मैं इस्लाम, सूफीवाद, वैष्णव या विद्यातन्त्र में से किसी में भी विशेषज्ञता का दावा नहीं करता। लेकिन, इन सबमें आजकल धर्म के नाम पर हो रहे विवादों को दृष्टिगत रखते हुए अपने सामान्य ज्ञान से इनके कुछ महत्वपूर्ण उभयनिष्ठ विंदुओं पर इनमें पारंगत विद्वानों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूॅं।
शास्त्रीय सूफी ग्रंथों में, मोहम्मद पैगम्बर द्वारा सुझाई गयी ‘कुरान और सुन्नत’ की शिक्षाओं और प्रथाओं पर जोर दिया गया है जो ‘तसव्वुफ’ को पारिभाषित कर नैतिक और आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में उपकरण का कार्य करती हैं। इन परिभाषाओं में ‘सूफी’ को ‘सफा’ शाब्दिक मूल के रूप में माना गया है जिसे अरबी में ‘‘पवित्रता’’ के अर्थ में माना जाता है। इसी संदर्भ में ‘तसव्वुफ’ के समान इस्लाम में ‘तज़किह’ शब्द का उपयोग किया जाता है जिसका अर्थ है ‘‘आत्मशुद्धि’’।
भारतीय ‘वेदों’ में इसको ‘‘धियोयो नः प्रचोदयात’’ कहकर बुद्धि को शुद्ध करने की भावना का प्रतिपादन किया गया है। उपनिषदों में ‘‘स्वस्वरूपानुसंधानम् भक्तिःरित्यभिधीयते’’ कहकर अपने स्वरूप के अनुसंधान करने के कार्य को ‘‘भक्ति’’ का नाम दिया गया है ।
यदि सही ढंग से चिन्तन किया जाय तो वैष्णव मतवाद और सूफी मतवाद दोनों ने ही ‘‘विद्यातंत्र’’ से प्रेरणा ली है। विद्यातंत्र उपनिषदों में वर्णित परमात्मा को पाने की व्यावहारिक और वैज्ञानिक विधियों का उपसंहार है। सूफी मतवाद की जन्मभूमि ईरान है। इस्लाम और ईरानी(फ़ारसी) सभ्यताओं में जो संघर्ष हुआ उसमें भले ही ऊपरी तौर पर इस्लाम जीत गया लेकिन इस्लामी दर्शन में जो शून्य था उसे सूफीवाद ने ही भरा। मुस्लिम आक्रमणकारियों के साथ सूफीवाद भारत में आया। ताजमहल इस्लामी कलाकृति का फ़ारसी स्वरूप है। भारत में भी इस्लामी और भारतीय चिंतन में कई शताब्दियों तक वैचारिक संघर्ष चलता रहा परन्तु भारतीय चिंतन पर इस्लाम का प्रभाव नगण्य रहा। सूफीवाद का जो आध्यात्मिक पक्ष है वह भारत में वैष्णव मतवाद के रूप में पहले से ही स्थापित था। आध्यात्म की इस युगलधारा ने एकदूसरे को समृद्ध किया और भारतीय जनमानस में अपनी जड़ें जमा ली। दुख यह है कि कालान्तर में दोनों मतवादों के ध्वजवाहकों ने अपने अपने समूह और विचारों को दूसरों से श्रेष्ठ बताकर अपने अनुयायियों में भेदभाव उत्पन्न कर इसे व्यवसाय का रूप देकर बिना परिश्रम किए आजीविका का साधन बना लिया और परस्पर प्रेम के स्थान पर घृणा की भावना भर दी।
यदि वर्तमान में प्रचलित और प्रचारित इन सभी मतवादों में से इस स्वार्थी धंधेवाली विचारधारा को त्याग दिया जाय तो पाया जाता है कि संसार के सभी मतवाद जीवन का एक ही उद्देश्य बताते हैं वह है आत्मशुद्धि करते हुए ‘ईश्वर/अल्लाह/गाड’ की उपलब्धि या साक्षात्कार। इस्लाम में से ‘सूफीवाद’ को अलग कर दिया जाय तो वह थोथा रह जाता है। इसी प्रकार वैष्णववाद में से ‘भक्तितत्व’ को हटा दिया जाय तो वह केवल आडम्बर ही बचता है। ‘‘विद्यातंत्र’’ की तरह सूफीवाद और वैष्णववाद दोनों में ही ‘गुरु’ को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। विद्यातन्त्र में कहा गया है,
‘‘नित्यं शुद्धं निराभाषं निराकारं निरंजनम् नित्यबोधं चिदानंदम् गुरुब्र्रह्मम् नमाम्यहम्।’’
(अर्थात् मैं सदैव शुद्ध, चैतन्य, निराकार, आनन्दस्वरूप, परमब्रह्म के बोध को ही गुरुरूप में प्रणाम करता हॅूं)
पंजाब के प्रसिद्ध सूफी़ सन्त बुल्लेशाह ने विद्यातन्त्र के इस आदर्श को स्पष्ट करते हुए अपने गुरु के महत्व पर कहा है कि ,
‘‘रब मिलिया तू न मिलिया, रब तेरे वर्ग नाईं’’ (पंजाबी)
(अर्थात् ईश्वर तुझ जैसा नहीं है, ईश्वर और तेरी बराबरी हो ही नहीं सकती। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे ईश्वर तो मिल गया पर, तू अभी तक नहीं मिला।)
विद्यातांत्रिक रहस्यवादी सन्त कबीर का कहना है,
