Friday, 29 March 2019

244 भाग्य, हठयोग और ब्राह्मण

244  भाग्य, हठयोग और ब्राह्मण

'भाग्य'
बहुत लोग हैं जो भाग्य को पूजते हैं और भाग्यवादी होते हैं, ज्योतिषियों के पास जाकर अपने भाग्य पर गणनायें कराते हैं और तदनुसार कार्य करते देखे जाते हैं। परंतु  ब्रह्माॅंड में भाग्य जैसा कुछ है ही नहीं , दर्शनशास्त्र  में भी भाग्य जैसा कुछ नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है जो कि अपनी मूल क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप घटित होता है। मानलो आपकी अंगुली आग के संपर्क में आ गई जिससे आपको कष्ट पहुंचा।  समीप में देख रहा व्यक्ति कहेगा चूंकि  आपकी अंगुली आग के संपर्क में आ गई इसलिये आप जल गये।  परंतु जब मूल क्रिया की प्रतिक्रिया बहुत दिनों के बाद हुई हो या तब तक मूल क्रिया की घटना ही भूल गये हों या कि पिछले जन्म की मूलक्रिया की प्रतिक्रिया को घटित होने का अभी अवसर आया हो तो आप कहेंगे कि भाग्य में जलना लिखा था सो जल गये। पर वास्तव में भाग्य था ही नहीं आपको मूल क्रिया के बारे में ज्ञान नहीं रहा जिसकी प्रतिक्रिया को आप भाग्य का नाम दे रहे हैं। संस्कृत में इसे "संस्कार" और लेटिन में 'रीएक्टिव मूमेंटा' कहते है। इसलिये भाग्य की पूजा करना व्यर्थ है, यदि मूल क्रिया नहीं होगी तो उसकी प्रतिक्रया का प्रश्न  ही नहीं होगा। आप स्वयं ही अपनी क्रिया के जनक है, अतः भाग्यवादी न होकर बहादुरी से सभी कठिनाइयों और परिणामों का सामना करते हुए  भाग्य से लगातार संघर्ष करना चाहिये। 

'हठयोग'
 ईश्वरतत्त्व-विहीन, भक्ति-विहीन योग को  संस्कृत में कहते हैं 'हठयोग' । हठयोग मानवता के लिए लाभदायक नहीं है, हानिकारक है । ‘ह‘ माने है ‘सूर्य-बीज‘ तथा  ‘ठ‘ माने है ‘चन्द्र-बीज‘ ।  सूर्य-नाड़ी और चन्द्र-नाड़ी , अर्थात् इडा-नाड़ी और पिङ्गला-नाड़ी को जबरदस्ती रोध कर लिया, तो, वह हुआ ह+ठ योग ।‘‘ह‘ को ‘ठ‘ के साथ जबरदस्ती मिलाकर रुद्ध कर दिया, तो हठयोग । शक्ति-प्रयोग के द्वारा अचानक जो होता है उसको हठयोग कहते हैं । हठ से जो काम होता है हम लोग संस्कृत में उसको ‘हठात्‘ बोलते हैं । ‘हठात् हो गया‘माने ‘ह‘ और ‘ठ‘ से हो गया, जबरदस्ती हो गया, हमारा हाथ नहीं था । “हठात्” बोलते हैं  हम लोग अचानक को।   वह कभी मुक्त नहीं हो सकता है जो हठ से काम करता  है । हठकारिता की निन्दा की जाती है ।

