Monday 15 July 2019

254 मन का सामर्थ्य

254  मन का सामर्थ्य
                                       
विपदा आने या शारीरिक कष्टों के प्राप्त होते ही मनुष्य सोचने लगते हैं कि पता नहीं यह कष्ट कब दूर होंगे। इनसे किस प्रकार छुटकारा मिलेगा आदि , स्पष्ट है, कि कष्टों को कोई भी मनुष्य नहीं चाहता। वह सदैव ही आराम, सुख और प्रसन्नता का वातावरण ही चाहता है। परन्तु सभी प्रकार से सुख और सदा प्रसन्नता मिल नहीं पाती इसके अनेक कारण हैं। हमारे मनीषियों ने शाश्वत सुख और चिरन्तन आनन्द पाने के लिये अनेक साधन और कष्टों के निवारण के लिये अनेक उपाय बताये हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि सुख दुख , जीवन मरण, हानि लाभ आदि विधाता के हाथ हैं हम तो केवल भोगने के लिये ही हैं। कुछ विद्वान कहते हैं ये सब मन की ही विभन्न स्थितियाॅं हैं। कुछ कहते हैं जब तक अज्ञान रहता है तभी तक देह का भान रहता है और चूंकि कष्ट देह तक ही सीमित हैं इसलिये जब ज्ञान का उदय हो जाता है तो देहध्यास भी समाप्त हो जाता है और परिणामतः कष्ट भी। इस प्रकार जितने लोग उतनी विचारधारायें सामने आ जाती हैं परन्तु एक बात सभी में उभयनिष्ठ है वह है ‘मन‘ । सभीकुछ मन के द्वारा ही अनुभव किया जाता है तो यह मन है क्या? यह सभी प्रकार के संवेदन किस प्रकार ग्रहण करता है और अपना स्वरूप किस प्रकार का बनाए रखता है? यह किसी पदार्थ से मेल रखता है या विद्युन्मय कण है। क्या यह कोई विचित्र तथ्य है जो दिखाई नहीं देता पर अनुभव में अवश्य आता रहता है। यह अकेला ही है या इसके अन्य अवयव भी हैं। इस प्रकार के अनेक प्रश्न चिन्तनशील व्यक्ति के मन में उठते रहते है।

विभिन्न मतों और सिद्धान्तों का वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में परीक्षण करने पर पता चलता है कि मन इच्छाओं का जनक और भोक्ता दोनों ही है। इसमें उठने वाले विचारों , संकल्पों और विकल्पों को मार्गदर्शन  कर उचित निर्णय लेने की क्षमता वाली शक्ति को ‘बुद्धि‘ कहा जाता है। मन यदि बुद्धि के मार्गदर्शन में कार्य करता है तो संकल्प और विकल्पात्मक द्वन्द्व उत्पन्न नहीं हो पाते। परन्तु यदि मन स्वेच्छाचारी हो जाए तो वह बुद्धि के दिये गये निर्देशों को नहीं मानता । इस स्थिति में वह इन्द्रियों का दास बनकर उन्हीं के अनुसार आचरण करने लगता है। आश्चर्य तो यही है कि मन सभी इन्द्रियों का स्वामी होते हुए भी उनका सेवक बनकर कष्ट पाते हुए इन्हीं में सुख मानने लगता है। इन्द्रियों की संख्या दस है और प्रत्येक का सामथ्र्य भी एक से बढ़कर एक है। श्रीमद्भगवदगीता में कहा गया है 
‘‘ इन्द्रियाणि पराण्याहुरि इंन्द्रियेभ्यः परं मनः, मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परसस्तु सः। (3/42 )‘‘
अर्थात् शरीर से अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ठ हैं इन्द्रियाॅं, इन्द्रियों से श्रेष्ठ है मन और मन से अधिक श्रेष्ठ है बुद्धि तथा बुद्धि से श्रेष्ठ है ‘वह‘ अर्थात् आत्मा। परन्तु यही देखा जाता है कि मन में छोटी सी इच्छा के जागते ही अपने वजनदार शरीर को उछाल कर हम कितनी ही दूरी तक जाने को विवश हो जाते हैं। मन में थोड़े से विक्षोभ के आते ही हम रात की नींद नहीं ले पाते, उसके क्षणिक उद्वेलित होने पर मारने मरने को तैयार हो जाते हैं। इतना ही नहीं इसी के स्पन्दन से किसी पर मोहित हो जाते हैं और इसी की स्थिरता से जीवन का सारा रहस्य जानकर अपने आप को जान जाते हैं, जीवन और मृत्यु दोनों से ऊपर हो जाते हैं ।

