Monday, 25 July 2022

386 महेशं रजतगिरिनिभं रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम् परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् शिव :

 

संस्कृत में नियंत्रक को ईश्वर कहते हैं। संसार के छोटे बड़े सभी मामलों में हर स्तर के नियंत्रक होते हैं जो विभिन्न अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। पर, जो अत्यंत तेज मस्तिष्क वाला, दूरद्रष्टा और सबके प्रति हृदय में असीम करुणा और स्नेह से भरा हो वह इन छोटे, मध्यम और बड़े सभी नियंत्रकों का नियंत्रण कर सकता है। शिव सबको नियंत्रित करते थे अतः उन्हें महेश्वर कहा गया है।(महेशम्)

वर्फ की तरह सफेद रैवतक पर्वत पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो वह जिस प्रकार चमकता है वैसे ही शिव का शरीर चॉंदी की तरह चमकता था।(रजतगिरिनिभम्)

क्या शिव केवल सफेद रंग के ही थे? नहीं, उनका सारा शरीर उस दिव्य अमृत के क्षरण से चमकता था और मध्यान्ह के सूर्य की भांति इस प्रकार प्रभावित करता था कि जैसे उनके शरीर से अनेक हीरे जवाहारात चमक रहे हों (रत्नाकल्पोज्ज्वलांगम्) न केवल चमकदार वरन् उनका शरीर कोमल और सुगंधित भी था। 

दुष्टों की दुष्टता को दबाने के लिये शिव हाथ में फरसा लिये रहते थे तथा सभी मनुष्यों पौधों और पशुओं की देखभाल अपने बच्चों की तरह करते थे। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मृग शब्द को संस्कृत के समानार्थी सामान्य पशु के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है केवल मृग अर्थात् हिरण के अर्थ में नहीं। मृग का अर्थ है कोई भी पशु, जैसे, शाखमृग का मतलब है बंदर क्योंकि वह शाखाओं पर रहता हैं, मृगचर्म का मतलब है किसी भी जंगली पशु का चर्म, मृगया का अर्थ है किसी भी जंगली पशु का शिकार करना आदि आदि। इस प्रकार सभी पशु और मानव खतरे के समय शिव की शरण में आकर सुरक्षा अनुभव करते थे और शिव भी सबको निर्भय रहने का वरदान देने की मुद्रा में रहते थे। शिव जो कि स्वयं की सुख सुविधाओं के प्रति बिलकुल उदासीन रहते थे वे किसी के आंसू नहीं देख सकते थे उसे सब सुविधायें उपलब्ध करा देते थे। चाहे वह दुष्ट  ही क्यों न हो यदि उसकी आंखों में आंसू दिखते तो शिव उसके शुद्धीकरण का रास्ता बताते और वरदान भी दे देते थे, (परशुमृगवराभीतिहस्तं)।

प्रत्येक परिस्थिति में वह अपना मानसिक संतुलन बनाकर रखते थे, कितनी ही विकट स्थिति क्यों न हो उनके चेहरे से प्रसन्नता ही झलकती थी। इतिहास में इस प्रकार का सदा हंसमुख चेहरा दुर्लभ है,(प्रसन्नम्) ।


Thursday, 21 July 2022

385 व्याघ्रकृत्तिमवसानम और विश्वाद्यम् विश्वबीजम शिव


शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘व्याघ्रकृत्तिमवासनम्’ कहा गया है। व्याघ्र का अर्थ है शेर या ‘टाइगर’, कृत्तिम का अर्थ है चर्म या चमड़ा और वसानम् का अर्थ है वस्त्र या पहनावा। अर्थात् वे शेर के चमड़े को पहना करते थे। जैन दर्शन के प्रभावी काल में कुछ अज्ञानियों ने शिव को दिगम्बर मान लिया जब कि ध्यान मंत्र में स्पष्ट है कि वे व्याघ्रचर्म पहना करते थे, इसी कारण अनेक नामों में से उनका एक नाम ‘कृत्तिवास‘ भी है। 

