Saturday, 4 January 2020

291 सच्चे साधकों को कष्ट ही भोगते क्यों देखा जाता है?

सच्चे साधकों को कष्ट ही भोगते क्यों देखा जाता है?

ब्रह्म साधना करने वालों के संस्कार अन्य साधारण लोगों की तुलना में शीघ्र ही क्षय होते हैं । इसका कारण यह है कि जब मूल क्रियाओं को परमपुरुष के समक्ष समर्पित कर दिया जाता है तो केवल उनकी प्रतिक्रिया को ही भोगना शेष बचता है, ये प्रतिक्रियाएं अच्छी या बुरी हो सकती हैं जो कि मूल क्रियाओं पर आधारित होती हैं। 
परन्तु , जरा सोचो कि साधना पथ पर चलने के पहले कितने काम अच्छे किए और कितने बुरे? कटुसत्य तो यह है कि उनमें अधिकाॅंशतः बुरे ही होते पाए जाते हैं। यही कारण है कि साधक गण जैसे जैसे साधना में आगे बढ़ते जाते हैं, अच्छे संस्कारों का आनन्द लेने के स्थान पर बहुधा बुरे संस्कारों को भोगते देखे जाते हैं। हाॅं , यह हो सकता है कि परिणाम भोगते समय कष्ट का अनुभव न हो पर यह उनकी मूल क्रियाओं की प्रकृति पर निर्भर होता है। परन्तु, प्रत्येक दशा में ब्रह्म के प्रति मूल क्रियाओं के समर्पण का स्तर जितना अधिक होगा उतना ही कम समय प्रतिक्रियाओं को भोगने में लगेगा। सामान्य अवस्था में प्रतिक्रियाओं या संस्कारों के क्षय होने की तुलना में यदि उनके क्षय होने की गति तेज होती है तो यह अच्छा संकेत माना जाता है क्योंकि संस्कारों का क्षय कम समय में ही हो जाएगा।
साधक को ‘काम लिप्सा’ में डूबने से न तो उसकी आध्यात्मिक प्रगति होती है और न ही समाज को कुछ लाभ होता है। यह तो केवल स्वार्थमय भटकाव है। इसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नकारात्मक संस्कार बीमारी या अपमान के रूप में भोगना पड़ते हैं। इनसे बचने या खींचतान करने का कोई उपाय नहीं है। 
जो साधना नहीं करते उनके साथ ये प्रतिक्रियाएं अपना समय आने पर ही घटित होती हैं भले ही वे अनेक जन्मों के बाद घटें परन्तु उनका परिणाम भोगने से कोई बच नहीं सकता।

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