 ब्राह्मण
पञ्चकोशों  को परिपूर्ण बनाया जाना चाहिये परंतु कैसे? उन्हें यम नियम और साधना के सभी पाठों के द्वारा समृद्ध बनाया जा सकता है। अन्नमय कोश  को आसनों के द्वारा, काममय कोश  को यम और नियम साधना के द्वारा, प्राणायाम के द्वारा मनोमय कोश , अतिमानस कोश  प्रत्याहार से ,विज्ञानमय कोश  धारणा से और हिरण्यमय कोश  ध्यान से परिपक्व वनाया जा सकता है। केवल ध्यान समाधि ही आत्मा तक पहुंचाती है। पवित्र व्यक्ति वही हैं जिन्हें अपने पंचकोशों  को समृद्ध करने की तीब्र इच्छा होती है। मानव शरीर पंचकोशों  से निर्मित होता है जबकि साधना करने का अभ्यास आठ स्तरों पर होता है। आध्यात्मिक साधना करना ही धर्म है, जो पंचकोशों  की व्याख्या नहीं करता वह धर्म नहीं है वह मतवाद है।
सूक्ष्म  कारण मन अर्थात् हिरण्यमयकोश  के ऊपर जो लोक है उसे सत्यलोक कहते हैं। जब साधक अपने इस छुद्र मैंपन को सत्यलोक की वास्तविकता में मिला देते हैं तब वे सगुण ब्रह्म में अपने को पूर्णतः स्थापित कर लेते हैं। इस अवस्था में साधक की अस्मिता यदि चूर चूर होकर पुरुष में एकीकृत हो जाती है तब वह निर्गुण ब्रह्म से साक्षात्कार करता है। इसे ही सत्यलोक या ब्रह्मलोक कहते हैं, वे जो इस ब्रह्मलोक में अपनी स्थापना कर चुके हैं केवल वही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं।

Tuesday, 19 March 2019

243 होली

243 होली
होली के संबंध में विद्वानों ने पौराणिक कथाओं के आधार पर अनेक प्रकार के मत प्रकट किये हैं जिनमें सबका निचोड़ यह है कि हिन्दी नववर्ष (चैत्र माह) प्रारंभ होने के पूर्व फाल्गुन माह की समाप्ति पर एक दूसरे से सौहार्द पूर्वक मिलकर गत वर्ष के गिले शिकवे दूर कर लें और आगामी वर्ष में मंगलमय प्रवेश करें। इसलिए, इस प्रकार की प्रसन्नता प्रकट करने हेतु लोगों  को रंगों या फूलों का उपयोग करना ही सरल लगता है। आज हम रंगों के संबंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों के साथ ‘‘योगियों की होली’’ पर चर्चा करना चाहते हैं। ध्यान रहे योगी से यहाॅं तात्पर्य है जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठों का नियमित पालन करते हैं न कि केवल कुछ आसनों का अभ्यास।
  (1) ‘‘भौतिकवेत्ता  (physicists) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं।  प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाईयाॅं (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती  हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की  सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह ‘सफेद’ और सभी को शोषित कर ले तो ‘काली’ दिखाई देती है। सफेद और काला कोई पृथक रंग नहीं हैं। ’’ 
(2)‘‘ मनोभौतिकीविद (psycho-physicists) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली  मानसिक तरंगें (psychic waves) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना ‘‘ पैटर्न ’’ बनाती हैं जिसे ‘‘आभामण्डल‘‘ (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।’’ 
(3) ‘‘ मनोआत्मिक  विज्ञानी  (psycho-spiritualists)  इन तरंगों (wave patterns) को ‘‘वर्ण’’ (colours) कहते हैं।  इनके अनुसार जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह ‘‘अवर्ण’’ (colourless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही  वर्ण (colours) होते हैं क्योंकि ये सब उसी ‘‘परमसत्ता की विचार तरंगें’’(thought waves of cosmic entity )  ही हैं।  अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण (colourless)  बनाना होगा।  इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टाॅंगयोगी प्रतिदिन अपनी प्रातः, मध्यान्ह और संध्या की साधना के समय इन वर्णो को मनन, चिंतन ,कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वे ‘‘वर्णार्घ्य  दान’’ (offering of colours) कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं। ’’
आज के होली के स्वरूप को देखिए, काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी विचित्र परम्पराएँ बन चुकी हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़/रंग फेकते हैं, अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि ‘‘बुरा न मानो होली हैं, होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकड़ियाँ जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड खराब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं, नशीले पदार्थाें का सेवन करते हैं और तथाकथित रंगों/कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते  हैं।
योगियों की होली की अवधारणा से प्रभावित हो उन्हें ‘सारछंद’ में मैंने इस प्रकार बद्ध करने की कोशिश की है, रसास्वादन कीजिए और फिर बताइए कि इस वर्ष की होली आप किस प्रकार मनाएंगे-

