Monday, 22 June 2020

324 सामान्य भक्ति का बहक जाना


सभी प्राणियों में सामान्य भक्ति के बीज होते हैं। भक्ति के पीछे मूल मनोविज्ञान यह है कि जब कोई  व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु में अपने से अधिक आश्चर्यजनक महानता देखता है तो उसके अपने गुण निलम्बित हो जाते हैं और वह उस व्यक्ति के प्रति अपना विशेष प्रकार का भाव बना लेता है इसे ही भक्ति कहा जाता है। इस प्रकार सभी को किसी न किसी में आश्चर्यजनक गुण दिखाई देते हैं जैसे, किशोर युवक युवतियों को अपनी पसंद का गायक, खिलाड़ी या फिल्म का हीरो आदि में, अपने से कुछ अधिक महानता के गुण दिखाई देते हैं अतः उनके स्टेज पर आते ही वे तालियाॅं बजाने लगते हैं। इसे सामान्य भक्ति कहा जाता है। वास्तव में वे चाहते तो परमसुख या आनन्द को हैं परन्तु वे इसे जान नहीं पाते अतः उनकी यह सामान्य भक्ति अपनी दिशा बदल लेती है। यथार्थतः सामान्य भक्ति में भौतिक चीजों की चाह  या उनके प्रति अपनापन बढ़ा लेने की प्रवृत्ति पाई आती है। यही कारण है कि अनन्त आनन्द पाने की चाह इन भौतिक जगत की वस्तुओं या व्यक्तियों के पा जाने पर  कभी भी पूरी नहीं होती क्योंकि ये सब सीमित होते हैं। 
सच्चाई तो यह है कि परमपुरुष के ध्यान करने को ही भक्ति कहा जाता है; परन्तु अधिकाॅंश लोग धनवानों, गुणीजनों और प्रसिद्ध लोगों को पूजते दिखाई देते हैं इस तरह उनका भक्ति भाव परमपुरुष से हट जाता है, बहक जाता है। जब छोटा बच्चा भूखा होता है तो उसके हाथ में जो कुछ भी पकड़ में आ जाता है उसे वह मुंह में डालकर चबाना शुरु कर देता है पर इन पदार्थों से क्या उसकी भूख मिटती है ? नहीं। सभी  मनुष्य महान बनना चाहते हैं उनके भीतर सामान्य भक्ति होती है, परन्तु वे यह नहीं जानते कि महान बनने के लिये कहाॅं जाना चाहिए। अनन्त की चाह को सन्तुष्ठ करने के प्रयासों में परमपुरुष का ध्यान न कर वे पद, प्रतिष्ठा, मान और धन को ही आश्चर्यजनक मानने लगते हैं और अन्धे होकर उन्ही की ओर दौड़ पड़ते हैं। ये लोग उसी बच्चे के समान हैं जो भूख मिटाने के लिए जो भी हाथ मेें आ जाता है उसे खाने लगता हैं और उसकी चाह एक वस्तु से दूसरी पर बदलती रहती है। परन्तु जब कोई व्यक्ति अपनी सामान्य भक्ति को परमपुरुष की ओर मोड़ देता है तो उसकी भक्ति में लगातार वृद्धि होती जाती है और वह उस परमसत्ता की कृपा पाकर सन्तुष्ठ हो जाता है।

Sunday, 21 June 2020

323 बड़ों का मूल्य



यह एक तथ्य है कि हर दिन हम  बड़े होते  जाते हैं - हमारे भौतिक शरीर की  उम्र, शिकनभूरे बाल आदि बड़े होने की सूचना देते  हैं। यह एक सामान्य घटना है। फिर भी कोई भी "बूढ़ा हो जाना पसंद नहीं करता।" साथ ही योग में  विभिन्न पद्धतियां हैं जो इस उम्र बढ़ने की प्रक्रिया से जूझकर  शरीर को युवा और जीवंत रखने के लिए प्रयुक्त हो सकती हैं।  इसके अलावा , अधिक उम्र अर्थात बुजुर्ग होना एक सम्मानित विशेषता है। और एक अन्य बिंदु यह है कि हमारा  अंतर्ज्ञान संकाय कालातीत रहता है  - पूरी तरह से काल अर्थात टाइम  से अप्रभावित।
भौतिकवादी युग में विभिन्न देशों में बुजुर्ग या वरिष्ठ नागरिकों के प्रति विभिन्न दृष्टिकोण हैं। लेकिन दुनिया भर में आम भावना यह है कि कोई भी "पुराने" के रूप में वर्णित होना पसंद नहीं करता है। यही कारण है कि यदि कोई व्यक्ति किसी  को "बूढ़ा" कहता है, तो वह व्यक्ति नाखुश हो सकता है या अंदरूनी परेशानी  महसूस कर सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बड़े व्यक्ति के प्रति सम्मान करना चाहता है, तो एक बहुत ही विनम्र और सम्मानजनक तरीके से "वरिष्ठ  नागरिकइस तरह के शब्द का उपयोग करना होगा। यह , सामान्य समाज के सदस्यों के साथ काम करते समय  विशेष रूप से आवश्यक होता है

