Sunday, 29 May 2016

67 बाबा की क्लास ( ओंकार )

67 बाबा की क्लास ( ओंकार )
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इंदु- बाबा! वैज्ञानिक कहते हैं कि इस ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति बिगबेंग के साथ अचानक ही हुई, परंतु विस्फोट जैसा कुछ नहीं हुआ ?
बाबा- वैज्ञानिकों के इस कथन पर चिंतन करो, ‘‘बिगबेंग, दस घात माइनस सेंतीस सेकेंड में, दस घात पन्द्रह केल्विन ताप के विकिरण के साथ, स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया।‘‘ समय की सूक्ष्मता और ताप की अधिकता पर चिंतन करो? क्या वे यह भी बता सकते हैं कि यह बिगबेंग किस के द्वारा किया गया अथवा 3 से 100 गुणित दस घात बाईस सूर्य जैसे तारों की संख्या बराबर और 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित यह पदार्थ कहाॅं से आया? ‘‘कुछ नहीं ‘‘ से ‘कुछ‘ कैसे उत्पन्न हो सकता है? निष्कर्ष यही है कि कोई ऐंसी सत्ता अवश्य है जिसकी इच्छा से यह सब हुआ और उनकी कल्पना से इस काॅसमस के उत्पन्न होने का प्रमाण है समय की अकल्पनीय अत्यंत कम अवधि होना । इसलिये वैज्ञानिक माने या नहीं परमसत्ता के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता इस काॅसमस के  द्रश्य और अद्रश्य सभी पदार्थ उस ‘‘काॅस्मिक माइंड‘‘ की ही विचार तरंगें हैं।

रवि- इसका अर्थ, क्या यह नहीं है कि काॅस्मिक ऐन्टिटी, जिसे आप परमसत्ता कहते हैं, के काॅस्मिक माइंड की मूल आवृत्ति के भीतर ही यह सब कुछ हुआ?
बाबा- हाॅं , परंतु यह ध्यान रखो कि निर्गुण परमसत्ता यानि ‘‘कास्मिक ऐंटिटी,‘‘ की मूल आवृत्ति तो शून्य है परंतु जब वह अपने को व्यक्त करने के लिये ‘‘सगुणसत्ता‘‘ के अनेक रूपों का निर्माण करते हैं तो अनन्त प्रकार की आवृत्तियों को ‘काॅस्मिक र्माइंड‘ में ही उत्पन्न करते हैं और यह द्रष्ट प्रपंच आकार पाता है। इसीलिये कहा जाता है कि यह जो कुछ भी है वह ब्रह्म का ही सगुण रूप है और उनके मन में ही है, इसके बाहर कुछ नहीं है।

नन्दु- तो सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति क्या है?
बाबा- सगुण ब्रह्म की मूल आवृत्ति में अनन्त प्रकार ( द्रश्य और अद्रश्य अस्तित्वों ) की आवृत्तियाॅं सम्मिलित होतीं हैं। इनमें सबकी उत्पत्ति अर्थात् निर्माण (ब्रह्मा), पालनपोषण अर्थात् (विष्णु) और आयु का समय अर्थात् लय (महेश) आदि, सभी कुछ सम्मिलित होते हैं, क्योंकि सगुण ब्रह्म सहित ये सब ‘टाइम और स्पेस ‘ में बंधे होते हैं। उपनिषद दर्शन  में इसे ‘‘ ओंकार ‘‘  अथवा ‘प्रणव‘ कहा गया है। जिसने ओंकार ध्वनि का श्रवण कर लिया, फिर वह सब कुछ भूलकर उसके उद्गम की ओर बिना किसी की चिंता किये दौड़ पड़ता है। ध्यान रहे ब्रह्मा, विष्णु और महेश केवल दार्शनिक नाम हैं जो स्रष्टिचक्र में परमपुरुष की क्रियात्मक ऊर्जा की विभिन्न दशाओं को ही प्रकट करते हैं उनका कोई भौतिक स्वरूप नहीं है परंतु ये सभी स्रष्टि की संचर और प्रतिसंचर गतिविधियों के संचालन में सहायक होते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों ने इन्हें ही क्रमशः जनरेटर, आपरेटर और डिस्ट्रक्टर कहते हुए इन तीनों शब्दों के पहले अक्षर को लेकर जीओडी अर्थात् ‘गाड‘ कहा है और पुराणों में इन्हीं को विभिन्न कल्पनिक आकार प्रकार देकर समझाया गया है ।

चंदु- तो अनेक भक्तगण जो ओम ओम कहते हैं क्या वह यही है?
बाबा- हाॅं, कहते अवश्य हैं परंतु चूंकि ओंकार ध्वनि पचास प्रकार के अक्षरों अर्थात् स्वर और व्यंजनों की सम्मिलत ध्वनि होती है इसलिये कोई भी व्यक्ति एक साथ उसे अपने गले से उच्चारित ही नहीं कर सकता। उसे तो केवल अनुभव करने का अभ्यास करना होता है। यही  अभ्यास करने के लिये प्रत्येक साधक या भक्त को अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘इष्ट मंत्र‘ की सहायता से इस काॅस्मिक आवृत्ति ‘ओंकार‘ के साथ अनुनाद करने की सलाह उनके गुरुगण देते हैं। यह अभ्यास करना ही असली पूजा या साधना करना कहलाता है अन्य सब आडम्बर है।

नन्दु- लेकिन बाबा! सभी स्वरों और व्यंजनों से बनी वर्णमाला तो आधुनिक है और स्रष्टि का प्रारंभ तो मनुष्यों की उत्पत्ति होने से भी पहले का है?
बाबा- हाॅं सही है, परंतु जब से स्रष्टि की प्रतिसंचर धारा मनुष्य अवस्था तक आई मनुष्य ने धीरे धीरे अपने और स्रष्टि के उद्गम को समझने का प्रयत्न प्रारंभ किया तथा अपने सभी प्रकार के ज्ञानानुभवों को ‘वेद‘ के नाम से अपने पश्चातवर्ती आगन्तुकों को मौखिक रूप से ही हस्तान्तरित करते गये। सुन सुन कर याद रखने के कारण वेद, श्रुति भी कहलाते हैं। चूूंकि सभी ध्वनियाॅं मुंह से ही उच्चारित की जाती थीं, उस समय तक लिपि का अनुसंधान नहीं हुआ था, अतः समय के वर्णक्रम को समझाने के लिये प्रत्येक स्वर और व्यंजन की ध्वनि उच्चारित करते हुए एक एक मुंह का आकार बनाते हुए ‘काल‘ अर्थात् ‘‘एटरनल टाइम फैक्टर‘‘ को प्रकट करने के लिये ‘कालिका‘ नामक  मानवीय आकार को सभी पचास अक्षरों में से एक ‘अ‘ (अर्थात निर्माण) उच्चारित करते हुए हाथ में और शेष उनन्चास को अन्य अक्षर उच्चारित करते हुए उनकी माला बनाकर गले में पहने हुए दर्शाया जाता रहा, ताकि उसे देखकर लोग उनका सही उच्चारण करना सीखें। परंतु जैसा कि तुम लोग जानते हो कि बहुत बाद में पौराणिक काल में मार्कंडेय पुराण में वर्णित काली या दुर्गा को इन मुंडमालाओं से विभूषित कर दिया गया है जिसका पूर्व में कहे गये ‘एटरनल टाइम फैक्टर‘ या कालिका से कोई संबंध नहीं है। पुराणों की यथार्थता के बारे में तो तुम लोग पहले ही जान चुके हो।

राजू- परंतु बाबा! अनेक स्थानों और मंदिरों में भी बड़ा ‘ऊ‘ बनाकर चंद्र विन्दु लगाते हुए लिखा पाया जाता है और कहा जाता है कि इसका उच्चारण ‘ओम‘ है, भगवान का यही नाम है। इसलिये ‘‘ओम ओम‘‘ इस प्रकार का सभी भक्त लोग जाप भी करते देखे गये हैं?
बाबा- हाॅं। अभी अभी मैंने बताया है कि ओंकार ध्वनि का शुद्ध उच्चारण हो ही नहीं सकता क्योंकि वह पचास अक्षरों की आवृत्तियों का एकीकरण है। हिंदी वर्णमाला के इन सभी पचास अक्षरों को एक साथ प्रदर्शित करने के लिये इस प्रकार का संकेताक्षर बड़े ही सोच बिचार कर बनाया गया है। इसमें बड़ा ‘ऊ‘ ब्रह्म की सगुणता को अर्थात् ऊर्जा के ‘कायनेटिक‘ रूप को  प्रकट करता है जिसमें ‘ अ‘, ‘उ‘ और ‘म‘ सम्मिलित होते हैं और क्रमशः उत्पत्ति, पालन और संहार का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनसे जुड़ी क्रियात्मक सत्ता को क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहा गया है। ( ‘अ‘ वर्णमाला का प्रथम अक्षर है अतः इससे उत्पत्ति का, ‘ऊ‘ स्वरों का मध्य अक्षर है इससे  पालन का और ‘म‘ सभी व्यंजनों का अंतिम है इसलिये इसे मृत्यु का द्योतक माना गया है।) चंद्र बिन्दु के नीचे की ‘वक्राकार रेखा‘ निर्गुण से सगुण के बीच की क्रियात्मकता को  और ‘बिंदु‘ निर्गुण ब्रह्म को अर्थात् ऊर्जा के ‘पोटेशियल‘ रूप को  प्रदर्शित करते हैं। रेखागणित में, तुम लोग यह तो जानते ही हो कि बिंदु की स्थिति अर्थात् पोजीशन तो होती है परंतु विमायें अर्थात् डायमेन्शन्स नहीं, इसीलिये निर्गुण ब्रह्म को बिंदु से प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार इस ‘‘ऊॅं‘‘ संकेताक्षर में सगुण और निर्गुण को एक साथ प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है और अपेक्षा की गयी है कि परम सत्ता के निर्गुण से सगुण होने की अवस्था में उत्पन्न ओंकार ध्वनि को इसी के माध्यम से अनुभव किया जाये।

