Tuesday, 30 July 2019

257 योग

योग
योग एक विस्तारित प्रक्रिया है जो न केवल शारीरिक वरन् मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के प्रति मनुष्यों को जागरूक कर मनुष्य होने का सही अर्थ समझाती है। विश्व में आजकल योग का बहुत प्रचार प्रसार हो रहा है । अपने को योग विशेषज्ञ गुरु कहने वालों की संख्या भी रातों रात अस्तित्व में आ चुकी है परन्तु देखा जाता है कि वे सभी तथाकथित गुरुगण कुछ आसनें सिखाने तक ही अपने अपना ज्ञान प्रदर्शित कर पाते हैं जबकि ‘आसन’ योग का एक अवयव है जो मनुष्य के भौतिक स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए ही प्रयुक्त होता है। हम आशा कर सकते हैं कि धीरे धीरे लोगों में योग के सही स्वरूप को जानने की ललक अवश्य जागेगी।

मनीषियों ने देश, काल और परिस्थिति के अनुसार योग की पूर्णता को अनेक प्रकार से समझाया है जिनमें से प्रमुखतः नीचे दी गई चार परिभाषाएं ही विचार करने योग्य पाई जाती हैं।
1. महर्षि पतंजलि के अनुसार ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः।’’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना योग कहलाता है। सभी जानते हैं कि मनुष्य के चित्त की पचास वृत्तियाॅं दशों दिशाओं में सक्रिय होकर हजारों की संख्या में होती हैं । इनका निरोध करने का अर्थ हुआ उनके इन स्वाभाविक क्रियाकलापों को निलंबित करना। स्पष्ट है कि अवसर पाकर निलंबित चित्तवृत्तियाॅं फिर से अपना साम्राज्य जमा सकती हैं अतः इस परिभाषा से योग की पूर्णता प्रदर्शित नहीं हो पाती।
2. कुछ ऋषियों का कहना है कि ‘‘ सर्वचिन्तापरित्यागो निश्चिन्तो योग उच्यते।’’ अर्थात् सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर निश्चिन्त हो जाना ही योग है। परन्तु निश्चिन्तता अकर्मण्य बनाकर लक्ष्य से भटकाने का ही कार्य करती है अतः इसे ग्राह्य नहीं किया जा सकता।
3. अनेक विद्वान कर्म करने के कौशल को ही योग मानते हैं, ‘‘योगः कर्मसु कौशलम्।’’ इस बात में दम है कि कर्म की कुशलता सफलता देती है परन्तु जब तक यह ज्ञात न हो कि कौन सा कर्म करना चाहिए कौन सा नही तब तक कार्य का कौशल किसी काम का नहीं रहता।
4. अनुभव प्राप्त कौल गुरुओं का कथन है कि ‘‘ संयोगो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मनः’’ अर्थात् परमात्मा के साथ अपने स्वयं का संयोग करना ही योग है। इस कथन में लक्ष्य भी है कर्म भी है और उसके कौशल की बात भी निहित है। जब मन का लक्ष्य परमात्मा को पाने का होता है तब वह अपनी वृत्तियों से हटकर एकाग्र होने लगता है । इसलिए योग की सर्वमान्य परिभाषा यही मानी जाती है।

इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि योग केवल शारीरिक स्वास्थ्य या केवल मानसिक स्वास्थ्य या केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य पाने तक ही सीमित नहीं है वरन् तीनों में सुसंतुलन बनाए रखते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते जाने का कभी समाप्त न होने वाला अध्यवसाय है। भौतिक विज्ञान भी अपने ‘‘बलों के त्रिभुज नियम’’ के माध्यम से यही प्रकट करता  है कि संतुलन और स्थायित्व देने के लिए वस्तु पर  कम से कम तीन ऐसे बल क्रियाशील करना चाहिए जिन्हें त्रिभुज की तीनों भुजाओं के द्वारा प्रदर्शित किया जा सके।

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