‘मन‘ अपना कार्यजाल किस प्रकार बनाता है और किन की सहायता से फैलाये रहता है इसकी जानकारी देने के लिये ज्ञानेद्रियों और कर्मेन्द्रियों को जानना आवश्यक हो जाता है। पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं होती हैं जिने नाम हैं, आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। पाॅंच ही कर्मेन्द्रियाॅं होती हैं जिनके नाम हैं वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा। मन इन्हीं दस इन्द्रियों में अपना भ्रमण संसार बनाये रहता है। परन्तु इसकी विशेषता यह है कि एकबार में वह इनमें से किसी एक के साथ ही रह सकता है और उसके साथ बने रहने का समय और पथ उसकी इच्छानुसार बढ़ता घटता या बदलता रहता है। मन का निचला भाग तो इन दसों इन्द्रियों के साथ सम्पर्क मे रहता है और ऊपरी भाग बुद्धि के सम्पर्क में रहता है जो इसके हर क्रियाकलाप पर अवलोकन करती रहती है और समय समय पर अपने निर्णय से अवगत कराती रहती है । लेकिन मन उस की सलाह पर चलने के स्थान पर उसे ही अपने आधीन बनाने की चेष्टा करता रहता है और फिर स्वेच्छाचारी बन जाता है। स्वेच्छाचारी मन बुद्धि को अपने वश में कर के मनमानापन करने लगता है तो वह सुख दुख, हानि, लाभ आदि द्वन्द्वों का अनुभव करता है परन्तु यदि मन इन्द्रियों से हटकर बुद्धि की ओर पूर्णतः आकर्षित हो जाता है तो वह सात्विकता पाकर मनमानी करने से दूर हो जाता है। इस अवस्था में वह अपने को कर्तापन में डुबाये रखता है जिससे ‘अहंकार‘ नामक नया घटक उसके साथ जुड़ जाता है। यह दृढ़  परावर्तक की तरह काम करता है अतः जब मन इसके प्रभाव से टकराकर किसी इन्द्रिय या इन्द्रिय समूह के साथ जुड़ जाता है तो उसे अपनी पूर्व स्थिति में आने के लिये फिर से वही अभ्यास करना पड़ता है। इसी प्रकार का लगातार अभ्यास करते करते जब मन का तारतम्य बुद्धि के साथ स्थायी हो जाता है तो अहंकार से मुक्त होकर वह शुद्ध हो जाता है और उससे शुद्ध मानसिक तरंगे उत्सर्जित होने लगती हैं। 
सामान्यतः सभी ने शीतऋतु में गर्म कपड़े पहिनने के बाद भी शरीर में हो रहे कम्पनों का अनुभव किया है । सुनसान में अंधेरा हो जाने पर अकेलेपन से उत्पन्न कम्पन हों या दुर्घटना में मृत व्यक्तियों को देखकर या श्मशान में जाने पर जलते हुए मृत शरीरों को देखने पर या किसी की निर्दयता से पीटे जाने पर देखने वालों, पीटने वालों और पिटने वालों के कम्पन, जीर्णशीर्ण भिखारी को भिक्षा मागने आते हुए देखकर , या फिर किसी के द्वारा प्रशंसा या पुरस्कार पाने पर या विपरीत लिंग को देखकर हुए आकर्षण से जो भी अनुभूति होती है वह सभी मन में होने वाले कम्पनों से ही होती है और मन इन संवेदनों को इन्द्रियों की सहायता से ही अनुभव कर पाता है। यही कारण है कि वह इन संवेदनों को पाने के लिये लगातार दोलन करता रहता है।

