Wednesday, 28 March 2018

184 दुखों का कारण और निवारण

184  दुखों का कारण और निवारण 
१. व्यक्तिगत दुखों का कारण :- अतृप्त इच्छाएं।
सब चाहते हैं कि सब कुछ उनकी इच्छा से ही हो पर विश्व का निर्माता अपनी इच्छा से सञ्चालन करता है। सुख तब प्राप्त होता है जब व्यक्तिगत इच्छा , विश्व संचालक कि इच्छा से मेल करती है।
२. सामाजिक दुखों का कारण :- अवैज्ञानिक,विवेकहीन, अतार्किक और आडम्बरी परम्पराओं का बोझ।
३. हम क्या कर सकते है?
विज्ञान सम्मत आध्यात्म और आध्यात्म सम्मत विज्ञान की रचना कर स्वयं और समाज दोनों को सुखी कर सकते हैं।

1. Causes of individual sorrow:- Unfulfilled desires.
Every one wants that each act of the world should take shape as per his desire, but the creator of the world acts as per His desire. The happiness can only be derived if the desire of the creator of the world and individual's desire coincide with each other.
2. Causes of sorrows of society:- Load of unscientific,irrational , illogical and hypo-critic traditions.
3. What we can do?
Making scientific base of spirituality and spiritual base of science we can become happy not only individually but also socially.

Friday, 23 March 2018

183 अनेक भाषाओं का उद्गम कैसे ?

183 अनेक भाषाओं का उद्गम कैसे ?
जब कोई शीघ्रगामी घोड़ा अपने खुरों के बल तेज चलता है तो तुर तुर तुर की आवाज करता है। इसलिए कहा गया तुरग या तुरंगा या तुरंगामा (अर्थात् घोड़ा ) । वह पशु जो गति करने पर कुर कुर कुर की आवाज करता है उसे कुरग या कुरंग या कुरंगामा ( अर्थात् हिरण) कहने लगे। जिस वस्तु से मन पर धव धव धव का संवेदन होता है एसे धवल अर्थात् सफेद कहा गया। इसी आधार पर मनुष्यों ने अपने मन के विचारों को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्द और क्रिया रूप बनाए । शब्दों के निर्माण करने की इस विधि को ‘‘ ध्वनिक व्युत्पत्ति ’’ कहते हैं। संसार की सभी भाषाओं के मूल क्रिया रूप इसी प्रकार बनाए गए हैं।
इन मूल क्रिया रूपों में उपसर्ग और प्रत्यय जोड़ कर अनेक प्रकार के शब्द बनाए गए। संसार की प्रतिष्ठित भाषाओं में से चार भाषाओं को मूल भाषाएं कहा जा सकता है। ये हैं, वैदिक, लैटिन, हिब्रू और पुरानी चीनी। यदि कोई इन भाषाओं के उद्गम और शब्दकोष के बारे में परीक्षण करता है तो वह पाएगा कि इन सभी की विधियाॅं एक समान रही हैं अर्थात् ध्वनियों को सुनने के अनुभव पर उत्पन्न विचारों के आधार पर हैं। समय के आगे बढ़ने के साथ ही इनसे अन्य भाषाओं और उनसे  और दूसरी  भाषाओं का उद्गम होता गया  परन्तु उन सभी के मौलिक क्रिया रूप इन्हीं चार भाषाओं से लिए जाते रहे। जैसे, संस्कृत, वैदिक से आई और, संस्कृत से अनेक भारतीय भाषाओं को जन्म हुआ जैसे हिन्दी, बंगाली , गुजराती, मलयालम और अन्य इन्डोआर्यन भाषाएं।  यही लेटिन, पुरानी चीनी और हिब्रू के साथ भी हुआ।

