180
बसन्तोत्सव का अर्थ एक दूसरे पर विभिन्न रंग उछाल कर आनन्दित होना नहीं है। इसका मनोआध्यात्मिक (psycho-spiritual) महत्त्व है। इस रंगीन संसार में रंग को केवल नेत्र प्रिय लगने के लिए ही लोग जानते हैं परन्तु ये हैं यथार्थतः प्रकाश की विभिन्न तरंगदैर्घ्य। हमारे मन पर जन्मों से चिपके यह तरंगदैर्घ्य ही हमारे संस्कार कहलाते हैं जो बार बार संसार की विभिन्न तरंगों अर्थात रंगों की ओर भटकाए रखते हैं और वर्णहीन परमपुरुष की ओर जाने से रोकते हैं। इसीलिए तंत्र विज्ञान में परमपुरुष को अपने मन के सभी वर्णो को दे देने का कार्य वर्णार्घ्य दान कहलाता है। वर्णार्घ्य दान करते हुए हम अवर्ण होकर परमपुरुष के अधिक निकट जाने की योग्यता पा लेते हैं। यही रंगों का पर्व, बसन्तोत्सव कहलाता है। सच्चाई जानने वाले इसे रोज ही मनाते हैं उन्हें होली के आगमन की प्रतीक्षा नहीं करना पड़ती।
बसन्तोत्सव
------------
बसन्त उत्सव चली मनाने ,
प्रकृति की हर डाली।
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी,
कहीं टहनियाॅं खाली।
अब तक वर्णमयी दुनिया के ,
लक्षण मन को भाये।
अर्घ्य वर्ण का देने को द्वय,
नत करतल ललचाये।
संचित हैं ये जनम जनम से,
अब मौलिकता भर दो।
ले लो ये सब रंग हमारे,
वर्णहीन मन कर दो।
भेदभाव सब झोंक अग्नि में,
शुक्लवर्ण यह पाया।
तम आच्छादित मेघों ने अब,
नव अमृत बरसाया।
- डॉ टी आर शुक्ल , सागर।
बसन्तोत्सव का अर्थ एक दूसरे पर विभिन्न रंग उछाल कर आनन्दित होना नहीं है। इसका मनोआध्यात्मिक (psycho-spiritual) महत्त्व है। इस रंगीन संसार में रंग को केवल नेत्र प्रिय लगने के लिए ही लोग जानते हैं परन्तु ये हैं यथार्थतः प्रकाश की विभिन्न तरंगदैर्घ्य। हमारे मन पर जन्मों से चिपके यह तरंगदैर्घ्य ही हमारे संस्कार कहलाते हैं जो बार बार संसार की विभिन्न तरंगों अर्थात रंगों की ओर भटकाए रखते हैं और वर्णहीन परमपुरुष की ओर जाने से रोकते हैं। इसीलिए तंत्र विज्ञान में परमपुरुष को अपने मन के सभी वर्णो को दे देने का कार्य वर्णार्घ्य दान कहलाता है। वर्णार्घ्य दान करते हुए हम अवर्ण होकर परमपुरुष के अधिक निकट जाने की योग्यता पा लेते हैं। यही रंगों का पर्व, बसन्तोत्सव कहलाता है। सच्चाई जानने वाले इसे रोज ही मनाते हैं उन्हें होली के आगमन की प्रतीक्षा नहीं करना पड़ती।
बसन्तोत्सव
------------
बसन्त उत्सव चली मनाने ,
प्रकृति की हर डाली।
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी,
कहीं टहनियाॅं खाली।
अब तक वर्णमयी दुनिया के ,
लक्षण मन को भाये।
अर्घ्य वर्ण का देने को द्वय,
नत करतल ललचाये।
संचित हैं ये जनम जनम से,
अब मौलिकता भर दो।
ले लो ये सब रंग हमारे,
वर्णहीन मन कर दो।
भेदभाव सब झोंक अग्नि में,
शुक्लवर्ण यह पाया।
तम आच्छादित मेघों ने अब,
नव अमृत बरसाया।
- डॉ टी आर शुक्ल , सागर।
No comments:
Post a Comment