Monday, 25 April 2016

59 बाबा की क्लास (पुरुषोत्तम)

59 बाबा की क्लास (पुरुषोत्तम)

राजू- बाबा! क्या हमारी यह समझ उचित है कि सृष्टि अर्थात् प्रकृति को समझने के लिये किया जाने वाला प्रयास संश्लेषणात्मक होना चाहिये न कि विश्लेषणात्मक ?
बाबा- समग्र ब्रह्माॅंड को और उसके नियंत्रक निर्माता को विश्लेषणात्मक विधियों से नहीं जाना जा सकता इससे तो केवल ऊर्जा और पदार्थ तक ही पहुंच पाते हैं जो प्रकृति के अवयव होने के कारण उससे बाहर जाने का रास्ता नहीं बता पाते, परंतु इनका संयुक्तिकरण करने पर उनके निर्माता और नियंत्रक का विचार मन में आता है। उस निर्माता को जानने के बाद फिर कुछ भी जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। हाॅं पदार्थ और ऊर्जा के समुचित उपयोगों को जानने के लिये उनके लक्षणों का विश्लेषण करना आवश्यक होता है।

नन्दू- लेकिन वैज्ञानिक तो यही विश्लेषणात्मक विधियाॅं अपना कर सभी कार्य कर रहे हैं चाहे वह समाजोपयोगी हो या ध्वंसात्मक?
बाबा- इसीलिये तो हमें यह प्रयास करना अत्यंत आवश्यक हो गया  है कि विज्ञान को आध्यात्म सम्मत और आध्यात्म को विज्ञान सम्मत बनाया जाय। अन्यथा परमाणुओं में संचित प्रचंड ऊर्जा पर नियंत्रण करना कठिन होगा और मानव अपने ही विनाश का कारण बनेगा।

रवि-  क्या आपके बताये अनुसार ब्रह्मचक्र का आधा भाग जिसे ‘संचर‘ कहा गया है वह विश्लेषणात्मक और शेष आधा भाग जिसे ‘प्रतिसंचर‘ कहा गया है, को संश्लेषणात्मक कहा जा सकता है?
बाबा- संचर और प्रतिसंचर मिलकर ही पूर्णता लाते हैं, इसलिये यह ‘पुरुषोत्तम‘ की उस विचार तरंग को ही प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक से अनेक होने की कल्पना की गयी है। संचर में एक ही तरंग से क्रमशः अनेक होना क्रमागत होने के कारण परस्पर संयुक्त ही होता है भले वह हमें पृथक होने का आभास देता है, इसी प्रकार यही तारतम्य प्रतिसंचर में भी लगातार बना रहता है। जैसे, द्रश्य पदार्थ में अनेक तत्वों का समावेश पाया जाता है परंतु सभी तत्वों की संरचना प्रोटान और इलेक्ट्रान  के क्रमागत व्यवस्थित विन्यास से ही हुई है ।

इंदु- जब वह परम सत्ता एक ही है तो  कभी कभी आप उसे निर्पेक्ष ब्रह्म, कभी परमपुरुष, कभी पुरुषोत्तम आदि अलग अलग नाम बता कर हमें क्यों भ्रमित करते हैं?
बाबा- तुम लोगों ने पिछली क्लास में सृष्टि के सृजन की प्रक्रिया ठीक ढंग से समझ ही ली है तो उसमें ही स्पष्ट किया गया है कि यह नाम भ्रम पैदा करने के लिये नहीं हैं वरन् ब्रह्म चक्र में निर्धारित लाक्षणिक गतिविधियों को सम्पन्न करने वाली संबंधित सत्ता के दार्शनिक नाम हैं। जैसे, निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म, परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सगुण ब्रह्म, आदि। निर्पेक्ष सत्ता या परमब्रह्म को सच्चिदानन्दघन भी कहा जाता है । यथार्थतः केवल इन्हीं का अस्तित्व है अन्य सभी सापेक्षिक अस्तित्व, इन्हीं की कल्पना है।
निर्पेक्ष सत्ता, या परमब्रह्म या परमसत्ता अर्थात् ‘कास्मिक एंटिटी‘ वह अस्तित्व  है जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( potential form  ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो।
पुरुषोत्तम, अवस्था वह है जो संचर और प्रतिसंचर के रूप में गतिशील ब्रह्म चक्र को, उसके केन्द्र में बैठकर समस्त गतिविधियों का साक्ष्य देता है। यह प्रकृति की किसी भी गतिविधि में भाग नहीं लेता परंतु सभी गतिविधियों का सम्पन्न हो पाना उसकी उपस्थिति में ही संभव हो पाता है इसी लिये उसे साक्षी सत्ता (cosmic entity ) कहा जाता है।
सगुण ब्रह्म, पूरा ब्रह्मचक्र है, जिसमें ‘‘निर्माण, पालन और संहार‘‘ लगातार चलते हैं । इसमें प्रकृति का  वह स्वरूप जिससे निर्माण होना प्रतीत होता है उसे दार्शनिक नाम ‘ब्रह्मा,‘ जिससे पालन करने का कार्य दिखाई देता है उसे दार्शनिक नाम विष्णु और संहारक का दार्शनिक नाम ‘महेश‘ दिया गया है। ये सभी अपने अपने निर्धारित कार्य यथा समय सम्पन्न करते हुए अन्त में अपने मूल तत्व परम ब्रह्म में लय हो जाते हैं।