Friday, 16 March 2018

182 आस्था, आदर और श्रद्धा

182 आस्था, आदर और श्रद्धा
ये तीनों शब्द बहुत ही सूक्ष्म अंतर से समानार्थक होते हैं। माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाले छात्र के लिये हायर सेकेंडरी में पढ़ने वाला छात्र, सामान्यतः आदरणीय होता है और यदि वह अपनी जिज्ञासाओं का समय समय पर उससे समुचित समाधान पा सकता हो तो श्रद्धावान, परंतु यदि वह यह भी अनुभव करता है कि जिज्ञासाओं के समाधान करने के साथ साथ उसकी उन्नति के प्रति वह जागरूक भी है तो आस्थावान हो जाता है। बाल्यकाल में सभी बच्चे अपने माता पिता के प्रति आस्थावान होते हैं।
मानव मन का मुख्य कार्य है सोचना और याद रखना । जब मन किसी व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त पर सोचता है तो उसका कुछ भाग उस व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त का आकार ले लेता है और कुछ भाग इस क्रियाकलाप का साक्ष्य देता है। जब कोई व्यक्ति अपने से अधिक गुणों , प्रभाव या आकर्षण के संपर्कं आता है तो उससे जुड़े रहने के लिये मन में जो भाव सक्रिय होता है उसे आस्था कहते हैं।
सामान्यतः हम अपने मस्तिष्क के बहुत कम एक्टोप्लाज्मिक सैलों की सक्रियता से ही वाॅछित साॅंसारिक कार्य करने में संतुष्ठ हो जाते हैं परंतु जिसके मस्तिष्क के सामान्य से अधिक सैल सक्रिय रहते हैं वह समाज में अपना विशेष प्रभाव डालता है और उनके प्रति अन्य लोग आस्थावान हो जाते हैं । बीसवीं सदी के सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक अलवर्ट आइंस्टीन के मरने के बाद उनके ब्रेन सैल्स का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके केवल 9 प्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय पाये गये हैं। इससे अन्य बुद्धिमानों के बारे में सहज ही जाना जा सकता है कि उनके सक्रिय ब्रेल सैल्स का प्रतिशत क्या होगा। भौतिकवेत्ताओं और जीववैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क में ब्रेनसैलों की संख्या ब्रह्माॅंड के समस्त तारों की संख्या से अधिक है, और आपकी जानकारी के लिये बता दें कि यदि सभी तारों को अपने सूर्य के बराबर का मान लिया जावे तो ब्रह्माॅंड में उन सब की संख्या दस के ऊपर बाइस की घात के बराबर होती है , अर्थात् 10 का आपस में 22 बार गुणा करने पर या 1 के आगे 22 शून्य रखने पर, बनने वाली संख्या के बराबर।
स्पष्ट है कि जिस किसी ने अपने जितने अधिक एक्टोप्लात्मिक सैलों को सक्रिय कर लिया है वह अन्य सामान्य जनों के लिये उतना ही अधिक आस्थाभाजन हो जायेगा। एक अन्य सरल उदाहरण यह है कि डिक्शनरी में लाखों शब्द होते हैं पर हम अपने समस्त कार्य व्यवहार केवल दो से पाॅंच हजार शब्दों में ही सम्पन्न कर लेते हैं, शेष डिक्शनरी में ही रहते है। हम आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रयुक्त करते हैं अन्यथा नहीं। कल्पना कीजियेे कि यदि किसी को पूरी डिक्शनरी ही याद हो जाये तो उसे क्या कहेंगे? इसी प्रकार यदि किसी के शत प्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें तो उसे क्या कहेंगे? इन शत प्रतिशत सैलों की सक्रियता वालों अथवा पूरी डिक्शनरी याद रखने वालों को ही हम अत्यंत आस्था के केन्द्र मानते हैं । इस केन्द्र पर अभी तक ज्ञात महाविभूतियों में शिव और कृष्ण को ही माना गया है अन्य किसी को नहीं। स्पष्ट है कि ये महासम्भूतियां भी हमारी तरह ही संसार में आये, रहे और अपने सुकृत्यों से हम सबके आस्था के केन्द्र , श्रोत और प्रेरक बने हुए हैं। हम भी उन्हीं के अनुसार योगमार्ग पर चलकर अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक सक्रिय बना सकते हैं और सबकी आस्था के पात्र बन सकते हैं। यहाॅं यह भी स्पष्ट है कि तथाकथित जादू, चमत्कार, स्थान, आदि के लिए आकर्षण होना आस्था नहीं कहला सकता क्योंकि यह कुछ धूर्तों के द्वारा सामान्य स्तर के लोगों को मूर्ख बनाकर अपना लाभ पाने के साधन के अलावा और कुछ नहीं होते, उनसे प्रभावित होना मानसिक बीमारियों को निमंत्रण देना ही है।