रवि- तो जो लोग ओम ओम जोर जोर से चिल्लाते हैं उसका कोई महत्व है या नहीं?
बाबा- नहीं, चिल्लाने का कोई महत्व नहीं है, यह अच्छी तरह से  मन में बिठा लो कि ओंकार ध्वनि तो ब्रह्माण्ड  की उत्पत्ति के क्षण से ही समग्र स्रष्टि में व्याप्त है इसे ‘‘काॅसमिक साउंड आफ क्रियेशन‘‘ ही कहते हैं और लगातार अभ्यास करने पर मन से मन में ही अनुभव की जा सकती है। इसलिये यदि कोई ओम ओम चिल्लाता है तो व्यर्थ है क्योंकि जब तक उसके पीछे क्या रहस्य छिपा है यह ज्ञात न हो तो चिल्लाने से भी क्या होगा? और जब रहस्य पता चल जायेगा तो वह कुछ भी उच्चारित नहीं कर पायेगा और उसे अनुभव करने के अभ्यास में जुटना ही पड़ेगा। इसलिये तुम सब अपने अपने इष्ट मंत्र के सहारे बार बार ओंकार के साथ अनुनादित होने का अभ्यास किया करो, यही सब कुछ है, जिसने इसे अनुभव कर लिया उसने सब कुछ पा लिया। इसके पीछे विज्ञान यह है कि हम अपने ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ और ‘‘इनकान्टिटेटिव रिद्म‘‘ में संतुलन बिठाते हुए ‘‘काॅस्मिक रिद्म‘‘ के साथ अनुनाद अर्थात् ‘‘रेजोनेन्स‘‘ स्थापित करें। इसी के सहारे हम स्रष्टि के उद्गम और उसके निर्माणकर्ता तक पहुंच पाते हैं।

इंदु- पर अधिकांश लोगों को तो  यही उच्चारित करते और हर शुभ कार्य में  प्रयुक्त करते देखा गया है तो क्या उनका यह करना बेकार है?
बाबा- यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उन्होंने इस के गूढ़ार्थ को किस स्तर तक समझा और अनुभव किया है। तुम लोगों ने देखा होगा कि प्रशिक्षित हो जाने पर तोता कहता है राम राम , राम राम । सभी लोग सुनकर प्रसन्न होते हैं और तोते की तारीफ करते हैं। परंतु जब कुत्ता उसके  पिंजरे पर झपटता है तो वह फड़फड़ाते हुए कहता है ट्विं ट्विं, ट्विं ट्विं , ट्विं .... । वह राम राम कहना भूल जाता है और अपने बचाव के लिये अपनी मूल भाषा में चिल्लाने लगता है, देखा न हो तो यह प्रयोग करके देख लेना। भावार्थ यही है कि बिना सोचे समझे , केवल दूसरे करते हैं  या कहते हैं, इसलिये उनकी नकल कर कोई कार्य करने से कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्येक संरचना अद्वितीय है, प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, सबकी अपनी अपनी मूल आवृत्ति अर्थात् ‘‘ऐंन्टिटेटिव रिद्म‘‘ है, इसीलिये कोई भी दो व्यक्ति एक से नहीं होते। हमेशा से जैसा अभ्यास किया जाता है वही अंत में भी बना रहता है और अंत में जिस प्रकार की भावना होती है वैसी ही आगामी संरचना प्राप्त होती है। इसलिये आडम्बर और प्रदर्शन को छोड़कर बिना देर किये अपने अपने इष्ट मंत्र अर्थात् मूल आवृत्ति को पहचान कर काॅस्मिक आवृत्ति अर्थात् ओंकार के साथ अनुनादित करने के अभ्यास में जुट जाओ, तभी अपने मनुष्य होने का लाभ ले पाओगे।

Wednesday, 25 May 2016

66 गृहस्थ सन्त

66 गृहस्थ सन्त
--------------------रामनाथ जी अपने क्षेत्र के विद्वानों में  अग्रगण्य थे। सहजता, सात्विकता, और आध्यात्मिकता उनके आभूषण थे तथा ज्ञान , कर्म और भक्ति उनके अंगवस्त्र ।  सौभाग्यवश उनकी सहधर्मिणी भी उन्हीं के स्वभाव की ही थीं। 

उसी क्षेत्र के एक धन सम्पन्न सज्जन को पूर्व जन्म के किसी सुसंस्कारवश विचार आया कि किसी सुपात्र और सात्विक धर्मपारायण व्यक्ति की तलाश कर अपने धन का कुछ भाग उन्हें देकर पुण्य लाभ लिया जाय। अपने सहयोगियों से परामर्श लेने पर उन्होंने पाया कि पंडित रामनाथ जी से श्रेष्ठ और योग्य अन्य कोई नहीं है जिन्हें वे अपना धन देकर कृतार्थ हो सकते हैं। उन्होंने रामनाथ जी के पास जाकर निवेदन किया-‘‘ महोदय! क्या आपकी कोई समस्या है, हो तो बतायें , मुझे उसका समाधान करने में प्रसन्नता होगी‘‘

‘‘ हाॅं! कुछ देर पहले एक श्लोक का अर्थ कुछ परेशान कर रहा था, पर अब सब ठीक है, अब कोई समस्या नहीं है‘‘

‘‘ अरे महात्मन्! मैं उस समस्या की नहीं , घर गृहस्थी में किसी वस्तु या धन की आवश्यकता की बात कर रहा था‘‘

‘‘ अरे... घर गृहस्थी के संबंध में तो मेरी धर्मपत्नी ही बता सकती हैं, उन्हीं से पूछ लीजिये‘‘

‘‘ माता! आपको अपने घर गृहस्थी के संचालन में यदि किसी चीज की कमी हो तो आदेश करें‘‘

‘‘ आज तो दाल और चावल पर्याप्त है, हाॅं, आटा भी है और... उनके पसंद की आम की चटनी का भी प्रबंध हो गया है, लगता है किसी भी चीज की  कमी नहीं है, सब कुछ है, धन्यवाद।‘‘ अपने धन का दर्प समेटे सज्जन, चुपचाप वापस चले गये।

Monday, 23 May 2016

65 बाबा की क्लास (इष्टनिष्ठा)
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रवि- अनेक बार आपने कहा है कि अपने ‘‘इष्ट‘‘ अर्थात् जीवन के लक्ष्य के प्रति, द्रढ़ निष्ठा होना चाहिये, इसका सरल शब्दों में क्या अर्थ है?
बाबा- हम जानते हैं कि सामान्य जीवन में भी हम उस काम को नहीं करते जिसमें हमारा विश्वास नहीं होता, जैसे हम उस हवाई जहाज से यात्रा नहीं करना चाहेंगे जिसकी विश्वसनीयता न हो क्योंकि यह न होने पर लक्ष्य तक पहुंचना संभव न होगा। आध्यात्मिक पथ में भी साधक के सामने यह समस्या होती है  कि वह क्या करे और क्या न करे। इसलिये अपने इष्ट में निष्ठा होना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि तभी वह प्रत्येक समय , प्रत्येक असहाय परिस्थिति में, सुख और दुख में सहायक होता है।

नन्दू- परंतु अनेक लोग तो धन तथा पद पाने और बड़े बड़े प्रभावशाली लोगों से संबंध बनाने को ही महत्व देते देखे गये हैं, वह कहते हैं उनका लक्ष्य तो वही है?
बाबा- धन, पद, और शक्तिशाली लोगों से संबंध आदि उस समय  कुछ नहीं कर पाते जब हवायी यात्रा करते हुए प्लेन बिगड़ जाता है, या घर में आधी रात में सोते समय कोई डाकू आकर सिर पर बन्दूक रख दे, बाढ़ में कार अनियंत्रित होकर फंस जाये आदि। इन परिस्थितियों में केवल इष्ट के प्रति आपकी निष्ठा ही काम आती है। जीवन में अनेक इस प्रकार की असहाय स्थितियाॅं आती हैं जब इष्ट के अलावा अन्य विकल्प को ढूड़ते हुए हम अपना जीवन नष्ट कर डालते हैं। भौतिक जगत की उपलब्धियों को लक्ष्य बनाने वाले सभी लोगों का जीवन व्यर्थ जाता है। इसीलिये सच्चे भक्त हर समय अपने इष्ट की उपस्थिति का अनुभव करते हैं घटना के पहले, बीच में, अन्त में और हर समय। यह केवल सैद्धान्तिक ही नहीं व्यावहारिक भी है, इष्ट निष्ठा होने पर हमें लगता रहता है कि कोई अद्रश्य शक्ति हमें सहायता कर रही है।

