो वह कुछ देर के लिये शांत हो जायेगा, इसके बाद वह फिर से दिये गये कार्य और स्थान को छोड़कर भागना चाहेगा परंतु  बौद्धिक स्पंदनों से उसे बार बार याद दिलाना होता है कि भौतिक जगत की तुच्छ वस्तुऐं तुम्हारा लक्ष्य नहीं हैं तुम्हारा लक्ष्य तो महान है, विराट है आदि। उसे इसी प्रकार के सतत प्रयास से एक ही स्थान पर लगातार देर तक बैठाने का अभ्यास कराते कराते वह स्थिर हो जाता है और आगे के सोपान तक जाने के लिये तैयार हो जाता है। इस कार्य में ही सबसे अधिक समय लगता है, परंतु एक बार जब मन पर नियंत्रण हो जाता है तो फिर आगे बढ़ना सरल हो जाता है।

इंदु- इसके आगे उसे किस सोपान पर पहुंचाना पड़ता है?
बाबा- अगला सोपान ‘‘धारणा‘‘ कहलाता हैं, इसकी परिभाषा है ‘‘ देशबंधस्चित्तस्य धारणा‘‘ अर्थात् शरीर के किसी क्षेत्र विशेष में मन को द्रढ़ता पूर्वक बाॅंधे रखना । इसका आशय यह है कि शरीर में स्थित उसके मुख्य पाॅंच घटकों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश  के ऊर्जा केन्द्रों पर मन को वैठा कर उन चक्रों या केन्द्रों से संबंधित दिये गये मंत्र पर पृथक पृथक चिंतन कराना। योग के प्रबुद्ध आचार्य इन चक्रों को  मंत्रों की सहायता से उनका शुद्धीकरण करने की विधियाॅं भी बताते हैं, जिससे मन को देर तक स्थिर बनाये रखने में सहायता मिलती है। इस कार्य को चक्रशोधन कहते हैं। इस स्तर पर पूर्वोक्त घटकों पर उनके मंत्र का आघात करने से ऊर्जाकेन्द्र सक्रिय हो जाते हैं। यहाॅं ऊर्जा केन्द्रों के सक्रिय हो जाने पर अनेक प्रकार की सिद्धियाॅं मन को लुभाने लगती हैं जिनसे बड़ी सावधानी के साथ सतर्क रहना पड़ता है अन्यथा अहंकार का बढ़ता प्रभाव, किये गये सब पराक्रम पर पानी फेर देता है और पतन की ओर गति हो जाती है। अनेक उच्च स्तर पर पहुंच चुके  महात्मा लोग सिद्धियों के चक्कर में पतित होते देखे गए हैं।

नन्दू- बाबा! इसके आगे का स्तर क्या है ?
बाबा- इसके आगे का स्तर कहलाता है ‘‘ध्यान‘‘। पतंजली के अनुसार ‘तत्र प्रत्यत्यैकतानता ध्यानम्‘ अर्थात् परम लक्ष्य की ओर मन का सतत प्रवाह बनाये रखना। इसलिये ध्यान परमपुरुष पर किया गया इस प्रकार का चिंतन है जिसमें मन बिना किसी अवरोध या रुकावट के उनकी ओर लगातार बढ़ता जाता है। इसमें वैज्ञानिक तथ्य यह है कि साधक अपनी मूल आवृत्ति (fundamental frequency) अर्थात् इष्ट मंत्र की सहायता से परमपुरुष की मूल आवृत्ति (cosmic frequency) के साथ समानान्तरता लाने का अभ्यास करता है। इस स्तर पर गुरु का सतत मार्गदर्शन  आवश्यक  होता है। परम सत्ता की मूल आवृत्ति को विद्वान योगाचार्योें ने ‘ओंकार ध्वनि‘ (cosmic sound) कहा है, इसके साथ व्यक्तिगत इष्टमंत्र की सहायता से होने वाला अनुनाद (resonance) ही परम लक्ष्य तक पहॅुंचाता है।