Tuesday, 6 March 2018

181 बाबा की क्लास (मानवत्व और देवत्व )

181  बाबा की क्लास (मानवत्व और देवत्व )

रवि- मनुष्य और देवता में क्या अन्तर है?
बाबा- जब सामान्य मानव बोध उन्नत होकर अति विशिष्ट स्तर की कुशलता में परिणत हो जाता है तो उसे ही देवत्व कहते हैं। दूसरे शब्दों में जब चेतना उन्नत होकर अतिविशिष्ट उदात्त मानव बोध में परिणत हो जाती है तो वही देवत्व हो जाती है। जब मानवीय दृष्टिकोण अपरिमाप्य होता जाता है, जब मानवीयता का चरम बिन्दु कारणातीत सत्ता के अंकुर के संपर्क में आ जाता है तो वही देवत्व हो जाता है। इसलिए देवत्व क्या है? देवत्व है मनुष्यत्व का उन्नत स्वरूप।

इन्दु- तो मानवता क्या है? क्या यह सामान्य पशुवृत्ति है?
बाबा- नहीं मानवता सामान्य पशुवृत्ति नहीं है, पशुता और मानवता में मूल अंतर यह है कि पशु में विवेक नहीं होता मनुष्य में विवेक होता है। विवेक अर्थात् कन्साइंस के बिना मनुष्य पशु ही है। विवेक होने पर ही मन का विस्तार होता जाता है और सत्य असत्य में निर्णय करने की क्षमता आ जाती है। पशुओं में यह नहीं हो पाता जबकि मनुष्य में सद असद विवेचन करने की शक्ति होती है अतः मनुष्य हुआ मन प्रधान जीव।

चन्दू- अर्थात् क्या यह कहना सही होगा कि जिसमें मन है वह चेतन और जिसमें मन नहीं वह अचेतन या स्थूल है?
बाबा- जिसे स्थूल कहा जाता है उनमें भी मन होता है परन्तु वह अभिव्यक्त नहीं होता, विकसित नहीं होता। उसमें मन और आत्मा का निवास होता है परन्तु जिस सामवायिक संरचना को वह ग्रहण किए है मन उसको धारण नहीं कर सकता , उसे चला नहीं सकता। यही कारण है कि स्वतंत्र जीवात्मा का अस्तित्व समझ पाना उसे संभव ही नहीं हो पाता।  इसलिए सभी जड़ पदार्थ भूमा मन यानी कास्मिक माइंड और भूमा चेतना अर्थात् कास्मिक कान्शसनैस के द्वारा नियंत्रित होते हैं।

नन्दू- परन्तु पेड़ पौधे?
बाबा- पेड़ पौधों में विशेषता यह है कि उनका मन शरीर को चलाता है परन्तु मन विवेक के द्वारा परिचालित नहीं होता । अवनत जीव भी उसी प्रकार के हैं वे वृत्ति द्वारा परिचालित होते हैं विचार के द्वारा नहीं । इसलिए जो विचार के द्वारा परिचालित होते हैं वे जीव कहलाते हैं मनुष्य।

राजू- लेकिन हमारे देश और अन्य देशों में रहने वाले सभी मनुष्य होते हुए भी अलग अलग क्यों हैं? क्या उनकी मानवता को भी पृथक पृथक कहा जा सकता है?
बाबा- समूची दुनिया के मनुष्य एक ही वर्ग में आते हैं अतः मानव समाज इकाई सत्ता है, वह एक और अविभाज्य है। मानवता को जो टुकड़ों में विभाजित करना चाहते हैं वे धार्मिक नहीं कहला सकते हैं।