चंदु- परंतु कभी कभी आपने ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति‘ , इन नामों का भी अपनी व्याख्याओं में उल्लेख किया है, ये परमपुरुष से किस प्रकार भिन्न हैं?
बाबा- ‘तारक ब्रह्म‘ और ‘महासम्भूति ‘ एक ही सत्ता के क्रमशः तान्त्रिक और दार्शनिक नाम हैं। यह वह सत्ता हैं जो कभी हमारी तरह ही बद्ध थे परंतु अपनी साधना और तप के द्वारा सभी संस्कारों से मुक्त होकर परम सत्ता का साक्षात्कार कर चुकने के उपरान्त लोक शिक्षण और कल्याण का संकल्प लेकर अपना  वर्तमान शरीर ही धारण किये रहे और अपना संकल्प पूरा कर आध्यात्मिक विद्या और धर्म की संस्थापना कर चले गये। तारक ब्रह्म, सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच पुल (bridge ) का कार्य करते हैं। सगुण ब्रह्म का कार्य है कि, सृष्ट की गयी प्रत्येक सत्ता को मुक्त होने का अवसर प्रदान करना। ‘‘गुरुरेको ब्रह्म न परः‘‘ के अनुसार ये तारक ब्रह्म ही सच्चे गुरु होते हैं जो ब्रह्मविद्या की उपासना करना सिखलाते हैं और कुरीतियों, आडंबर, भावजड़ता, अज्ञान, अशिक्षा और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं।

रवि-  तो क्या इसका यह साराँश है कि निर्गुण या निराकार सत्ता अपने आपको एक से अनेक होने के लिये अपनी क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मचक्र चलाते हैं जो उनकी सगुणता या साकारता  है और स्वयं केवल साक्षी स्वरूप रहते हैं। बीच की सभी सापेक्षिक सत्तायें और उनके नाम केवल दार्शनिक स्तर पर ही मान्य हैं।
बाबा- हाॅं साराॅंश यही है, परंतु समय समय पर विद्वानों और व्यख्याकारों ने अपने अपने ढंग से समझाते हुए अनेक प्रकार से भ्रम उत्पन्न किया है।

इंदु- बाबा! क्या सृष्टि के निर्माण से अब तक कोई महासम्भूति या तारकब्रह्म इस धरती पर हुए हैं? यदि हाॅं तो  उनके नाम क्या हैं ?
बाबा- अभी तक ‘‘भगवान सदाशिव और भगवान कृष्ण‘‘ को ही दार्शनिकगण महासम्भूति या तारक ब्रह्म के स्तर का मानते हैं।

नन्दू- बाबा! महासंभूति या तारकब्रह्म का स्तर साधना और तप के द्वारा हममें  से किसी को भी प्राप्त हो सकता है तो उस अवस्था में तारक स्तर पर पहुंचे व्यक्ति का कार्य व्यवहार कैसा हो जाता है जिसे देख समझकर पहचाना जा सके कि वे उस स्तर के योग्य सचमुच हैं या नहीं?
बाबा- आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया हुआ महापुरुष जब लोक कल्याण करने का व्यापक संकल्प लेता है तो उसके अपने तो कोई संस्कार होते नहीं हैं जो उसे भोगना हों अतः उसके सभी कार्य सगुण ब्रह्म के कार्य में सहायता पहुंचा कर प्रतिसंचर की क्रिया को तेज करना होता है। सामाजिक रूप से वे यह कार्य इन छः प्रकारों से करते हैं और समाज में आन्दोलन लाकर ध्रुवीकरण कर देते हैं। 1. आध्यात्मिक अभ्यास की परक्षित विधियों की शिक्षा (tested spiritual  practices  2. आध्यात्मिक आदर्श (spiritual ideology ) 3. सामाजिक द्रष्टिकोण (social outlook ) 4. सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त (socio - economic theory )  5.  इन सभी से संबंधित साहित्य (scripture ) 6. प्रवर्तक (preceptor ) अर्थात् वे स्वयं।

Sunday, 17 April 2016

58 बाबा की क्लास ( स्पेस, टाइम और स्रष्टि )

58 बाबा की क्लास ( स्पेस, टाइम और स्रष्टि )
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रवि- बाबा! आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिगबेंग ( इपहइंदह ) सिद्धान्त को मानते हैं पर यह नहीं बता पाते कि यह बिगबेंग किसने किया। इस सिद्धान्त के अनुसार बवेउवे अर्थात् ब्रह्माॅड, 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ   10-37   सेकेंड में उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में द्रश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ का परिमाण 3 से 100x1022    तारों की संख्या बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बिग बेंग की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि 1015    केल्विन ताप के विकिरण के साथ स्पेस-टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद  10&29 सेकेंड में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार 1027  अथवा अधिक के गुणांक में हुआ। इस पर आध्यात्मिक विज्ञान का क्या मत है?
बाबा- वैज्ञानिकों के कथन पर चिंतन करो, बिगबेंग  10-37  सेकेंड में  1015    केल्विन ताप के विकिरण के साथ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से  100x1022    तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐंसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस कासमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस कासमस के पदार्थ उन्हीं की विचार तरंगें हैं।

