Friday, 30 November 2018

225 आत्मज्ञान

225 आत्मज्ञान

ज्ञान क्या है? इस संबंध में निगमागम शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘ आत्मज्ञानं विदुर्ज्ञानं  ज्ञानान्यानि यानि तु, तानि ज्ञानावभासानि सारस्य नैव बोधनात्।’’ अर्थात् आत्मज्ञान ही तात्विक दृष्टि से ज्ञान कहा जाता है। संसार में जिन अन्य बातों को ज्ञान कहा जाता है वह ज्ञान नहीं ज्ञान के अवभास हैं, इनसे सारतत्व का बोध कभी नहीं हो सकता।
‘ज्ञान’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘ज्ञा’ धातु में ‘अनट्’ प्रत्यय लगाकर की गई है। प्राचीन लेटिन में यह धातु ‘keno’ में रूपान्तरित हुई जिससे अंग्रेजी का ‘know’ शब्द बना । चॅूंकि लेटिन के केनो में ‘के’ अक्षर आया है इसलिए अंग्रेजी में भी ‘के’ को रखा गया भले ही उसका उच्चारण न होता हो।
अब मूल समस्या यह है कि आत्मज्ञान को जानने की प्रक्रिया कैसे होती है? बाहरी जगत के पदार्थों या उनकी तन्मात्राओं के आन्तरिक अधिग्रहण को जानने की क्रिया कहा जाता है। (subjectization of external objectivities is faculty of knowing ) ।
 परन्तु क्या मानसिक जगत की किसी वस्तु को आन्तरिक रूपसे अधिग्रहित किया जा सकता है? हाॅं किया जा सकता है। आस्तित्विक ‘‘मैं बोध’’ को बाहरी और मानसिक जगत ( ‘मैं बोध’ को छोड़कर ) का सभी कुछ, जानने की परिधि में आते हैं। परन्तु क्या ‘आस्तित्विक मैं बोध’ अपने से अधिक किसी को जान सकता है? यह ‘साइकोलाजी’ का बहुत जटिल प्रश्न है।
अस्तित्व की सूक्ष्मतम भावना मानसिक जगत की पहली अवस्था है और ‘‘चितिसत्ता’’ (cognitive faculty) मन की इस प्रथम अवस्था की क्रियात्मकता की साक्षीसत्ता। जैसे कोई कहे कि ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं’’ तो इसमें ‘मैं हॅूं का मैं’ मन की प्रथम अवस्था है तथा ‘मैं जानता हॅूं’ का मैं’ पहली अवस्था वाले मैं का साक्ष्य देता है जो स्पष्टतः मन की प्रथम अवस्था से सूक्ष्म है, वास्तव में यह सभी अस्तित्वों से सूक्ष्म होता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि चितिसत्ता मन की इस पहली अवस्था का साक्ष्य दे ही। यदि वह साक्ष्य देती है तो ‘‘सकल चितिसत्ता’’ और साक्ष्य नहीं देती है तो ‘‘निष्कल चितिसत्ता’’ कहलाती है। यही चितिसत्ता, भूमा (cosmic mind) की साक्षीसत्ता के रूप में क्रियाशील होने के समय ‘‘प्रत्यगात्मा’’ कहलाती है जो गुणों से प्रभावित होने पर सकल और अप्रभावित होने पर निष्कल कहलाती है। अब, व्यावहारिक रूप से इस ज्ञेयसत्ता या चितिसत्ता को कैसे जाना जाय? वह मन की प्रथम अवस्था का ज्ञाता है पर प्रथम अवस्था में आस्तित्विक ‘मैं’, जब मैं जानता हॅूं के ‘मैं’ के बारे में सोचता है तो उसका अस्तित्व सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म हो जाता है और अन्ततः चितिसत्ता में विलीन हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि चितिसत्ता को जनना अर्थात् उसी में विलीन होना, जैसे नमक के पुतले का समुद्र की गहराई को मापना। सैद्धान्तिक रूपसे इसे ही आत्मज्ञान कहते हैं । अन्य साॅसारिक ज्ञान, ज्ञान की मात्र छाया और प्रतिच्छायाएं हैं उनसे सारतत्व का बोध नहीं हो सकता।