रवि- पर हर देश में तो लोग अलग अलग धर्म के पाए जाते हैं , हमारे देश में ही न जाने कितने अधिक धर्म देखने को मिलते हैं?
बाबा- जड़ पदार्थों जैसे आक्सीजन, नाइट्रोजन का अपना अपना धर्म है परन्तु जडा़धार पर उनके मन का नियंत्रण न रहने से मन की इच्छा से जड़ संरचना का कोई संपर्क नहीं रहता; परन्तु मनुष्य तो मन से परिचालित होते हैं इसलिए उनका धर्म मन का धर्म हैं। और, मन का धर्म है आनन्द की प्राप्ति। आनन्द की प्राप्ति के लिये मन ही सक्रिय रहता है और अन्य चीजों को परिचालित करता है। अपने कल्याण के लिए, मन जो कुछ भी करना चाहता है, दूसरों के लिए भी वैसा ही करना चाहे तो उसे कहते हैं ‘मानवता’ । अपने लिए जिस प्रकार तुम प्यारे हो उसी प्रकार दूसरों से भी प्यार करने लगोगे तो समझोगे कि तुम्हारे भीतर मानवता का जागरण हो गया है। मानवता है धर्म का प्रथम पदक्षेप। इसी की चरमावस्था है देवत्व। इसलिए मानवता को देवत्व में रूपान्तरित करने के लिए मानव धर्म, मानवता का गुणधर्म जाग्रित करना चाहिए। इसलिए हमारे देश में हों या दुनिया के अन्य देशों में , जो भी धर्म के नाम पर कहा जा रहा है वह केवल विभिन्न विचार धाराएं हैं। सभी का धर्म एक ही है और वह है मानव धर्म। पहले सही अर्थ में इन्सान बनो फिर देवता बनने में देर नहीं लगेगी।

राजू- एक बार आपने ‘योग ’ के बारे में समझाते हुए बताया था कि मनुष्य का धर्म है अपनी जीवात्मा को परमात्मा से मिलाना, इसे ही योग कहते हैं?
बाबा- मनुष्य में जो जीवात्मा है वह क्या है? मनुष्य के मन पर परमात्मा का जो प्रतिफलन है वही है उसकी जीवात्मा। अब यदि मनुष्य अपने मन को बड़ा बनाता जाता है तो परमात्मा का प्रतिफलन भी बढ़़ते बढ़ते पूर्ण रूप में होने लगेगा। इसीलिए कहा गया है ‘‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ या ‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’। और, मन को बढ़ाने की साधना सब कोई कर सकते हैं यह कोई कठिन काम नहीं है, चेष्टा से सब कुछ सम्भव हो जाता है। मन को उन्नत और विस्तारित करने के कार्य को ही मानव धर्म कहते हैं। इस धर्म को पालन करने के लिए मनुष्य को किसी कुल , जाति, शैक्षिक स्तर या सामाजिक स्तर का होने की आवश्यकता नहीं होती , यह सभी मनुष्य कर सकते हैं। जो इस प्रकार की सीमाएं और बंधन मानते हैं वे धर्म साधना का मूल तत्व नहीं जानते।

इन्दु- प्रतिफलन माने परावर्तन, परन्तु परावर्तन से मूल वस्तु को पूरा पूरा समझ पाना कहाॅं तक सम्भव है?
बाबा- मानलो स्वच्छ पारदर्शी पानी नहीं है, उसमें प्रतिफलन तो होगा पर प्रतिफलित होने वाली वस्तु को ठीक प्रकार से नहीं देखा जा सकता। पानी स्वच्छ हो परन्तु उसमें लहरें हो तो भी परावर्तन होने के बाद भी स्पष्ट नहीं दिखाई देगा । हमारा मानस पटल दर्पण की तरह है उसमें परमात्मा का परावर्तन जिसे हम जीवात्मा कहते हैं तभी देखा जा सकता है जब मन में गंदगी और चंचलता नहीं रहेगी। इसलिए परमात्मा को देखने के लिए मन को स्थिर करना और मन की गंदगी को साफ करना होता है। धर्म साधना के द्वारा मन को साफसुथरा कर विस्तारित किया जा सकता है और विस्तारित मन जब अनन्त में पर्यवसित हो जाता है तो वह मनुष्य होते हुए भी शिव बन जाता है।