राजू- आध्यात्मिक विज्ञान के अनुसार उन परमसत्ता ने इसे किस प्रकार कल्पित किया? आधुनिक वैज्ञानिक सचमुच आपके इन प्रश्नों के उत्तर नहीं जानते, इतना ही नहीं वे तो ‘‘स्पेस और टाइम‘‘  को भी सही सही नहीं  बता पाते, उनके शोधकार्य इन्हें पता लगाने के लिये ही हो रहे हैं जिनमें आधुनिकतम लार्ज हाइड्रान कोलायडर (‘एलएचसी‘) प्रयोग महत्वपूर्ण है जिसमें बिगबेंग के समय का ताप निर्मित कर ब्रह्माॅंड के निर्माण के समय का वातावरण बनाया गया और प्राप्त आॅंकड़ों का विश्लेषण किया जाना जारी है। गुरुत्वाकर्षण के मूल कारण का भी पता लगाया जा रहा है।
बाबा- वैज्ञानिक स्पेस और टाइम के बारे में क्या कहते हैं?
राजू - उनके अनुसार स्पेस अर्थात् काॅसमस  ऐंसा रेशा (fiber) है जो मोड़ा और ऐंठा जा सकता है और टाइम अर्थात् समय के साथ चार विमीय रेशा (fiber) निर्मित कर लेता है। समय और स्पेस अपने आप में एडजस्ट होते रहते हैं जिससे प्रकाश  की चाल एकसमान बनी रहती है चाहे वह कुछ भी क्यों न हो।  स्पेस वह लचीला रेशा (fiber)  है जिसमें गेलेक्सियां, तारे और अन्य भारी ग्रह भरे हुये हैं। इनका भार स्पेस- टाइम रेशा (fiber)  को मोड़ देता है जिससे कम द्रव्यमान के तारे या ग्रह भारी द्रव्यमान के तारे के चारों ओर घूमने लगते हैं जैसे पृथ्वी, सूर्य के तथा चंद्रमा, पृथ्वी के चक्कर लगाता है। इस घटना को गुरुत्वाकर्षण बल कहा जाता है जो  ‘स्पेस‘ के चार प्रमुख बलों में से एक है। और टाइम के सम्बन्ध में यह कहते है कि - चूंकि स्पेस और टाइम एकीकृत होते हैं इसलिये स्पेस के भीतर गति, समय को प्रभावित करती है। टाइम गतिशील व्यक्ति के लिये धीमा हो जाता है जबकि स्थिर व्यक्ति के लिये तेजी से गति करता है, इसका अर्थ यह हुआ कि टाइम की गतिशीलता जो हम अनुभव करते हैं वह एक भ्रम है। इस स्थिति में प्रारंभ से लेकर भविष्य में बहुत दूर तक, समय का प्रत्येक क्षण, साथ साथ रहता है परंतु वह काॅसमस के विभिन्न क्षेत्रों में होता है। इससे समय के गतिशील होने की संकल्पना इस प्रकार बनती है कि ‘टाइम और स्पेस के एकीकृत भौतिक अस्तित्व होने के कारण यह संभव है कि स्पेस-टाइम रेशों  (fibers ) में, कुछ लघु रास्ते हों जो हमें वर्तमान समय से भिन्न किसी अन्य समयान्तराल में ले जा सकें‘। समय की गतिशीलता होने के वावजूद इसके कोई प्रमाण नहीं हैं जिनके आधार पर हम भूतकाल अथवा भविष्य को परिवर्तित कर सकें। इसका कारण यह है कि समय के विभिन्न अन्तराल स्थायी अवस्था में रहते हुए सहअस्तित्व में होते हैं। फिर भी टाइम की सही सही प्रकृति अभी भी पूरी तरह ज्ञात नहीं है।

