सभी प्राणियों में सामान्य भक्ति के बीज होते हैं। भक्ति के पीछे मूल मनोविज्ञान यह है कि जब कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु में अपने से अधिक आश्चर्यजनक महानता देखता है तो उसके अपने गुण निलम्बित हो जाते हैं और वह उस व्यक्ति के प्रति अपना विशेष प्रकार का भाव बना लेता है इसे ही भक्ति कहा जाता है। इस प्रकार सभी को किसी न किसी में आश्चर्यजनक गुण दिखाई देते हैं जैसे, किशोर युवक युवतियों को अपनी पसंद का गायक, खिलाड़ी या फिल्म का हीरो आदि में, अपने से कुछ अधिक महानता के गुण दिखाई देते हैं अतः उनके स्टेज पर आते ही वे तालियाॅं बजाने लगते हैं। इसे सामान्य भक्ति कहा जाता है। वास्तव में वे चाहते तो परमसुख या आनन्द को हैं परन्तु वे इसे जान नहीं पाते अतः उनकी यह सामान्य भक्ति अपनी दिशा बदल लेती है। यथार्थतः सामान्य भक्ति में भौतिक चीजों की चाह या उनके प्रति अपनापन बढ़ा लेने की प्रवृत्ति पाई आती है। यही कारण है कि अनन्त आनन्द पाने की चाह इन भौतिक जगत की वस्तुओं या व्यक्तियों के पा जाने पर कभी भी पूरी नहीं होती क्योंकि ये सब सीमित होते हैं।
सच्चाई तो यह है कि परमपुरुष के ध्यान करने को ही भक्ति कहा जाता है; परन्तु अधिकाॅंश लोग धनवानों, गुणीजनों और प्रसिद्ध लोगों को पूजते दिखाई देते हैं इस तरह उनका भक्ति भाव परमपुरुष से हट जाता है, बहक जाता है। जब छोटा बच्चा भूखा होता है तो उसके हाथ में जो कुछ भी पकड़ में आ जाता है उसे वह मुंह में डालकर चबाना शुरु कर देता है पर इन पदार्थों से क्या उसकी भूख मिटती है ? नहीं। सभी मनुष्य महान बनना चाहते हैं उनके भीतर सामान्य भक्ति होती है, परन्तु वे यह नहीं जानते कि महान बनने के लिये कहाॅं जाना चाहिए। अनन्त की चाह को सन्तुष्ठ करने के प्रयासों में परमपुरुष का ध्यान न कर वे पद, प्रतिष्ठा, मान और धन को ही आश्चर्यजनक मानने लगते हैं और अन्धे होकर उन्ही की ओर दौड़ पड़ते हैं। ये लोग उसी बच्चे के समान हैं जो भूख मिटाने के लिए जो भी हाथ मेें आ जाता है उसे खाने लगता हैं और उसकी चाह एक वस्तु से दूसरी पर बदलती रहती है। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपनी सामान्य भक्ति को परमपुरुष की ओर मोड़ देता है तो उसकी भक्ति में लगातार वृद्धि होती जाती है और वह उस परमसत्ता की कृपा पाकर सन्तुष्ठ हो जाता है।