इसी मंत्र में उन्हें विश्वाद्यम् और विश्वबीजम् भी कहा गया है। विश्वाद्यम् अर्थात् विश्व आद्यम् अर्थात् विश्व में सबसे पहले। और विश्वबीजम् अर्थात् विश्व को उत्पन्न करने के बीज स्वरूप। शिव को परमपुरुष मानने का कारण यह है कि उनमें परमसत्ता के सभी गुण हैं और वे हमारे बिल्कुल निकट हैं अतः उन्हें परमपिता कहना न्यायसंगत है। वे पुरुषोत्तम हैं, प्रथम पुरुष है, परम शिव हैं और वे विश्वाद्य अर्थात् बृह्मॉंड के उद्गम है। विश्व के उद्गम का कारण भी इन्हीं प्रथम पुरुष में है, आदिशिव ही अपने निष्कलत्व को सकलत्व में मात्र इच्छा से ही रूपान्तरित कर देते हैं। आदिशिव की इच्छा के विना प्रकृति कोई भी रचना नहीं कर सकती। इसलिये विश्व के मूल कारण आदिशिव हैं न कि प्रकृति। ध्यान मंत्र में यह स्पष्ट कहा है कि शिव ही विश्व के बीज हैं।


Sunday, 17 July 2022

384 चारुचंद्रावतंसं शिव

 

शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘‘चारुचंद्रावतंसं’’ अर्थात् सुंदर चंद्रमा (चारुचंद्र) जिनका मुकुट(अवतंस) है ऐसा कहा गया है। क्या सचमुच शिव के सिर पर चंद्रमा का मुकुट था? इस संबंध में सच्चाई को इस प्रकार समझ सकते हैं, मानव शरीर में सूक्ष्म ऊर्जा के अनेक केन्द्र और उपकेन्द्र हैं जिन्हें चक्र या पद्म या ऊर्जा केन्द्र कहते हैं इन चक्रों से विभिन्न प्रकार के हारमोन्स उत्सर्जित होते रहते हैं जो विभिन्न वृत्तियों को नियंत्रित करते हैं। इन वृत्तियोंके नियंत्रक विंदु जिनकी संख्या 50 है वे इन 9 चक्रों में अपने अपने रंग और ध्वनि के साथ स्थित होते हैं। ये पचास ध्वनियां ही मूल स्वर और व्यंजन के रूप में हम सभी उच्चारित करते हैं। सामान्यतः उच्च स्थित चक्र से निकलने वाला हारमोन निम्न स्थित चक्रों को अपने रंग और ध्वनि से प्रभावित करता है। सर्वोच्च स्थित सहस्रार चक्र निम्न स्थित सभी चक्रों को प्रभावित कर 1000 वृत्तियोंको नियंत्रित करता है। सहस्रार से निकलने वाला यह हारमोन मानव मन और हृदय को अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति कराता है जिससे आत्मिक उन्नति होती है और मनुष्य विचारमुक्त अवस्था में आ जाता है। यह दिव्य अमृत प्रत्येक व्यक्ति के सहस्रार से निकलता रहता है पर मनुष्यों का मन प्रायः भौतिकवादी मामलों या वस्तुओं के चिंतन में ही उलझा रहता है इसलिये वह वहीं पर अवशोषित हो जाता है नीचे के चक्रों को प्रभावित नहीं कर पाता है। परंतु यदि इस हारमोन के उत्सर्जन के समय व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन में मन को लगाये रहे तो वह आध्यात्मिक उन्नति कर आनंददायी बेहोशी का अनुभव करता है और बाहर से लोग उसे देखकर समझने लगते हैं कि यह तो शराबी है। शिव हमेशा इसी उच्च अवस्था में ही रहते थे अतः अनेक लोग जो भांग, अफीम आदि का नशा किया करते थे वे प्रचारित करने लगे कि शिव भी इन नशीली चीजों का उपयोग करते हैं। अन्य लोग सोचते थे कि चंद्रमा की 16 कलाओं में से प्रतिपदा से पूर्णिमा तक प्रतिदिन एक एक दिखाई देती है पर सोलहवीं कभी नहीं। इसी सोलहवीं कला से अमृत निकलता है, इसे ‘अमाकला‘ नाम भी दिया गया है। इसी से निकलने वाले अमृत के प्रभाव से शिव अपने आप में ही मग्न रहा करते हैं इसलिये अनेक लोगों का मत था कि यह अद्रश्य सोलहवीं चंद्र कला शिव के ही मस्तक पर होना चाहिये, इसीलिए उन्हें ‘‘चारुच्रद्रावतंसं’’ कहा गया है। सहस्रार के इस दिव्य अमृत के उत्सर्जन से शिव अपने वाह्य जगत और अन्य आवश्यकताओं से अनजान,  भोलेभाले दिखाई पड़ते थे अतः उन्हें लोग भोलानाथ भी कहने लगे थे।