चन्दू- परमात्मा से मिलने का कोई दूसरा उपाय नहीं है?
बाबा- दूसरा उपाय है मन को साफ सुथरा कर बिन्दु में मिला दो। इस अवस्था में मानस पटल ही नहीं रहा तो मन पर प्रतिफलन भी नहीं होगा और मन भूमा चेतना बन जाएगा। इससे पहले बताया गया रास्ता मानसाध्यात्मिक और दूसरा है पूर्णतः आध्यात्मिक। पहला है मुक्ति की ओर, और दूसरा है मोक्ष की ओर।

नन्दू- ये दूसरा उपाय तो समझ के बाहर लगता है?
बाबा- मानलो एक फूल रखा है और पास में बीस दर्पण रखे हैं तो परावर्तन से बीस फूल दिखेंगे। यदि सभी दर्पण हटा दिए जाएं तो क्या बचेगा? केवल मूल फूल । तो जहाॅं अहंतत्व नहीं होगा , मन नहीं होगा वहाॅं प्रतिफलित जीवात्मा नहीं रहेगा, इस स्थिति में मूल तत्व परमात्मा ही रह जाएंगे। वास्तव में परमात्मा रहते सभी के मन के सबसे सूक्ष्म अंश अर्थात् ‘‘अहम अस्ति’’ में। इस अस्तित्व बोध में परमतत्व ‘ज्ञाता मै’ छिपे हुए हैं  ‘‘दृष्टा मैं ’ के रूप में। इसलिए मानवत्व को देवत्व में ले जाना है तो अपने मैपन के भीतर जाना होगा जहाॅं परम तत्व परमात्मा छिपे हुए हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे तिल में तेल , फूलों में सुगंध, दही में घी। परन्तु इसे पाने के लिए तिल को पेरना पड़ेगा, दही को मथना पड़ेगा । मन को मथने और पेरने की क्रिया ही धर्मसाधना कहलाती है।

Thursday, 1 March 2018

180 बसन्तोत्सव

180
बसन्तोत्सव का अर्थ  एक दूसरे पर विभिन्न रंग उछाल कर आनन्दित  होना नहीं है। इसका मनोआध्यात्मिक (psycho-spiritual) महत्त्व है। इस रंगीन संसार में रंग को केवल नेत्र प्रिय लगने के लिए ही लोग जानते हैं परन्तु ये हैं यथार्थतः प्रकाश की विभिन्न तरंगदैर्घ्य। हमारे मन पर जन्मों से चिपके  यह तरंगदैर्घ्य ही हमारे संस्कार कहलाते हैं जो बार बार संसार की विभिन्न तरंगों अर्थात रंगों की ओर भटकाए रखते हैं और वर्णहीन परमपुरुष की ओर जाने से रोकते हैं। इसीलिए तंत्र विज्ञान में परमपुरुष को अपने मन के सभी वर्णो को दे देने का कार्य वर्णार्घ्य दान कहलाता है। वर्णार्घ्य दान करते हुए हम अवर्ण होकर परमपुरुष के अधिक  निकट जाने की योग्यता पा लेते हैं।  यही रंगों का पर्व, बसन्तोत्सव कहलाता है। सच्चाई जानने  वाले इसे रोज ही मनाते हैं उन्हें होली के आगमन की प्रतीक्षा नहीं करना पड़ती।

बसन्तोत्सव
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बसन्त उत्सव चली मनाने ,
प्रकृति की हर डाली।
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी,
कहीं टहनियाॅं खाली।

अब तक वर्णमयी दुनिया के ,
लक्षण मन को भाये।
अर्घ्य वर्ण का देने को द्वय,
नत करतल ललचाये।

संचित हैं ये जनम जनम से,
अब मौलिकता भर दो।
ले लो ये सब रंग हमारे,
वर्णहीन मन कर दो।

भेदभाव सब झोंक अग्नि में,
शुक्लवर्ण यह पाया।
तम आच्छादित मेघों ने अब,
नव अमृत बरसाया।

- डॉ टी आर शुक्ल , सागर।