Saturday, 25 December 2021

364 अंधविश्वास


मन का स्वभाव ही यह होता है कि वह वैसा ही आकार ले लेता है जिसके संबंध में वह सोचता है । अंधविश्वास चाहे सामाजिक हो या मानसिक या आध्यात्मिक वह मन को चिंता में डाल कर कष्टों की ओर धकेल देता है। उसका मानसिक संतुलन इस प्रकार विगड़ जाता है कि वह अपनी शांति ही नहीं खोता वरन् वह इस प्रकार के काम भी कराने लगता है जो उसके स्वयं के लिए हानिकारक होते हैं। अंधविश्वास अपना पोषण स्वयं ही करता जाता  है क्योंकि इस पर विश्वास करने वाले लोग छोटी छोटी सी घटनाओं को इस प्रकार बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं कि दुलर्क्षण भी अच्छे लगने लगते हैं। मन के इसी लक्षण के कारण लोगों को भूत दिखाई देते हैं जो कि मन की ही रचनाएं होते हैं। भूतों का रहस्य यह है कि यदि भूत देखने वाला व्यक्ति भूत को पकड़ने का साहस कर ले  तो तत्काल समझ जाएगा कि वह तो कुछ नहीं को सब कुछ समझ रहा था।

सामाजिक स्तर पर डाइन, जादूगरनी, विधवाओं के साथ भेदभाव आदि के रूप में, मानसिक स्तर पर भूतों के रूप में, श्राद्ध त्योहारों के रूप में, और आध्यात्मिक स्तर पर स्वर्ग और नर्क की अवधारणाओं के रूप में अन्धविश्वास ने गहरी जड़े जमा रखी हैं। अमीर गरीब, प्रकांड विद्वान और निरक्षर, सहित अधिकॉंश जनसंख्या का इसने गला पकड़ रखा है। सामाजिक और व्यक्तिगत शान्ति संरक्षित रखने के लिए हमें प्राथमिकता से इसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए।

हमारे देश के तो वैज्ञानिक भी इनसे नहीं बच पाए हैं, जैसा कि हर अच्छे काम के प्रारंभ में चाहे धंधा हो, राजनीति हो फिल्मों का उदृघाटन हो, या सेटेलाइट का प्रक्षेप हो तथाकथित पूजा और नारियल फोड़ने का कार्य अवश्य किया जाता है। यह एक संयोग भी कहा जा सकता है कि भारत का पहला मंगल यान मंगल के दिन ही असफल होकर गिर गया था भले ही इसरो के चेयरमेन के0 राधाकृष्णन ने प्रक्षेपित करने के एक दिन पहले तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर में विधिविधान से उसकी सफलता के लिए पूजा की थी। उनसे जब इस विषय पर चर्चा की गई तब वह बोले कि वह तो अपने पूर्ववर्ती जी0 राधवन नायर का ही अनुकरण कर रहे थे जो अपने कार्यकाल में हर सेटेलाइट के प्रक्षेपित होने के पहले पूजा किया करते थे। नेशनल स्टाक एक्सचेंज जैसे व्यवसाय में भी लक्ष्मी जी की उचित मुहूर्त में पूजा की जाती है। ज्योतिषियों के अनुसार मुहूर्त वह समय होता है जब ग्रहों की स्थिति सभी प्रकार की बाधाओं को और संकटों को दूर करने के लिए अनुकूल होती है। कई लोग मुहूर्त में सांकेतिक रूप से अपने थोड़े से धन से धंधा प्रारंभ कर देते हैं और मानते हैं कि अब साल भर शुभत्व बना रहेगा, दीवाली मुहूर्त का इसीलिए बड़़ा ही महत्व माना जाता है? किसी भी नई फिल्म को दिखाने के पहले मुहूर्त में उसकी पूजा की जाती है। चुनावों के समय नेता भी अलग अलग धर्मों के प्रसिद्ध स्थानों पर जाकर पूजा अर्चना करते पाए जाते हैं। केलेंडर में इन मुहूर्तों को अलग से दर्शाया जाता है।(1)