Friday, 15 July 2022

383 हिप्नोटिज्म अर्थात् ‘आउटर सजैशन’’

  

मनोविज्ञान(साइक्लाजी) में, जब किसी एक व्यक्ति के ‘मन’ के द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर लगातार विशेष प्रकार के संवेदनों की आवृत्तियॉं डाली जाती हैं तब इसे ‘‘आउटर सजैशन’’ कहा जाता है। जब बाहरी संसार की वस्तुओं की तथ्यात्मकता को हमारे ब्रेन के ‘‘एक्टोप्लाज्मिक’’ सैलों द्वारा विषयगत बना लिया जाता है तो हम कहते हैं कि हमने उसे जान लिया या समझ लिया है। यदि इन एक्टोप्प्लाज्मिक सैलों की ऊर्जा या ज्ञान शक्ति को किसी व्यक्ति विशेष के मन पर केन्द्रित कर दिया जाय तो वह व्यक्ति भी वही सोचेगा और समझेगा जो एक्टोप्लाज्मिक सैलों को नियंत्रित करने वाला व्यक्ति समझाना चाहेगा। ज्ञान का यह क्षेत्र ‘योग मनोविज्ञान’ के अन्तर्गत आता है और यह विद्या संस्कृत में राक्षसी विद्या और अंग्रेजी में ‘हिप्नोटिज्म’ कहलाती है। कुछ लोग इन सैलों के नियंत्रण का अभ्यास कर उसका दुरुपयोग करने लगते हैं और भूतप्रेतों के नाम से लोगों को डराने लगते हैं। बाहरी संसार में उनकी गतिविधियों के प्रभाव अनुभव भी किये जाते हैं। इनसे मुक्त होने का एक मात्र उपाय है उस व्यक्ति के एक्टोप्लाज्मिक सैलों के संतुलन को बिगाड़ देना। परन्तु कैसे? इसका एक दृष्टान्त रामायण में इस प्रकार दिया गया है। 

‘‘अंगद जब रावण से मिलने पहंॅुचे तो दरवार में रावण के साथ साथ उन्नीस मंत्री और रावण का पुत्र इंद्रजीत अर्थात् मेघनाथ बैठे थे। सभी मंत्रियों ने अंगद को भ्रमित करने के लिए एक साथ सोचना प्ररंभ कर दिया कि उनका आकार भी रावण के समान हैं। सबों के मन से निकलने वाली मानसिक तरंगों ने अंगद के मन को चक्कर में डाल दिया, उसे बीस रावण दिखाई देने लगे। मेघनाद मंत्रियों की तरह नहीं सोच रहा था अतः वह अपने ही रूप में दिखाई दे रहा था अन्य सभी बिलकुल रावण की तरह ही दिखाई दे रहे थे। उनके भौतिक शरीर बिलकुल स्थिर थे। अंगद ने असली रावण को पहिचानने के लिए ट्रिक का उपयोग करते हुए मेघनाद से पूछा, मित्र इंद्रजीत! इस सभा में मैं 20 रावण देख रहा हूंॅ क्या ये सभी तुम्हारे पिता हैं? यह सुनकर सभी मंत्रियों को गुस्सा आ गया और उनके मन के तथ्यात्मक खंडों (अर्थात् एक्टोप्लाज्मिक सैलों)) की स्थिरता भंग हो गई और वे अपने मौलिक रूप में दिखाई देने लगे।’’