इंदु- पंरन्तु कुछ भक्त लोग लोभ या भय या स्वार्थवश अनेक इष्ट बना लेते हैं जैसे, अनेक लोग पूजा करते हुए कहते पाये जाते हैं. काली माॅं की जय, वैष्णवदेवी की जय, कलकत्ते वाली काली की जय, दक्षिणेश्वर काली माता की जय, वैद्यनाथ बाबा की जय, बनारस के विश्वनाथ बाबा की जय, उज्जैन के महाकाल की जय, आदि?
बाबा- हाॅं, जितने भी देवी देवताओं के नाम याद होते हैं उनकी एक एक कर जय जरूर बोलते जाते हैं फिर कहते हैं , हे देवि देवताओ! किसी का नाम यदि भूल गया होऊं तो क्षमा करना । मेरा उद्देश्य आपको भूल कर अपमान करना नहीं वरन् आप सबकी संख्या अधिक होने से याद नहीं रख पाता हूँ   इसलिये कृपा कर मान लेना कि आपका नाम मैंने स्मरण कर लिया है। सोचिये इस प्रकार की पूजा में भक्त का मन क्या स्थिर रह पाता है ? कभी बनारस कभी, कलकत्ता, कभी उज्जैन और अन्य स्थानों में ही घूमता रहता है। परंतु मन के एक स्थान पर केन्द्रित न हो पाने के कारण कुछ भी फल मिल पाना संभव नहीं हो पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक ही इष्ट हो और उन पर शतप्रतिशत निष्ठा हो तो वह हर परिस्थिति में सहायक होते हैं परंतु यदि इष्ट ही क्षण क्षण में बदल रहा हो  तो कौन सा इष्ट किस प्रकार से सहायक हो सकेगा ?

राजु- तो नाम पुकारने पर भी इतने सब देवों में से कोई देवता सुनता नहीं है क्या?
बाबा- यदि आप  किसी आपात्काल में फॅस गये हैं और कभी काली जी को, कभी गणेश जी को, कभी भोलेनाथ को , कभी किसी अन्य को पुकारते हैं तो निष्ठा के विभाजित होने के कारण आपके द्वारा पुकारी गयी  कोई भी सत्ता सहायक नहीं होगी क्योंकि वे सभी एक दूसरे की ओर देखते रहेंगे और कहते रहेंगे कि आपको पुकार रहा है आप जाओ, थोड़ी ही देर में दूसरा यही कहेगा , फिर तीसरा कहेगा और अंत में कोई नहीं । इस संबंध में एक बहुत ही प्रेरक, पौराणिक द्रष्टान्त सुनाता हॅूं जो इष्टनिष्ठता का महत्व प्रतिपादित करता है। परंतु तुम लोग कहानी के शब्दों पर न जाकर उसके माध्यम से दी गयी शिक्षा पर ही ध्यान देना-
   सभी जानते हैं कि हनुमान जी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं, वे भूल से भी किसी अन्य देवता जैसे शिव, कृष्ण,  विष्णु, नारायण, या अन्य का नाम नहीं लेते । एक बार उनके समकालीन कुछ भक्तों ने उनसे पूछा, ‘‘हनुमानजी! तुम तो राम के अनन्य भक्त हो और उच्च कोटि के विद्वान भी हो तो बताओ, जानकीनाथ माने श्रीराम, और श्रीनाथ माने नारायण अर्थात् विष्णु होता है कि नहीं?‘‘
हनुमानजी बोले हाॅं , ‘‘इसमें कोई त्रुटि नहीं है।‘‘
 फिर भक्त बोले , ‘‘अच्छा बताओ, ‘नार‘ माने प्रकृति और ‘अयन‘ माने आश्रय, अतः ‘‘नारायण‘‘ माने प्रकृति का आश्रय जो हो वह अर्थात् ज्ञानात्मक सत्ता यानी परमपुरुष तथा  ‘‘राम‘‘ माने ( रम + घञ् ) अर्थात् समग्र ब्रह्माॅंड में सर्वाधिक आकर्षक सत्ता यानी परमपुरुष , ठीक है कि नहीं?‘‘
हनुमानजी बोले ‘‘हाॅं यह तो  बिलकुल सही व्याख्या है।‘‘
भक्त फिर बोले, ‘‘तो जो जानकी नाथ हैं, वही श्रीनाथ हैं कि नहीं, क्योंकि दोनों ही परमपुरुष के नाम हैं?‘‘
हनुमानजी ने फिर कहाॅ ‘‘ हाॅं भाई हाॅं, तुम लोग सही कहते हो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।‘‘
भक्त बोले, ‘‘परंतु तुम्हारे मुख से कभी भी नारायण का नाम नहीं सुना! श्रीनाथ और जानकी नाथ तो एक ही हुए न? बताओ ऐंसा क्यों करते हो?‘‘
इस पर विनम्रता पूर्वक हनुमानजी बोले,
‘‘ श्रीनाथे जानकी नाथे चाभेदपरमात्मनि, तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः‘‘
(अर्थात् मौलिक रूप से राम और नारायण में कोई अंतर नहीं है, मैं यह जानता हॅूं दोनों ही परमपुरुष के नाम हैं , परंतु मेरे लिये तो ‘राम‘ ही लक्ष्य हैं वह मेरे इष्ट हैं, मेरे विचार, आदर्श और चिंतन के एकमेव बिंदु कमललोचन राम ही हैं, मैं किसी नारायण को नहीं जानता।)

इन्दु- इसका अर्थ यह हुआ कि हमें केवल एक ही लक्ष्य और इष्ट ‘परमपुरुष‘ को बनाना चाहिये और पूरी निष्ठा से उनके प्रति ही समर्पित रहना चाहिये?
बाबा-  हाॅं , इसीलिये मैं एक ही इष्ट के प्रति निष्ठावान होने का परामर्श देता रहता हॅूं । जब  ‘इष्ट‘ परमपुरुष हों और उनके प्रति द्रढ़ निष्ठा हो तब  मन को  अपार साहस और शक्ति प्राप्त होती जाती है। यह कहानी भी यही बतलाती है कि लक्ष्य और इष्ट एक ही होना चाहिये और उसके आदर्श के प्रति समग्र निष्ठा से समर्पित हो जाने पर ही हमें आत्मोपलब्धि हो सकती है और लक्ष्य तक जाने में सफलता मिल सकती है अन्यथा नहीं।  

Sunday, 15 May 2016

64 बाबा की क्लास ( धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र)

64 बाबा की क्लास ( धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र)
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रवि- बाबा! श्रीमद्भागवत, महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता में क्या अंतर है?
बाबा- श्रीमद्भागवत पुराण है, जिसके अंतर्गत महाभारत इतिहास का विवरण है। इसी महाभारत युद्ध के बीच हुए अर्जुन और कृष्ण के संवाद को श्रीमद्भगवद्गीता कहा गया है। संक्षेप में इसे केवल गीता भी कहते हैं, इसमें मानव जीवन के लक्ष्य और कर्म के संबंध में उत्तम ज्ञान दिया गया है।

राजू- परंतु श्रीमद्भगवद्गीता में पहला संवाद तो धृतराष्ट्र और संजय के बीच प्रारंभ हुआ बताया गया है?
बाबा- हाॅं, परंतु तुम लोगों के लिये इसे केवल कहानी और युद्ध के वर्णन के आधार पर नहीं वरन उसके भीतर छिपे हुए रहस्यों और शिक्षाओं के आधार पर ही अध्ययन करना चाहिये। इस युद्ध को इस प्रकार नहीं याद रखना कि यह तो पाॅंच हजार साल पुरानी घटना है, यह महाभारत तो अभी भी सभी के साथ रोज ही चल रहा है और चलता रहेगा जब तक सभी इकाई चेतनायें, परमचेतना के साथ एकीकृत नहीं हो जातीं।

नन्दू- इसका रहस्य क्या है बाबा?
बाबा- अच्छा, ध्यान से सुनो और समझकर याद रखना ताकि अन्य लोगों को भी सही सही बता सको। धृतराष्ट्र का अर्थ क्या है जानते हो?
चंदू- हाॅं, दुर्योधन आदि एक सौ भाइयों के पिता जो जन्म से ही अंधे थे।

बाबा- हाॅं , परंतु रहस्य यह है कि धृत मानें होता है जो धारण किये हो और राष्ट्र माने संरचना अर्थात्  स्ट्रक्चर। तो संरचना को जो धारण किये हो वह हुआ धृतराष्ट्र । यहाॅं संरचना क्या है? संरचना है यह ‘शरीर‘ और उसे धारण कौन किये है? उसे धारण किये है ‘मन‘। धृतराष्ट्र कैसे थे? वे जन्माॅध थे। तो मन भी जन्माॅंध होता है वह बिना आॅंखों के कैसे देख सकता है इसलिये उसकी आॅंखें है ‘संजय‘ जिसका अर्थ है बुद्धि और विवेक। अतः इसे अब हम यह मानें कि ‘मन‘ और ‘बुद्धि‘ के बीच वार्तालाप हो रहा है। क्या तुम लोग जानते हो कि यह वार्तालाप कहाॅं हुआ था?
रवि- हाॅं, वर्तमान हरियाणा के कुरुक्षेत्र में।
बाबा- तो, इस कुरुक्षेत्र को भी समझ लो क्या है? कुरुक्षेत्र है यह समस्त धरती । यह धरती, इस पर रहने वाले सभी लोगों से कह रही है कुछ करो , कुछ करो ... कुरु का अर्थ करना । इसलिये  कुरुक्ष्ेात्र का अर्थ है कर्म संसार, जो लगातार कुछ करने को पूछता है,  जो क्षेत्र कह रहा है कि कुछ करो, कुछ करो वह है कुरुक्षेत्र।