वर्णार्घ्य
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बसन्त उत्सव चली मनाने,
प्रकृति की हर डाली,
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी,
कहीं टहनियाॅं खाली।1।

अब तक वर्णमयी दुनिया के ,
लक्षण मन को भाये,
अर्घ्य  वर्ण का देने को द्वय,
नत करतल ललचाये।2।

संचित हैं ये जनम जनम से,
अब मौलिकता भर दो,
ले लो ये सब रंग हमारे,
वर्णहीन मन कर दो।3।

भेदभाव सब झोंक अग्नि में,
‘शुक्लवर्ण’ यह पाया,
तम आच्छादित मेघों ने अब,
नव अमृत बरसाया।4।
(19 मार्च 2019)
डाॅ टी आर शुक्ल, सागर मप्र ।

Sunday, 17 March 2019

242 ज्ञानी, कर्मी और भक्त

242 ज्ञानी, कर्मी और भक्त
‘‘ज्ञानी’’, ज्ञानात्मक दृष्टिकोण से उसी को सत्य मानते हैं जो अपरिवर्तित रहता है जिसमें  कोई रूपान्तरण नहीं होता। ‘‘सत्यं ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म’’ ज्ञानियोें का मूल वक्तव्य है जिसका अर्थ है, ब्रह्म ज्ञानस्वरूप हैं। परन्तु इस भौतिक जगत की विचित्रता और सतत रूपान्तरण देखकर उस एक ही परमसत्ता को इस जगत में कैसे देखें यह उनके सामने सबसे बड़ी समस्या आती है । सिद्धान्त को व्यवहार में कैसे लाएं इस हेतु साधना करने का ही उपाय बचता है पर वह भी कैसे की जाए? तर्क द्वारा ज्ञानी सामयिक सुख पाते हैं परन्तु उससे उनके मन की भूख मिटती नहीं है। ज्ञानस्वरूप ब्रह्म भी दार्शनिक रूप से परा और अपरा दो प्रकारों से समझाया गया है । अपरा की गति जड़ात्मक जगत की ओर है और परा की आत्मजगत की ओर। अपरा ज्ञान वस्तु का आत्मस्थीकरण करना सिखाता है परन्तु जब इंद्रियाॅं इस काम में लगायी जाती हैं तो वे अपनी सीमा के भीतर ही वस्तु के स्वरूप को अनुभव कर पाती हैं। वे एक विशेष तरंग लम्बाई से कम या अधिक को अनुभव नहीं कर पाती अतः यह आत्मस्थीकरण शतप्रतिशत हुआ यह नहीं कहा जा सकता। पराज्ञान में मनुष्य स्थूल से सूक्ष्म का अनुध्यान करते करते सूक्ष्मता की ओर विचार करते हैं जैसे, इंद्रियवृत्ति को चित्त में, चित्त को अहम तत्व में , अहम को महत् अर्थात ‘‘मैंपन’’ और ‘‘मैंपन’’ (आई फीलिंग) को चैतन्य अर्थात् ‘कान्शसनैस’ में समाहित करना चाहिए, परन्तु कैसे? फिर इस गति में जिन स्तरों को पार किया है उनका क्या परिचय है? यह बताने के लिए उन्हें ‘गुणानुध्यान’ करते हैं। गुणानुध्यान के द्वारा परस्पर रूपान्तरण तक तो वे चर्चा कर सकते हैं परन्तु सृष्टि का प्रथम उद्गम कब और कैसे हुआ इस पर वे मौन रह जाते हैं। आज के वैज्ञानिक भी सृष्टि के उद्गम को ‘बिगबेंग’’ के आधार पर समझाते हैं और यह भी कहते हैं कि ‘बिगबेंग’ की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि1015  केल्विन (दस के ऊपर पन्द्रह की घात केल्विन ) ताप के विकिरण के साथ ‘ब्रह्माण्ड’ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। परन्तु यह जानकर भी क्या मिला ? अन्तर्मन की भूख इससे नहीं मिटती। ज्ञानी का क्षेत्र यहीं तक है कि ज्ञानात्मक चर्चा से कुछ सीख सकते हैं, परन्तु युगयुगान्तर से जो परमश्रेय को पाने की अभिलाषा है उसकी पूर्ति नहीं हो पाती। जैसे , गुणानुध्यान से पता चलता है कि मनुष्य के भीतर देवत्व सुप्तावस्था में रहता है पर इसे जानने से क्या फायदा जब तक उस देवत्व को पा नहीं लिया जाता। तालाब में कितना पानी है यह जान लेने मात्र से क्या होगा, पानी से प्यास बुझाने का साधन खोजना होगा।
यहीं से ‘‘कर्मी’’ का क्षेत्र प्रारम्भ होता है।
