255 भजन और कीर्तन
जब हम किसी व्यक्ति में विशेष अनुकरणीय लक्षण देखते हैं तो स्वभावतः हम उसकी ओर आकर्षित होते हैं और चाहते हैं कि इस प्रकार की विशिष्टता हमें भी प्राप्त हो जाए। सांसारिक सभी वस्तुओं और जीवों में एक समानता यह है कि समय के साथ वे रूपान्तरित होते जाते हैं इस कारण उनमें से किसी में भी अद्वितीयता या विशिष्टता के लक्षण नहीं हो सकते। अतः दार्शनिकों ने यह तथ्य प्रतिपादित किया कि अवश्य ही इन सबका निर्माता और नियंता विशिष्ट लक्षणों वाला होना चाहिए इसलिए उसे जानने, देखने और उसके साथ वार्तालाप करने जैसे विचार आना जिज्ञासुओं में उत्साह भर देते हैं। इस निर्माता और नियंता को विद्वानों ने अलग अलग अनेक नामों से पुकारा है परन्तु दार्शनिक रूप से सभी इन्हें अपना ‘इष्ट’ कहने पर सहमत प्रतीत होते हैं। अपने इष्ट के अद्वितीय लक्षणोें का स्मरण, चिन्तन, मनन, ध्यान, निदिध्यासन, भजन और कीर्तन करने के लिए ऋषिगण भी सुझाव देते रहे हैं।
भजन और कीर्तन को छोड़कर पूर्वोक्त शेष सभी कार्य मन की स्थिरता और उसकी सूक्ष्मता की अनिवार्यता दर्शाते हैं । भजन और कीर्तन करने में अपेक्षतया मन को सरलता अनुभव होती है अतः जन समान्य इन्हें प्राथमिकता देते हैं यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि जहाॅं भजन करना व्यक्तिगत कार्य है वहीं कीर्तन सामूहिक। भजन को धीमें धीमें ही गाया जाता है जबकि कीर्तन सामूहिक होने के कारण जोर से गाने पर एक आध्यात्मिक वातावरण निर्मित करता है जिससे न केवल गाने वाले वरन् सुनने वाले भी लभान्वित होते हैं। जानकारी न होने के कारण लोग भजन भी जोर से और सामूहिक रूप से गाते हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भजन साहित्यिक छंदों और शब्दों में अनेक प्रकार के होते हैं जो राग और रागिनियों के साथ गाए जाने पर आनन्दित करते हैं परन्तु कीर्तन इष्ट केन्द्रित शक्ति सम्पन्न सीमित शब्द होते हैं जो सीमित समय तक ही अपना प्रभाव डालते हैं। यह सीमा उस कीर्तन को शक्ति सम्पन्न करने वाले गुरु के द्वारा समय के रूप में तय कर दी जाती है, उसके बाद यह अपना प्रभाव धीरे धीरे कम करता जाता है।
भक्त कवियों जैसे सूर, तुलसी, कबीर और मीरा ने अपने इष्ट के गुणगान में अनेक छंदों में भजन गाए हैं जो आज भी भक्तों के द्वारा व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार से गाए जाते हैं। ध्यान रहे, ये शक्ति सम्पन्न नहीं होते परन्तु विभिन्न राग और रागिनियों में लयबद्ध कर गाए जाने पर सभी को आनन्दित करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि ‘‘कीर्तनीया सदा हरि’’ अर्थात् केवल हरि का कीर्तन सदा ही करते रहना चाहिए। इसका अर्थ यह भी है कि न तो अपना और न ही किसी अन्य का गुणगान करें, केवल हरि का ही गुणगान करते रहना चाहिए। पर कीर्तन कैसे करें इसकी कमी पश्चिम बंगाल के चैतन्य महाप्रभु (1486-1534) ने पूरी की। उन्होंने अपनी पूर्ण शक्ति से अगले 500 वर्षों के लिए तत्कालीन अपने अनुयायियों और भक्तों को उनके इष्ट के अनुसार केवल दो कीर्तनों को शक्ति सम्पन्न किया था; ‘राम’ जिनके इष्ट थे उन्हें ‘‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे’’ और जिनके इष्ट कृष्ण थे उन्हें ‘‘ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’’। उनके मार्गदर्शन में अपने अपने इष्ट का कीर्तन करते भक्तिमार्ग का अनुसरण करते आज तक अनेक भक्त लाभान्वित हुए हैं। परन्तु अब पाॅच सौ वर्ष पूरे हो जाने के कारण यह कीर्तन अपना प्रभाव कम करता जा रहा है। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि भक्त गण दोनों कीर्तन एक साथ ही गाते देखे जाते हैं जबकि सिद्धान्ततः किसी भी भक्त को अभीष्ट पाने के लिए केवल एक और केवल एक ही इष्ट का अनुसरण करना चाहिए।
सभी दार्शनिक यह जानते हैं कि पुरश्चरण की क्रिया वह है जिसमें शब्दों को शक्तिसम्पन्न किया जाता है और यह कौल या महाकौल गुरु ही कर पाते हैं। वर्तमान में कीर्तन के क्षेत्र में हुए इस ह्रास को दृष्टिगत रखते हुए नवीन स्वरूप में नए वैज्ञानिक दर्शन के साथ इस युग के महान दार्शनिक, ‘‘नव्यमानवतावाद’’ और ‘‘प्रगतिशील उपयोगी तत्व (प्रउत) नामक सिद्धान्तों के प्रणेता महाकौल गुरु, महासम्भूति श्री श्री आनन्दमूर्ति (1921-1990) ने मानवता के कल्याण के लिए नया कीर्तन मंत्र शक्ति सम्पन्न कर प्रदान किया है जिसकी शक्ति हजारों वर्ष तक प्रभावी रहेगी। यह अष्टाक्षरी कीर्तन है ‘‘बाबा नाम केवलम्’’ । यहाॅं ‘‘बाबा’’ का मतलब कोई गेरुए वस्त्र पहने जटा जूट बढ़ाए और भभूति लगाए व्यक्ति नहीं है; ‘‘बाबा’’ का अर्थ है वह जो हमारे लिये सबसे अधिक प्रिय है और निकटतम है। यह कौन हो सकता है? केवल वही जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया है अर्थात् परमपुरुष, परमात्मा या परमपिता । ‘नाम’ का अर्थ नाम ही है और ‘केवलम’ से तात्पर्य है ‘‘केवल अर्थात् एकमेव’’ । इसलिए ‘बाबा नाम केवलम्’ का अर्थ हुआ केवल परमपुरुष का नाम । चॅूंकि संसार में धर्म और पूजापद्धतियों के अनुसार अनेक मत प्रचलित हैं परन्तु सभी का लक्ष्य, प्रत्यक्ष या परोक्षतः परमपुरुष से साक्षात्कार करना ही है अतः यह कीर्तन संसार के सभी मतानुयायियों के लिए समान रूप से लाभदायी होगा यही इसकी विशेषता है। ‘‘बाबा नाम केवलम्’’ जीवन्त कीर्तन है इसे आजमा कर देखिए।
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