नन्दू- तो फिर धर्मक्षेत्र का क्या अर्थ है?
बाबा-  धर्मक्षेत्र है , आन्तरिक मानसिक संसार जहाॅं पांडव प्रभावी होते हैं।

इंदु- इस प्रकार 100 कौरव कौन से हैं?
बाबा- पूर्व, पश्चिम , उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व  और अधः ये छः दिशायें और ईशान, आग्नेय, वायव्य, और नैऋत्य ये चार अनुदिशायें मिलकर कुल दस दिशायें होती है। मन अंधा है अतः वह विवेक के द्वारा देख व समझ पाता है। मन धृतराष्ट्र है और उसके दस एजेंट वहिःकरण की दसों इंद्रियाॅं (अर्थात् पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं और पाॅंच कर्मेन्द्रियाॅं) , इन दसों दिशाओं में एकसाथ कार्य करते हैं अतः 10 गुणित 10 बराबर 100 यही धृतराष्ट्र के पुत्र हैं जो कौरव कहलाते हैं।

राजू- और पाॅंडव?
बाबा- मानव शरीर की रचना करने वाले पंच तत्व पाॅंडव हैं। शरीर की आन्तरिक संरचना में इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का जहाॅं जहाॅं मिलन होता है वहीं पर ऊर्जा केन्द्र बन जाते हैं जिन्हें चक्र या प्लेक्सस कहते हैं। प्रथम ऊर्जा केन्द्र हैं ‘सहदेव‘ अर्थात् ठोस अवस्था अर्थात्, मूलाधार चक्र  जो कि सभी के आधार स्तंभ हैं। द्वितीय ऊर्जा केन्द्र अर्थात् ‘नकुल‘ स्वाधिष्ठान चक्र अर्थात् जल तत्व। तृतीय केन्द्र ‘अर्जुन‘ ऊर्जा को प्रदर्शित  करते हैं अर्थात् मनीपुर चक्र। चौथे केन्द्र ‘भीम‘ वायु तत्व अर्थात् अनाहत चक्र । और पाॅंचवे केन्द्र विशुद्ध चक्र या व्योम तत्व को युधिष्ठिर प्रदर्शित  करते हैं। विशुद्ध चक्र तक भौतिक संसार समाप्त हो जाता है और आज्ञा से सहस्त्रार तक आध्यात्मिक संसार कहलाता है। इसलिये भौतिकवादियों और आध्यात्मवादियों अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म के बीच में होने वाले झगड़े में युधिष्ठिर स्थिर रहते हैं। युद्धे स्थिरः यः सः युधिष्ठिरः।

रवि- इनमें युद्ध का होना क्या है, यह कैसे संभव है?
बाबा- परम चेतना (fundamental positivity) अर्थात् कृष्ण सहस्त्रार में हैं । इकाई चेतना(fundamental negativity) जो कि मूलाधार में कुंडलनी की तरह होती है वह पाॅंडवों की मदद से कृष्ण तक पहुंचना चाहती है। पाॅंडव उसे मदद करना चाहते हैं परंतु अंधे मन धृतराष्ट्र के सौ पुत्र उन्हें यह करने से रोकते हैं और इकाई चेतना को बाहरी संसार में ही फंसाये रखना चाहते हैं। इसलिये युद्ध चलता रहता है। धृतराष्ट्र अर्थात् मन,  संजय अर्थात् विवेेक से पूछ रहा है कि युद्ध में क्या हुआ। विवेक बता रहा है कि अंततः इकाई चेतना अर्थात् जीवात्मा अथवा जीव, पाॅंडवों की सहायता से युद्ध जीतकर कृष्ण के पास पहुंच जाता है।  इस तरह महाभारत का युद्ध प्रत्येक के साथ रोज ही चल रहा है यही इस धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र  का असली रहस्य है।  अपनी इकाई चेतना को पंचतत्वों की सम्यक सहायता लेकर हमें, मन के 100 प्रकार के भौतिक आकर्षणों से जूझते हुए , परम लक्ष्य परमचेतना तक जाने का कार्य करना है, करते रहना है जब तक हम लक्ष्य तक नहीं पहुंच जाते, श्रीमद्भगवद्गीता यही शिक्षा देती है ।

Thursday, 12 May 2016

63 आध्यात्म के नाम पर शोषण

63 आध्यात्म के नाम पर शोषण 
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भूतकाल में राजा और महाराजा लोग ‘ यज्ञ ‘ करके यह दर्शाया करते थे कि वे कितने बहादुर हैं परंतु यह भी शोषण करने की एक कला थी। उन्होंने बड़े बड़े मंदिरों का निर्माण अपने कुकर्मों को छिपाने के लिये कराया न कि भक्ति भाव से। बौद्धिक शोषण करने वाले तथाकथित पंडितों और भौतिक शोषण करने वाले राजाओं के बीच अपवित्र समझौता हुआ करता था जिसके अनुसार पंडित और पुजारीगण हर युग में अपने अपने राजाओं के गुणगान किया करते थे। इतना ही नहीं, उन के द्वारा राजा को ईश्वर का रूप घोषित कर दिया गया था। पंडिताई करना शोषण करने का दूसरा रूप ही था। यही कारण है कि पूंजीवाद इन पंडितों और पंडितलोग पूंजीवादियों के विरुद्ध कभी नहीं जा सकते। आज भी वे एक दूसरे का महिमामंडन और पूजन करते नहीं थकते। जन सामान्य के मन में हीनता का बोध कराने वाली और उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली अनेक अतार्किक कहानियाॅं और मिथक उन्होंने अपनी कल्पना से बना रखे हैं जिसका स्पष्ट उदाहरण इस श्लोक में दिया गया है-
ब्राह्मणस्य मुखमासीत वाहुराजनो भवत्, 
मध्य तस्य यद् वैश्यः पदभ्याम शूद्रोजायत।
अर्थात् ब्राह्मण ईश्वर के  मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य मध्यभाग से और और शूद्र पैरों से जन्मे। वे यदि सार्वजनिक हित साधन का चिंतन करते होते तो इसी बात को वे इस प्रकार भी कह सकते थे कि ईश्वर, बुद्धि और विवेक के रूप में सभी के मुह में, आत्म रक्षा हेतु शक्ति के रूप में भुजाओं में, शारीरिक पोषण हेतु व्यावसायिक कर्म करने के लिये शरीर के मध्य भाग में और सब के प्रति सेवा भाव रखने के लिये पैरों में निवास करता है।
यदि मानव संघर्ष के इतिहास में विप्रों को दूसरों पर आश्रित होकर अपने जीवन को चलाने की भूमिका निभाने वाला कहा जाये तो वैश्यों की भूमिका पारिभाषित करने के लिये तो शब्द ही नहीं मिलेंगे। विप्र और वैश्य दोनों ही समाज का शोषण करते हैं परंतु वैश्य शोषणकर्ता अधिक भयंकर होते हैं। वैश्य तो समाज वृक्ष के वे घातक परजीवी होते हैं जो उस वृक्ष के जीवन तत्व को ही चूसते जाते हैं जब तक वह सूख न जाये। यही कारण है कि पूंजीवादी संरचना में उद्योग या उत्पादन लोगों के ‘‘उपभोग की मात्रा‘‘ द्वारा नियंत्रित न किया जाकर  ‘‘लाभ की मात्रा‘‘ के द्वारा नियंत्रित होता है ।
परंतु वैश्य परजीवी यह जानते समझते हैं कि यदि पेड़ ही मर जायेगा तो वे किस प्रकार बच सकेंगे इसलिये वे समाज में अपना जीवन बचाये रखने के लिये कुछ दान का स्वांग रचकर मंदिर, मस्जिद, चर्च , यात्री धरमशालायें, बोनस वितरण और गरीबों को भोजन आदि कराते हैं। विपत्ति तो तब आती है जब वे अपना सामान्य ज्ञान त्याग कर प्रचंड लोभ के आधीन होकर समाज वृक्ष के पूरी तरह सूख जाने तक शोषण करने लगते हैं। एक बार समाज का ढाॅंचा अचेत हो गया तो वैश्य भी अन्यों के साथ मर जायेंगे । नहीं, तो उनके द्वारा, इस प्रकार समाज को अपने साथ ले डूबने से पहले शोषित शूद्र, क्षत्रिय और विप्र मिलकर वैश्यों को नष्ट कर सकते हैं, प्रकृति का यही नियम है। 

