Tuesday, 6 March 2018

181 बाबा की क्लास (मानवत्व और देवत्व )

181  बाबा की क्लास (मानवत्व और देवत्व )

रवि- मनुष्य और देवता में क्या अन्तर है?
बाबा- जब सामान्य मानव बोध उन्नत होकर अति विशिष्ट स्तर की कुशलता में परिणत हो जाता है तो उसे ही देवत्व कहते हैं। दूसरे शब्दों में जब चेतना उन्नत होकर अतिविशिष्ट उदात्त मानव बोध में परिणत हो जाती है तो वही देवत्व हो जाती है। जब मानवीय दृष्टिकोण अपरिमाप्य होता जाता है, जब मानवीयता का चरम बिन्दु कारणातीत सत्ता के अंकुर के संपर्क में आ जाता है तो वही देवत्व हो जाता है। इसलिए देवत्व क्या है? देवत्व है मनुष्यत्व का उन्नत स्वरूप।

इन्दु- तो मानवता क्या है? क्या यह सामान्य पशुवृत्ति है?
बाबा- नहीं मानवता सामान्य पशुवृत्ति नहीं है, पशुता और मानवता में मूल अंतर यह है कि पशु में विवेक नहीं होता मनुष्य में विवेक होता है। विवेक अर्थात् कन्साइंस के बिना मनुष्य पशु ही है। विवेक होने पर ही मन का विस्तार होता जाता है और सत्य असत्य में निर्णय करने की क्षमता आ जाती है। पशुओं में यह नहीं हो पाता जबकि मनुष्य में सद असद विवेचन करने की शक्ति होती है अतः मनुष्य हुआ मन प्रधान जीव।

चन्दू- अर्थात् क्या यह कहना सही होगा कि जिसमें मन है वह चेतन और जिसमें मन नहीं वह अचेतन या स्थूल है?
बाबा- जिसे स्थूल कहा जाता है उनमें भी मन होता है परन्तु वह अभिव्यक्त नहीं होता, विकसित नहीं होता। उसमें मन और आत्मा का निवास होता है परन्तु जिस सामवायिक संरचना को वह ग्रहण किए है मन उसको धारण नहीं कर सकता , उसे चला नहीं सकता। यही कारण है कि स्वतंत्र जीवात्मा का अस्तित्व समझ पाना उसे संभव ही नहीं हो पाता।  इसलिए सभी जड़ पदार्थ भूमा मन यानी कास्मिक माइंड और भूमा चेतना अर्थात् कास्मिक कान्शसनैस के द्वारा नियंत्रित होते हैं।

नन्दू- परन्तु पेड़ पौधे?
बाबा- पेड़ पौधों में विशेषता यह है कि उनका मन शरीर को चलाता है परन्तु मन विवेक के द्वारा परिचालित नहीं होता । अवनत जीव भी उसी प्रकार के हैं वे वृत्ति द्वारा परिचालित होते हैं विचार के द्वारा नहीं । इसलिए जो विचार के द्वारा परिचालित होते हैं वे जीव कहलाते हैं मनुष्य।

राजू- लेकिन हमारे देश और अन्य देशों में रहने वाले सभी मनुष्य होते हुए भी अलग अलग क्यों हैं? क्या उनकी मानवता को भी पृथक पृथक कहा जा सकता है?
बाबा- समूची दुनिया के मनुष्य एक ही वर्ग में आते हैं अतः मानव समाज इकाई सत्ता है, वह एक और अविभाज्य है। मानवता को जो टुकड़ों में विभाजित करना चाहते हैं वे धार्मिक नहीं कहला सकते हैं।

रवि- पर हर देश में तो लोग अलग अलग धर्म के पाए जाते हैं , हमारे देश में ही न जाने कितने अधिक धर्म देखने को मिलते हैं?
बाबा- जड़ पदार्थों जैसे आक्सीजन, नाइट्रोजन का अपना अपना धर्म है परन्तु जडा़धार पर उनके मन का नियंत्रण न रहने से मन की इच्छा से जड़ संरचना का कोई संपर्क नहीं रहता; परन्तु मनुष्य तो मन से परिचालित होते हैं इसलिए उनका धर्म मन का धर्म हैं। और, मन का धर्म है आनन्द की प्राप्ति। आनन्द की प्राप्ति के लिये मन ही सक्रिय रहता है और अन्य चीजों को परिचालित करता है। अपने कल्याण के लिए, मन जो कुछ भी करना चाहता है, दूसरों के लिए भी वैसा ही करना चाहे तो उसे कहते हैं ‘मानवता’ । अपने लिए जिस प्रकार तुम प्यारे हो उसी प्रकार दूसरों से भी प्यार करने लगोगे तो समझोगे कि तुम्हारे भीतर मानवता का जागरण हो गया है। मानवता है धर्म का प्रथम पदक्षेप। इसी की चरमावस्था है देवत्व। इसलिए मानवता को देवत्व में रूपान्तरित करने के लिए मानव धर्म, मानवता का गुणधर्म जाग्रित करना चाहिए। इसलिए हमारे देश में हों या दुनिया के अन्य देशों में , जो भी धर्म के नाम पर कहा जा रहा है वह केवल विभिन्न विचार धाराएं हैं। सभी का धर्म एक ही है और वह है मानव धर्म। पहले सही अर्थ में इन्सान बनो फिर देवता बनने में देर नहीं लगेगी।

