179 बाबा की क्लास ( नित्यानित्य विवेक -3 )
राजू- स्वप्न की अवस्था में मन की कल्पना सत्य सी प्रतीत होती है, उसमें नित्य अथवा अनित्य का बोध किस प्रकार हो सकता है?
बाबा- किसी भी प्रकार के बोध के होने के लिए मानसिक तरंगों का आत्मा के द्वारा प्रतिफलित होना आवश्यक होता है। इस प्रतिफलन के अभाव में वस्तु का बोध नहीं हो सकता। केवल तरंगों के उत्पन्न होने पर वस्तु का बोध नहीं हो सकता। इसीलिए कहा गया है कि यह जीवात्मा, साक्षीसत्ता अर्थात् परावर्तक प्लेट की तरह कार्य करता है। इसके द्वारा मानसिक तरंगों को परावर्तित किए जाने से स्वप्न और जागृत दोनों ही अवस्थाओं में वस्तु का बोध होता है। स्पष्ट है कि यह प्रतिफलक ही है नित्य सत्ता और तरंगें हैं अनित्य सत्ता।
रवि- परन्तु साधारणतः मन डरता क्यों रहता है?
बाबा- जो धीर व्यक्ति हैं उनका लक्ष्य अर्थात् ध्येय है प्रतिफलक सत्ता न कि तरंगें। जिसने इसे अच्छी तरह समझ लिया है वे किसी से क्यों डरेंगे? वे न तो चिंतित होते हैं और न ही डरते हैं क्योंकि वे जानते और अनुभव करते हैं कि वह प्रतिफलक सत्ता हमेशा ही उनके साथ हैें, वही नित्य है। जगत का जो कुछ भी है वह तरंगों का समूह मात्र है उसका विशेष पारमार्थिक मूल्य नहीं है क्योंकि वह सब अनित्य है।
इन्दु- हमारे भूतकाल और भविष्य का नियंत्रक कौन है?
बाबा- वही जो तुम्हारे निकटतम हैं। तुम्हारा अपना विन्दु है तुम्हारा जीवात्मा और निकटतम विन्दु है प्रत्यगात्मा। यही ‘ईशानम् भूतभव्यस्य’ हैं अर्थात भूत और भविष्य के नियंत्रक हैं। जो धीर पुरुष इस रहस्य को समझ लेते हैं वे अनुभव करते हैं कि हमारा निकटतम विन्दु सब कुछ जानता है। जो मुझे मालूम है वह भी उन्हें मालूम है और जो मुझे नहीं मालूम वह भी उन्हें मालूम है तो उनसे क्या छिपाऊं।
चन्दू- इस प्रत्यगात्मा अर्थात् अपने निकटतम विन्दु को समझने और अनुभव करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- इसके लिए मन को उचित प्रशिक्षण देना होता है। जैसे सर्कस में बब्बर शेर को दिखाने से पहले बहुत ट्रेनिंग देना पड़ती है वैसे ही मन को रोज सुवह शाम ट्रेनिंग देना होती है। इस ट्रेनिंग के अभाव में शेर को जनता के सामने नहीं लाया जा सकता उसी प्रकार यह मन भी अनुभव सिद्ध लोगों के संपर्क में आकर प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ही अग्रया बुद्धि पाता है और तभी समझ में आता है कि प्रत्यगात्मा सदा ही तुम्हारे साथ में हैं। इस अवस्था में भिन्नता दिखाई नहीं देती, लगता है कि सभी दृश्य और अदृश्य प्रपंच उसी परमात्मा का ही विग्रह है।
राजू- जो उस एक को नहीं देखकर अनेक को ही देखते रहते हैं उनका क्या होता है?
बाबा- वे बार बार जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं । इसीलिए कहा है कि उस एक की ही उपासना में लगे रहो । अपने इसी ध्येय को पाने के लिए ज्ञान और कर्म का सहारा लिया जाता है । ज्ञान और कर्म की साधना में सिद्धि प्राप्त होने पर ज्ञान पूर्वक कर्म करने का अभ्यास होगा जिससे भक्ति जाग जाएगी। भक्ति के लिए अलग से कोई साधना नहीं है। इसलिए जब तक भक्ति नहीं जागती है प्रेम से कर्म और ज्ञान की चर्चा करो, ज्ञान की जितनी चर्चा करते हो उससे चौगुना कर्म करो तो देखोगे कि जितना कर्म का अनुशीलन किया उससे हजार गुना भक्ति जाग गई है।
रवि- हमें ज्ञान और कर्म की चर्चा करने की आवश्यकता कब तक रहती है?
बाबा- जब समझ में आ जाता है कि सभी में परमात्मा रहते हैं तब इस ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। और कर्म साधना है दूसरों की अधिकतम सेवा करना और अपने को न्यूनतम सेवा देना। जब दूसरों को शत प्रतिशत सेवा देने लगोगे और अपने को शून्य प्रतिशत, तो कहा जाएगा कि कर्म साधना में सिद्धि प्राप्त हो गई। इस प्रकार ज्ञान और कर्म में सिद्धि प्राप्त हो जाने पर कब भक्ति जाग गई इसका पता ही नहीं चलेगा। इसके बाद अतीत में तुम क्या थे , चोर ,गुन्डा या दुश्चरित्र, यह सब समाप्त हो जाएगा। कृष्ण ने वचन दिया है;‘‘ अपिचेत्सुदुराचारो भजते माम अनन्यभाक् सोपि पापविनिर्मुक्तो मुक्यते भवबंधनात्।’’
राजू- स्वप्न की अवस्था में मन की कल्पना सत्य सी प्रतीत होती है, उसमें नित्य अथवा अनित्य का बोध किस प्रकार हो सकता है?