बाबा- तो यह स्पष्ट है कि वैज्ञानिक न तो स्पेस और न टाइम को और न ही गुरुत्वाकर्षण को पूर्णतः पारिभाषित कर पाये हैं, परंतु उनकी सूक्ष्म राशियों का उपयोग करते अवश्य पाये गये हैं। आध्यात्मिक विज्ञान में इसे समझने के लिये ‘‘परमसत्ता अर्थात् कास्मिक ऐंटिटी‘‘ के संबंध में पहले समझाया जा चुका है उसे स्मरण करो। परमसत्ता अर्थात् ‘कास्मिक ऍटिटी‘ वह अस्तित्व  है जो सत्य और सघन आनन्द की चेतना से भरा हो पर अपने ही अस्तित्व को भूला हो और सभी प्रकार की क्रियात्मक क्षमतायें प्राप्त होते हुए भी उन्हें सुप्तावस्था में ( potential form ) अपने भीतर ही सुसंतुलित किये हो। इस क्रियात्मक क्षमता को आन्तरिक रूपसे सुसंतुलन में बनाये रखने के लिये परस्पर विरोधी बल ‘सत‘ और ‘तम‘ लगातार सक्रिय रहते है जिसके परिणाम स्वरूप एक तीसरा बल ‘रज‘ सक्रिय हो जाता है और बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार साम्य बनाए रहता है। इन तीनों बलों को संयुक्त रूप से त्रिगुणात्मक ‘‘प्रकृति‘‘ ( operative principle) और जिसमें यह आश्रय पाती है उसे ‘‘पुरुष‘‘ अर्थात् ( cognitive principle) कहा जाता है। इस तरह प्रकृति और पुरुष अविनाभावी हैं अर्थात् एक सिक्के के दो पहलु होते हैं । संतुलन की प्रक्रिया में प्रत्येक बल जिस क्षण अपने आप को दूसरे बलों पर प्रभावी बनने के प्रयास में असंतुलित हो जाता है तो प्रकृति अपनी गतिज अवस्था (kinetic form)  में आ जाती है और वह उस निर्पेक्ष सत्ता को उसके अस्तित्व का बोध कराती है जिससे उस परम ब्रह्म के मन (cosmic mind) में अपने को एक से अनेक में परिवर्तित करने की इच्छा उत्पन्न होती है जिसे इच्छाबीज कहा जाता है और यह पूर्वोक्त बलों के त्रिभुज के किसी एक शीर्ष में सक्रिय हो जाता है जिसे शंभुलिंग कहते हैं। त्रिभुज के केन्द्र पर स्थित परम ब्रह्म जो अब पुरुषोत्तम कहलाते हैं, अपने ही कुछ भाग पर अनेक रूप निर्मित करने के लिये प्रकृति को अनुमति देते हैं। सच्चिदानन्द सत्ता (पुरुषोत्तम) की अनुमति और निर्देशित प्रणाली के आधार पर ज्योंही प्रकृति अपना कार्य करने को तैयार होती  है उस अवस्था को ‘‘कौषिकी या शिवानी‘‘ कहते हैं और इसे नियंत्रित करने वाले आधार को ‘‘शिव‘‘ कहते हैं। निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ होते ही ‘शिवानी‘ पूर्वोक्त त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है और ‘स्पेस (space)‘ का निर्माण होने लगता है और शिवानी को अब ‘भैरवी‘ कहा जाता है जिसके नियंत्रक आधार को ‘भैरव‘ कहते हैं। ‘भैरवी‘ के अधिक वेगवान होने पर सरल रेखा में वक्रता ( curvature ) उत्पन्न हो जाती है। गति की दिशा  के ऊपर की ओर तरंग शीर्ष की वक्रता ‘‘ऊह‘‘ और तरंग की दिशा  से नीचे की ओर तरंगशीर्ष की  वकृता ‘‘अवोह‘‘ कहलाती है। एक ऊह और एक अवोह मिलकर एक ‘कला‘ ( wavelength  λ ) और आधा ‘ऊह‘ और आधा ‘अवोह‘ मिलकर ‘काष्ठा‘ ( half wavelength ) कहलाती है। इन्हीं कलाओं की गतिशीलता का मानसिक मापन, काल (time ) या कालिका कहलाता  है । इस प्रकार आकाश  (space )‘ और काल (time ) निर्मित हो जाने के बाद अगले क्रम में सूक्ष्म ऊर्जा, स्थूल  आकार ग्रहण करने लगती है और ‘भवानी‘ कहलाती है जो विभिन्न तत्वों अर्थात वायु पानी और अग्नि के समूह अर्थात् तारे और आकाशगंगाये और विभिन्न ठोस पिन्डों का निर्माण करने लगती है इसीलिये इस द्रश्य  प्रपंच को भवसागर कहते हैं। इसका एक नाम जगत भी है जिसका अर्थ है जो लगातार गतिशील है। निर्पेक्ष निराकार परम सत्ता इस प्रकार अपने आपको आकार में ले आते  हैं जो अब सगुण ब्रह्म कहलाते हैं और जिनका अस्तित्व बोध, इच्छाबीज, शंभु लिंग और शिवानी तक का क्षेत्र ‘‘महत्तत्व‘‘ या (existential I feeling ) शिवानी से भैरवी तक का क्षेत्र ‘‘अहम्तत्व‘‘ (doer I feeling) और भवानी से समग्र ब्रह्माॅंड तक का आकार ‘‘चित्त‘‘ (done I feeling) कहलाता है और महत् , अहम् और चित्त तीनों को सम्मिलित रूपसे ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) कहते हैं। सगुण ब्रहम की महत्तत्व से चित्तत्व तक की गतिविधियाॅं अर्थात् सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति, संचरक्रिया (centrifugal reaction in extroversal phase) कहलाती हैं और यह ‘‘ब्रह्मचक्र‘‘ (cosmic cycle) का आधा भाग कहलाता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति अर्थात् जड़ पदार्थों से वनस्पति जगत , जीवजगत  और मनुष्यों का क्रमागत विकास और अंततः अपने मूल तत्व उस निराकार परम ब्रह्म अवस्था को पहुंचाने तक की गतिविधियाॅं प्रतिसंचर क्रिया (centripetal action in introversal phase) कहलाती है।  संचर और प्रतिसंचर क्रिया दोनों को मिलाकर पूरा ब्रह्म चक्र अर्थात् कास्मिक साइकिल बन जाता है।
यहाॅं ध्यान देने की महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सब ‘‘ब्रह्म मन‘‘ या (cosmic mind) के भीतर ही काल्पनिक रूपसे चलता रहता है और यह विचार तरंगें उस परम सत्ता के सापेक्ष (relative) गति करती हैं अतः कोई भी दो तरंगें आपस में एक दूसरे को वास्तविक लगती हैं, जैसे एक समान चाल से एक ही दिशा  में समानान्तर चलने वाली दो रेलगाड़ियों के डिब्वों में वैठे यात्री अपने को स्थिर होने का आभास पाते हैं।

चंदू - बाबा! आपका कहना सत्य लगता है क्योंकि वैज्ञानिकों के द्वारा ब्रह्माॅंड का, समय के आधार पर पीछे की ओर, सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त के अनुसार, एक्स्ट्रापोलेशन करने पर पाया जाता है कि भूतकाल के निश्चित  समय में स्पेस का अनन्त ताप , दाब और ऊर्जा घनत्व था और बड़ी तेजी से फैलता और ठंडा होता जा रहा था। लगभग 10-37  सेकेंड में विस्तारण के भीतर ही ब्रह्माॅंड में क्वार्क ,ग्लुआन, प्लाज्मा और अन्य प्रारंभिक कण और उनके विपरीत कण बन गये और परिणामतः एन्टीमैटर पर मैटर का प्रभुत्व जम गया। इन सब गणनाओं में कास्मोलाजी का यह सिद्धान्त मानकर  काम किया गया कि लंबे पैमाने पर ब्रह्माॅंड समांग अर्थात् होमोजीनियस और एकदैशिक अर्थात् आइसोट्रोपिक है।

इन्दु- परंतु वैज्ञानिकों का कहना है कि 1040 वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066  वर्ष लेता है, परंतु इनमें से अधिकांश  अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1099  वर्ष लेगा ।
इस प्रकार ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेक होलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं।