आस्था, मान्यता और परम्परा के नाम पर इस प्रकार के अंधविश्वास हमारे ही देश में नहीं अन्य देशों में भी देखे जाते हैं। अमेरिका में बास्केटवाल का कोच यह मांग रखता है कि हर खेल के पहले उसके खिलाड़ी स्टीक और सालम का एक सा भोजन खायेंगे। कुछ कोच जीतने की प्रवृत्ति के प्रभाव में एक ही स्वेटर हर खेल में बिना धोए ही पहिनना अच्छा मानते  हैं । कुछ खिलाड़ी खेल के पूर्व भोजन करते समय यह मांग रखते हैं कि उनका सेंडविच तिर्यक रूप से बिलकुल एक समान काटा जाना चाहिए। कुछ खिलाड़ी जीतने तक अपनी दाढ़ी बढ़ाये रहते हैं। लकड़ी को खटखटाना, तारे को नमस्कार करना, दर्पण को तोड़ना, चार पत्तों वाली वनमैथी को रखना, घर के भीतर छाता न खोलना, भाग्यशाली सिक्का रखना, जब छींक आए तब शुभ हो कहना आदि, अनेक प्रकार के अंधविश्वासों से अमेरिका की लगभग आधी जनता  अंधविश्वास पालती है। अनेक लोग अंधविश्वास करते है क्योंकि जीवन अनिश्चित होता है और जब हम चाहते हैं कि कुछ घटित हो और उसके होने की निश्चितता नहीं होती तो वे उसे वैसा ही मान लेते हैं। अंधविश्वास हमें  उस अवस्था में नियंत्रण करने की भावना देता है जहॉं हम नियंत्रित नहीं हो पाते।(1) (2)

विश्व के कुछ दर्शन अपने ही समाज को सिखाते हैं कि केवल वे और उनका समाज ही ईश्वर के लिए प्रिय है अन्य सभी अप्रिय और अभिशप्त। इस प्रकार के दोषपूर्ण शिक्षण से उस समाज के लोग अन्य समाजों के निरपराध व्यक्तियों के लिए समाप्त कर देना पवित्र कार्य मानते हैं । वे इन निरपराध लोगों के खून में स्नान कर अपने को पवित्र, धन्य और मुक्त मानते हैं। उनका दर्शन इस प्रकार का है कि दूसरों को मदद करना, रक्षा करना आदि सद्गुणों का उपयोग वे अपने ही समाज के लोगों के साथ करते हैं दूसरे समाज के लिए नहीं। इस प्रकार की अपंग व्याख्या ने जानबूझकर लोगों को धर्म का सही अर्थ जान पाने से वंचित कर दिया है । वे मानवीय गुणों से भटक रहे हैं तथा एक दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। कुछ झूठे दर्शनों के पालनकर्ता तर्क देते हैं कि अपनी बुद्धि का उपयोग करना क्या बुरा है? हम अपनी बुद्धि से पराक्रम कर धन अर्जित करते हैं तो क्या बुरा है? इस प्रकार के परजीवियों ने लाखों लोगों के हक पर अतिक्रमण कर अपने को महलों में स्थापित कर लिया है और असंख्य लोग अपने अस्थिपंजर के साथ आसमान के नीचे बसर करने को विवश हैं। इस प्रकार के लोगों ने ही जनसामान्य को नैतिकता और धर्म से हटाकर भौतिकवाद की मरीचिका वाले सुखों की ओर भटका दिया है। (3) 