उन जगहों पर जहां भौतिकवाद अधिक हावी है, बूढा होना  बहुत तनाव और निराशा लाता है क्योंकि ऐसी जगहों में अक्सर, परिवार अपने वृद्ध सदस्यों को साथ में रखना पसंद नहीं करता है।  नतीजतन, उन बुजुर्ग व्यक्तियों के  जीवन का  अवमूल्यन हो जाता है। इसलिए, बुजुर्गों को "पुराना" कहा जाना पसंद नहीं है क्योंकि  यह पुराना , बेकार समझा जाता  है। भौतिकवादी समाज में उन आम लोगों की यह दुखद और दोषपूर्ण मानसिकता है। 
इसके अलावा, भौतिकवादी देशों में जहां "सेक्स " प्रभावशाली होता है, बुढ़ापा  यौन अपील की हानि का प्रतीक है, जिससे उस का अस्तित्व  लगभग बेमानी हो जाता है। भौतिकवादी समुदायों में महिलायें  इस रोग से पीड़ित हैं। इसके  सीधे विपरीत, हमारी  आध्यात्मिक जीवन शैली में, परिदृश्य पूरी तरह से अलग है। "एजिंग" सम्मान और गरिमा का प्रतीक माना जाता  है . भारत के प्राचीन इतिहास को देखते हुए, हम पाते हैं कि "वरिष्ठ नागरिकों" का बहुत सम्मान था - युवाओं की तुलना में कहीं   ज्यादा। यह परंपरा एक तांत्रिक परंपरा है और विभिन्न महासम्भूतियों ने  भी इसी गुण का सम्मान किया है । यही कारण है कि हमारे विभिन्न समारोहों और कार्यक्रमों में चर्याचर्य  में उल्लिखित निर्देशों के अनुसार ,  वरिष्ठ व्यक्तियों को अधिक से अधिक सम्मान दिया जाता है  ।

