शिव के ध्यान मंत्र में उन्हें ‘पंचवक्त्रम् त्रिनेत्रम्’ अर्थात जिसके पॉच मुंह और तीन नेत्र हों वह। क्या शिव के सचमुच पॉच मुंह थे? नहीं, एक ही मुख से पॉच प्रकार का भाव प्रदर्शन कर लोगों का हित करते थे। चित्र में दिखाने के लिये मुख्य मुंह बीच में, कल्याण सुंदरम् कहलाता है और सबसे दायीं ओर का मुंह दक्षिणेश्वर। कल्याण सुंदरम् और दक्षिणेश्वर के बीच में ईशान। सबसे बायीं ओर वामदेव और वामदेव तथा कल्याण सुन्दरम् के बीच में कालाग्नि। दक्षिणेश्वर का स्वभाव मध्यम कठोर, ईशान और भी कम कठोर, कालाग्नि सबसे कठोर, परंतु कल्याणसुदरम् में कठोरता बिल्कुल नहीं, वह सदा ही मुस्कराते हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है, मानलो किसी ने कुछ गलती की, दक्षिणेश्वर कहेंगे, तुमने ऐंसा क्यों किया? इसके लिये तुम्हें दंडित किया जायेगा। ईशान कहेंगे तुम गलत क्यों कर रहे हो क्या तुम्हें इसके लिये दंडित नहीं किया जाना चाहिये? कालाग्नि कहेंगे, तुम गलत क्यों कर रहे हो ? मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा, तुम्हारी गलतियों को सहन नहीं करूंगा, और क्षमा नहीं करूंगा। वामदेव कहेंगे, बड़े दुष्ट हो, मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, जलाकर राख कर दूंगा। और, कल्याणसुदरम हंसते हुए कहेंगे, ऐसा मत करो तुम्हारा ही नुकसान होगा। इस प्रकार पॉच तरह के भावों को प्रकट कर शिव सभी का कल्याण करते थे जिससे शिव को ‘पंचवक्त्रम’् कहा जाता है।
अब प्रश्न है कि पॉच मुंह वाले के दस नेत्र न होकर तीन ही क्यों? ‘त्रिनेत्रम्’ कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका एक ही मुंह है अतः दस ऑखें नहीं हो सकती। तो तीन कैसे? इसे इस प्रकार समझा जा सकता है। मनुष्यों का अचेतन मन सभी गुणों और ज्ञान का भंडार है। अपनी अपनी क्षमता के अनुसार लोग जाग्रत या स्वप्न की अवस्था में इस अपार ज्ञान का कुछ भाग अचेतन से अवचेतन में और उससे भी कम अवचेतन से चेतन मन तक ला पाते हैं। परंतु सभी व्यक्ति असीमित ज्ञान को अचेतन मन से अवचेतन या चेतन मन में नहीं ला सकते हैं। यदि कोई ऐसा कर सकता है तो यह क्रिया ‘‘ज्ञान को ज्ञाननेत्र से देखना‘‘ कहलाती हैं। यही ‘ज्ञाननेत्र‘ तृतीय नेत्र के नाम से जाना जाता है। शिव त्रकालदर्शी थे, अनन्त ज्ञान के भंडार थे क्योंकि उनका ‘ज्ञाननेत्र’ बहुत ही विकसित था। चित्रों में इसे दोनों भौहों के बीच दिखाया जाता है। अतः ध्यान मंत्र में उन्हें त्रिनेत्रम् कहा गया है।
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