बाबा-  वैज्ञानिकों ने सही कहा, परमपुरुष के अलावा कोई अमर नहीं है। वैदिक काल में समय का मापन और ब्रह्माॅंड की आयु का निर्णय करने के लिये न्यूनतम से महत्तम तक, अन्य नामों की सहायता से  इस प्रकार समझाया गया है-
न्यूनतम प्राचीन समय ‘1 त्रुटि‘ को सेकेंडों में बदलने पर ( 1 त्रुटि = 0.00007 सेकंड )
100 त्रुटि = 1  पर।
30 पर = 1  निमेष।
18 निमेष =1  काष्ठा।
20 काष्ठा =1  कला।
30 कला= 1  घटिका।
02 घटिका = 1 क्षण।
30 क्षणों =1 अहोरात्र अर्थात् मनुष्य का एक दिन रात।
360 अहोरात्र =1 मानव वर्ष।
1728000 मानव वर्ष= सतयुग।
1296000 मानव वर्ष= त्रेतायुग।
864000 मानव वर्ष= द्वापरयुग।
432000 मानव वर्ष= कलियुग।
4320000 मानव वर्ष=  एक महायुग।
71 महायुगों अर्थात् 306720000 मानव वर्षों क= एक मन्वन्तर।
8640000000 मानव वर्षों का ब्रह्मा का एक दिनरात अर्थात् एक कल्प।
311040000000000 मानव वर्षों में एक ब्रह्मापद धारक बदल जाते हैं।
18662400000000000000 मानव वर्षों में एक विष्णुपद धारक बदल जाते हैं।
44789760000000000000000000 मानव वर्षों में शिवपद धारक परमब्रह्म में लय हो जाते हैं। इसे ही एक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति से अन्त तक की आयु माना जाता है, जिसे ‘प्रकृति‘ की एक त्रुटि कहा जाता है। इससे यह तो स्पष्ट होता ही है कि वैदिक काल में समय की सूक्ष्मतम माप (0.00007 सेकंड) थी जो वर्तमान समय में यह एक सेकेंड का  9,192,631,770 वाॅं भाग तक शुद्ध मानी जाती है अतः काल गणना में वैदिक और वर्तमान अन्तरालों में लगभग साम्य होना माना जा सकता है। ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेकहोलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। अपने यूनीवर्स की तरह स्पेस में अन्य यूनीवर्स (universe) हो सकते हैं इसप्रकार मल्टीवर्स सिद्धान्त (multiverse theory) के समर्थन में और उसके विपरीत दोनों प्रकार के वैज्ञानिक वादविवाद कर रहे हैं। यह माना जा रहा है कि बुलबुले के आकार के सात यूनीवर्स हो सकते हैं जिनके स्पेस, टाइम अलग होंगे और उनके भौतिक नियम और स्थिरांक तथा विमायें या टोपोलाजी (topology) भी भिन्न होंगी। परंतु प्रायोगिक प्रमाणों के अभाव में ये विचार अभी एक मत से स्वीकार नहीं किये जा पा रहे हैं पर भविष्य में इस रहस्य से अवश्य  पर्दा उठ सकता है। अतः इस स्तर पर आधुनिक वैज्ञानिक और आध्यात्मिक वैज्ञानिक विचारों में समानता पाई जाती है।

Sunday, 10 April 2016

57 बाबा की क्लास (पुराण)

57 बाबा की क्लास (पुराण)
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नन्दू- बाबा! आपने तो हमें तर्क, विज्ञान और विवेकपूर्ण आधार पर सभी कुछ समझा दिया है और हमारे मन के अनेक संदेहों को भी दूर कर दिया है, परंतु पौराणिक कथाओं ने तो समाज के मन पर इस प्रकार राज्य जमा लिया है कि उनकी सभी घटनायें काल्पनिक होते हुए भी उन्हें सत्य माना जाता है, इस भ्रम को  दूर करने के लिये लोगों को समझा पाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। इसके लिये कुछ उपाय सुझाइये ताकि समाज का अधिकतम लाभ हो सके?

राजू- हाॅं बाबा! हम जब भी आपके बताये अनुसार तथ्यों को वैज्ञानिक आधार पर समाज के अन्य लोगों से चर्चा करते हैं तो वे सुनकर आश्चर्य करते हैं, हमारे स्पष्टीकरण को सही मानते हैं परंतु आचरण में कोई परिवर्तन नही ला पाते क्यों कि उनके मन में गहराई तक वही पौराणिक संस्कार भरे हुए हैं , वे उनके बाहर निकलना ही नहीं चाहते?

रवि- बाबा! ये लोग सही कह रहे हैं, मैं ने भी यही अनुभव किया है, यदि हम लोग समाज हित में सचमुच कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो ये कहानियाॅं सबसे बड़ी बाधा खड़ी करती हैं, इनके प्रभाव से मुक्त होने का सरलतम उपाय क्या हो सकता है?

बाबा- ठीक है, तुम लोग समाज के हित संवर्धन में अपना योगदान देने की इच्छा रखते हो यह बहुत ही सात्विक सोच है। परंतु इसके लिये सर्वप्रथम यह आवश्यक होगा कि कुछ भी कहने और अन्य लोगों को उसके रहस्य की व्याख्या करने के पहले उस पर स्वयं आचरण करने का अभ्यास करो। केवल सैद्धान्तिक रूप से  समझाने का परिणाम सार्थक नहीं होगा। तुम लोगों को शायद यह पता है कि वेदव्यास जी जब गहन साधना से ज्ञान प्राप्त कर जन साधारण को सिखाने के उद्देश्य से गाॅंवों और नगरों के भीड़ वाले स्थानों पर जाकर बुला बुला कर कहने लगे कि आओ तुम्हें ज्ञान की बातें सिखायें तब किसी ने उनकी बात सुनी ही नहीं । तभी उन्होंने उस ज्ञान की बातों को कहानियों के रूप में लिखने और सुनाने का संकल्प लिया, वही सब इन पौराणिक कथाओं के रूप में हमारे सामने है।

इंदु- अर्थात् ये कहानियाॅं काल्पनिक हैं?

बाबा- हाॅं। परन्तु उनके भीतर लोक शिक्षा भरी हुई है जिस पर कोई ध्यान नहीं देता बस अंधानुकरण ही किया जाता रहा है। तुम लोग यह तो जानते ही हो कि सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य को इतिकथा, इतिहास, पुराण और इतिवृत्त , इन चार भागों में बाॅंटा गया है। इतिकथा में सभी यथार्थ घटनाओं का तिथिवार पंजीकरण होता है और उसके जिस भाग का शैक्षिक महत्व होता है उसे ही इतिहास कहा जाता है। वे काल्पनिक कहानियाॅं जिनके किसी भाग का शैक्षिक महत्व होता है उन्हें पुराण कहते हैं और किसी व्यक्ति विशेष के जन्म से मरण तक का विवरण चाहे उसका शैक्षिक महत्व हो या न हो उसे  इतिकथा कहते हैं।

चंदू- बाबा! वेदव्यासजी ने किसी तथ्य विशेष को समझाने के लिये कल्पना का आधार लिया है इसे हम कैसे पहचान सकते हैं, या उस कहानी को पढ़ कर उसके शैक्षिक सारतत्व को कैसे समझ सकते हैं, इसे क्या आप उन्हीं की कहानी के आधार पर समझा सकते हैं?