Tuesday, 16 June 2020

322 सबल और स्वस्थ समाज का निर्माण


इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि इस ग्रह पर अभी तक प्रबल और स्वस्थ मानव समाज का निर्माण नहीं हो पाया है। इसका मुख्य कारण है किसी आदर्श दर्शन का उपयुक्त प्रसार न होना। यद्यपि समय समय पर कुछ लोगों ने प्रबल और स्वस्थ मानव समाज की स्थापना करने का विचार किया परन्तु उनका प्रयास आदर्श की स्थापना के स्थान पर अपनी स्वयं की महत्ता को प्रतिष्ठित करने तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार आदर्श की स्थापना पीछे खिसक गयी और उन्होंने अपने आप को महात्मा और महापुरुषों के रूप में स्थापित कर पूजा जाना प्रारंभ करा दिया। अतः आदर्श के अभाव में प्रबल मानव समाज की स्थापना नहीं हो सकी और व्यक्तिगत जीवन में भी अनेक प्रकार के दोषों ने जन्म ले लिया।
इस धरती पर अनेक सन्त, ऋषि और महापुरुष आए और मनुष्यों  को धार्मिक शिक्षाएं दी परन्तु बार बार उनकी शिक्षाओं से किनारा कर केवल उनकी जादुई कहानियों और तथाकथित चमत्कारों को ही प्रचारित किया जाता रहा जिससे सबसे अधिक जन सामान्य को ठगा जाता रहा। 
जैसे, जब महासम्भूति ‘‘लार्ड शिव ’’ आये तब उन्होंने तन्त्रविज्ञान, ध्यान, संगीत, कला, समाज निर्माण आदि पर अनेक शिक्षायें दी। परन्तु ज्योंही  उन्होंने धरती को छोड़ा उनके अनुयायियों ने भगवान शिव के चमत्कारों और कहानियों को प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया और जनता को उनकी यथार्थ शिक्षाओं से वंचित कर उनके मन में "डोगमा" केन्द्रित अंधानुकरण भर दिया और वे उनकी शिक्षाओं के बिलकुल उल्टा करने लगे। धर्म साधना करने के स्थान पर वे उनकी मूर्तियां बनाकर पूजा करने लगे। इससे समाज का अहित हुआ, उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा, वह अंधानुकरण की ओर प्रवृत्त हो गया और शिव के द्वारा स्थापित आदर्श सदा के लिए भुला दिया गया । 
इसी प्रकार जब महासम्भूति ‘‘लार्ड कृष्ण’’ आये, उन्होंने  यम, नियम, आसन, प्राणायाम, योग और ध्यान आदि की शिक्षा दी परन्तु यही उनके साथ हुआ। उनकी जादुई कहानियों को तो प्रचारित किया गया परन्तु उनके आदर्श को भुला दिया गया। उनकी भी मूर्तियां बनाकर पूजा जाने लगा और उनकी शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत चलने के कारण समाज को अपार क्षति का सामना करना पड़ा। उनकी जादुई कथाओं के कारण उनकी सभी शिक्षाओं को भुला दिया गया और जनता अंधेरे में भटकने लगी। भगवान शिव और कृष्ण के द्वारा दिये गए दर्शन को उनकी जादुई कथाओं की तुलना में महत्व ही नहीं दिया गया अतः जनसाधारण उन्हें सीखने से वंचित हो गया।
‘‘लार्ड महावीर और बुद्ध’’ ने भी पशुओं की हत्या नहीं करने और शांति सद्भाव से धर्मसाधना करने की शिक्षा दी परन्तु उनके साथ भी यही हुआ। उनकी शिक्षाएं भुलाकर जादुई कहानियों में जन साधारण को उलझाया गया और यही कारण है कि वे सब उनकी शिक्षाओं के विपरीत ही कार्य करने लगे। उनकी मूर्तियाॅं बनाकर उनकी पशुओं के मास से ही पूजा करने लगे। इतना ही नहीं पश्चात्वर्ती अन्य महापुरुषों, चैतन्य महाप्रभु, कबीर आदि अनेक लोगों की शिक्षाओं का भी यही हाल हुआ।
सभी का कारण एक ही था कि उनके द्वारा स्थापित आदर्श का सही सही प्रचार और प्रसार नहीं किया गया । इसलिये सबल और स्वस्थ समाज निर्माण करने के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण  है सच्चे आदर्श की सही व्याख्या करना और उसका प्रचार प्रसार करना।