यह कितना आश्चर्य है कि समाज की समुचित व्यवस्था बनाये रखने के लिये ही व्यक्तिगत गुणों और कर्मों के अनुसार उसे चार भागों में विभाजित किया गया था ( चातुर्वर्णं मया सृष्टा गुणकर्म विभागशः ) परंतु स्वार्थवश हमने ही उनकी क्या गति कर डाली है। यहाॅं यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि गुणों और कर्मों के आधार पर किये गये  इस प्रकार के सामाजिक विभागों में कोई भी किसी भी विभाग में जन्म लेकर अपने कर्मों में परिमार्जन कर अन्य विभागों में सम्मिलित हो सकता था और इस कार्य को सामाजिक मान्यता भी प्राप्त थी। इस बात की पुष्टि में यह उद्धरण पर्याप्त है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते‘‘ अर्थात् जन्म से तो सभी शूद्र होते हैं परंतु दिये गये संस्करों के अनुसार ही इसी जीवन में उनका फिर से जन्म होता है और उन्हें द्विजन्मा कहा जाता है। एक अन्य उद्धरण यह है कि एक ही वंश में उत्पन्न गर्ग, वसुदेव और नन्द परस्पर चचेरे भाई थे परंतु गर्ग ने विप्रोचित संस्कारों को ग्रहण कर अपने को ऋषि का, वसुदेव ने क्षत्रिय संस्कार उन्नत कर अपने को सेनापति का  और नन्द ने वैश्योचित संस्कार पाकर पशुपालक का स्तर अपनाया और निभाया। आज के समाज ने एक ही विभाग में लाखों प्रकार की जातियों का समावेश कर शोषण की प्रवृत्ति को क्या और अधिक गहरा नहीं किया है? अब, यदि मानव समाज को अपना अस्तित्व बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप में  ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों नैसर्गिक गुणों को एक समान उन्नत कर आत्मनिर्भर होना होगा तभी वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है अन्यथा नहीं। जिस किसी में इन चारों गुणों का  उचित सामंजस्य है उन्हें ही सदविप्र कहा जाना चाहिये।

Sunday, 8 May 2016

62 बाबा की क्लास (मानव धर्म / भागवत धर्म)

62 बाबा की क्लास (मानव धर्म / भागवत धर्म)
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इन्दु- यदि देखा जाय तो ब्रह्म चक्र में मनुष्य की स्थिति तक पहुंचते हुए 75 प्रतिशत रास्ता तो पूरा हो चुका होता है केवल 25 प्रतिशत रास्ते को पूर करने का कार्य रह जाता है?
बाबा- बिलकुल सही कहा, परंतु वही 25 प्रतिशत रास्ता पार करना ही  तो बड़ा कठिन होता है, क्योंकि इससे पूर्व की स्थितियों में तो प्रकृति लगातार आगे की ओर बढ़ाती जाती है परंतु मनुष्य के स्तर पर प्राणी के अहंकार के साथ साथ कर्तापन का बोध भी जाग जाता है अतः वह प्रकृति के अनुकूल भी चल सकता है या फिर अपनी बुद्धि और विवेक का सदुपयोग कर प्रतिसंचर की गति में त्वरण उत्पन्न कर तेजी से आगे जा सकता है या दुरुपयोग कर प्रतिसंचर की गति में मंदन उत्पन्न कर पीछे की ओर भी जा सकता है। वह प्रतिसंचर में आगे जाते हुए ईश्वर सृष्ट संसार में आत्मानुसंधान कर सकता है या फिर अपने कृतित्व से अपना संसार निर्मित कर उसी में भ्रमित होता रह सकता है।

राजू- यदि कोई प्रतिसंचर क्रिया में सभी स्तरों को पार करते हुए प्रकृति के द्वारा मानव शरीर पा जाता है तो उसे आगे बढ़ाने के लिये कौन सहायक होता है क्योंकि प्रकृति तो अब उसे स्वतंत्र छोड़ देती है?
बाबा- सबसे पहले तो जहाॅं वह मानव शरीर पाता है उसी घर के वातावरण और माता पिता के संस्कार उसे अपनी तरह मोड़ने की प्रारंभिक शिक्षा देते हैं, परंतु प्रकृति प्रदत्त बुद्धि और विवेक का उपयोग कर वह अपना रास्ता स्वयं चुन सकता है। यह  भी सही है कि यह कार्य इतना सरल नहीं है क्योंकि पूर्व जन्मों के पाशविक संस्कारों का प्रलोभन उसे अपनी ओर खींचता रहता है। इसलिये सबसे पहले तो माता पिता का आचरण ही उसे प्रभावित कर अपने अनुकूल ढालता है, परंतु तार्किक बुद्धि और विवेक के साथ उन कार्यो की सार्थकता पर चिंतन करते हुए उचित मार्गदर्शक की तलाश की जा सकती है जो प्रकृति के इन बंधनों को काटने और प्रलोभनों से मुक्त करने के लिये संघर्ष करने का उपाय बताता है। यदि यह नहीं हो पाता तो अन्यों की तरह वह भी अपना पृथक संसार बनाकर, उसी को सब कुछ समझकर, उसी में आनन्द पाने लगता है,  और आवागमन के चक्र में कोल्हू के बैल की तरह घूमता रहता है, और द्रश्य प्रपंच में फंसा रहता  है।

रवि- परंतु जब यह प्रपंच भी उन परमपुरुष की ही विचार तरंगें है, तो सब कुछ होता तो उन्हीं के मन के भीतर है फिर पृथक संसार निर्मित करने की बात ही कहाॅं उठती है?
बाबा- यह बिलकुल सत्य ही है कि सबकुछ उन एकमेव अद्वितीय परमपुरुष के  मन के भीतर ही होता है, परंतु व्यक्ति अपने इकाई मन (अर्थात यूनिट माइंड) की तरंगों को उन परमपुरुष के मन (अर्थात् कास्मिक माइंड) की तरंगों के साथ साम्य जुटा पाने का अवसर नहीं पा पाता। उसका प्रथम कारण तो माता पिता के द्वारा दिये गये संस्कार और उनकी अपेक्षाओं के अनुसार प्रारंभ से ही मानसिकता बन जाना और दूसरा यह कि पूर्व जन्मों के संस्कारों में अपना ‘विस्तार करने‘ और ‘ इंद्रिय सुखों में ही सर्वाधिक आनन्द पाने की अवधारणा बन जाना‘ होता है। यह दोनों कारण ही अपना पृथक अस्तित्व मानने का आधार बनते हैं। यद्यपि अनेक बार प्रकृति ऐंसे अवसर देती है कि वह अपने विवेक का उपयोग कर यह जानने का प्रयत्न करे कि वह कौन है , कहाॅं से आया है और कहाॅं जाना है आदि, परंतु अहंकार की सघनता उसे वापस इसी जड़त्व की ओर खींच लेती है।

चंदू- परंतु जब उसे प्रकृति अपने विवेकानुसार सोचने का अवसर देती है तो फिर उसका जड़ता की ओर वापस हो जाना किस प्रकार संभव है?
बाबा- तुम यह तो जानते हो कि बादल छाये रहते हैं परंतु वर्षा नहीं होती, पर उस समय बादलों के भीतर क्या होता रहता है बता सकते हो?

रवि- हाॅ! उस समय बादलों में पानी की बहुत छोटी छोटी सी बूंदें वायु और धूल के अणुओं पर जम जाती हैं और गुरुत्व के प्रभाव में नीचे की ओर आती हैं परंतु वायु के साथ घर्षण होने से वे फिर से वाष्पित होकर बादल में ही चली जाती हैं, पानी के रूप में वे तभी बरस पाती हैं जब उनका आकार बहुत बड़ा होता है और गुरुत्व के प्रभाव से  नीचे गिरते समय अधिकाॅंश भाग वाष्पित होते  जाने पर भी जो बचा रहता है वही हमें बूंदों के रूप में धरती पर गिरता दिखाई देता है और हम कहते हैं कि वर्षा हो रही है।
बाबा- बिलकुल सही। प्रतिसंचर के रास्ते में भी यही होता रहता है। जब किसी के लिये प्रकृति विवेकानुसार निर्णय लेने की अवसर देती है तो उसके मन पर सच्चाई जानने की उत्कंठा उत्पन्न होती है और वह आगे तेजी से बढ़ता है परंतु उसके अहंकारजन्य संस्कार उसे वाष्पित कर फिर से वापस ले आते हैं और वह परमपुरुष तक पहुंचने में असफल होता रहता है जब तक कि पूर्वकथित उत्कंठा का आकार पर्याप्त बड़ा न हो जाय और परमपुरुष के आकर्षण में उसकी गति अधिक तेज न हो जाये।

राजू- बाबा! ये सब तो समझ में आ गया, आप तो जल्दी से वह कर्म समझा दीजिये जिसके करने से हमारी गति लगातार परमपुरुष की ओर बनी रहे और वापस लौटने का अवसर ही न मिले।
बाबा- तुम लोगों की उत्सुकता ऐंसी ही बने रहे और सभी लोग भागवत धर्म में प्रतिष्ठा पायें इसलिये आज तुम लोग ध्यानपूर्वक इसके चारों प्रमुख भागों को समझ लो। ये हैं - (1) विस्तार (2) रस (3) सेवा, (4) तदस्थिति।