बाबा- तुम लोग यह तो जान ही चुके हो कि यह स्रष्टि चक्र एक ही परमपुरुष की कल्पना तरंगे हैं जिन्हें उनकी ही क्रियात्मक शक्ति से निर्माण ,पालन और संहार के द्वारा इसे गतिमान बनाये रखा जा रहा है और उसके सभी अवयवों, विशेषतः मनुष्यों को अपने  इष्ट के प्रति निष्ठा और हृदय में प्रेम भर कर आगे बढ़ते जाने और अंततः उन्हीं में मिलकर चक्र पूरा करने की अपेक्षा की गई है। इस तथ्य को समझाने के लिये वेदव्यास जी ने उक्त त्रिविध शक्ति अर्थात् निर्माण, पालन और संहार को समझाने के लिये तीन अलग अलग अस्तित्वों की कल्पना की जिन्हें क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश या शिव कहा । फिर इनके प्रति निष्ठा और हार्दिक प्रेम के आधार पर चक्र को पूरा करने के लिये विष्णु को इष्ट मानने वाले त्रिपुरासुर और उसके पुत्र गयासुर की कल्पना की । और बोले-
एक त्रिपुरासुर नाम का असुर विष्णु का भक्त था, कुछ शिव भक्तों ने चाहा कि त्रिपुरासुर भी शिव की भक्ति करने लगे, अतः बिना यह समझाये कि जो विष्णु हैं वही शिव भी हैं बलपूर्वक शिव की पूजा कराने के लिये उस पर दबाव बनाने लगे। परंतु वह तो इष्टनिष्ठ था जानता था कि उसके इष्ट तो विष्णु हैं उन्हें नहीं छोड़ सकते। इसलिये उसने भी वैसा ही रास्ता अपनाया और शिवभक्तों के साथ लड़ाई कर बैठा। लड़ाई में उसकी मृत्यु हो गयी (इसी कारण शिव का एक नाम है त्रिपुरारि अर्थात् त्रिपुरासुर के शत्रु)। इसके बाद उसका पुत्र गयासुर भी बदले की भावना से शिवभक्तों के साथ लड़ाई करता रहा परंतु उसकी भी हार होतीे गई। इसके बाद उसने विष्णु की बहुत उपासना कर उनसे वरदान पा लिया कि स्वर्ग, मृत्यु अथवा रसातल किसी भी लोक में देवता, दानव या मानव किसी से भी उसकी हार न हो। इस प्रकार, अब वह चारों ओर फिर से लड़ाई करते हुए हर जगह अपनी जीत प्राप्त करने लगा। इससे उसका अहंकार इतना बढ़ गया कि वह कहने लगा कि अब वह विष्णु को भी युद्ध में हरायेगा।
तुम लोग तो जानते हो, यदि कोई शक्तिशाली हो जाता है  तो वह उस शक्ति का दुरुपयोग करने लगता है और यदि बहुत अधिक शक्ति मिल जाये गयासुर जैसी, तो वह बहुत अधिक दुरुपयोग करने लगता है।
फिर, हुआ यह कि उसने विष्णु जी पर हमला कर उन्हें हराकर पेड़ से बाॅंध दिया और उनकी पूजा अर्चना भी की, फिर चारों ओर मार काट करना प्रारंभ कर दी। अब, सब ओर से हाहाकार करते लोग विष्णु जी के पास आये और कहने लगे कि आपका वरदान पाकर गयासुर ने अत्याचार कर रखा है कुछ तो करो।
विष्णुजी बोले, हमारी हालत देखते हो? कैसे प्रेम से बाॅंध रखा है और पूजा अर्चना भी करता है, हम तो वचन से बंधे हैं। लोगों ने कहा, आपने उसे भौतिक स्तर की लड़ाई में जीतने का वरदान दिया था मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर नहीं, इसलिये संसार की रक्षा के लिये कुछ तो करो, संसार का पालन करना आपका कर्तव्य है।
इस पर विष्णु जी ने गयासुर से कहा, देखो गयासुर! लड़ाई में कौन जीता, वह बोला मैं जीता, आप हारे । विष्णु जी ने कहा, बिलकुल सही , तो अब तुम मुझे वरदान दो? वह बोला क्यों नहीं, मैं तो आपके लिये कुछ भी कर सकता हॅूं। इस पर विष्णु जी ने कहा , गयासुर एक ही वरदान माॅंगता हॅूं, तू पत्थर बन जा।
गयासुर भी दमदार था , उसे मनुष्यों के प्रति सहानुभूति थी, इसलिये बोला बिलकुल, हम तो तथास्तु कहते हैं, परंतु हमारी तीन शर्तें हैं। विष्णु जी ने भी कहा ठीक है मंजूर, बताओ क्या शर्तें हैं?  इस बीच गयासुर पैरों की ओर से पत्थर का हो चला, और बोला पहली शर्त है कि आपको अपने दोनों चरणों को हमारी छाती पर रखना पड़ेगा। विष्णु जी बोले इसका क्या मतलब? उसने कहा इसका मतलब यह है कि आपके चरणों की छाप मेरे हृदय में रहे। विष्णु जी ने कहा, इससे क्या होगा? वह बोला इससे यह होगा कि जितने भी आपके भक्त हैं चाहे वे दुष्ट हों या शिष्ट सभी आपको नहीं भूल पायेंगे क्योंकि उनके हृदय में आपके पैरों की छाप बनी रहेगी। विष्णु जी ने कहा ठीक है और दोनों पैर उसकी छाती पर रख दिये, अब तक गयासुर का आधा शरीर पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले जल्दी करो गयासुर दूसरी शर्त क्या है, उसने कहा इन चरणों की शरण में जो आ गये उनको मुक्ति मोक्ष अवश्य देना पड़ेगा? वचन दो? विष्णु जी ने कहा वचन देता हॅूं ,जो भी इन चरणों की शरण में आ जायेगे उन्हें मोक्ष मिलेगा। अब तक गयासुर गले तक पत्थर हो चुका था, विष्णु जी बोले गयासुर जल्दी बताओ तीसरी शर्त क्या है? वह बोला तीसरी शर्त यह है कि जो कोई इन चरणों की शरण में आने के बाद भी मुक्त न हो पाया तो यह पत्थर बना गयासुर फिर से जीवित हो जायेगा। विष्णु जी ने कहा तथास्तु।
देखा? यह कहानी कितनी सुंदर है, इसकी शिक्षा भी सुंदर है कि भक्तों के हृदय में भगवान सदैव रहते हैं भक्त चाहे शिष्ट हों या दुष्ट भगवान उन्हें भूल नहीं सकते जैसे बच्चे चाहे शिष्ट हों या दुष्ट, पिता उसे भले डाॅंट फटकार करें पर त्याग नहीं कर सकते, उनके लिये यह कर पाना असंभव होता  है। इसका दूसरा अर्थ है, भगवान के चरणों की शरण में आने वालों को मुक्तिमोक्ष तो बहुत छोटी सी चीज है अवश्य ही मिलेगा, भक्तों को इसकी ओर से निश्चिन्त  रहना चाहिये।