स्पष्ट हुआ कि ज्ञान की मोटी मोटी पुस्तकें पढ़ लेने से कर्म नहीं हो जाता, सोये हुए देवत्व को जाग्रत करने के लिए सतत अभ्यास करना होगा, विशेष प्रयास करना होगा। इसीलिए ऋषि कहते हैं‘चरैवेति, चरैवेति’ रुको नहीं चलते रहो अपने लक्ष्य की ओर। सोये हुए देवत्व को जगाने के लिए जिन विधियों का सहारा लिया जाता है वे सभी ‘‘तन्त्र विज्ञान’’ के अन्तर्गत आती हैं। ‘त’ का अर्थ है जड़ता, आलस्य का बीज, और‘‘त्र’’ का अर्थ है त्राण अर्थात् मुक्त करने वाला। इसलिए तन्त्र का अर्थ हुआ मनुष्य को  जड़ता या आलस्य से छुटकारा दिलाने वाली विधि। जब तक देवत्व सोया हुआ है तब तक मनुष्य में जड़ता है आलस्य है आत्मविश्वास की कमी है, हीनमन्यता है पर तन्त्र विधि से जब मन्त्राघात किया जात है तब व्यक्ति के संस्कार के अनुसार सोया हुआ देवत्व (जिसे तन्त्र की भाषा मेें ‘कुलकुन्डलिनी’ कहा जाता है) धीरे धीरे जाग जाता है। मन्त्राघात और मंत्रचैतन्य से कुलकुन्डलिनी को जाग्रत कर ऊपर की ओर ले जाने का कार्य ही है जीवन की कर्मसाधना, कर्मी का कर्म । ज्ञानियों की ‘थ्योरी’ को व्यावहारिक बनाने का कार्य । कर्मी जब कुलकुंडलिनी को ऊपर उठाएंगे तब भेदात्मक जगत को अभेद की भावना लेते हुए देखेंगे। सभी कुछ परमात्मा है और विश्व कर्मतरंगों सें भरा हुआ है, विभिन्न तरंगों की विभिन्न लम्बाईयों के कारण विभिन्न भेद दिखाई देते हैं इसलिए कर्म साधक उन भेदों को ‘एक ही नियंत्रक सत्ता’ से निकलती हुई अनुभव करते हैं । इसलिए उनका कहना है कि ‘‘कर्म ब्रह्मेति कर्म बहु कुर्वीत’’ अर्थात् मेरे लिए कर्म ही ब्रह्म है अधिक से अधिक कर्म करूं , यही है कर्म साधना। कर्मसाधना से लक्ष्य तक पहॅुंचा जा सकता है परन्तु लक्ष्य में स्थित नहीं हुआ जा सकता। उसे अनुभव करने का क्षेत्र सम्पूर्ण रूपसे भक्त्यात्मक ही है।
इससे आगे का क्षेत्र ‘भक्ति’ का है।
ज्ञानपूर्वक कर्मसाधना के द्वारा भक्ति का जागरण होता है। कैसे? मानलो आपको किसी महानगर जाकर किसी रिश्तेदार से मिलना है तो सबसे पहले उनका पता जानना, फिर वहाॅं तक पहुंचने के लिए किस प्रकार के साधन, समय, आदि की जानकारी लेना यह ‘ज्ञान’ हुआ। अब टिकिट आदि लेकर दिए गए पते पर  पहुंचना ‘कर्म’ हुआ और संबंधित के दरवाजे पर आहट देना, पुकारना और मिलना हुआ ‘भक्ति’ का क्षेत्र। इसलिए भक्त का लक्ष्य होते हैं ‘परमपुरुष’ और उनसे मिलकर आनन्दित होना; इसलिए उनका ध्येय वाक्य होता है ‘‘ भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिणी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्’’। भक्त जानता कि केवल निस्वार्थ सेवा और समर्पण से ही अपनी आत्मा की आत्मा परमपुरुष से प्रेम किया जा सकता है। ‘‘प्रेम’’ है वह भावधारा जिससे मन कोमल हो जाता है, शुद्ध हो जाता है, जिससे विश्व के हर जीवधारी के प्रति ममता जाग्रत हो जाती है। परमप्रभु की सन्तान को घृणा करने का तो प्रश्न ही नहीं है इसलिए भक्त के मन से संकीर्णता, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी हीनताएं कोसों दूर हो जाती हैं। ‘‘ सम्यंमसृणितो स्वान्तो ममत्वातिशयाॅंकितः, भाव सा ऐव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमः निगद्यते’’। उनके लिए भक्ति प्रेम स्वरूप है। आनन्दरूवरूप है। प्रेम से आनन्द मिलेगा और आनन्द है मन की एक साम्यावस्था, इस अवस्था में दुनिया का कोई सुख दुख उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता। इसलिए वे कहते हैं भक्ति के कारण ही जीवित हॅूं, जियेंगे  भक्ति के लिए ,मरेंगे भक्ति के लिए, मुझे अन्य किसी की जरूरत नहीं , ‘‘भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।’’ यह अवस्था गुणानुध्यान से, ज्ञानार्जन से भी आ सकती है परन्तु खुद को समर्पित करने के लिए केवल गुणानुध्यान या ज्ञान से काम नहीं बनेगा उन गुणों को, अपने ‘मैंपन’ को अर्थात् अपने ‘मन’ को भी प्रभु के चरणों में समर्पित करना पड़ेगा, अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं है। भक्त और ज्ञानी/कर्मी की सूझबूझ में अन्तर यह है कि ज्ञानी और कर्मी अपने तर्क से कहते हैं कि प्रभु तुम्हारे पास तो सभी कुछ है, पूरे ब्रह्माण्ड के मालिक हो, तुम्हें किसी चीज की जरूरत नहीं , तुम्हें क्या दॅूं? पर भक्त कहता है प्रभु तुम्हारे बड़े बड़े भक्तों ने तुम्हारा मन छीन लिया है, तुम मनहीन हो गए हो , मैं उनकी तुलना में बहुत ही छुद्र हूँ  , मेरी पॅूंजी तो केवल यह मेरा मन ही है , मैं तुम्हें यही दक्षिणा में देना चाहता हॅूं कृपाकर इसे स्वीकार करो।