सांसारिक जानकारी के लिए क्रिया ‘ज्ञा’ के स्थान पर ‘विद’ का उपयोग करना अधिक सार्थक है। इसी से ‘‘वेद, विद्या और विद्वान’’ शब्द बने हैं।
विद् को मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है, एक ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या ज्ञान की वह शाखा है जिसमें विश्लेषण द्वारा अनन्त से सीमित या सान्त तक और संश्लेषण द्वारा सान्त से अनन्त तक का ज्ञान कराया जाता है। यह शाखा व्यक्ति को ‘आत्मज्ञान’ की स्वर्णिम रेखा तक ले जाती है जो सांसारिक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा के उस पार ही सर्व ज्ञानात्मक सत्ता का चिन्तन हो पाता है। पराविद्या पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है दूसरे चरण में आन्तरिक और वाह्य विचारों पर ज्ञान का सदुपयोग करने के लिए विवेकपूर्ण विश्लेषण करने की पद्धति सिखाती है। तीसरे स्तर पर परिप्रश्न द्वारा आध्यात्मिक आदर्श को दृढ़ करती है और चौथे  स्तर पर परमसत्ता के प्रति आत्मसमर्पण करना सिखाती है। अपराविद्या भी पहले चरण में व्यापक अध्ययन के द्वारा संबंधित सभी शंकाओं को दूर करती है जिससे संसार का कल्याण कर सकें, दूसरे स्तर पर प्राप्त किए गए ज्ञान का विवेकपूर्ण विश्लेषण करना, तीसरे स्तर पर प्राप्त ज्ञान के सारतत्व को संसार के कल्याण के लिए प्रयुक्त करने हेतु आवश्यक विधियों की खोज करने को प्रेरित करती है। स्पष्ट है कि पराविद्या एक कदम आगे जाकर मोक्ष का रास्ता खोलती है जिसमें आत्मज्ञान की आवश्यकता होती है। इसलिए संसार में रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह परा और अपरा विद्या का विवेकपूर्ण संयुक्तिकरण करते हुए अपने लक्ष्य ‘मोक्ष’ तक पहुॅंचे। यही कारण है कि सफल जीवन के लिए यह मूलमंत्र बताया गया है, ‘‘ आत्ममोक्षर्थं जगद् हिताय च ।’’ अर्थात्  मोक्षमार्ग की ओर चलते हुए जगत का कल्याण करते रहना। सफल मानव जीवन के लिए ‘‘subjective approach through objective adjustment ’’ का यह सूत्र अनुकरणीय है।  तन्त्रविज्ञान भी इसी तथ्य का समर्थन करती है, इसमें कहा गया है कि ‘‘ तत्कर्म यं न बंधाय, सा विद्या या विमुक्तये। आयासाद् अपरकर्म विद्यान्यानि यानि तु।’’ अर्थात् सही कर्म वह है जो बंधन में न बाॅंधे और सही विद्या वह है जो मुक्ति की ओर ले जाए; अन्य कर्म केवल आयास मात्र हैं और अन्य विद्याएं कौशल।
इस प्रकार जब आत्मज्ञानपूर्वक कर्म किया जाएगा तभी परिणामस्वरूप भक्ति का उदय होगा और लगातार रागरहित अभ्यास करते हुए पराभक्ति को पाकर आत्मसाक्षात्कार किया जा सकेगा।