संदर्भ

(1) विकीपीडिया ।

(2) याहू हेल्थ, स्टुआर्ट वायस, साइक्लाजी आफ सुपरस्टीशन।

(3) नमः शिवाय शान्ताय, प्रवचन 14


Tuesday, 21 December 2021

363 गान्धारी

गान्धारी

महाभारत काल में ‘कान्दाहार’ नामक क्षेत्र को भारत का प्रत्यन्तदेश अर्थात् सुदूर सीमावर्ती देश कहा जाता था। यहॉं के सामाजिक रीति रिवाज भारत जैसे ही थे परन्तु यह भारत के अन्तर्गत नहीं था। उस समय लोग सहज नैतिकता का पालन करते थे। गान्धारी, कान्दाहार (संस्कृत में गान्धार) देश की महिला थीं। महाभारत में अनेक महिलाओें के नाम आए हैं परन्तु विशेष विवरण कुन्ती या द्रौपदी के बारे में ही मिलता है वह भी उनकी कष्टों की सहनशीलता के संबंध में, परन्तु गान्धारी का चरित्र सबसे भिन्न है। यह सर्वविदित है कि गान्धारी को जब पता चला कि उनका पति जन्मान्ध है तो उन्होंने अपनी आंखों पर यह कहते हुए पट्टी बांध ली कि जब मेरा होने वाला पति संसार को देख ही नहीं सकता तो वह भी क्यों देखे। यह उनकी सहज नैतिकता ही कही जाएगी कि उनके आंसू आजीवन इसी पट्टी में सूखते रहे। कुछ विद्वान इस कार्य से उनकी आलोचना करते पाए जाते हैं कि उनके द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिये जाने के कारण उनके पुत्र विगड़ गए और सामाजिक बुराई के पर्याय बन गए। इस कथन को ठीेक मान भी लें तो भी उनका यह व्रत क्या कठोर नैतिक बल को प्रदर्शित नहीं करता? वह भगवान कृष्ण के चरित्र के महत्व से विशेष रूप से अवगत थीं और उनकी भक्त थीं। गान्धारी ने अपनी आंखों के ऊपर बंधी पट्टी केवल दो बार खोली। पहली बार अपने स्वामी धृतराष्ट्र के निर्देश पर और दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिये।

युद्ध प्रारंभ होने के समय धृतराष्ट्र ने दुर्योधन और उसके भाइयों को निर्देश दिया कि वे अपनी माता के पास जाकर उनसे सस्नेह दृष्टिपात करते हुए युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद मांगे ताकि उनके मानस शक्तिसम्पात से उन सबकी देह लोहे की तरह कठोर हो जाय। प्रारंभ में गान्धारी यह करने को अनिच्छुक थीं पर जब स्वयं धृतराष्ट्र ने गान्धारी को ऐसा करने का निर्देश दिया तब उन्होंने मान लिया और कुछ क्षणों के लिये पट्टी खोल दी। यह उनकी स्वामी भक्ति प्रदर्षित करती है पर इससे बढ़कर उनका उन्नत चरित्र अपने पुत्रों को दिये गये आशीर्वाद से स्पष्ट होता है। क्या आप जानते हैं कि उन्होंने अपने पुत्रों को ‘विजयी भव’ नहीं कहा वरन् यह कहा कि ‘‘यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः।‘‘ स्पष्टतः यह उनकी चारित्रिक दृढ़ता ही नहीं धार्मिकता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। 

दूसरी बार गान्धारी ने पट्टी खोली थी कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद जब पूरा कुरुक्षेत्र महाश्मशान में बदल गया था और गान्धारी की सभी विधवा पुत्रवधुएं अपने अपने पति की मृत देह के पास खड़ी हुई विलाप कर रहीं थी। माता कुन्ती के साथ वहां पर गान्धारी आईं, पांडव भाई और भगवान कृष्ण भी वहॉ उपस्थित थे। यहॉं पर उनके वार्तालाप पर विचार कीजिए-

कृष्ण ने गान्धारी को सान्तवना देते हुए कहा ‘‘माता! आप क्यों रोती हैं, पृथ्वी का यही नियम है, हम सभी एक दिन पृथ्वी छोड़ कर चले जाएंगे अतः विलाप क्यों?’’ गान्धारी ने कहा‘‘ कृष्ण ! तुम मुझे व्यर्थ ही सान्तवना दे रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता।’’ कृष्ण ने कारण जानना चाहा। गान्धारी ने कहा,‘‘ तुम यदि यह परिकल्पना न करते तो मेरे पुत्रों का प्राणनाश नहीं होता।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘धर्म की रक्षा करने और पाप के विनाश हेतु यह करना अनिवार्य हो गया था मैं इसमें क्या कर सकता था, मैं तो यंत्र मात्र हॅूं।’’ गान्धारी बोली, ‘‘ कृष्ण तुम तो ‘तारक ब्रह्म’ हो अगर चाहते तो युद्ध किये बिना ही मेरे पुत्रों के मनोभाव में परिवर्तन ला सकते थे।’’ बोलने को बहुत कुछ था परन्तु कृष्ण चुप रहे क्योंकि वास्तव में वह चाहते थे कि गान्धारी को भी भीष्म पितामह की तरह कठोर नीतिवादी होने का गुरुत्व मिले।  