रवि- बाबा! धारणा और ध्यान के मूलतत्व क्या हैं इन्हें फिर से समझा दीजिये और यह भी बता दीजिये कि  इनमें अंतर क्या है, और इसके आगे क्या है?
बाबा - ठीक है, इसे ध्यान पूर्वक समझ लो। चित्त का लक्षण अपने विषय का रूप ग्रहण करने का होता है जो वह ग्राहिका और विक्षेपिका नामक क्रियाओं के द्वारा कर पाता है, ग्राहिका ज्ञानेद्रियों और विक्षेपिका कर्मेन्द्रियों के द्वारा सम्पन्न होती हैं। इस प्रकार पहले वह संवेदना ग्रहण करता है फिर उसे कार्य रूप देता है। अतः चित्त के अपने विषय के अनुरूप आकार ग्रहण करने के गुण को धारणा अर्थात् पकड़ना कहते हैं। चूंकि आकार संवेदनों द्वारा ग्रहण किया जाता है अतः वह सतत नहीं होता क्योंकि संवेदनायें सतत नहीं होती परंतु उनकी तेज गति से होने के कारण हमें  सतत होते प्रतीत होती हैं। इसलिये धारणा गतिशील नहीं होती स्थिर होती है। ध्यान भी धारणा की  तरह चित्त की ही अवस्था है, परंतु ध्यान बाहरी विषय का नहीं होता इसलिये, इसे बाहरी संवेदनाओं की आवश्यकता  नहीं होती और यहाँ  किन्हीं दो संवेदनाओं में अंतर न होने के कारण चित्त में बने आकार का ध्यान सतत होता है तैल धारावत्। अतः ध्यान का अर्थ हुआ स्थायी स्मरण, विना रुकावट के स्मरण। ध्यान की प्रक्रिया इतनी सतत होती है कि पूरी क्रियात्मकता इसके सातत्य को बनाये रखने में ही व्यय हो जाती है इसलिये ध्यान में अन्य सब क्रियायें समाप्त हो जाती हैं। और जब क्रियायें समाप्त हो जातीं हैं तो मन भी समाप्त हो जाता है इसे ही समाधि कहते हैं, ‘‘कर्म समाधि ‘‘। यही अष्टाॅंगयोग का आठवाॅं और अंतिम सोपान है। इस प्रकार धारणा और ध्यान दोनों में बहुत भिन्नता है भले ही वे दोनों चित्त से ही उत्पन्न होते हैं। धारणा में चित्त वाह्य वस्तुओं का आकार ग्रहण करता है जबकि ध्यान में सब कुछ आन्तरिक होता है। धारणा स्थिर होती है जबकि ध्यान गतिशील। धारणा में क्रिया हो सकती है पर ध्यान में नहीं । धारणा तमोगुणी होती है जबकि ध्यान रजोगुणी। ध्यान में अंतिम रूप से क्रिया समाप्त हो जाती है जिसका उद्देश्य  सतोगुणी समाधि प्राप्त होने पर पूरा होता है।