‘‘गुरुगोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपकी जो गोविंद दियो बताय’’
(अर्थात् गुरु ने ही तुम्हें परमात्मा से मिलाया है इसलिए यदि गुरु और परमात्मा दोनों साथ खड़े हों तो पहले गुरु को ही प्रणाम करना चाहिए।)
इतना ही नहीं कबीर तो यह भी कहते हैं-
‘यह तन विष की बेल री, गुरु अमृत की खान। शीश कटाए गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।’
(अर्थात् यह शरीर तो विष की बेल है और गुरु हैं अमृत की खदान। इसलिए यदि तुमने अपना सिर कटाकर अर्थात् अपनी जान देकर भी सद्गुरु को पा लिया तो समझो तुमने यह सौदा सस्ते में निपटा लिया।)
अमीर खुसरो गुरुतत्व को अच्छी तरह समझ गए थे। आज, मुसलमान उनका नाम आदर के साथ लेते हैं लेकिन तत्कालीन मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों ने उनकी गुरुभक्ति की भर्तस्ना की थी; उन्हें इस्लाम विरोधी जनेऊधारी हिंदु और मूर्तिपूजक कहा था । परन्तु अमीर खुसरो अपनी गुरुभक्ति में डूबे रहे। अपने विरोधियों के आरोपों के जबाब में उन्होंने फारसी में एक लम्बी गजल लिखी है, उसका छोटा सा अंश यह है:-
‘‘ काफिरे इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नेस्त
हर रगे मन तार गस्तम, हाजते जुन्नार नेस्त।
ख़ल्क आंगोयद कि खुसरो बुतपरस्ती मी कुनद
आरे आरे मी कुनद ख़ल्को आलम कार नेस्त।’’
(अर्थात् ईश्वरीय प्रेम और गुरुभक्ति एक ही हैं। मैं अपने गुरु के प्रेम में मस्त हूॅं और इसलिये यदि कोई मुझे का़फिर या मूर्तिपूजक या इस्लाम विरोधी कहता है तो मुझे उसकी परवाह नहीं है। और, यदि कोई यह कहता है कि तथाकथित मुसलमान होने के लिए मुझे अपने गुरु को छोड़ना पड़ेगा तो मैं ऐसा मुसलमान होने की ज़रूरत महसूस नहीं करता। मेरे शरीर की हर एक नस, प्रेम की भावना में डूबकर इतनी पवित्र हो गई है कि मुझे जनेऊ की भी आवश्यकता नहीं है । दुनिया वाले मुझे मूर्तिपूजक कह रहे हैं ! मैं भला उन्हें क्या जवाब दूॅं ? मैं स्वीकार करता हॅूं कि ‘‘हाॅं मैं गुरुभक्त हूॅं’’ लेकिन साथ में यह भी कहना चाहता हॅूं कि मेरे गुरु और मेरे संबंधों से दुनिया वालों को कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए।)
स्पष्ट है कि जो मतवाद समाज के प्रत्येक अवयव से प्रेम करने के स्थान पर घृणा करने को वरीयता दे वह ईश्वर से प्रेम कैसे कर सकता है; जो ईश्वर से प्रेम नहीं करता वह उन्हें कैसे पा सकता है? कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर को पाने के रास्ते अलग अलग हैं पर, मैं तो यह मानता हॅूं कि ईश्वर को पाने का केवल एक ही रास्ता है वह है आनन्द का रास्ता, प्रेम का रास्ता। कम से कम, अपने ‘‘आप’’ से ही तो प्रेम करना सीख लो, प्रेम के आनन्दातिरेक में इस पूरी सृष्टि को ही अपने भीतर पाओगे, वहाॅं दूसरा कोई होगा ही नहीं और आप हो जाओगे ‘अद्वितीय’। ‘‘प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाएं।’’
आज मानव समाज बहुत आगे बढ़ चुका है उसे व्यर्थ के आडम्बर, अतार्किक और अवैज्ञानिक बातें पसंद नहीं हैं। अपने आपको शुद्ध करके ‘पूर्व के आध्यात्मिक गौरव’ और ‘पश्चिम की वैज्ञानिक गतिशीलता’ को साथ लेकर चलने में ही सार है। व्यर्थ के विपथगामी झगड़ों में पड़ने से न इधर के रहेंगे और न उधर के।
‘‘ नफस पर क़ाबू रहे और दोस्त बन जाए ज़मीर,
शान फिर होगी अता सब से जुदा सबसे अलग।’’
(अर्थात् यदि कोई व्यक्ति अपनी वृत्तियों पर नियंत्रण करना सीख ले और एक दोस्त की तरह अपनी अन्तरात्मा की बात माना करे तो फिर उस पर ईश्वरीय कृपा होगी और समाज में उसे अभूतपूर्व प्रतिष्ठा मिलेगी।)
इस प्रकार, विचार करने के उपरान्त यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्म के नाम पर स्वार्थ प्रेरित और प्रायोजित ये झगड़े व्यर्थ के ही हैं।
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