इससे गान्धारी के मन में उमड़ रहा क्र्रोध किस स्तर पर रहा होगा इसका अंदाज लगाना किसी को भी कठिन नहीं है परन्तु उसे व्यक्त करने के लिये उन्होंने अपनी सीमा नहीं तोड़ी। वह जानती थी कि कृष्ण तारक ब्रह्म हैं अतः कुछ भी करने के पहले उनसे स्वीकृति लेना आवश्यक है इसलिए बोली, ‘‘ कृष्ण! मैं तुम्हें श्राप देना चाहती हॅूं’’। कृष्ण भी तत्काल बोले, ‘‘आज्ञा करें माता!’’  इसके बाद गान्धारी ने कृष्ण को अभिशाप दिया कि ‘‘ जैसे मेरे परिवार के सदस्यगण मेरी ही आंखों के सामने ध्वंस हो गए वैसे तुम्हारा वंश भी ध्वंस हो जाय’’ कृष्ण ने भी तत्क्षण स्वीकार करते हुए कहा ‘‘एवमस्तु’’ अर्थात् यही हो। और, हुआ भी वही। यदि वे स्वीकार न करते तो अवस्था दूसरे प्रकार की होती। कृष्ण ने उनका श्राप इसलिये स्वीकार कर लिया क्योंकि वह चाहते थे कि नैतिक षक्ति को जनजीवन में गुरुत्व एवं स्वीकृति मिले। 


Tuesday, 7 December 2021

362 द्रौपदी

 महाभारत कालीन द्रौपदी के संबंध में कुछ विद्वानों को अनेक प्रकार के भ्रम पैदा हो गए हैं और वे साहित्य की मनमानी व्याख्या कर दूसरों को भी भ्रमित करते देखे जा सकते हैं। इस संबंध में मेरा विचार इस प्रकार है-

1. हमारे समृद्ध प्राचीन संस्कृत साहित्य की सौदर्य हैं उसके छंद, अलंकार, अन्योक्तियॉं, व्यंग्योक्तियॉं और अतिशयोक्तियॉं। इन पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिये बिना उसका रसास्वादन कर पाना कठिन है। अन्य तथ्य यह भी है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व में घटित घटनाओं का अध्ययन यदि हम आज के संदर्भ में करना चाहते हैं तो हमें मनोयोग से उस काल की सामाजिक व्यवस्थाओं, प्रचलित प्रथाओं, मान्यताओं, भौगोलिक और सांस्कृतिक विषमताओं पर  अपने विवेकपूर्ण चिंतन को ले जाना होता है अन्यथा स्वयं भ्रमित होते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते हैं।‘‘द्रौपदी के पांच नहीं एक ही पति था,’’ इस लेख के लेखक ने भी यही भूल की है। 

2. सर्वविदित है कि वैदिक युग में तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था में बहुपति प्रथा, बहुपत्निप्रथा, बहुसंतान प्रथा, नियोग प्रथा आदि की सामाजिक स्वीकृति थी भले ही आज के समाजविज्ञान की दृष्टि से इसे उचित नहीं कहा जा सकता। महाभारत काल के आने तक नियोग प्रथा, बहुपत्नि प्रथा और बहुसंतान प्रथा प्रचलन में बनी रही, पर बहुपति प्रथा कुछ जनजातीय राज्यों जैसे तत्कालीन उत्तर भारत की मंगोल जाति जिसे पिशाच कहा जाता था, में प्रचलित थी। आज भी तिब्बत और लद्दाख की कुछ जातियों में यह पाई जाती है। महाभारत के सभी पात्रों की एक से अधिक पत्नियॉं, बहुत संतान या नियोगज सन्तान और कुछ पात्रों में बहुपतियों का पाया जाना तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप ही था जिसे अनुचित नहीं माना जा सकता। धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर तथा पांचों पांडव नियोगज संतान ही थे। कुन्ती के वैवाहिक पति पांडु थे परन्तु विवाह पूर्व उन्होंने सूर्य से कर्ण और विवाह के बाद यम से युधिष्ठिर, वायु से भीम और अग्नि से अर्जुन को जन्म दिया। इस प्रकार उनके भी पांच पति हुए।