इंदु- हमें समाधि का अनुभव प्राप्त करने के लिये अपने को किस प्रकार तैयार करना चाहिये?
बाबा- समाधियाॅं अनेक प्रकार की होती हैं, परंतु सभी का रसास्वादन करने के लिये मूलभूत आवश्यकता  होती है, मन के विभिन्न कोशों  का शुद्धिकरण । मन के पंच कोशों  को पूर्णतः विकसित कर लेने पर ही वहाॅं पहुंचने और अनुभव करने में सरलता होती है। समुचित आसनों के अभ्यास करते रहने में ‘अन्नमय कोश ‘, यम और नियम के पालन करने में ‘काममय कोश ‘  प्राणायाम के नियमित अभ्यास से ‘मनोमय कोश ‘ प्रत्याहार के अभ्यास से ‘अतिमानस कोश ‘ धारणा के अभ्यास से ‘विज्ञानमय कोश ‘ ध्यान  के अभ्यास से ‘हिरण्यमय कोश ‘ पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाते हैं। इसके बाद, केवल ध्यान समाधि ही आत्म दर्शन  कराती है। इसलिये पवित्र व्यक्ति वे हैं जो पंचकोशों  को शुद्ध करने में नियमित रूपसे जुटे हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट ही है कि मानव अस्तित्व तो पाॅंच कोशों  का होता है परंतु आध्यात्मिक साधना आठ स्तरों की होती है। इन आठों स्तरों का सही सही अभ्यास करना ही धर्म है, जो भी सिद्धान्त इन पंचकोशों  के शुद्धिकरण के संबंध में समुचित जानकारी नहीं दे पाते वे धर्म नहीं मतवाद ही कहलाते हैं ।

Sunday, 6 March 2016

52 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -2)

( मित्रो पिछली क्लास में अष्टाॅंग योग के दो सोपानों पर चर्चा की जा चुकी है, आज हम इसके आगे चर्चा करेंगे )
52 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -2)
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रवि- बाबा! यह दूसरा स्तर तो पहले स्तर से भी कठिन लगता है, शायद इसी कठिनाई से डरकर लोग इससे दूर ही रहना चाहते हैं?
बाबा- प्रारंभ में तो सभी कुछ कठिन लगता है, परंतु एक बार अच्छी तरह इसका महत्व और प्रक्रिया को सही ढंग से समझ लेने पर सब कुछ सरल हो जाता है। इसके आगे आता है तीसरा स्तर जिसे ‘‘आसन‘‘ कहागया है और एक बार विस्तार से तुमलोगों को इसके बारे में पहले बताया भी जा चुका है ।