बाबा- किसी भी प्रकार के बोध के होने के लिए मानसिक तरंगों का आत्मा के द्वारा प्रतिफलित होना आवश्यक होता है। इस प्रतिफलन के अभाव में वस्तु का बोध नहीं हो सकता। केवल तरंगों के उत्पन्न होने पर वस्तु का बोध नहीं हो सकता। इसीलिए कहा गया है कि यह जीवात्मा, साक्षीसत्ता अर्थात् परावर्तक प्लेट की तरह कार्य करता है। इसके द्वारा मानसिक तरंगों को परावर्तित किए जाने से स्वप्न और जागृत दोनों ही अवस्थाओं में वस्तु का बोध होता है। स्पष्ट है कि यह प्रतिफलक ही है नित्य सत्ता और तरंगें हैं अनित्य सत्ता।
रवि- परन्तु साधारणतः मन डरता क्यों रहता है?
बाबा- जो धीर व्यक्ति हैं उनका लक्ष्य अर्थात् ध्येय है प्रतिफलक सत्ता न कि तरंगें। जिसने इसे अच्छी तरह समझ लिया है वे किसी से क्यों डरेंगे? वे न तो चिंतित होते हैं और न ही डरते हैं क्योंकि वे जानते और अनुभव करते हैं कि वह प्रतिफलक सत्ता हमेशा ही उनके साथ हैें, वही नित्य है। जगत का जो कुछ भी है वह तरंगों का समूह मात्र है उसका विशेष पारमार्थिक मूल्य नहीं है क्योंकि वह सब अनित्य है।
इन्दु- हमारे भूतकाल और भविष्य का नियंत्रक कौन है?
बाबा- वही जो तुम्हारे निकटतम हैं। तुम्हारा अपना विन्दु है तुम्हारा जीवात्मा और निकटतम विन्दु है प्रत्यगात्मा। यही ‘ईशानम् भूतभव्यस्य’ हैं अर्थात भूत और भविष्य के नियंत्रक हैं। जो धीर पुरुष इस रहस्य को समझ लेते हैं वे अनुभव करते हैं कि हमारा निकटतम विन्दु सब कुछ जानता है। जो मुझे मालूम है वह भी उन्हें मालूम है और जो मुझे नहीं मालूम वह भी उन्हें मालूम है तो उनसे क्या छिपाऊं।
चन्दू- इस प्रत्यगात्मा अर्थात् अपने निकटतम विन्दु को समझने और अनुभव करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
बाबा- इसके लिए मन को उचित प्रशिक्षण देना होता है। जैसे सर्कस में बब्बर शेर को दिखाने से पहले बहुत ट्रेनिंग देना पड़ती है वैसे ही मन को रोज सुवह शाम ट्रेनिंग देना होती है। इस ट्रेनिंग के अभाव में शेर को जनता के सामने नहीं लाया जा सकता उसी प्रकार यह मन भी अनुभव सिद्ध लोगों के संपर्क में आकर प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ही अग्रया बुद्धि पाता है और तभी समझ में आता है कि प्रत्यगात्मा सदा ही तुम्हारे साथ में हैं। इस अवस्था में भिन्नता दिखाई नहीं देती, लगता है कि सभी दृश्य और अदृश्य प्रपंच उसी परमात्मा का ही विग्रह है।
राजू- जो उस एक को नहीं देखकर अनेक को ही देखते रहते हैं उनका क्या होता है?
बाबा- वे बार बार जन्म लेते रहते हैं और मरते रहते हैं । इसीलिए कहा है कि उस एक की ही उपासना में लगे रहो । अपने इसी ध्येय को पाने के लिए ज्ञान और कर्म का सहारा लिया जाता है । ज्ञान और कर्म की साधना में सिद्धि प्राप्त होने पर ज्ञान पूर्वक कर्म करने का अभ्यास होगा जिससे भक्ति जाग जाएगी। भक्ति के लिए अलग से कोई साधना नहीं है। इसलिए जब तक भक्ति नहीं जागती है प्रेम से कर्म और ज्ञान की चर्चा करो, ज्ञान की जितनी चर्चा करते हो उससे चौगुना कर्म करो तो देखोगे कि जितना कर्म का अनुशीलन किया उससे हजार गुना भक्ति जाग गई है।
रवि- हमें ज्ञान और कर्म की चर्चा करने की आवश्यकता कब तक रहती है?
बाबा- जब समझ में आ जाता है कि सभी में परमात्मा रहते हैं तब इस ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती। और कर्म साधना है दूसरों की अधिकतम सेवा करना और अपने को न्यूनतम सेवा देना। जब दूसरों को शत प्रतिशत सेवा देने लगोगे और अपने को शून्य प्रतिशत, तो कहा जाएगा कि कर्म साधना में सिद्धि प्राप्त हो गई। इस प्रकार ज्ञान और कर्म में सिद्धि प्राप्त हो जाने पर कब भक्ति जाग गई इसका पता ही नहीं चलेगा। इसके बाद अतीत में तुम क्या थे , चोर ,गुन्डा या दुश्चरित्र, यह सब समाप्त हो जाएगा। कृष्ण ने वचन दिया है;‘‘ अपिचेत्सुदुराचारो भजते माम अनन्यभाक् सोपि पापविनिर्मुक्तो मुक्यते भवबंधनात्।’’