शिव का पॉंचवां उपदेश है किः-
‘‘यदभवत यदभवति यदेव भव्यमस्ति, तेषां विलक्षणो साक्षी चिन्मात्रोहम सदाशिवः।’’
अर्थात् जो कुछ भूतकाल में रचा जा चुका है, वर्तमान में है या भविष्य में निर्मित किया जाएगा, मैं एकमात्र ज्ञानात्मक सत्ता ‘सदाशिव’ उन सभी का परम साक्षी हॅूं चाहे उनके लक्षण कैसे भी हों। ( अर्थात् अनुकूल हों या प्रतिकूल।)
स्पष्टीकरण :
(1) संस्कृत की मूल क्रिया ‘‘भू’’ का अर्थ है ‘होना’ और ‘अभवत्’ का अर्थ है ‘ जो निर्मित किया गया है’। ‘जो निर्मित किया गया है’, इसका क्या अर्थ है? इस ब्रह्मांड में सभी कुछ ब्राह्मिक नाभिक से निकलकर लगातार गतिशील है, दूर से अति दूर और निकट से अति निकट। किसी वस्तु का लघु या विशाल होना उससे उत्सर्जित होने वाले कंपनों की तरंग लंबाई पर निर्भर करता है। इन तरंगों के सब ओर से सक्रिय होने के कारण बड़े बड़े पिंड चूर्ण की तरह लघु हो जाते हैं और इन्हीं असंख्य तरंगों के एकत्रीकरण से लघु पदार्थ विशाल आकार के बन जाते है। इस प्रकार सभी इकाइयों का रूपान्तरण छोटे या बड़े आकार में लगातार जारी है। इसलिए इस निर्मित किए गए संसार में यथास्थिति बिलकुल नहीं है और यह लघु दीर्घ आकार का होना इकाइयों की आन्तरिक और बाह्य तन्मात्राओं (तन्मात्रा तत् मात्रा, तत वह अर्थात् परमसत्ता, मात्रा अतिसूक्ष्म इकाई) में परिवर्तन होने के कारण होता है, यह ब्रह्मांड इसी प्रकार बना है जो कि सृष्टि का खेल है। उस अनन्त सत्ता की छाती पर होने वाले इस अलौकिक खेल में ब्राह्मिक दृष्टिकोण से न तो कोई समय है, न कोई अस्तित्व और न ही स्थानिक मापन। यह दिव्यलीला देश, काल, पात्र के ऊपर है जिसके केन्द्र तक पहुंचना किसी के भी वश में नहीं है। इस गतिशील ब्राह्मिक नृत्यलीला में, चेतना का पदार्थ के साथ चल रहा है खेल, छोटे और बड़े तथा बोधगम्य और अबोधगम्य के साथ। इस नृत्य के प्रवाह में जब कभी कोई पदार्थ इकाई चेतना के संपर्क में आता है तो वह इकाई पदार्थ उस इकाई मन की आन्तरिक धारणा में आ जाता है या बाह्य तन्मात्राओं की अवधारणा में। इकाई चेतना या इकाई मन इसे केवल ऊपरी तौर पर ही समझ पाता है गंभीरता पूर्वक नहीं। जब इकाई मन तन्मात्राओं के संपर्क में आता है तो वह क्रिया की गतिशीलता का काल्पनिक मापन करता है। क्रिया की इस गतिशीलता का मानसिक मापन ही ‘काल’ या समय कहलाता है। मानसिक मापन या समय केवल सीमित इकाईयों के लिए लागू होता है असीमित के लिए नहीं। यह समय भी अखंड नहीं है बल्कि छोटे छोटे घटकों के आपस में मिलने से मन में समय की विशालता का काल्पनिक आभास होता है। इस काल्पनिक समय अन्तराल को जिससे इकाई मन दूर भागता जा रहा है उसे भूतकाल (अभवत) कहते हैं। सामान्य विश्लेषण से ही यह पता चल जाता है कि भूतकाल जो किसी एक स्थान या व्यक्ति के लिए लागू होता है वह किसी अन्य व्यक्ति या स्थान के लिए नहीं। इस अंतहीन नृत्य में ‘भूतकाल’ वर्तमान से संबंधित है । जो भी इस पृथ्वी के दूर इतिहास में खो गया है वह वर्तमान से निकटता से जुड़ा है भले ही वह लाखों मिलियन प्रकाश वर्ष दूर स्थित तारों पर ही क्यों न हो। इसलिए ‘भूत’ या ‘अभवत’ केवल सापेक्षिक विचार है। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि जो हमारी पहुंच से दूर हो गया है वह सदा के लिए खो गया है क्योंकि उस परमसत्ता के लिए सापेक्षिकता का बंधन है ही नहीं। इस सापेक्षिक संसार के लोगों के लिए जो भी भूतकाल होता है वह सदाशिव अर्थात अनन्त चेतना की गोद में सदा ही उपस्थित रहता है। इसलिए जब कोई आध्यात्मिक, मानसिक या भौतिक इकाई सत्ता एक या अनेक असीमित सत्ताओं संपर्क में आती है और वह तन्मात्रिक परावर्तन या अपवर्तन को संग्रहण या प्रक्षेपण कर सकती है तो वह संग्रहणकाल ही सामान्यतः ‘वर्तमान’ कहलाता है। जब तन्मात्राओं का यह संग्रहण या प्रक्षेपण काल समाप्त हो जाता है तो उसे ‘भूतकाल’ कहते हैं और वह जो इन तन्मात्राओं के संग्रहण या प्रक्षेपण की सीमा में नहीं आ पाता उसे ‘भविष्य’ कहते हैं। सापेक्षिक घटक के रूप में वर्तमान का, भूत और भविष्य के जैसा महत्व नहीं है क्योंकि वर्तमान लगातार गतिशील रहता है और कभी कभी लगता है कि वह अभी नहीं आया और अगले क्षण लगता है आ गया। हम मुश्किल से किसी को देख पाते हैं और वह भूतकाल में बदल जाता है। इसलिए वर्तमान का कुछ भाग भूत के साथ और कुछ भाग भविष्य के साथ जुड़ा होता है अतः ‘वर्तमान’ प्रत्येक व्यक्ति के साथ बदलता रहता है। परन्तु जिस सापेक्षिक संसार में हम रहते हैं उसमें वर्तमान को मूल्यहीन नहीं कहा जा सकता वरन् भूत और भविष्य की तरह उसका भी अत्यधिक मूल्य है। इसीलिए शिव का कहना है कि ‘‘वर्तमानेषु वर्तेत’’ अर्थात् वर्तमान में रहो। वर्तमान जो कि भूत और भविष्य के संयोजन का परिणाम ह,ै उस परमसत्ता के अनन्त शरीर पर होने वाले कंपनों की तरह मान्य है। अतः इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान में जिस परमचेतना की छाती पर ये कंपन उठते गिरते हैं वह उन सभी के कंपनमय प्रवाह को जानती है, उसके साक्ष्य के कारण ही हर अस्तित्व का प्रवाह मधुर लगता है। इसलिए सदाशिव जो कि इन सभी का संग्रहालय हैं सभी निर्मित किए गए अस्तित्वों को जानते हैं, चाहे वे अच्छे हो या बुरे।
(2) ‘भौतिक पदार्थ विज्ञान’ के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने कार्य कारण प्रभाव के आधार पर सभी जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम सभी के बारे में जान लिया है, उन्होंने प्रयोगशाला में अनेक नए पदार्थों को दवाओं के रूप में भी विकसित किया है परन्तु क्या वे सब कुछ जानते हैं? नहीं, वे इस विराट ब्रह्मांड के बारे में बहुत थोड़ा सा ही जान पाए हैं। इस अल्प ज्ञान के कारण ही उनमें आत्मविश्वास की भी कमी होती है। परन्तु उस परमचेतना (जिसकी छाती पर सभी सीमित इकाइयॉं निर्मित होती है, कुछ समय तक रहती हैं और फिर नष्ट होती है) को सभी की प्रकृति के बारे में शतप्रतिशत ज्ञात होता है। इसलिए कहा गया है कि ‘यदभव्यमस्ति’ अर्थात्, जो कुछ होना है वह होगा। क्या होगा क्या नहीं, क्या निर्धारित है क्या नहीं यह सब सदाशिव को ही ज्ञात है, वह सर्वज्ञाता हैं। कुछ भी उनकी सर्वांगीण निगरानी के बाहर नहीं है। शिव को सबकी योग्यता और शक्ति के बारे में सब कुछ ज्ञात है पर व्यक्ति इसे अनुभव नहीं करते है। ‘‘अभवत’’ अर्थात् भूत, ‘‘भवति’’ अर्थात् वर्तमान और ‘‘भव्यम’’ अर्थात् भविष्य, कोई भी एक दूसरे से भिन्न नहीं है और न ही कुछ भी अचानक निर्मित होता या नष्ट होता है। सभी को बह्मचक्र में घूमते हुए ब्राह्मिक नियमों का अनुशासन पूर्वक पालन करना होता है। इस प्रवाह को न तो कोई रोक सकता है और न ही अतिक्रमण कर सकता है। अलौकिक समय के पृष्ठों पर सभी कुछ वैसा ही लिखा है जैसा घटित हुआ है। इसलिए कहा गया है ‘‘तेषां विलक्षणो साक्षी’’ वह सभी के विपरीत और विशेष दोनों प्रकार के लक्षणों के साक्षी हैं। परमशिव अर्थात् परमचेतनसत्ता इतिहास के सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के दृश्यों से निकटता से जुड़े हुए हैं, वह उनके निर्पेक्ष साक्षी हैं और वह इतिहास की घटनाओं में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करते हैं। वह कार्य कारण नियम की सीमा से बाहर हैं इसलिए वे विलक्षण साक्षी कहलाते हैं। विलक्षण के दो अर्थ हैं पहला विपरीत लक्षण और दूसरा विशेष लक्षण। वह सभी घटनाओं के साक्षी हैं पर उनमें सम्म्लित नहीं होते। इस प्रकार का उनका साक्षित्व उन्हें क्लेश, कर्म, विपाक और संस्कारों से मुक्त रखता है इसीलिए वह ईश्वरों के ईश्वर ‘‘महेश्वर’’ कहलाते हैं। ठीक ही कहा गया है कि परमशिव अर्थात् सदाशिव पूरे ब्रह्माण्ड की सभी घटनाओं में असंलग्न, निर्पेक्ष और अद्वितीय साक्षी हैं जिसे उनकी तीसरी ऑंख से निरूपित किया जाता है।
सर प्रणाम , 1008 और 108 का प्रयोग कब किया जाता है और इनका आरम्भ कब से हुआ है
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