305 कोरोना गुरु (1)
‘‘क्यों सेठ! क्या हाल चाल हैं?
‘‘क्या पूछते हो भैया! देखते नहीं ‘कोरोना’ के कहर का रोना घर घर में पसरा है।’’
‘‘ काहे को रोना? वह तो हमें सही ढंग से जीने का रास्ता सिखा रहा है।’’
‘‘ ये भी कोई शिक्षा हुई? स्कूल कालेज बंद, न मंदिर, न मस्जिद! न मिलना जुलना! न चहलपहल! न आना जाना। अरे! इसने तो देवमूर्तियों के दर्शन कर पाना भी दुर्लभ कर दिया है? सब धंधा चैपट हो गया, लोग मर रहे हैं?’’
‘‘ लेकिन यह भी सोचो जरा, अपने शरीर और घर के भीतर बाहर इतनी स्वच्छता रखने का काम इससे पहले कब करते थे? तथाकथित पवित्र स्थानों में भीड़ की भक्ति क्या देखी नहीं है? ’’
‘‘लेकिन देवदर्शन बिना कोई काम शुरु करना! नहीं नहीं ये तो बिलकुल ही गलत है।’’
‘‘ सेठ जी! पत्थरों और सप्तधातुओं से बनी मूर्तियों में तथाकथित देवता को खोजते हो पर अपने भीतर बैठे देवों के देव की अनदेखी करते हो। इसीलिए ‘कोरोना’ सिखा रहा है कि बाहर मत भटको और न ही व्हीआईपी बनकर अलग से दर्शन कर लेने का भ्रम पालो, आडम्बर और मन का मैल हटा कर मन को ही स्वच्छ बना लो देवता दिखाई देने लगेंगे।’’
‘’ अरे यार! क्या घर से बाहर भी न निकले कोई?’’
‘‘ क्यों नहीं, काम से ही बाहर निकलो, अनावश्यक भीड़ के अंग न बनो, वाहनों की होड़ में न पड़ो, अपने परिवार के साथ शेष समय बिताओ, यही ‘कोरोना’ कह रहा है।’’
‘‘ पर कितने ही लोग तो उसके प्रकोप से यों ही मरते जा रहे है, वह क्या?’’
‘‘ सही है, उचित स्वच्छता, सात्विक भोजन, यम नियम का पालन और संयमित जीवन से दूर रहने वाले लोग ही ‘कोरोना’ का भोजन बनते हैं।’’
‘‘तो क्या कोई आदमी काम धाम भी न करे? घर में ही बैठा रहे? दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करेगा?’’
‘‘क्यों सेठ! क्या हाल चाल हैं?
‘‘क्या पूछते हो भैया! देखते नहीं ‘कोरोना’ के कहर का रोना घर घर में पसरा है।’’
‘‘ काहे को रोना? वह तो हमें सही ढंग से जीने का रास्ता सिखा रहा है।’’
‘‘ ये भी कोई शिक्षा हुई? स्कूल कालेज बंद, न मंदिर, न मस्जिद! न मिलना जुलना! न चहलपहल! न आना जाना। अरे! इसने तो देवमूर्तियों के दर्शन कर पाना भी दुर्लभ कर दिया है? सब धंधा चैपट हो गया, लोग मर रहे हैं?’’
‘‘ लेकिन यह भी सोचो जरा, अपने शरीर और घर के भीतर बाहर इतनी स्वच्छता रखने का काम इससे पहले कब करते थे? तथाकथित पवित्र स्थानों में भीड़ की भक्ति क्या देखी नहीं है? ’’
‘‘लेकिन देवदर्शन बिना कोई काम शुरु करना! नहीं नहीं ये तो बिलकुल ही गलत है।’’
‘‘ सेठ जी! पत्थरों और सप्तधातुओं से बनी मूर्तियों में तथाकथित देवता को खोजते हो पर अपने भीतर बैठे देवों के देव की अनदेखी करते हो। इसीलिए ‘कोरोना’ सिखा रहा है कि बाहर मत भटको और न ही व्हीआईपी बनकर अलग से दर्शन कर लेने का भ्रम पालो, आडम्बर और मन का मैल हटा कर मन को ही स्वच्छ बना लो देवता दिखाई देने लगेंगे।’’
‘’ अरे यार! क्या घर से बाहर भी न निकले कोई?’’
‘‘ क्यों नहीं, काम से ही बाहर निकलो, अनावश्यक भीड़ के अंग न बनो, वाहनों की होड़ में न पड़ो, अपने परिवार के साथ शेष समय बिताओ, यही ‘कोरोना’ कह रहा है।’’
‘‘ पर कितने ही लोग तो उसके प्रकोप से यों ही मरते जा रहे है, वह क्या?’’
‘‘ सही है, उचित स्वच्छता, सात्विक भोजन, यम नियम का पालन और संयमित जीवन से दूर रहने वाले लोग ही ‘कोरोना’ का भोजन बनते हैं।’’
‘‘तो क्या कोई आदमी काम धाम भी न करे? घर में ही बैठा रहे? दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कौन करेगा?’’
‘‘ भैया! यह प्रकृति का नियम है कि जब जब असंतुलन उत्पन्न होता है वह अपने आप संतुलन बनाती है। यह अस्थायी व्यवस्था है जब हम स्वच्छता से रहने और सात्विक जीवन पद्धति को अपना कर सामाजिक संतुलन बना लेंगे ‘कोरोना’ गुरु प्रसन्न होकर स्वयं अंतर्ध्यान हो जाएंगे।’’