Tuesday, 20 November 2018

224 तीर्थ

224 तीर्थ
प्राचीनकाल में मानव मन में उठने वाले आध्यत्मिक गूढ़ प्रश्नों को सांकेतिक रूप में ‘‘पार्वती’’ के नाम से और उनके व्यावहारिक दर्शन से जुड़े सुसंगत उत्तर ‘‘शिव’’ के नाम से कहे जाते रहे हैं। पार्वती के प्रश्नों का व्यवस्थित संग्रह ‘निगम’ और शिव के उत्तरों का संग्रह ‘आगम’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। व्यावहारिक तन्त्रविज्ञान में उन्हें हंस के दोनों पंखों का रूपक दिया गया है अर्थात् हंस को उड़ने के लिए जिस प्रकार अपने दोनों पंखों की आवश्यकता होती है वह एक पंख से उड़ नहीं सकता, उसी प्रकार आध्यात्म को सही ढंग से समझने के लिए निगम और आगम दोनों की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के बिना साधक की आध्यात्मिक यात्रा संभव नहीं है।
जनसामान्य के मन में जब से भगवान या ‘‘ईश्वर’’ का विचार आया है तभी से उनके मन में ‘तीर्थ’ की अवधारणा भी उत्पन्न हुई। वे उन्हें पाने या देखने के लिए अबाध रूप से तीर्थ यात्राएं करने लगे। ऐसे भी अनेक उदाहरण मिलते हैं जब तीर्थ यात्रा करने के लिए महिलाओं और पुरुषों ने अपने गहने और अन्य सम्पत्ति बेच दी। आज भी यह ज्वलन्त प्रश्न है कि आखिर यह तीर्थ क्या है? ‘निगम’ शास्त्र में भी पार्वती के माध्यम से जनसाधारण का यह प्रश्न पूछा गया है और ‘आगम’ में शिव द्वारा दिए गए उत्तरों में इसका समाधान इस प्रकार समझाया गया है।

सामान्यतः ‘तीर्थ’ शब्द का अर्थ ‘यात्रा का स्थान’ से लगाया जाता है। परन्तु इसका विच्छेदन करने पर हम देखते हैं कि ‘‘तीर्थ=तीर+स्था+ड’’ अर्थात् किनारे की रेखा, जहाॅं जल और स्थल एक दूसरे को स्पर्श करते हैं। इस किनारे का ढलानी भाग ‘तट’ कहलाता है। इस प्रकार कोई व्यक्ति इस किनारे की रेखा से एक कदम तट की ओर बढ़ाता है तो वह सूखे स्थान पर आ जाता है परन्तु उससे एक कदम पानी की ओर बढ़ाता है तो वह पानी में जा पहुँचता  है। इस भौगोलिक ‘तीर’ की समानता दर्शाता ‘‘तीर्थ’’ का वास्तविक अर्थ है ‘ भौतिक और आध्यात्मिक जगत के बीच का स्थान। क्योंकि यदि कोई व्यक्ति भौतिक संसार की ओर एक कदम बढ़ाता है तो वह भौतिकवाद के आकर्षण में फंस जाता है परन्तु एक ही कदम आघ्यात्म के जल की ओर बढ़ाता है तो वह इसके प्रवाह में बहने लगता है। इसलिए वह विन्दु जो भौतिकता और आध्यात्मिकता से जोड़ने का सम्पर्क कराता है वही है असली तीर्थ, इसीलिए कहा गया है ‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुः’ ।

सामान्यतः लोग चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र हो या भौतिक, बिना किसी साधना या प्रयास के मुक्ति या भौतिक सुख सम्पन्नता चाहते हैं, या पापों को धोना चाहते हैं, अतः वे एक स्थान से दूसरे स्थान को तीर्थयात्रा के नाम पर भटकते हैं। वे सोचते हैं कि गाय की पूछ पकड़कर वे वैतरणी तर जाएंगे पर धूर्तो के जाल में उलझकर अपना मूल्यवान समय, धन और ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। इसलिए, आगमशास्त्र में शिव ने पार्वती के प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया- ‘‘इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वरानने।’’