Sunday, 14 June 2020

321विभिन्न मतों पर चर्चा करना

विभिन्न मतों पर चर्चा करना
संसार  में प्रचलित अनेक मान्यताओं, मतों और उनसे जुड़ी आस्थाओं पर चर्चा करते समय मनोवैज्ञानिक विधियों का सहारा लिया जाना चाहिए। इस आधार पर ही उनमें प्रचलित उन तथ्यों, मान्यताओं और विश्वासों, जो प्रायः भावजड़ता या ‘डोगमेटिक’ होते हैं, पर तार्किक, विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक तरीके से निर्णय करने का अवसर जुटाया जा सकता है।  यह वही लोग कर सकते हैं जिन्होंने विवेकपूर्ण ढंग से तार्किक आधार पर दर्शनों का वैज्ञानिक अध्ययन कर उन्नत बौद्धिक स्तर प्राप्त किया हो। 
जब मानव मन भय मनोविज्ञान से दबा होता है तो वह तर्क से भागकर अंधानुकरण करने लगता है। यदि मानव के मन में व्याप्त इस भय को तर्क और यथार्थ कारण समझाते हुए दूर कर दिया जाए तब उसका अंधविश्वास दूर हो जाएगा। इसलिए इन व्याख्याकारों को संवेदनशील, व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर प्रवीण होना आवश्यक है, तभी धर्म के नाम पर हो रहे अंधानुकरण को रोका जा सकता हैं और भटकने वालों को नई और उचित दिशा दी जा सकती है। 
अब प्रश्न यह उठता है कि कुछ मतों में प्रचलित इस प्रकार के विचारों को किस प्रकार अनुकूल बनाया जा सकता है जिससे उनकी धार्मिक भावनाएं भी आहत न हों और उनके द्वारा किए जा रहे इस प्रकार के अव्यावहारिक और अमानवीय कार्यों की ओर वे गंभीरता से सोचने को विवश हो सकें।
धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुॅंचाने का अर्थ है उन व्यक्तियों के मुॅंह पर क्रूर आघात करना । जैसे, कोई हनुमान और गणेश की पूजा करने वालों से यह कहने लगे कि क्या मूर्खता करते हो, बंदर और हाथी की पूजा करते हो ! तो वह क्रोधित ही नहीं होगा वरन् मारने मरने के लिए तैयार हो जाएगा क्योंकि उनके पूजन से उन लोगों की धार्मिक भावनाएं गहरी जुड़ी होती हैं विशेषतः यह कि वे उन्हें वरदान देकर  इच्छाओं की पूर्ति करते हैं, रक्षा करते हैं। अतः यदि इस प्रकरण को आदर पूर्वक मनोवैज्ञानिक ढंग से, वहाॅं से प्रारंभ किया जाए जहाॅं से और जिस कारण से इस पूजा का उद्गम हुआ है और सावधानी पूर्वक तार्किक ढंग से समझाया जाय तो उन्हें इस संबंध में और अधिक जानने की जिज्ञासा होगी और धीरे धीरे यथार्थता को जान लेंगे। 
परन्तु यदि इन विधियों के स्थान पर अन्य का सहारा लिया गया तो उन पर उल्टा प्रभाव पढ़ेगा और वे भावजड़ता में और गहरे चले जाएंगे। इसलिए न तो किसी के धार्मिक विश्वास की व्यर्थ ही हॅंसी उड़ाना चाहिए और न ही उनकी भावनाओं पर आघात करना चाहिए। समाज को सही दिशा में ले जाने के लिए सभी लोगों को किसी भी तथ्य को स्वीकारने से पहले तर्क विज्ञान और विवेक के आधार पर निर्णय लेने के लिए प्रेरित करना ही उचित होगा।

Tuesday, 9 June 2020

320 मृत्यु के समय क्या होता है


जब मनुष्य के द्वारा इस शरीर में भोग पाने योग्य संस्कार क्षय हो जाते हैं तो वह अपना शरीर छोड़ देता है ताकि उसे पिछले जन्मों के सभी बचे हुए संस्कार और इस जन्म के नए अर्जित संस्कार भोगने योग्य दूसरा शरीर मिल सके। इस अवस्था में लोग कहने लगते हैं कि वह मर गया। देह रहित अवस्था में अब केवल बीज रूप में मन अपने चारों ओर संचित और अर्जित संस्कारों को लपेटे रहता है। अब उसके पास ब्रेन सैल्स और नर्व सैल्स नहीं रहते अतः वह किसी भी प्रकार की क्रियाएं नहीं कर सकता। उसे भोजन की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि भोजन शरीर को चलाने के लिए ही होता है और , जब शरीर बचा ही नहीं तो भोजन की भी आवश्यकता समाप्त । न तो वह कुछ सोच सकता है, न पाप कर सकता है और न पुण्य। मानसिक कार्य और विवेक आदि तो उसकी क्षमता में रहते ही नहीं हैं । उसका इस अवस्था में रहना अर्थहीन माना जाता है क्योंकि उसे मात्र  अपने संस्कारों के बोझ को ढोते रहना ही होता है। उसे करने के लिए कुछ नहीं होता वह शरीर के बिना असमर्थ होता है। उसके भीतर यह विचार भी नहीं आता कि उसे धार्मिक कार्य करना चाहिए क्योंकि वह नर्व सैल्स के अभाव में सोच ही नहीं सकता। 
जब, पूरे अन्तरिक्ष में भटकते हुए जहाॅं पर उसे पिछले जन्मों में संचित संस्कारों को भोगने के अनुकूल वातावरण मिल जाता है तब प्रकृति उसे तदनुकूल शरीर उपलब्ध करा देती है। इसलिए पुनः शरीर प्राप्त होने में कितना समय लगेगा यह निर्धारित नहीं होता। यह तो केवल संस्कारों की प्रकृति पर आधारित होता है कि उसे अगले ही क्षण नया शरीर प्राप्त हो सकता है या हजारों वर्ष के बाद। इसलिए यह स्पष्ट होता है कि मृत्यु के बाद मृतक से संबंधित और उसके नाम से किए जाने वाले कर्मकाॅंड या भोज या अन्य दान पुण्य कर्मों से उसे कुछ नहीं मिलता । वह कार्य केवल मृतक  के संबंधियों को अपने मन की शाॅंति के लिये ही हो सकता है या सामाजिक रीति रिवाज को जारी रखने के लिए बस । मृत्यु और कुछ नहीं, एक शरीर से दूसरे में जाने का रूपान्तरण है।