कुछ अन्य उदाहरणों से ज्ञानी, कर्मी और भक्त की स्थिति समझ में आ सकती  है -
ज्ञान, कर्म और भक्ति, आध्यात्मिक विकास के ही क्रमागत स्तर हैं जैसे, रसगुल्ला बनाने के लिए किस सामग्री की कितनी कितनी जरूरत होगी, वह कहाॅं से प्राप्त हो सकेगी, उन्हें बनाने की विधि क्या है आदि की जानकारी ‘ज्ञान’ है, सामग्री एकत्रित कर उचित विधि के अनुसार उन्हें बनाना ‘कर्म’ है और बन चुकने के बाद उनका रसास्वादन करना ‘भक्ति’ है।
कागज की प्लेट और उसमें रखा भोजन ‘ज्ञान’ है, प्लेट से भोजन करना ‘कर्म’ है, और भोजन का स्वाद लेना ‘भक्ति’ है। भोजन का स्वाद ले चुकने के बाद कागज की प्लेट किसी काम की नहीं रहती।
‘ज्ञान’ है बड़ा भाई और ‘भक्ति’ है उसकी छोटी बहिन। ज्ञान, भक्ति का हाथ पकड़कर रास्ते में जा रहा है, रास्ते में मिलने वाले लोग ज्ञान से यह जानकर कि भक्ति उसकी बहिन है कह उठते हैं वाह! कितनी प्यारी गुड़िया है, और फिर केवल उसी से बात करते हैं, कितनी अच्छी फ्राक है, किस कक्षा में पढ़ती हो, कहाॅं जा रही हो आदि आदि, फिर ज्ञान की ओर से उनका ध्यान हट जाता है। तो ज्ञान का इतना ही रोल है, सभी आकर्षण भक्ति में ही है, प्रभावी भक्ति ही है इसीलिये ज्ञान से यह जानकर कि यह उसकी बहिन ही है अन्य लोग सभी बातें ‘भक्ति‘ से ही करते हैं ‘ज्ञान‘ से नहीं।