अर्थात् अज्ञान के अंधकार में रहने वाले (तामसी) लोग इस तीर्थ से उस तीर्थ में यात्राएं करने भटकते रहते हैं परन्तु पार्वती! जब तक वे अपने हृदय में स्थित तीर्थ को नहीं खोजते हैं तब तक उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?
तो, यह असली तीर्थ क्या है और कहाॅं पर स्थित है? शिव का उत्तर है, ‘‘मानव हृदय के भीतर वह स्वर्णिम रेखा जहाॅं संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और इसके जिस विन्दु पर वे सम्पर्क में आकर मधुर आध्यात्मिक आनन्द उत्पन्न करते हैं, वही है असली तीर्थ और उसका स्थान।’’ वह जो इस उभयनिष्ठ विन्दु पर रहता है उसे कहा जाता है ‘‘तीरस्थ’’ या तीर्थ; यहाॅं व्यक्ति और उस स्थान का प्रभु एक हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय के भीतर स्थायी रूप से प्रज्ज्वलित अलौकिक ‘ज्योति’ को भूलकर भौतिक जगत के तथाकथित पवित्र स्थानों में यहाॅं वहाॅं भटकते हैं, वे कभी मोक्ष नहीं पा सकते हैं । जिन एतिहासिक महापुरुषों ने शिव के द्वारा बताये गए इस आत्मज्योति के सहारे आगे बढ़ने का प्रयास किया है उन्होंने कीर्तिमान स्थापित कर अमरत्व पा लिया है, पर हम केवल उनकी काल्पनिक मूर्तियों की स्थापना कर इसे ही तीर्थ और अन्तिम सत्य मान बैठे हैं, कितना आश्चर्य है!

Tuesday, 13 November 2018

223 कुछ लोग आध्यात्मिक पथ से भटक क्यों जाते हैं?

223 कुछ लोग आध्यात्मिक पथ से भटक क्यों जाते हैं?
अविद्यामाया का बल साधारण मनुष्यों की तुलना में आध्यात्म की ओर बढ़ने वाले व्यक्तियों को अधिक प्रभावित करता है। उनके सामने अनेक कठिनाइयाॅं आती हैं जैसे, पारिवारिक असंतुलन और अशाॅंति, या अत्यधिक धन और प्रतिष्ठा, या आर्थिक अभाव और अपमान। परन्तु सच्चे साधक इन कठिनाइयों को परीक्षा की तरह लेते हैं और बहादुरी से उनका सामना करते हैं। वे पीछे मुड़ने की कभी नहीं सोचते  क्योंकि अविद्या बल हमेशा पीठ पर अर्थात् छिपकर, घातक हमला करता है। इसलिए, सभी परिस्थितियों में अपने आध्यात्मिक और मानसिक विकास से संबंधित सोई हुई शक्तियों को जागृत करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।  विचित्रता यह है कि इस संसार में यदि कोई गलत कार्य करता है तो विद्यामाया उसे यह करने से रोकती है। जैसे, यदि कोई नया चोर चोरी करने जाता है तो उसके मन में पुलिस से पकड़े जाने का भय विद्यामाया पैदा करती है। इसी प्रकार जब कोई अच्छा कार्य करने की सोचता है तो अविद्यामाया उसे अधिक भयंकर रूप से यह करने से रोकती है। जैसे, कोई व्यक्ति साधना करने बैठता है तो अविद्यामाया इन में से किसी एक या अधिक प्रकार से बाधा पहुॅंचा सकती है, ‘‘पारिवारिक असंतुलन और अशाॅंति, या अत्यधिक धन और प्रतिष्ठा, या आर्थिक अभाव और अपमान। ’’इतना ही नहीं इसके अलावा भी  अनेक प्रकार से अविद्यामाया साधक की पीठ में छुरा मारने का कार्य करती है जिससे वह साधना का रास्ता छोड़ कर भाग जाए।
इस प्रकार से भागने वाले लोग अविद्यामाया से पराजित माने जाते हैं। इसलिए जब भी इस प्रकार की परिस्थितियाॅं आड़े आती हों तो तत्काल समझ जाना चाहिए कि यह सब अविद्यामाया का जंजाल है इसका दृढ़ता से सामना करना है न कि पीछे भाग जाना। सभी जानते हैं कि अनेक साधु पुरुषों को गुरु मिल जाने के बाद भी वे पूर्वोक्त कारणों से अविद्या के साथ मुकाबला करने में डर गए और पथभ्रष्ट होकर भटक गए और फिर समाज में समाज घृणा के पात्र बने।
यहाॅं, यही समझाया गया है कि जिस प्रकार आगे चलने पर पृथ्वी का घर्षणबल गति की विपरीत दिशा में सक्रिय हो जाता है परन्तु हम उसके विरुद्ध लगातार क्रियारत रहकर आगे बढ़ते जाते हैं, यदि घर्षणबल से डर कर रुक जाएं तो कभी भी आगे नहीं जा सकते । अतः अविद्या और विद्यामाया को यदि एक दूसरे का सहायक मानकर संघर्ष किया जाय तो अवश्य सफलता मिल जाती है। उपनिषदों में कहा गया है कि जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधकूप में गिरते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक अंधे कुए में गिरते हैं।

