182 आस्था, आदर और श्रद्धा
ये तीनों शब्द बहुत ही सूक्ष्म अंतर से समानार्थक होते हैं। माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाले छात्र के लिये हायर सेकेंडरी में पढ़ने वाला छात्र, सामान्यतः आदरणीय होता है और यदि वह अपनी जिज्ञासाओं का समय समय पर उससे समुचित समाधान पा सकता हो तो श्रद्धावान, परंतु यदि वह यह भी अनुभव करता है कि जिज्ञासाओं के समाधान करने के साथ साथ उसकी उन्नति के प्रति वह जागरूक भी है तो आस्थावान हो जाता है। बाल्यकाल में सभी बच्चे अपने माता पिता के प्रति आस्थावान होते हैं।
मानव मन का मुख्य कार्य है सोचना और याद रखना । जब मन किसी व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त पर सोचता है तो उसका कुछ भाग उस व्यक्ति, वस्तु या सिद्धान्त का आकार ले लेता है और कुछ भाग इस क्रियाकलाप का साक्ष्य देता है। जब कोई व्यक्ति अपने से अधिक गुणों , प्रभाव या आकर्षण के संपर्कं आता है तो उससे जुड़े रहने के लिये मन में जो भाव सक्रिय होता है उसे आस्था कहते हैं।
सामान्यतः हम अपने मस्तिष्क के बहुत कम एक्टोप्लाज्मिक सैलों की सक्रियता से ही वाॅछित साॅंसारिक कार्य करने में संतुष्ठ हो जाते हैं परंतु जिसके मस्तिष्क के सामान्य से अधिक सैल सक्रिय रहते हैं वह समाज में अपना विशेष प्रभाव डालता है और उनके प्रति अन्य लोग आस्थावान हो जाते हैं । बीसवीं सदी के सर्वोत्कृष्ट वैज्ञानिक अलवर्ट आइंस्टीन के मरने के बाद उनके ब्रेन सैल्स का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने पाया कि उनके केवल 9 प्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय पाये गये हैं। इससे अन्य बुद्धिमानों के बारे में सहज ही जाना जा सकता है कि उनके सक्रिय ब्रेल सैल्स का प्रतिशत क्या होगा। भौतिकवेत्ताओं और जीववैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क में ब्रेनसैलों की संख्या ब्रह्माॅंड के समस्त तारों की संख्या से अधिक है, और आपकी जानकारी के लिये बता दें कि यदि सभी तारों को अपने सूर्य के बराबर का मान लिया जावे तो ब्रह्माॅंड में उन सब की संख्या दस के ऊपर बाइस की घात के बराबर होती है , अर्थात् 10 का आपस में 22 बार गुणा करने पर या 1 के आगे 22 शून्य रखने पर, बनने वाली संख्या के बराबर।
स्पष्ट है कि जिस किसी ने अपने जितने अधिक एक्टोप्लात्मिक सैलों को सक्रिय कर लिया है वह अन्य सामान्य जनों के लिये उतना ही अधिक आस्थाभाजन हो जायेगा। एक अन्य सरल उदाहरण यह है कि डिक्शनरी में लाखों शब्द होते हैं पर हम अपने समस्त कार्य व्यवहार केवल दो से पाॅंच हजार शब्दों में ही सम्पन्न कर लेते हैं, शेष डिक्शनरी में ही रहते है। हम आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रयुक्त करते हैं अन्यथा नहीं। कल्पना कीजियेे कि यदि किसी को पूरी डिक्शनरी ही याद हो जाये तो उसे क्या कहेंगे? इसी प्रकार यदि किसी के शत प्रतिशत ब्रेन सैल सक्रिय हो जायें तो उसे क्या कहेंगे? इन शत प्रतिशत सैलों की सक्रियता वालों अथवा पूरी डिक्शनरी याद रखने वालों को ही हम अत्यंत आस्था के केन्द्र मानते हैं । इस केन्द्र पर अभी तक ज्ञात महाविभूतियों में शिव और कृष्ण को ही माना गया है अन्य किसी को नहीं। स्पष्ट है कि ये महासम्भूतियां भी हमारी तरह ही संसार में आये, रहे और अपने सुकृत्यों से हम सबके आस्था के केन्द्र , श्रोत और प्रेरक बने हुए हैं। हम भी उन्हीं के अनुसार योगमार्ग पर चलकर अपने ब्रेन सैलों को अधिकाधिक सक्रिय बना सकते हैं और सबकी आस्था के पात्र बन सकते हैं। यहाॅं यह भी स्पष्ट है कि तथाकथित जादू, चमत्कार, स्थान, आदि के लिए आकर्षण होना आस्था नहीं कहला सकता क्योंकि यह कुछ धूर्तों के द्वारा सामान्य स्तर के लोगों को मूर्ख बनाकर अपना लाभ पाने के साधन के अलावा और कुछ नहीं होते, उनसे प्रभावित होना मानसिक बीमारियों को निमंत्रण देना ही है।
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