रवि- क्या "विस्तार" का अर्थ यह है कि अपने घर, परिवार, जमीन जायदाद और भौतिक सुख सुविधाओं का विस्तार करते जाना?
बाबा- नहीं , भौतिक सुख सुविधाओं और संपदा  का आवश्यकता से अधिक विस्तार, हमेशा बादलों की तरह बूंदों को बरसने ही नहीं देगा, अपने में ही फंसाये रहेगा। विस्तार का सही  अर्थ है मन की विस्त्रिति अर्थात् मन को वृहदामुखी करना। इस स्थिति में सब प्रकार के छुद्र भाव, वर्ण, जाति भेद, और अंधविश्वासों  के विरुद्ध संग्राम करना पड़ता है मन जब संकीर्णता और अंधविश्वासों  में घिरा रहता है तो चारों ओर का वातावरण दूषित हो जाता है किन्तु मनके व्यापक होने पर पुण्य की द्युति स्वप्रकाशित होती है। इसी लिये कहा गया है, ‘‘विस्तारः सर्व भूतस्य विष्णोर्विष्वमिदं जगत् द्रष्टव्यमात्मवत्तस्माद भेदेन विचक्षणैः।’ मनुष्य ही मननचिन्तन कर सकता है, प्रत्येक जीव मनुष्य के शरीर के लिये लालायित रहता है। क्योंकि इस शरीर में ही भागवत साधना कर पाना संभव है। इसीलिये शास्त्र में कहा कि भागवतधर्म का पालन कुमार अवस्था से ही करणीय है। भागवत धर्म का आश्रय लेने वाले संसार की समस्त अभिव्यक्तियों को भगवानका विग्रह मानकर प्यार करते हैं, क्योंकि उनका प्रेम परमपुरुष के साथ होता है।‘‘अनन्यममता, विष्णोर्ममता  प्रेमसंगता’’ अर्थात् तुम्हारा प्रेम  उनके साथ है जिनकी मानस सत्ता के बीच पूरा जगत स्थित है। उन्होंने जगत की रचना कर अपने को उसी में विलय कर दिया है। एक छुद्र कण, घास का पत्ता और प्राणी सब उन्हीं का विस्तार है इसलिये भागवत धर्म के अनुयायी साधकों के लिये अपने मन का इतना विस्तार करना होगा कि जगत की प्रत्येक वस्तु से प्रेम करें, घृणा नहीं। भागवत धर्म में विभिन्नता को कोई स्थान नहीं है। यह संश्लेषण का पथ है।

इंदु- तो "रस" का अर्थ क्या है?
बाबा- रस को इस प्रकार समझो, विश्व  में जो कुछ हो रहा है चाहे प्राकृतिक हो या अतिप्राकृतिक सबकुछ परमपुरुष की इच्छा से ही हो रहा है। उनके मन का प्रक्षेप यह जगत, उनकी मानस तरंग से उत्पन्न हुआ है। हमारे अणुमन (अर्थात् यूनिट माइंड) से उनके भूमामन (अर्थात् कास्मिक माइंड) का पार्थक्य यह है कि हमारी कल्पना का रूपान्तरण वाह्य मानस प्रक्षेप के रूप में होता है जबकि भूमामन में वाह्य कुछ भी नहीं है। समस्त जगत उसकी मानस सत्ता के मध्य स्थित है इसलिये उसकी मानस तरंग हमें वाह्य प्रतीत होती हैं। परमपुरुष का मानस चिन्तन उनका स्वरस है। विभिन्न चिन्तनों के कारण अणुमन में जो तरंगें बनती हैं वे उसका स्वरस हैं। इस स्वरसगत पृथकता के कारण ही प्रत्येक जीव एक दूसरे से अलग अलग होता है। जैसे, बाजार से जाते हुए तुमको एक जूते बनाने बाला तुम्हारे पैरों की ओर, नाई सिर की ओर और धोबी कपड़ों की ओर देखता है। द्रष्टि की यह भिन्नता अपने अपने स्वरस के कारण होती है। प्रत्येक अणुमन का स्वरस परमपुरुष के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित होता रहता है, तुम चाहो या नहीं उनके चारों ओर घूमना ही पड़ेगा । तुम्हारा स्वरस यदि उनके स्वरस के साथ साम्य स्थापित नहीं करता तो तुम्हारी इच्छा कभी पूरी नहीं हो सकती। तुम तो हजारों इच्छायें प्रतिदिन करते हो पर उनमें से कितनी पूरी हो पाती हैं? इसलिये सफलता पाने के लिये भूमा तरंग और तुम्हारी स्वरस तरंग में सामंजस्य होना चाहिये। जब मनुष्य परमपुरुष के प्रेम में जकड़ जाता है तो वह उनका स्वभाव जान जाता है और वह अपने स्वभाव को परमपुरुष के स्वभाव में मिला देता है जिससे वह जगत में प्रतिद्वन्द्वता से दूर हो जाता है और अपने क्षेत्र में विजयी होता है। दूसरे समझते हैं कि वह महान पुरुष है पर वह जानता है कि उसकी सफलता का रहस्य क्या है। इसलिये रस साधना का मूल मंत्र यह है कि अपनी इच्छा को परमपुरुष की ओर प्रवाहित कर दो। शास्त्र में इसी को रासलीला कहा गया है। तुम्हारी बुद्धि, शिक्षा, मान सब व्यर्थ हो जायेंगे यदि उन्हें परमपुरुष की ओर परिचालित नहीं करते हो। साधक को चाहिये कि वह यह भावना रखे कि हे प्रभो, मेरे जीवन में तुम्हारी इच्छा पूरी हो।

राजू- और सेवा?
बाबा- जब किसी को कुछ देकर उसके बदले में प्रत्याशा  रखी जाती है तो यह कहलाता है व्यवसाय और जब पाने की प्रत्याशा  नहीं की जाती तब वह सेवा कहलाती है। यह दो प्रकार की हो सकती है एक 'आन्तरिक 'और दूसरी 'बाह्य'। ‘‘बाह्य सेवा‘‘ के लिये संपूर्ण जगत को परमेश्वर  का विग्रह जानकर प्रत्येक प्राणी की सेवा करना होगी, चाहे गृहस्थ हो या संन्यासी, जीव को शिव जानकर सेवा करना ही होगी। जीव की सेवा के समय मन में यह ध्यान रखना होगा कि परमपुरुष की ही सेवा कर रहे हो, यदि जीव रूप में वह नहीं आते तो यह अवसर कहां मिलता। रोगी, भिखारी के रूप में वे तुम्हारे पास आते हैं और तुम्हारी सेवा की आशा  करते हैं, तुम्हारी सेवा से वे कृतज्ञ नहीं होते वरन् तुम ही होते हो क्योंकि यदि वह सेवा का अवसर न देते तो तुम क्या करते? वाह्य सेवा सब कर सकते हैं। ‘‘आन्तरिक सेवा‘‘, जपक्रिया और ध्यान से सम्पन्न होती है। ध्यान और जप के समय सेवा की मनोवृत्ति जाग्रत रखना होगी, प्रत्याशा  का त्याग करना होगा। साधना में सोचना होगा कि परमपुरुष की सेवा कर रहे हैं। साधना में सेवा भाव होने पर एकाग्रता सहज ही आ जाती है सेवा भाव नहीं रहने पर योगी की साधना भी निरर्थक हो जायेगी। जब आन्तरिक सेवा ठीक नहीं होती तब वाह्य सेवा भी संभव नहीं है। यह नोट कर लो कि भागवत धर्म के पालन करने वालों का लक्ष्य होता है,‘‘आत्ममोक्षार्थं जगद्हितायच’’, इसका प्रथम भाग, आन्तरिक सेवा करके , अपूर्ण व्यक्तिगत जीवन को पूर्ण करने और द्वितीय भाग वाह्य सेवा करके ,  जगत को कल्याण पथ पर अग्रसर करने का प्रयोजन है। बाहरी सेवा से मन शुद्ध होता है और इसी शुद्ध मन द्वारा इष्ट की सेवा करना होती है। इन दोनों प्रकार की सेवाओं के करने का अधिकार सब को है। सभी अपनी मानस तरंग को भूमा मन की तरंग में मिलाने का चिन्तन कर सकते हैं। साधना और कुछ नहीं, है केवल केन्द्र विन्दु के सापेक्ष  अपनी परिधि को कम करने का प्रयत्न करना। व्यक्तिगत स्वरस से स्नायुओं द्वारा विभिन्न ग्रंथियों की संरचना होती रहती है। मन की विभिन्न विचारधाराओं में विभिन्न स्वरसों के संपर्क में आने से भाव उत्पन्न होता है कि मैं ब्रह्मवत् हूॅं। जानकर या अनजाने में ही प्रत्येक जीव ‘‘ मैं वही, वही मैं’’, ( अर्थात् सो अहम् ) के बीच आवर्तित होता रहता है। वह शिव से पृथक नहीं है। जब तक वह सोचता है कि वह ब्रह्म से पृथक है उसे घूमते रहना पड़ेगा । जब उभय प्रेम  का चिन्ह मात्र दूर हो जाता है तब और पृथकता नहीं रहती दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। जब तक ऐंसा नहीं होता कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहना पड़ेगा। किन्तु जब कोई व्यक्ति विस्तार , रस और सेवा के द्वारा भागवत् धर्म में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब उसकी यात्रा समाप्त हो जाती है और उसे समझ में आ जाता है कि परमपुरुष की लीला क्या थी।

राजू- तो तदस्थिति का क्या अर्थ हुआ?
बाबा- जब विस्तार , रस और सेवा इन तीनों का अच्छा अभ्यास हो जाता है तो संस्कारों से मुक्त मन शुद्ध होकर कास्मिक माइंड के साथ अनुनादित होकर उसी में मिल जाता है, इसे ही तदस्थिति कहते हैं। दार्शनिक शब्दों में इसे मुक्ति कहते हैं। परंतु जब इसी अभ्यास के क्रम में इकाई चेतना, परम चेतना के साथ अनुनादित होकर उसी में मिल जाती है तो इसे मोक्ष कहते हैं। इसलिये भागवत धर्म ही अनुकरणीय है यही मानव मात्र का धर्म है।