निष्कर्ष यह है कि ‘ज्ञान’ ‘कर्म’ और ‘भक्ति’ आध्यात्मिक विकास के क्रमागत स्तर हैं। आध्यात्म में लक्ष्य होता है भक्ति को पाना जिससे ‘परमपुरुष’ से मेल हो सके । भक्ति के पा जाने पर फिर ज्ञान और कर्म किसी काम के नहीं रहते।

Thursday, 14 March 2019

241 अपनी प्रतिभा को जागृत करना

241
अपनी प्रतिभा को जागृत करना
जो कुछ आप कहते हैं, कह रहे हैं या भविष्य में कहेंगे, यह सब आपके भीतर ही सुप्तावस्था में होता है। प्रत्येक मनुष्य में अपार क्षमता सोयी रहती है जैसे बरगद के बीज में विशालकाय वृक्ष  रहता है। यह बीज हवा ,पानी, भूमि और प्रकाश की उचित मात्रा पाकर वृक्ष को जागृत कर देता है। परिणाम स्वरूप धीरे धीरे अनेक शाखायें  निकल कर बड़ा वृक्ष बन जाती हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भीतर मूलाधार में कुलकुडलिनी शक्ति अपार क्षमताओं के साथ सोयी अवस्था में रहती है । जब उचित बीज मंत्र की सहायता से मंत्राघात कर मंत्रचैतन्य के द्वारा ऊपर की ओर संचालित की जाती है तो मानवीय क्षमताओं के द्वार, एक के बाद एक खुलते जाते हैं। ध्यान की यह पद्धति तन्त्रविज्ञान में ‘पुरश्चरण’ और योग में ‘अमृतमुद्रा या आनन्दमुद्रा’ कहलाती है। इस तरह मनुष्यों में जीवन्तता और सौदर्यता, दिव्यता की ओर बढ़ने लगती है। जन सामान्य की दृष्टि में इस प्रकार के लोग महापुरुष कहलाने लगते हैं । ये लोग अन्ततः परमपुरुष के साथ एक हो जाते हैं।