कुछ अविद्या तांत्रिकों को इन एक्टोप्लाज्मिक सैलों की सहायता से दूसरों के घरों में हड्डियां फेकने, गंदगी फेकने या तोड़फोड़ करने के किस्से प्रायः जब तब सुनाई देते हैं। सामान्य लोग समझते हैं कि यह सब भूतों के काम हैं। परन्तु सावधानी से 50 मीटर की परिधि में ढूंड़ा जाय तो किसी एकान्त कोने में अविद्या तान्त्रिक सीधा बैठा इन मानसिक सैलों को आदेश देता मिल जाएगा। इसके प्रपंच को हटाने के लिए बिना डरे उसे जोर से हिलाकर सिर में आघात करना होगा तब उसका खेल तुरंत समाप्त हो जाएगा। बाहरी तथ्यात्मकता को विषयगत बनाने के लिए हमें अपने एक्टोप्लाज्मिक सैलों की ऊर्जा को केन्द्रित कर परमपुरुष की ओर संचारित करना चाहिए जिनके जान लेने पर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता।


382 निखिलभयहरम् शिव

  382 निखिलभयहरम् शिव

भगवान शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘‘निखिलभयहरम्’’ कहा गया है। असीमित या अबाधित अस्तित्व को निखिल या अखिल कहते हैं अर्थात् सबके भय को नष्ट करने वाला । जीवन के अनेक क्षेत्रों में मनुष्य अनेक चीजों से डर पाल लेते हैं। पशु  भी अपने शत्रुओं से डरते हैं। वर्तमान में मनुष्यों के भौतिक स्तर के भय में कमी आई है पर मानसिक स्तर में भय की बृद्धि हुई है। शिव ने मनुष्यों और पशुओं दोनों को निर्भय करने के लिये अनेक कदम उठाये। बीमारियों से निपटने हेतु चिकित्सा विज्ञान को विकसित किया, शत्रुओं से निपटने के लिये अनेक हथियार बनाये, मानसिक भय को दूर करने के लिये ज्ञान की अनेक शाखाओं को विकसित किया और आत्मिक भय को हटाने के लिये तंत्रविज्ञान को स्थापित किया। पशुओं और पौधों  को सुरक्षा देना, पालना और पोषण करना भी उन्होंने सिखाया, इसी लिये उन्हें संसार के दुख/भयहर्ता के नाम से जाना जाता है।


Sunday, 3 July 2022

381 पंचानन और त्रिनेत्र शिव

 

शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्’ अर्थात जिसके पॉच मुंह और तीन नेत्र हों वह। क्या शिव के सचमुच पॉच मुंह थे? नहीं, एक ही मुख से पॉच प्रकार का भाव प्रदर्शन कर लोगों का हित करते थे। चित्र में दिखाने के लिये मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम् कहलाता है और सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर। कल्याण सुंदरम् और दक्षिणेश्वर  के बीच में ईशान। सबसे बायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याण सुन्दरम् के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम् में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर  कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा, तुम्हारी गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और, कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पॉच तरह के भावों को प्रकट कर शिव सभी का कल्याण करते थे जिससे शिव को ‘पंचवक्त्रम’्  कहा जाता है।

अब प्रश्न है कि पॉच मुंह वाले के दस नेत्र न होकर तीन ही क्यों? ‘त्रिनेत्रम्’ कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका एक ही मुंह है अतः दस ऑखें नहीं हो सकती। तो तीन कैसे?  इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु सभी व्यक्ति असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐसा कर सकता है तो यह क्रिया  ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहलाती हैं। यही ‘ज्ञाननेत्र‘ तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव त्रकालदर्शी थे, अनन्त ज्ञान के भंडार थे क्योंकि उनका ‘ज्ञाननेत्र’ बहुत ही विकसित था। चित्रों में इसे दोनों भौहों के बीच दिखाया जाता है। अतः ध्यान मंत्र में उन्हें त्रिनेत्रम् कहा गया है।