Wednesday, 4 May 2016

61 शास्त्र(scripture)

61 शास्त्र(scripture)

यह सार्वभौमिक रूप से सभी युगों में , सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाता रहा है कि धर्म ही मनुष्य जीवन की मुख्य धारा है। जीवधारियों की वही जीवनी शक्ति है, यही नहीं वह उनकी जीवन यात्रा का मार्गदर्शक और धन का स्रोत है। शब्द के व्यापक अर्थ में सभी सजीव या निर्जीव पदार्थों, सबका  अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म उस पदार्थ के अस्तित्व को प्रकट करता है। उसके संकीर्ण अर्थ में निर्जीव पदार्थों में धर्म का प्राकट्य कम और सजीवों में अधिक होता है। मनुष्यों में मानवेतर प्राणियों के धर्म का जन्मजात समावेश रहता है परंतु मानवों का धर्म इससे बहुत अधिक होता है वह जीवन के प्रत्येक पहलु में प्रविष्ठ रहता है। इसलिये धर्म वास्तव में नियंत्रक और सच्चा मार्गदर्शक होता है, प्रेरक बल और मनुष्यों का रक्षक होता है, वह एक उत्तम और व्यापक आदर्श होता है जो मानव जीवन के हर पहलु का निश्चित, साहसी और स्पष्ट दिशा निर्देश देता हैं, न केवल व्यक्तिगत दिनचर्या का वरन् उसकी समग्र क्रियाओं और प्रेरकों के संबंध में आध्यात्मिक प्रेरणा भी देता है जो उसे ईश्वर के निकटतर लाने में सहायक होता है। सच्चे धर्म शास्त्र वही हैं जिनमें इन सभी शर्तों का समावेश होता है और ‘‘शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः‘‘ की परिभाषा से पारिभाषित होते है। अन्य धर्मग्रंथ जो इन शर्तों के अनुरूप नहीं हों  और इस परिभाषा का पालन नहीं करते उन्हें सत्य का पथप्रदर्शक नहीं माना जा सकता। यहाॅं यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि सच्चे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट दिशानिर्देश होना चाहिये जिनका पालन सभी लोग अपने जीवन में  तो करें ही दूसरों को भी मार्गदर्शन  कर सकें।

हम सभी रस के अनन्त महासागर में रहते हैं, इसमें कभी समाप्त न होने वाले स्रजन का विकिरण, अर्थात् सभी छोटी और बड़ी अवर्णनीय अभिव्यक्तियों का स्पंदन, उच्चारित और अनुच्चारित अलौकिक विचार तरंगों के रूप में, भीतर और बाहर सभी दसों दिशाओं में,  हिलोरें ले रहा है। इसलिये परम सत्ता की प्रत्येक संरचना के साथ उचित और विवेकपूर्ण व्यवहार करते हुए उसका ध्यान रखना चाहिये जो कि इन विभिन्न रचनाओं का सारतत्व है। अपने आपको कुमुदिनी के आदर्श पर ढालने का प्रयत्न करना चाहिये जो कीचड़ में खिलती है और अपने अस्तित्व के रक्षण में दिन रात कीचड़ भरे पानी, झंझटों तथा भाग्य के थेपेड़ों और तूफानों के आघात सहती है फिर भी अपने ऊपर दिखने वाले चंद्रमा को नहीं भूलती वह अपना प्रेम उसके साथ स्थायी रूप से जीवित रखती है । वह एक साधारण फूल ही है उसमें असाधारण कुछ नहीं है फिर भी वह अपनी सभी इच्छायें चंद्रमा पर केन्द्रित रखकर अपना रोमान्स महान चंद्रमा के साथ बाॅंधे रहती है। हो सकता है हम बहुत ही साधारण व्यक्ति हों और साॅंसारिक जीवन में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये  उतार चढ़ाव से अपने दिन काट रहे हों  परंतु हमें उस परम सत्ता को नहीं भूलना चाहिये, हमारी सभी इच्छायें उसी की ओर झुकी रहना चाहिये, सदा ही उसी के विचारों में डूबे रहना चाहिये, उसके अनन्त प्रेम में डूब जाने पर साॅंसारिक गतिविधियाॅं प्रभावित नहीं होंगी। परिस्थतियां चाहे जैसी भी क्यों न रहें परम सत्ता से अपनी निगाहें नहीं हटना चाहिये। जिन्होंने  अपने जीवन का आदर्श और लक्ष्य उस परम सत्ता को बना लिया है उसका पतन नहीं हो सकता। चित्त में जड़ और तुच्छ विचारों के आ जाने पर उन्हीं के अनुसार निम्न स्तरों पर ही अगला जन्म  पाना होगा यह प्रकृति का नियम है। जैसे भरत मुनि, उत्कृष्ट साधक होते हुए भी अंत में हिरण पर चिंतन करने के कारण अगले जन्म में हिरण के जीवन को पाकर उन्हें वह संस्कार भोगना पड़ा। इसलिये सतर्क रहकर परमपुरुष पर ही अपना समग्र चिंतन जमाये रखना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य है, ताकि वे सभी आनन्द के पथ पर चलते हुए अपने लक्ष्य को पा सकें। धर्मशास्त्र और सद साहित्य इस कार्य में संजीवनी का काम करते है।

Monday, 2 May 2016

60 बाबा की क्लास (ब्रह्मचक्र )

60 बाबा की क्लास (ब्रह्मचक्र )
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चंदू - बाबा! आधुनिक वैज्ञानिक, विश्लेषणात्मक विधियों की सहायता से प्रकृति को समझने का प्रयास कर रहे हैं तो क्या वे केवल एटम और उसके विभिन्न अवयवों तक ही रह जायेंगे या कुछ आगे भी जा सकेंगे ?
बाबा- विश्लेषण करके वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस समस्त ब्रह्माॅंड में पदार्थ और ऊर्जा के अलावा रिक्त स्पेस है और कुछ नहीं । इसी की व्याख्या वे मैटर और एन्टी मैटर के नाम से भी करते हैं। धीरे धीरे ही सही इस विश्लेषण के क्षेत्र में और गहराई पर जायेंगे तो उन्हें जीवन के उद्गम का स्रोत भी मिल सकता है और जब उनका मन संश्लेषण पर जायेगा तो जीव सहित समग्र पदार्थ और ऊर्जा को निर्मित और नियंत्रित करने वाली सत्ता को भी उन्हें मानना पड़ेगा।

नन्दू- लेकिन उनका कहना है कि ऊर्जा को न उत्पन्न किया जा सकता है और न नष्ट। उन्हें केवल रूपान्तरित किया जा सकता है इसलिये उन्हें उत्पन्न करने वाली सत्ता को वे नहीं मानते?
बाबा- नन्दू! भौतिक जगत का ज्ञान सतत परिवर्तित होता रहा है, जो परिकल्पनायें पचास वर्ष पहले अकाट्य मानी जाती थीं वे आज उन्हीं वैज्ञानिकों ने गलत सिद्ध कर नये संशोधन कर दिये और उनका स्थान नये सिद्धान्तों ने ले लिया। इसलिये यह भौतिक ज्ञान टाइम , स्पेस और पर्सन के अनुसार परिवर्तनशील है, परंतु दार्शनिक आधार पर कहे गये ब्रह्मचक्र और ब्रह्माॅंड सम्बंधी आप्त वाक्य अकाट्य हैं क्योंकि वे केवल एक और अद्वितीय  सत्ता परमपुरुष द्वारा ही अपने महासंभूति स्तर पर कहे गये हैं।

रवि- ब्रह्माॅंड की घटनाओं को ब्रह्मचक्र के द्वारा समझाया जाता है, परंतु कोई विद्वान वैदिक और कोई तान्त्रिक दर्शनों का सहारा लेता है इनमें सर्वाधिक प्रामाणिक किसे माना जाये?
बाबा- वैदिक दर्शन ब्रह्माॅंडीय गतिविधियों को सैद्धाान्तिक और विद्यातंत्र में व्यावहारिक और तार्किक आधार पर तथ्यों का मूल्यांकन किया जाता है जो आधुनिक विज्ञान के आधार पर समझाये जा सकते हैं।

इंदु- आपने पिछली कक्षा में ब्रह्मचक्र को संचर और प्रतिसंचर की गतियों द्वारा संचालित होते हुए समझाया था, क्या इन्हें आधुनिक विज्ञान में मान्यता दी गयी है या यह केवल दार्शनिक व्याख्या ही है?
बाबा- हाॅं, आधुनिक विज्ञान और विद्यातंत्र के सिद्धान्तों में शब्दावलियों की भिन्नता हो सकती है तथ्यगत नहीं। जिन्हें विद्यातंत्र में संचर और प्रतिसंचर क्रियायें कहा गया है उन्हें आज का विज्ञान क्रमश सेंट्रीफ्यूगल और सेन्ट्रीपीटल रीएक्शन्स कहता है।