राजू- एक बार आपने ‘योग ’ के बारे में समझाते हुए बताया था कि मनुष्य का धर्म है अपनी जीवात्मा को परमात्मा से मिलाना, इसे ही योग कहते हैं?
बाबा- मनुष्य में जो जीवात्मा है वह क्या है? मनुष्य के मन पर परमात्मा का जो प्रतिफलन है वही है उसकी जीवात्मा। अब यदि मनुष्य अपने मन को बड़ा बनाता जाता है तो परमात्मा का प्रतिफलन भी बढ़़ते बढ़ते पूर्ण रूप में होने लगेगा। इसीलिए कहा गया है ‘‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ या ‘संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’। और, मन को बढ़ाने की साधना सब कोई कर सकते हैं यह कोई कठिन काम नहीं है, चेष्टा से सब कुछ सम्भव हो जाता है। मन को उन्नत और विस्तारित करने के कार्य को ही मानव धर्म कहते हैं। इस धर्म को पालन करने के लिए मनुष्य को किसी कुल , जाति, शैक्षिक स्तर या सामाजिक स्तर का होने की आवश्यकता नहीं होती , यह सभी मनुष्य कर सकते हैं। जो इस प्रकार की सीमाएं और बंधन मानते हैं वे धर्म साधना का मूल तत्व नहीं जानते।

इन्दु- प्रतिफलन माने परावर्तन, परन्तु परावर्तन से मूल वस्तु को पूरा पूरा समझ पाना कहाॅं तक सम्भव है?
बाबा- मानलो स्वच्छ पारदर्शी पानी नहीं है, उसमें प्रतिफलन तो होगा पर प्रतिफलित होने वाली वस्तु को ठीक प्रकार से नहीं देखा जा सकता। पानी स्वच्छ हो परन्तु उसमें लहरें हो तो भी परावर्तन होने के बाद भी स्पष्ट नहीं दिखाई देगा । हमारा मानस पटल दर्पण की तरह है उसमें परमात्मा का परावर्तन जिसे हम जीवात्मा कहते हैं तभी देखा जा सकता है जब मन में गंदगी और चंचलता नहीं रहेगी। इसलिए परमात्मा को देखने के लिए मन को स्थिर करना और मन की गंदगी को साफ करना होता है। धर्म साधना के द्वारा मन को साफसुथरा कर विस्तारित किया जा सकता है और विस्तारित मन जब अनन्त में पर्यवसित हो जाता है तो वह मनुष्य होते हुए भी शिव बन जाता है।

चन्दू- परमात्मा से मिलने का कोई दूसरा उपाय नहीं है?
बाबा- दूसरा उपाय है मन को साफ सुथरा कर बिन्दु में मिला दो। इस अवस्था में मानस पटल ही नहीं रहा तो मन पर प्रतिफलन भी नहीं होगा और मन भूमा चेतना बन जाएगा। इससे पहले बताया गया रास्ता मानसाध्यात्मिक और दूसरा है पूर्णतः आध्यात्मिक। पहला है मुक्ति की ओर, और दूसरा है मोक्ष की ओर।

नन्दू- ये दूसरा उपाय तो समझ के बाहर लगता है?
बाबा- मानलो एक फूल रखा है और पास में बीस दर्पण रखे हैं तो परावर्तन से बीस फूल दिखेंगे। यदि सभी दर्पण हटा दिए जाएं तो क्या बचेगा? केवल मूल फूल । तो जहाॅं अहंतत्व नहीं होगा , मन नहीं होगा वहाॅं प्रतिफलित जीवात्मा नहीं रहेगा, इस स्थिति में मूल तत्व परमात्मा ही रह जाएंगे। वास्तव में परमात्मा रहते सभी के मन के सबसे सूक्ष्म अंश अर्थात् ‘‘अहम अस्ति’’ में। इस अस्तित्व बोध में परमतत्व ‘ज्ञाता मै’ छिपे हुए हैं  ‘‘दृष्टा मैं ’ के रूप में। इसलिए मानवत्व को देवत्व में ले जाना है तो अपने मैपन के भीतर जाना होगा जहाॅं परम तत्व परमात्मा छिपे हुए हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे तिल में तेल , फूलों में सुगंध, दही में घी। परन्तु इसे पाने के लिए तिल को पेरना पड़ेगा, दही को मथना पड़ेगा । मन को मथने और पेरने की क्रिया ही धर्मसाधना कहलाती है।

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