जब मनुष्य के द्वारा इस शरीर में भोग पाने योग्य संस्कार क्षय हो जाते हैं तो वह अपना शरीर छोड़ देता है ताकि उसे पिछले जन्मों के सभी बचे हुए संस्कार और इस जन्म के नए अर्जित संस्कार भोगने योग्य दूसरा शरीर मिल सके। इस अवस्था में लोग कहने लगते हैं कि वह मर गया। देह रहित अवस्था में अब केवल बीज रूप में मन अपने चारों ओर संचित और अर्जित संस्कारों को लपेटे रहता है। अब उसके पास ब्रेन सैल्स और नर्व सैल्स नहीं रहते अतः वह किसी भी प्रकार की क्रियाएं नहीं कर सकता। उसे भोजन की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि भोजन शरीर को चलाने के लिए ही होता है और , जब शरीर बचा ही नहीं तो भोजन की भी आवश्यकता समाप्त । न तो वह कुछ सोच सकता है, न पाप कर सकता है और न पुण्य। मानसिक कार्य और विवेक आदि तो उसकी क्षमता में रहते ही नहीं हैं । उसका इस अवस्था में रहना अर्थहीन माना जाता है क्योंकि उसे मात्र अपने संस्कारों के बोझ को ढोते रहना ही होता है। उसे करने के लिए कुछ नहीं होता वह शरीर के बिना असमर्थ होता है। उसके भीतर यह विचार भी नहीं आता कि उसे धार्मिक कार्य करना चाहिए क्योंकि वह नर्व सैल्स के अभाव में सोच ही नहीं सकता।
जब, पूरे अन्तरिक्ष में भटकते हुए जहाॅं पर उसे पिछले जन्मों में संचित संस्कारों को भोगने के अनुकूल वातावरण मिल जाता है तब प्रकृति उसे तदनुकूल शरीर उपलब्ध करा देती है। इसलिए पुनः शरीर प्राप्त होने में कितना समय लगेगा यह निर्धारित नहीं होता। यह तो केवल संस्कारों की प्रकृति पर आधारित होता है कि उसे अगले ही क्षण नया शरीर प्राप्त हो सकता है या हजारों वर्ष के बाद। इसलिए यह स्पष्ट होता है कि मृत्यु के बाद मृतक से संबंधित और उसके नाम से किए जाने वाले कर्मकाॅंड या भोज या अन्य दान पुण्य कर्मों से उसे कुछ नहीं मिलता । वह कार्य केवल मृतक के संबंधियों को अपने मन की शाॅंति के लिये ही हो सकता है या सामाजिक रीति रिवाज को जारी रखने के लिए बस । मृत्यु और कुछ नहीं, एक शरीर से दूसरे में जाने का रूपान्तरण है।
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