राजू‘- तो क्या परम निर्गुण सत्ता के अपने अस्तित्व वोध पाने के बाद साक्षी नियंत्रक केन्द्रीय सत्ता पुरुषोत्तम, जिनकी व्याख्या पिछली क्लास में की गयी थी, से ही संचर क्रिया के लिये कास्मिक ऊर्जा मिलती है? यदि हाॅं तो क्या संचर क्रिया में ऊर्जा को क्रमशः पदार्थ में रूपान्तरित होते हुए माना जा सकता है?
बाबा- हाॅं, नियंत्रक साक्षी सत्ता अपनी स्थितिज ऊर्जा को जब गतिज रूप देने लगते हैं तो ‘सत‘ नामक बल से ज्यों ही गति प्रारंभ की जाती है तो तत्काल ‘तम‘ नामक बल इसका विरोध करने लगता है जिसे अन्य बल ‘रज‘ इन्हें संतुलित करने के लिये बलों के त्रिभुज नियम के अनुसार सक्रिय हो जाता है और परिणामतः ऊर्जा इस त्रिभुज के किसी शीर्ष से सरल रेखा में गतिशील हो जाती है जिसे इस त्रिभुज के केन्द्र में बैठे पुरुषोत्तम साक्ष्य देते हैं और नियंत्रण रखते हैं। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे हम गति करने के लिये ज्योंही पैर आगे बढ़ाते हैं घर्षण बल तत्काल विपरीत दिशा में सक्रिय होकर गति का विरोध करता है परंतु हम इनके सहारे परिणामी बल की दिशा में गति करने लगते हैं। सत, रज, और तम इन तीन बलों के माध्यम से कास्मिक ऊर्जा, जिसे दार्शनिकगण प्रकृति कहते हैं, अपने अन्य रूपों में बदलती हुई संचर क्रिया को आगे बढ़ाती है और धीरे धीरे पदार्थ में बदल जाती हैं। सूक्ष्म से स्थूल की ओर इसकी गति होती है, अर्थात् केन्द्र से बाहर जाने का कार्य ‘‘सेन्ट्रीफ्युगल रीएक्शन‘‘। इसके बाद स्थूल से सूक्ष्म की ओर गति होना प्रतिसंचर कहलाता है जिसमें बाहर से केन्द्र की ओर गति होती है ‘‘सेन्ट्रीपीटल‘‘ और पदार्थ चेतन ऊर्जा में रूपान्तरित होता हुआ वहीं जा पहुंचता है जहाॅं से चला था।  इन दोनों के संयुक्तीकरण को ही दार्शनिक भाषा  में ब्रह्म चक्र कहते हैं।

इन्दु- लेकिन वैज्ञानिक जिसे ‘स्पेस और टाइम‘‘ कहते हैं और अभी तक सही सही व्याख्या करने की तलाश कर रहे हैं वह इस संचर में अपना स्थान पाता है या नहीं ? यदि हाॅं तो कहाॅं और कैसे?
बाबा- पुरुषोत्तम को केन्द्रित कर जब सत, रज और तम बलों में संघर्ष होता है तो ऊर्जा इनके संतुलनकारी त्रिभुज के किसी शीर्ष से बाहर सरल रेखा में तरंगायित होने लगती है। इस अवस्था में उसमें आवृत्ति शून्य और तरंग लंबाई अनन्त होती है और कास्मिक माइंड के पंचकोशों का निर्माण होने लगता है जिसे हम ‘स्पेस‘ कहते हैं तथा विद्यातंत्र में उसे ‘कौशिकी‘ या ‘‘शिवानी‘‘ कहा जाता है। इसके बाद ज्योंही इसकी सघनता बढ़ने लगती है इसकी गति में  वकृता आने लगती है जिसे ‘‘कला‘‘ कहते हैं और आवृत्ति में बृद्धि होने के साथ तरंग लंबाई अनन्त से न्यूनतम की ओर घटने लगती है और ‘‘काल‘‘ अर्थात् टाइम अपना अस्तित्व पाता है। इस अवस्था में शिवानी अब विद्यातंत्र में  भैरवी कहलाती है जो अपनी पूर्ण क्रियाशील अवस्था में आकर अपने भिन्न रूपों में रूपान्तरित होने लगती है। रूपान्तरण की वह अवस्था  दार्शनिक रूप में भवानी कहलाती है जिसे सभी निर्मित और निर्माणाधीन अस्तित्वों को स्पेस और टाइम में बाॅंधे रहना होता है । यहीं से वायु , ऊष्मा, जल और ठोस रूपों का आकार बनता है और संचर क्रिया चलती रहती है जब तक गेलेक्सियाॅं और तारे ग्रह आदि बनते रहते हैं। इन सबको साक्षीसत्ता केन्द्र में रहते हुए अपनी ओर आकर्षित किये  रहती है अतः इन सबके साथ ही गुरुत्वाकर्षण बल भी सक्रिय बना रहता है। ध्यान रहे यह सब कास्मिक माइंड के भीतर ही होतारहता  है  अर्थात उस परम सत्ता की विचार तरंगें ही हैं जिन्हें हम पृथक  और स्वतंत्र समझते और अनुभव करते  हैं।

रवि- स्पेस, टाइम और गुरुत्वाकर्षण के उद्गम का अध्ययन करने के लिये ही तो आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा ‘लार्ज हाइड्रान कोलायडर एक्सपेरीमेंट‘ किया गया था, परंतु कुछ ठोस रूप में व्याख्या नहीं हो पायी है।
बाबा- उन्हें इसे समझने में सफलता तब मिलेगी जब वे प्रतिसंचर के रास्ते आगे बढ़ेंगे  अर्थात् अपने प्रयोग आध्यात्म सम्मत बनायेंगे। वे अभी एन्टीप्रतिसंचर प्रयोग कर रहे हैं अर्थात् उलटी दिशा में जाकर बिग वेंग पर पहुंचना चाहते हैं। अच्छा तो यही है कि हम प्रतिसंचर अर्थात् सेंट्रीपीटल बल की दिशा में आगे बढ़ें और देखें कि पदार्थ , ऊर्जा और जीव या  'मन अर्थात् माइंड‘ परस्पर किस प्रकार संबंधित हैं, तभी हम प्रकृति के रहस्य को कुछ समझ सकेंगे।

नन्दू- भवानी के द्वारा सभी ऊर्जा को पदार्थ में बदल देने के बाद प्रतिसंचर का प्रारंभ कहाॅं से होता है?
बाबा- पदार्थों के पारस्परिक संघर्ष और आकर्षण के फलस्वरूप जीवन का प्रारंभ एक कोशीय जीव से होता है, जिसे आधुनिक वैज्ञानिक ‘अमीबा ‘ कहते हैं। यही काल क्रम के प्रभाव में अनेक कोशीय जीवों में बदलता जाता है और वनस्पति, जीव जंतु और अंततः मानवों का आकार पाता है । एक कोशीय जीव से इकाई मन अपने आस्तित्विक बोध को क्रमशः बढ़ाने में सक्षम होता है और प्रकृति के आधीन क्रमशः उन्नत स्तर पाता जाता है उसे वापस संचर की ओर लौटना संभव नहीं होता। मनुष्य स्तर पर आकर इकाई मन में अस्तित्व बोध तो होता ही है कृतित्व वोध भी बढ़ने लगता है अतः वह प्रकृति के अनुसार भी चल सकता है और स्वतंत्र रूप से या उसके विपरीत । अतः या तो वह प्रतिसंचर में आगे के स्तरों को प्राप्त करता हुआ अपने मूल स्थान पुरुषोत्तम तक जा सकता है या प्रतिसंचर के विपरीत जाकर अपने से इतर प्राणियों में ही आता जाता रह सकता है। प्रतिसंचर में आगे की ओर बढ़ने के लिये ही साधना और योगाभ्यास आदि की आवश्यकता होती है। यह सगुण ब्रह्म का रूप ही है जिसमें संचर और प्रतिसंचर मिलकर एक ब्रह्मचक्र बनाते हैं और हम सभी अपने अपने कर्मों के अनुसार उसमें लगातार चक्कर लगा रहे हैं। कास्मिक ऊर्जा की, भावनी स्थिति के प्रभाव में होने के कारण इस संसार को  भवसागर कहते हैं।

चंदु- तो सगुण ब्रह्म का सर्वव्यापी स्वरूप कैसा है? और यह क्यों कहा जाता है कि वह कण कण में व्याप्त है?
बाबा- सगुण ब्रह्म ओतयोग और प्रोतयोग से अपनी संरचना से हर क्षण जुड़े रहते हैं, उनका कार्य यह है कि परमपुरुष की स्रष्टि के प्रत्येक कण को मुक्त होने के लिये अवसर प्रदान करना। ओत योग का अर्थ है व्यष्टिगत संपर्क और प्रोतयोग का अर्थ है समष्टिगत संपर्क। व्यष्टिगत भाव में स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं को क्रमशः जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति भी कहा जाता है जिनमें सगुण ब्रह्म बीज रूप में क्रमशः विश्व, तैजस् और प्राज्ञ कहलाते हैं । समष्टिभाव में उनकी अवस्थायें  क्षीरसागर या क्षीराब्धि, गर्भोदक,  कारणार्णव और तुरीय  कहलाती हैं और उनके संगत बीज क्रमशः विराट, हिरण्यगर्भ,  ईश्वर या सूत्रेश्वर, तथा ईश्वरग्रास  कहलाते हैं। यद्यपि ये सभी दार्शनिक शब्द हैं परंतु साधना के विभिन्न स्तरों पर इन सब का अनुभव होता रहता है। इनकी यथार्थ जानकारी रहने से मन में अनावश्यक भ्रम उत्पन्न नहीं हो पाता ।