यहाॅं यह ध्यान रखने की बात है कि हमारा यह शरीर वास्तव में मन का ही व्यक्त क्षेत्र है जिसमें वह अपनी दस इन्द्रियों के द्वारा शासन करता है। यह दृश्य प्रपंच और ब्रह्माॅंड भी उस परम सत्ता के मन का व्यक्त क्षेत्र है । इस प्रकार उस वृहत् मन के भीतर ही हम सबके ये छोटे छोटे असंख्य मन भी जब तक अपना अपना अलग अस्तित्व बनाये रखने का अभिमान पाले रहते हैं तभी तक इस भौतिक जगत के द्वन्द्वों का आभास होता है। जिस क्षण यह आभास समाप्त हो जाता है उसी क्षण हमारा छुद्र मन उस बृहद् मन में एकीकृत होकर असीम आनन्द का अनुभव करता है। सभी प्रकार की पूजा पद्धतियाॅं और उपासनाएं इसी स्थिति को पाने के लिये ही अपनी अपनी महत्ता प्रकट करती हैं। सामान्य दशा में मन से उत्सर्जित होने वाली तरंगें बहुत वक्रता लिये होती हैं । यह वक्रता उसके लगातार कम्पित होते रहने से निर्मित होती हैं। हम सभी जानते हैं कि मन सदैव ही गतिशील रहता है नींद में भी स्थिर नहीं होता । इस प्रकार उसकी जितनी अधिक आवृत्ति होती है उतनी ही वक्रता भी अधिक होती है। परमपुरुष के मन की आवृत्ति बहुत कम होती है इसलिये उसमें वक्रता शून्य होती है। विज्ञान के शब्दों में इसे कहा जा सकता है कि हमारे छुद्र मन की तरंग लम्बाई बहुत कम और उस परम सत्ता के मन की तरंग लम्बाई अनन्त होती है। हमारे मन की तरंग लम्बाई को अनेक वक्रताओं वाली रेखा से और परमपुरुष के मन की तरंग लम्बाई को वक्रता विहीन सरल रेखा से प्रदर्शित किया जा सकता है। इसलिये यदि हमें उस परमसत्ता से साक्षात्कार करना है तो हमें अपने मन की तरंग लम्बाई को सरल रेखा में बनाना पड़ेगा। जब यह वक्रताहीन सरलरेखा में आ जाता है तो परमपुरुष के मन के साथ वह समानान्तर चलते चलते उन्हीं में मिल जाता है। इस अवस्था में वह अपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है इसलिये उसमें अहंकार शून्य हो जाता है और सुख दुख लाभ हानि जैसे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। इसे ही परमानन्द की अवस्था कहा जाता है। स्पष्ट है कि यह अवस्था प्राप्त करने के लिये बहुत ही धैर्य, अभ्यास और सदाचार का पालन करना होगा।

इसलिये मन के दोलनों को धीरे धीरे उसके कार्य क्षेत्र से अर्थात् इन्द्रियों से हटा कर एक ही विन्दु पर एकत्रित करना पड़ता है इसे योग विज्ञान में ‘प्रत्याहार क्रिया ‘ कहा जाता है। एक विन्दु पर केन्द्रित हुआ मन बहुत शक्तिशाली हो जाता है वैसे ही जैसे प्रकाश किरणों को जब लेंस से एकत्रित कर लिया जाता है तो वे उस विन्दु को जला डालती हैं। इस शक्तिशाली मन के द्वारा न केवल भौतिक जगत के कार्य उत्तम ढंग से किये जा सकते हैं वरन् मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र के भीतर भी उपलब्धियाॅं प्राप्त की जा सकती हैं। जैसे अपने मन की नियंत्रित की हुई आवृत्ति को किसी अन्य की आवृत्ति के साथ साम्यावस्था में लाकर अर्थात् वैज्ञानिक भाषा में, अनुनादित कर , उसके मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। उसके मन में चल रहे विचारों को जाना जा सकता है और अपने विचारों को उसमें भेजा जा सकता है। इसे टेलीपैथी कहा जाता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने मन की शक्तियों को पाकर परकाया प्रवृष्ठि, दूरस्थ व्यक्ति से पारस्परिक स्वतंत्र वार्तालाप, सशरीर दूर स्थान पर गमन आदि  प्रयोगों को कर दिखाया है जिन का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।
इस प्रकार मन को उसके दोलनकारी स्वभाव से एकीकृत कर ‘लेसर‘ किरणों से भी अधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है परन्तु हमारा लक्ष्य इन शक्तियों को पाना नहीं होना चाहिए। शक्तियों को पा जाने पर अहंकार उत्पन्न हो जाता है जिससे जब उसे थोड़ी सी भी ठेस लगती है तो वह इन अद्वितीय शक्तियों का सदुपयोग करने के स्थान पर दुरुपयोग करने से नहीं चूकता । चूंकि  सभी शक्तियों के एकमात्र स्वामी परमपुरुष ही हैं, वही यह जानते हैं कि किस शक्ति का कहाॅं और कब उपयोग करना है अतः इन शक्तियों के प्राप्त करने की अभिलाषा छोड़कर हमें केवल परमपुरुष को ही पाने की इच्छा बलवती करना चाहिए। मन पर नियंत्रण पाकर परमपुरुष को पाना कठिन नहीं है।

No comments:

Post a Comment