Friday, 9 November 2018

222 ज्ञानदीप

222
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।

तम आच्छादित दिवा रात्रि,
घनघोर शोर में बहरे होते।
दूभर जीवन दूषित हो
नव कष्ट देह में गहरे ढोते।
धूलधूसरित धरा धाम पर ,
मेघ पुनीत नीर बरसाएं।
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।1।

दम्भ प्रदर्शन की जड़ता ने
मनोभाव पंगु कर डाले।
मानवता कराहती पल पल,
रिश्तों में भी विष भर डाले।
अज्ञ विज्ञ सब हुए पंकमय
प्रज्ञनीर में सभी नहाएं।
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।2।

लोभ मोह की क्षुधा प्रसारित
जल थल नभ रोते अपनों  पर।
नीर समीर व्योम पावक सब
चकित व्यथित दूषित सपनों पर।
दिव्य प्रकाश ज्योति फैलाकर
क्यों न नव्यमानवता लाएं ?
ज्ञानदीप हर ओर जलाएं
आओ दीपावली मनाएं।3।

8 नवम्बर 2018

Monday, 5 November 2018

221 दिव्य नाटक

221 दिव्य नाटक
ऋषिगण कहते हैं, उसके दिव्य नाटक में सदा ही अनेक पात्रों की आवश्यकता हर क्षण बनी रहती है। कोई अमीर, कोई गरीब,  बुद्धिमान, मूर्ख, मोटे ,पतले, काले , गोरे सभी प्रकार के पात्र अपनी दी गई भूमिका के अलावा अन्य किसी की भूमिका नहीं निभा सकते। राजा हो या रंक सभी को उस संचालक के निर्देशों के अनुसार ही चलना होता है। जिन्हें दुखी भूमिका दी गई है वे स्टेज पर रोकर और विदूषक हॅंसकर और हॅसाकर अपना अपना काम करेंगे। पर यह सब हॅंसना रोना उसके नाटक के ही अंग हैं। एक सच्चा भक्त इस रहस्य को समझता है। नाटक में राजा कहलाने वाला अन्त में अपने घर जाकर सूखी रोटी खाता है पर नाटक में तो वह राजा ही होता है।
इसलिए विश्व में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह उस परमसत्ता के द्वारा दिया गया कार्य और भूमिका ही है अतः किसी को यह नहीं मान लेना चहिए कि यह स्तर उसका सदा के लिए बना रहेगा। हर जीवित प्राणी उस परमपुरुष का ही वंशज है। सभी रूप और आकार उसी में रहते हैं और अन्त में उसी में मिल जाते हैं इसलिए किसी को हीन भावना का शिकार नहीं होना चाहिए। एक छोटी सी बॅूद और पूरा महासागर तत्वतः एक ही ‘जल’ के अलग अलग आकार हैं, एक छोटा और दूसरा बड़ा। जब पानी की छोटी बूँद  महासागर से एकत्व बना लेती है तो वह पृथक छोटी बॅूंद नहीं रह जाती वह भी महासागर ही हो जाती है।