इंदु- हाॅं बाबा! परंतु हम चाहते हैं कि फिर से उसे दुहरा दिया जाये तो सभी स्तरों के साथ याद रखने में सहायता मिलेगी?
बाबा-  मानव शरीर विज्ञानी कहते हैं कि शरीर के स्वस्थ संचालन हेतु प्रकृति ने इसमें अनेक ग्रंथियाॅं और उपग्रंथियाॅं ‘‘अर्थात् ग्लेंडस् और सबग्लेंडस्‘‘ बनाई हैं जिनसे निकलने वाले ग्रंथिरस ‘‘अर्थात् हार्मोन्स‘‘ के माध्यम से यह शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन बनाये रखता है। संस्कृत में इन्हें चक्र और लेटिन में प्लेक्सस कहते हैं।
योगासन वे सरल भौतिक स्थितियाॅं हैं जो ग्रंथियों और ऊर्जा केन्द्रों को हारमोन्स का स्राव करने हेतु अनुकूल परिस्थितियाॅं पैदा करती हैं। इनसे ग्रंथियों का दोष दूर होता है और वृत्तियों पर नियंत्रण होता है। आसन ग्रंथियों को, ग्रंथियाॅं हारमोन्स को और हारमोन्स वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। ये शरीर में लचीलापन लातीं हैं। शरीर और मन में संतुलन रखती हैं। मन को जड़ चिंतन से दूर करती हैं। उच्च और सूक्ष्म साधना करने के लिये मन को तैयार करतीं हैं। आसनों के प्रकार प्रमुखतः ये हैं-
1 सर्वांगासन -शारीरिक स्वास्थ्य के लिये।
2 ध्यानासन- मन को नियंत्रित करने और ध्यान के लिये जैसे पद्मासन, बद्धपद्मासन, सिद्धासन और वीरासन। 3 मुद्रा- यह कठिन आसन होते हैं जो उचित साॅंस लेने और नियंत्रण के लिये किये जाते हैं।
4 बन्ध- ये केवल षरीर के भीतर की दस वायुओं को प्रभावित करते हैं।
5 वेध- ये सभी नाडि़यों और वायुओं को प्रभावित करते हैं।
प्रत्येक चक्र से मनुष्य के संस्कार या ‘प्रोपेन्सिटीज‘ भी जुड़े रहते हैं जो योगासनों के नियमित अभ्यास करने से नियंत्रित होते हैं। संस्कारों के नियंत्रण से विचार भी नियंत्रित होने लगते हैं, क्योंकि सभी योगासनें या तो ग्लेंडस् पर दवाव डालती हैं या दवाव कम करती हैं। जैसे मयूरासन में मणीपुर चक्र के चारों और दवाव बनने से उसपर और संबंधित उपग्रंथियों पर भी धनात्मक प्रभाव पड़ता है अतः वे सब संतुलित हारमोन्स का स्राव कारने लगती हैं जिससे जन्मजात प्रवृत्तियाॅं भी नियंत्रित होने लगती हैं। उदाहरणार्थ, यदि किसी को सभाओं में या वाद विवाद प्रतियोगिता में बोलने में डर लगता है और यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करने लगे तो यह भय समाप्त हो जायेगा।
हारमोन्स का अधिक स्राव होने से प्रोपेन्सिटीज अधिक सक्रिय होती हैं और कम स्राव होने पर कम, इसलिये योगासनों के नियमित अभ्यास करने पर हारमोन्स के स्राव को आवश्यकतानुसार कम या अधिक किया जा सकता है। थायराइड और पैराथायराइड ग्लेंडस्  अर्थात् ‘‘विशुद्धचक‘‘ एवं आज्ञा चक्र अर्थात् ‘‘पिट्युटरी ग्लेंड‘‘ दोनों बौद्धिक विकास के लिये,  और लिंफेटिक ग्लेंडस्  अर्थात् मूलाधार , स्वाधिष्ठान और मणीपुर चक्र भौतिक विकास के लिये उत्तरदायी होते हैं। शीर्षासन सभी के लिये हानिकारक है, शीर्ष पर सहस्त्रार चक्र या पीनियल ग्लेंड होता है जो ध्यान की उचित विधियों के अनुसार अभ्यास करके सक्रिय किया जाता है न कि शीर्षासन से। इसके सक्रिय होने से सभी प्रोपेन्सिटीज और पूरा शरीर नियंत्रण में आ जाता है।
चक्रों और प्रोपे्रन्सिटीज पर नियंत्रण करने की यौगिक पद्धति का अनुसंधान 2000 वर्ष पूर्व  महान संन्त अष्टावक्र ने किया था और अपने निष्कर्षों को अष्टावक्रसंहिता नामक ग्रंथ में लिखा था। हमें मनमाने तरीके से इन्हें नहीं करना चाहिये वरन् जानकार व्यक्ति के मार्गदर्शन में ही अभ्यास करना चाहिये अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

चंदू-  बाबा! हमें कौन से आसन करना चाहिये?
बाबा-  सर्वांगासन छात्रों के लिये सर्वश्रेष्ठ है। इसके अलावा मत्स्येन्द्रासन, भुजंगासन, शषकासन, बज्रासन और वीरासन भी यथा समय करना चाहिये।
आसन के बाद अष्टाॅंगयोग में अगला स्तर आता है ‘‘प्रणायाम‘‘ का, इसे भी एक बार विस्तार से बताया जा चुका है।