Friday, 5 June 2020

319 अन्धविश्वासों की प्रवृत्ति और उनका संरक्षण



भारत के सभी कोनों में व्याप्त ‘अन्धविश्वास‘ एक ऐसी विचित्र विधा है जो काल्पनिक देवी देवताओं की रचना करने में लगाई जाती है। जब जन सामान्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होता है तो वह अन्धविश्वास की ओर प्रवृत्त हो जाता है। जब अन्धविश्वास उगता है तब काल्पनिक देवी देवताओं की रचना कर ली जाती है और उन्हें उन लोगों की समस्याओं के समाधान करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। दुर्गा, सरस्वती , लक्ष्मी, गनेश, काली, सूर्य, जगन्नाथ और न जाने कितने देवता इसी प्रकार बनाए गए हैं।
अनेक प्रकरणों में लोगों को उपदेवताओं के प्रति भय के कारण भक्ति करने या कभी कभी कुछ पाने के लिए पूजा करते देखा गया है। जंगल में जाने से शेर का डर लगता है इसलिए ‘‘वनदेवी‘‘ की कल्पना शेर के भय से मुक्त करने के लिये की गई। हैजा से बचने के लिये ‘‘ओलाइ चंडी‘‘, बड़ी माता से बचने के लिए ‘‘शीतला देवी‘‘ साॅंपों सें बचने के लिए ‘‘मनसा देवी‘‘ की कल्पना की गई। इन्हें उपदेवता भी कहा जाने लगा। घर में पूरे वर्ष सुख समृद्धि बनी रहे इसलिए गृहणियाॅं ‘ लक्ष्मी देवी की पूजा करती है। शान्ति अनुष्ठान के सम्पन्न होने के लिए ‘सेतेरा और सुवाचनी देवी‘ की पूजा की जाती है। बच्चों की भलाई के लिए ‘षष्ठी और नील देवी की तथा बीमारी से बचने के लिए श्मशानकाली और रक्षकाली‘ की पूजा की जाती है। संस्कृत में इन्हें उपदेवता कहा गया है क्योंकि वे परमपुरुष नहीं हैं। अर्थात् आध्यात्मिक संसार में उन्हें ध्यान करने के लिए लक्ष्य नहीं माना गया है। 
इसी प्रकार मंगला चंडी, आशानबीबी, सत्यपीर आदि भी हैं। उपदेवताओं को लौकिक देवी देवता भी कहा जाता है जिनमें से किन्हीं किन्हीं का लौकिक भाषा में ही ध्यानमन्त्र भी बना लिया गया है। अनेक मामलों में जैनोत्तर और बुद्धोत्तर काल में इन धर्मों के देवी देवताओं ने भी उपदेवताओं का स्थान पा लिया।
कुछ लोग भूतों को भी भय के कारण उपदेवता कहते पाए जाते हैं अर्थात् वे उन्हें छोटे देवी या देवता की तरह पूजने लगते हैं अन्यथा वे नाराज हो कर अहित कर देंगे। परन्तु संस्कृत में उपदेवता का अर्थ भूत नहीं है, भूत के लिए अपदेवता शब्द उच्चारित किया गया है। ‘उप‘ का अर्थ होता है ‘निकट‘ जबकि ‘अप‘ का अर्थ होता है ‘ बिलकुल उल्टा‘ । इसलिए अपदेवता का अर्थ हुआ ‘जिसकी प्रकृति देवता के बिलकुल विपरीत है।‘

वे आध्यात्मिक साधक जो ज्ञान, कर्म और भक्ति का रास्ता पकड़ कर आगे बढ़ते हैं वे किसी भी काल्पनिक देवता या उपदेवता की शरण में नहीं जाते वे तो केवल एकमेव परमपुरुष की ही साधना और उपासना करते हैं।