जीवन साफल्य
महात्मन् ! यह जीवन बड़ा विचि़त्र है, इसमें बिना कर्म किए कोई रह ही नहीं सकता परन्तु यह समझ पाना बहुत ही कठिन है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इस सबंध में कोई सरल उपाय हो तो कृपा कर बताएं ?
ऋषि बोले, वत्स! जीवन में कोई भी कर्म करने के पहले ईश्वरीय भाव लेना (अर्थात् यह कार्य ईश्वर का कार्य है मेरा नहीं, मैं तो उसकी आज्ञा का पालन कर रहा हॅूं।) सर्वोत्तम है; परन्तु यह भी कठिन लगे तो इन तीन विचारों को थोड़ा सा भी ध्यान में रखकर कर्म करोगे तब भी बहुत लाभ होगा-
1. दूसरों को ‘संताप’ न देना अर्थात् वह काम न करना जिससे किसी की अन्तरात्मा को दुख पहॅुंचे।
2. ‘दुष्टों’ से दूर रहना अर्थात् वह काम न करना जिससे दुष्ट प्रकृति के लोगों के घर सहायता लेने के लिए जाना पड़े ।
3. ‘सच्चाई’ के रास्ते पर चलने वालों के मार्ग में बाधा उत्पन्न न करना ।
नीतिज्ञ ऋषि का संस्कृत मूल पाठ इस प्रकार है,
‘‘अकृत्वा परसंतापं, अगत्वा खलमंदिरं। अनुत्सेको सतांमार्गः, यत्स्वल्पं अपि तद् बहुः।’’
महात्मन् ! यह जीवन बड़ा विचि़त्र है, इसमें बिना कर्म किए कोई रह ही नहीं सकता परन्तु यह समझ पाना बहुत ही कठिन है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इस सबंध में कोई सरल उपाय हो तो कृपा कर बताएं ?
ऋषि बोले, वत्स! जीवन में कोई भी कर्म करने के पहले ईश्वरीय भाव लेना (अर्थात् यह कार्य ईश्वर का कार्य है मेरा नहीं, मैं तो उसकी आज्ञा का पालन कर रहा हॅूं।) सर्वोत्तम है; परन्तु यह भी कठिन लगे तो इन तीन विचारों को थोड़ा सा भी ध्यान में रखकर कर्म करोगे तब भी बहुत लाभ होगा-
1. दूसरों को ‘संताप’ न देना अर्थात् वह काम न करना जिससे किसी की अन्तरात्मा को दुख पहॅुंचे।
2. ‘दुष्टों’ से दूर रहना अर्थात् वह काम न करना जिससे दुष्ट प्रकृति के लोगों के घर सहायता लेने के लिए जाना पड़े ।
3. ‘सच्चाई’ के रास्ते पर चलने वालों के मार्ग में बाधा उत्पन्न न करना ।
नीतिज्ञ ऋषि का संस्कृत मूल पाठ इस प्रकार है,
‘‘अकृत्वा परसंतापं, अगत्वा खलमंदिरं। अनुत्सेको सतांमार्गः, यत्स्वल्पं अपि तद् बहुः।’’
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