रवि- जब आसनों को दुहरा कर नवीन कर दिया गया है तो प्रणायाम को भी क्यों न नवीनीकृत किया जावे?
बाबा- स्वाभाविक श्वास  पर नियंत्रण करने का कार्य अष्टाॅंग योग में अनिवार्य घटक माना गया है, संस्कृत में इसे प्राणायाम कहते हैं। वह विधि जिससे प्राण (vital fluid) अर्थात् प्राण के दसों प्रकार प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, क्रकर, देवदत्त और धनन्जय, इन सब पर नियंत्रण किया जाता है प्राणायाम कहलाती है। यदि आप हर प्रकार के ज्ञान को आत्मसात कर पाने की अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहते हैं तो प्राणों को अधिकतम विस्थापन अर्थात् आयाम (amplitude)  देने की यह वैज्ञानिक विधि सीखना चाहिये जिससे मन को एक विंदु पर केन्द्रित करना सरल हो जाता है। यह शरीर के अनेक रोगों को दूर करने के भी काम आता है , परंतु किसी भी प्रकार के प्राणायाम को बिना उचित मार्गदर्शक  के करना वर्जित है। प्राणायाम को  साधारण, सहज, विशेष और अन्तः इन चार प्रकारों में विभाजित किया गया है ।

रवि- प्राणायाम की सही विधि क्या है?
बाबा- साधारण प्राणायाम की विधि में आॅंखें बंद कर सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर आसन शुद्धि करने के बाद मन को अष्टाॅंगयोग के आचार्य के द्वारा बताये गये बिंदु पर मन को स्थिर करके चित्त शुद्धि करने के बाद अपने इष्ट मंत्र के पहले अक्षर पर चिंतन करते हुए दाॅंये हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका को दबाये हुए वाॅंयी नासिका से धीरे धीरे गहरी श्वास भीतर खींचना चाहिये और इस समय सोचना चाहिये कि अनन्त ब्रह्म जो हमारे चारों ओर है उसके किसी विंदु से अनन्त जीवनीशक्ति भीतर प्रवेश  कर रही है। पूर्ण श्वास  भर जाने के बाद वाॅंयीं नासिका को मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करते हुए दाॅयीं नासिका से अंगूठे को हटा कर श्वास  को धीरे धीरे बाहर करते हुए सोचना चाहिये कि अनन्त जीवनीशक्ति अनन्त ब्रह्म में वापस जा रही है और साथ साथ अपने इष्ट मंत्र के दूसरे अक्षर पर चिंतन करते रहना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि श्वास  लेते हुए या छोड़ते हुए आवाज नहीं हो । पूरी श्वास  निकल जाने के बाद अब दाॅयीं नासिका से धीरे धीरे पूरी श्वास  लेते हुए उसी प्रकार इष्ट मन्त्र  चिंतन करते हुए अंगूठे को उसी प्रकार दबा कर अंगुलियों को हटाकर श्वास  को पूर्णतः बाहर कर देना चाहिये । यह एक प्राणायाम हुआ।

चंदू- तो क्या इसकी न्यूनतम और अधिकतम संख्या निर्धारित है?
बाबा- हाॅं, एक सप्ताह तक केवल तीन प्राणायाम दोनों समय करना चाहिये, फिर प्रति सप्ताह एक एक की वृद्धि करते हुए अधिकतम सात प्राणायाम करने की सलाह दी जाती है। प्राणायाम को एक दिन में अधिकतम चार बार तक किया जा सकता है। जो नियमित रूप से दो बार प्राणायाम कर रहे हों और किसी दिन वे तीनबार करना चाहते हैं तो कर सकते हैं पर उन्हें अचानक चार बार प्राणायाम नहीं करना चाहिये । इसलिये उचित यही है कि पहले पहले दोनों समय तीन और फिर एक सप्ताह बाद क्रमशः  एक एक बढ़ाते हुए अधिकतम सात की संख्या तक ही करना चाहिये। फिर भी कोई यदि किसी दिन निर्धारित संख्या में प्राणायाम नहीं कर पाया हो तो सप्ताह के अंत में उतनी संख्या बार प्राणायाम करके क्षतिपूर्ति कर लेना चाहिये। यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि धूल, धुएं और दुर्गंध से दूर रहें तथा अधिक शारीरिक श्रम न करें। इसका अभ्यास प्रारंभ करने के समय प्रथम दो माह तक पर्याप्त मात्रा में दूध और उससे बनी सामग्री का उपयोग भोजन में करना चाहिये।