रवि- तो इसका अर्थ यह हुआ कि पुराणों में तथ्यों को सरल ढंग से समझाने के लिये कहानियों का सहारा सहायक साधन साधन की तरह लिया गया है, उनमें से काल्पनिक भाग हटा कर केवल तथ्यों को ही विवेकपूर्वक पहचानकर ग्रहण करना चाहिये।

बाबा- अवश्य। परंतु वर्तमान वैज्ञानिक युग में इन तथ्यों की विज्ञान, विवेक और तर्क सम्मत व्याख्या करना आना चाहिये। कहानी का जहाॅं उपयोग आवश्यक है, किया जा सकता है परंतु उसके साथ जोड़े गये तथ्यों की विवेचना भी पृथक से की जाना चाहिये। यदि साहित्यकार अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग विवेकपूर्ण वैज्ञानिक ढंग से, लोकहित के द्रष्टिकोण से करने लगें तो लोक शिक्षा और समाज कल्यााण के लिये उनका महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है।

Sunday, 3 April 2016

56 बाबा की क्लास (उत्तम शिष्य के लक्षण)


56 बाबा की क्लास (उत्तम शिष्य के लक्षण)
राजू- बाबा!  आपने सही कहा, ब्रह्मविद्या को सीखने से पहले शिष्य में मूलतः उसे जानने की तीब्र इच्छा होना चाहिये, तभी तो सद्गुरु मिलेंगे।
बाबा- शायद तुम लोगों को याद होगा कि मैंने पहले की कक्षाओं में बह्मविद्या के सम्बंध में बताया था फिर भी उत्तम शिष्य के लक्षणों की जानकारी देने से पहले मैं उसे संक्षेप में बताना चाहता हॅूं । कारण यह है कि  अल्प में संतुष्ट होना आदमी का स्वभाव नहीं है, इसलिये आदि काल से ही वह वृहत् का उपासक रहा है। उसने वृहत् ज्ञान और परोक्ष तथा अपरोक्ष अनुभूति का पथ ढूढ़ निकालने का पराक्रम किया जिससे उसकी जिज्ञासा जागी। मनन से प्राप्त उपलब्धियों के कारण ही वह मानव कहलाया। वेदों में संग्रहीत इस उपलब्धि से ज्ञानपिपासा तो मिटी है पर प्राणकी क्षुधा नहीं मिटी, यह साधना की सार्थक अनुभूति के द्वारा ही मिटती है। ब्र्रह्मविद्या की इस साधना के आदि प्रवक्ता सदाशिव थे। उन्हीं ने इसे विद्यातंत्र के नाम से अभिहित किया जिसकी शास्त्रीय ब्याख्या है,‘‘तं जाड्यात् तरयेत् यस्तु सः तंत्रः परिकीर्तितः’’। अर्थात् जड़ता के बीज ‘‘ तं ’’ से जो त्राण दिलाये वह तंत्र कहलाता है। अन्य अर्थ में भी तन् का मतलब है विस्तार, प्रसार। इसलिये आत्म विस्तार करने की विधि जिससे मोक्ष प्राप्त होता है वह तंत्र कहलाता है। यह एक व्यावहारिक विधि है जिसका सूत्रपात शरीर से होता है और मन से अनुशीलन करते हुए यह आत्मिक चेतना में पहुंचाकर आत्म साक्षात्कार पर समाप्त होती है। व्यावहारिक होने के कारण तन्त्र गुरु के द्वारा सीधे ही व्यक्ति को सिखाकर सतत पर्यवेक्षण में अभ्यास कराने की पृथा रही है, परंतु कालक्रम में गुरु, आचार्य और उपयुक्त जिज्ञासु के अभाव में यह लिपिबद्ध हुआ ताकि यह विद्या लुप्त ही न हो जावे। वर्तमान में लिपिबद्ध रूप में हम चैसठ तंत्र पाते हैं। इन सबको मूलतः दो विभागों में बांटा गया है, एक है आगम और दूसरा है निगम। आगम व्यावहारिक है जबकि निगम सैद्धान्तिक। वेद निगम के अंतर्गत आते हैं।