Tuesday, 5 March 2019

240 बढ़ती उम्र अर्थात बुढ़ापा और साधना

240 बढ़ती  उम्र अर्थात बुढ़ापा और साधना

सद्गुरु बाबा आनन्दमूर्ति जी  के अनुसार, जब कोई भी व्यक्ति साधना करता है और षोडश विधि  का अनुसरण करता है तो उसके गुण लगातार  बढ़ते जाते हैं। वे अधिक से अधिक मानवीय गुणों से पूर्ण  हो जाते हैं। यह अद्वितीय समीकरण है, क्योंकि ब्रह्मांडीय विचारधारा की मदद से, मन की परिधि बढ़ती है- उन्हें अधिक समझदार और गतिशील बनाती  है। इस तरह से, वरिष्ठ नागरिक स्वार्थ से  अपनी इकाई "मैं " में  ही सीमित नहीं रहते । यही कारण है कि अधिकांश मामलों में, अपने बुढ़ापे में अच्छे साधक समाज की सेवा के लिए अधिक से अधिक समय समर्पित करते हैं।
लेकिन जब लोग  भौतिकवाद  की मानसिकता  से भर जाते हैं , तो बुढ़ापे का मतलब है दूसरों के लिए 'सिरदर्द' होना। यही कारण है कि यूरोपीय और कई पश्चिमी देशों में, बड़े होकर बच्चे अक्सर अपने बुजुर्ग माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते । क्योंकि, जब प्रारम्भ से ही वे  वरिष्ठ नागरिकों को  सिर्फ अपनी ही स्वार्थी गतिविधियों में शामिल होते देखते रहे होते हैं तब निश्चित रूप से वे उनके बुढ़ापे में  उनके  कल्याण के बारे में सोचना नहीं चाहते। उनके मन और मस्तिष्क  भौतिकवाद के आत्म-केंद्रित दर्शन में  डूब चुके होते हैं। हालांकि, ऐसे कई अन्य देशों में जो इतने भौतिकवादी नहीं हैं, यह स्थिति नहीं है। उन समुदाय उन्मुख समाजों में वृद्ध लोग अन्य  सभी के  विकास का ध्यान  रखते हैं अतः  उस समाज में हर कोई वृद्ध सदस्यों का सम्मान करता है।
और, एक साधक का जीवन तो और भी अधिक उन्नत होता  है क्योंकि कई  वर्षों से मन को आध्यात्मिक तरीके से प्रशिक्षण देने के बाद, उनके उन्नत वर्षों में वह  पूरी तरह से परमपुरुष  के विचारों और अपने बच्चों के  कल्याण करने में लीन हो जाता है।  इस वातावरण में रहने वाले  पुराने साधक निस्स्वार्थ  होते हैं  सभी के प्रति उदार होते हैं। स्वाभाविक रूप से  हर कोई  उनकी  कंपनी में रहना पसंद करता है।

उम्र बढ़ने की प्रक्रिया पर  रोक : आसन और  नृत्य

मानव अस्तित्व के तीन पहलू हैं: शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। 39 सालों के बाद, भौतिक शरीर धीरे धीरे बुढ़ापे  की ओर बढ़ने लगता  है। लेकिन आसन, कौशिकी, और तांडव नृत्य  करके यह अधिकांश डिग्री तक  नियंत्रित या कम किया जा  सकता है।जो लोग अपने आसन, कौशिकी और तांडव  का अभ्यास अनेक वर्षों से करते  रहे हैं, वे उसे  अपने आगे के वर्षों में भी जारी रख सकते हैं। यह उनके शरीर को सुचारू, लचीला और ऊर्जावान रखता है।  साधक  अपनी  वास्तविक उम्र से अपने को ज्यादा युवा अनुभव करते  हैं।
यह  उन लोगों के लिए ऐसा नहीं है, जिन्होंने इस तरह के योग अभ्यास कभी नहीं किए। उनके शरीर अधिक  कठोर हो जाते हैं और यहां तक कि अगर उनकी  ऐसा करने  की इच्छा भी होती है तो वे 65 या 75 वर्ष की उम्र में तांडव शुरू नहीं कर सकते हैं - निश्चित रूप से 95 साल में तो और भी नहीं, क्योंकि उनके शरीर इस क्षेत्र में  अभ्यस्त नहीं होते हैं । जबकि साधक तो 100  की उम्र में भी कौशिकी और  तांडव कर सकते हैं और अपने जीवन को बनाए रख सकते हैं।

मस्तिष्क पुराना हो जाता है - अंतर्ज्ञान कालातीत होता है:

बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी जो  हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे  एक दिन खो देते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह कई गैर साधक के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, भक्तों के मामले में, यह नहीं है। बाबा कहते हैं, (वाराणसी डीएमसी 1 9 84), "आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज को बेहतर और बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। "
इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं - और यह कभी भी क्षय नहीं होता। क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचार है और जब मन को सुदृढ़ किया जाता है , उस सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  "पुराना हो रहा है" इसका प्रश्न ही नहीं उठता । मन अपना विस्तार करना  जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  हो जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं।  क्योंकि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जायेगा, जब तक कि आखिरकार उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना न हो जाय । जबकि जो लोग अपने दिल में भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।
अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता । उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक  सरल होगी । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।