3. द्रौपदी थीं पांचाल देश (गंगा के उत्तरी में हिमालय के ऊपरी क्षेत्र से आज के बुदौन, फर्रुखाबाद तथा उत्तरप्रदेश के इस भाग से जुडे़ जिलों तक फैला जनजातीय भूभाग) के नरेश द्रुपद की पुत्री जिसका नाम कृष्णा था पर द्रुपद की पुत्री के कारण लोग द्रौपदी और पांचाल देश की पुत्री होने के कारण पांचाली नाम से भी पुकारते थे। यह सही है कि पांचों पाडव भाई  द्रौपदी के पति थे जिनसे प्रत्येक से क्रमशः एक एक वर्ष के अन्तर पर एक एक पुत्र थे जिनके नाम हैं, प्रतिविन्ध्य, सुतलोक, श्रुतकर्म, शतनिक और श्रुतसेन। महाभारत के आदिपर्व के हराहरण पर्व के अध्याय 220 में द्रौपदी के पॉंचों पुत्रों और अभिमन्यु के जन्म संस्कार के वर्णन में यह दिया गया है। द्रौपदी और कुन्ति दोनों ही पंचकन्याओं में स्थान पाती हैं क्योंकि वे दोनों ही श्रीकृष्ण की अनन्य भक्त थीं।

4. लेखक द्वारा जिन श्लोकों का उद्धरण देकर अपना मत पुष्ट करना चाहा गया है उन्हें स्पष्ट करते समय तात्कालिक परिस्थतियों (अज्ञातवास) और साहित्यिक व्यंगोक्तियों पर ध्यान नहीं दिया जाकर एक पक्षीय रूपान्तरण कर दिया गया है। भीम और द्रौपदी के संवाद में द्रौपदी का कथन ‘‘ क्या पूछते हो! युधिष्ठिर की पत्नि होकर दुख न पाऊं, यह कैसे हो सकता है?’’ यह व्यंगोक्ति नहीं तो और क्या है? कीचक के सामने भीम का कथन, ‘‘ आज मैंने अपने भाई की पत्नि का अपमान करने वाले को दंड देकर उऋण हो मन को शांत किया।’’ यह भी लेखक ने स्थान और परिस्थिति पर ध्यान न देकर अपने एकपक्षीय चिंतन के समर्थन में मान लिया जबकि सर्वविदित है कि राजा विराट के पास ये सभी अपनी पहिचान छिपाकर नाम बदलकर युधिष्ठिर को बड़ा भाई और द्रौपदी को उनकी पत्नी बताकर संरक्षण पाये थे। जरा सोचिए कीचक के सामने क्या वे अपने को द्रौपदी का पति बताकर उक्त कथन को कह सकते थे?


Wednesday, 1 December 2021

361 नजर

 361

निशिदिन 

व्यस्त वंचनाओं में 

सुनते कर्कश कलरव,

मृत्यु समय पर्यन्त 

सुसज्जित

गीततान न गा पाई।


तरस तरस कर 

धीरज धर धर 

मन को बोध कराके,

झॉंकी भी 

जिनने न कभी उन दिव्य 

कल्पनाओं की देखी।


दत्तचित्त रह 

नित्य परिश्रम में 

निज को न निहारा,

सुना उलहना 

निठुर भूख का 

आस ‘शॉंत‘ की देखी।


ध्यान जरा 

उनका भी कर लो 

धन अट्टालिका वालो,

जिनने कभी स्वप्न में भी 

निज तन पर 

नजर न फेकी।


सब कहते हैं 

झुग्गियॉ जिनको

वे हैं उनकी जगहें,

शामें जिनकी थकी हुई हैं

कराह रहीं हैं सुबहें।


मान शहर का ‘दाग‘

मिटाने तुले 

लोग.. 

उनकी दिया बत्ती, 

सृष्टि के इस अभिन्न अंग की 

करुण दशा को 

सदा ही घेरे नई विपत्ति।


आज तुम्हारा 

जो है अपना

कल होगा औरों का,

इसे समझ कर आज, 

अभी से

करो मदद इन सबकी।

- डॉ टी आर शुक्ल, सागर मप्र।

10ः05ः1970