रवि- तो क्या ब्रह्म विद्या की उपासना बहुत ही कठिन है, हम लोग उसकी योग्यता नहीं रखते?
बाबा-साधना मार्ग के बारे में कहा गया है कि ‘‘ क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया’’ अर्थात् इस रास्ते में अनेक क्षुर धार बिछे हुए हैं। इसी कारण तन्त्र में गुरु और शिष्य को बड़ी ही सावधानी से चलना पड़ता हैं, गुरु के आदेश  का पालन करने में साधक की थोड़ी सी चूक पतन का कारण बनती है। अतः तान्त्रिक साधना की प्रारंभिक प्रयोजनीयता होती है उपयुक्त गुरु तथा शिष्य के चयन करने की।  इसलिये कहा गया है कि साधक का हृदय है खेत, साधना है हल चलाना और पानी सींचना तथा गुरु का दीक्षादान है बीजबोना। गुरु की अयोग्यता अर्थात् त्रुटिपूर्ण बीज तथा शिष्य की अयोग्यता अर्थात् अनुर्वर भूमि।

चंदू- हम लोग किस श्रेणी में आते हैं?
बाबा- शिष्य तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधोमुख कुभ, जिनमें तभी तक पानी रहता है जब तक वे डूबे रहते हैं, अर्थात् गुरु के सान्निध्य में रहते हैं तो ठीक अन्यथा ज्यों के त्यों। 2. उत्संगी बदरी, जो बड़े कष्ट पाकर गुरु से कुछ सीखते हैं परंतु ज्ञान को अपने पास सुरक्षित रखने की व्यवस्था  नहीं कर पाते । जैसे बेर के पेड़ पर चढ़कर काटों में से बेर तो तोड़ लिये पर उन्हें रखने के लिये केवल हाथ। 3. ऊर्ध्वमुख कुम्भ, जो जल के भीतर रहते हुए भी जल से भरा रहता है तथा बाहर लाने पर भी पूरा भरा रहता है। अर्थात् वे सीखी गई चीज को यत्न पूर्वक संचित रखते हैं।  और गुरु भी तीन प्रकार के होते हैं। 1. अधम, ये अच्छी अच्छी बातें सुना और सिखा के दूर हो जाते हैं शिष्य वैसा कर रहा है या नहीं उसे देखने की चिन्ता नहीं करते । 2. मध्यम, ये सिखाते तो हैं ही खोज खबर भी रखते है पर वह कुछ कर भी रहा है या नहीं इसकी छानबीन नहीं करते। 3. उत्तम, ये शिष्य को सिखाते हैं खोज खबर रखते हैं और साधनागत त्रुटियों को सुधारने हेतु बाध्य करते हैं, नहीं सुधारनें पर दंडित भी करते हैं। उत्तम गुरु के लक्षणों के बारे में पिछली क्लास में बताया जा चुका है।

इंदु- तो उत्तम शिष्य के लक्षण क्या होते हैं?
बाबा-उत्तम शिष्य के लक्षणों में तंत्रसार कहता है-
‘‘शान्तो विनीत शुद्धात्मा श्रद्धावान धारणाक्षमः, समर्थश्च   कुलीनश्च  
 प्राज्ञः सच्चरितो यति, एवमादि गुर्णैयुक्तः शिष्यो भवति नान्यथा।’’ 
अर्थात् जो शान्त , विनीत, शुद्धात्मा, श्रद्धावान ,धैर्यशील, समर्थ , कौल साधना में उत्साही, प्राज्ञ, सच्चरित्र एवं यति हैं वे ही उपयुक्त शिष्य हैं। जो हर समय प्रत्येक स्थिति में गुरु की आज्ञा का पालन करने को उत्सुक हों, उन्हें समर्थ कहते हैं। जिसमें उपयुक्त ज्ञान और समझ दोनों हो वह है प्राज्ञ। जिसे मानसिक संयम प्राप्त है उसे यति कहते हैं। अन्य लक्षणों के अर्थ तो जानते ही हो।
साधारण अवस्था में हर आदमी के अपने संस्कार होने के कारण वह विवेकशील पशु  (rational animal  ) कहलाता है। अतः साधना का पहला स्तर पशु  स्वभाव के साथ युद्ध करना सिखाता है उसे पश्वाचार कहते हैं, इन वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने वाले ही वीर कहलाते हैं। रुद्रयामल तंत्र के अनुसार 
‘‘सर्वे च पशवः सन्ति तलवत भूतले नराः, तेषां ज्ञानप्रकाशाय वीरभाव प्रकाशितः, वीर भाव सदा प्राप्य क्रमेण देवता भवेत्।‘‘ 
अर्थात् स्वाभाविक अवस्था में सभी पशु  हैं, आध्यात्मिक जिज्ञासा उत्पन्न होने पर उसे वीर कहते हैं और जब यह वीर भाव हृदय में स्थान ले लेता है तब वह देवता कहलाता है। तंत्र का साधना क्रम इसी व्यावहारिक सत्य पर आधारित है इस कारण, विज्ञान से इसका कोई विरोध नहीं है। ‘‘पशु, वीर और देवता ‘‘ के भावत्रय के बीच भी समाज में विभिन्न स्तर भेद हैं, गुरु इन्हीं आध्यात्मिक और मानसिक स्तर भेद के अनुसार शिक्षा देते रहते हैं। 
‘‘वैदिकं वैष्णवं शैवं दाक्षिणंम् पाशवं स्मृतं सिद्धान्ते वागे च वीरे दिव्यं तु कौलमुच्यते।’’ 
अर्थात् वैदिकाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, और दक्षिणाचार ये सब पशुभाव के विभिन्न स्तर हैं। सिद्धान्ताचार और वामाचार वीरभाव के अंतर्गत हैं तथा कौलाचार दिव्यभाव कहलाता है।