4.2: भगवान श्रीकृष्ण
भगवान कृष्ण के संबंध में जितने लोग उतनी ही तरह से उनकी व्याख्यायें पाई जाती हैं फिर भी उनकी आकर्षक विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। यहाॅं कुछ सर्वथा अज्ञात या उन पर अब तक किये गये शोधों के परिणामों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है ।
1 - गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं और गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक संताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्याअध्ययन तथा अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।
2 - कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृजकृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज
कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।
3 - महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के बिना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।
4 - बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल , तेज और सभी प्रकार के सद्गुण थे परंतु मधुरता से सबको अपनी बांसुरी की तान से आकर्षित कर लेना अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। परंतु जो व्यक्ति अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती। अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।
5 - कॅंस का अर्थ है दूसरों के अस्तित्व के लिये जो खतरनाक हो, जो दूसरों के सार्वभौमिक भलाई और विकास में बाधा पहुंचाता हो। और कृष्ण का अर्थ है जो दूसरों को पूर्णता की ओर ले जाता हो, जो विध्वंसकारक विचारों को सहन नहीं कर सकता हो, जो पूर्णेापलब्धि की ओर सबको ले जाता हो। अतः सब के भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक दुखों को दूर करने के लिये और धर्म के रास्ते में बाधायें उत्पन्न करने वाले विध्वंसी बलों को समाप्त करने के लिये ही उन्हें पार्थसारथी की भूमिका निभाना पड़ी क्योंकि बृज कृष्ण की भूमिका में यह संभव नहीं था। उसके लिये बृज भूमि उचित नहीं थी कुरुक्षेत्र ही उचित था।
6 - पार्थ का अर्थ है पृथा का पुत्र, पृथा या पृथि नाम के राज्य की राजकुमारी कुन्ती का पुत्र अर्थात् कौन्तेय। प्राचीन भारत में आर्यों के आगमन से पहले तक कुल माता के नाम से पुत्रों के परिचय देने की परम्परा चलती थी। सारथी का अर्थ है जो रथ की देखभाल अपने पुत्र की भाॅंति करता है। उपनिषदों में शरीर को रथ, मन को लगाम और बुद्धि को सारथी तथा आत्मा को रथ का स्वामी कहा गया है। अतः आगे बढ़ने के लिये इन चारों में से किसी को भी नगण्य नहीं माना जा सकता। किसी एक के भी अप्रसन्न हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इसी के अनुरूप युद्ध भूमि में पार्थ के सारथी कृष्ण हुए और उन्होने रथ सहित रथ की सवारी करने वाले की देखरेख अपने पुत्र की भाॅंति की। धर्म की रक्षा की।
7 - कृष्ण के समय में मुट्ठी भर लोगों के द्वारा छोटे छोटे राज्यों जैसे , अंग, बंग, कलिंग,सौराष्ट्र , मगध आदि को बना लिया गया था और आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते थे, जबकि सामान्य जनता उनकी मौलिक आवश्यकताओं जैसे, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि के लिये तरसते थे। अतः एकीकृत और सामूहिक समाज के महत्व को कृष्ण ने समझा और इस महती जिम्मेवारी को निभाने के लिये उन्होंने पार्थसारथी की भूमिका को चयन किया। जन समान्य की सामाजिक आर्थिक और आघ्यात्मिक उन्नति करने के लिये छोटे छोटे राजाओं को नैतिक रूप से एक समान सहयोग के आधार पर संघीय ढाँचे में एकीकृत करने का
महान लक्ष्य कृष्ण के सामने था जिसके लिये बृजकृष्ण से पार्थसारथी कृष्ण में परिवर्तित होना उनके लिये अनिवार्य हो गया था क्यों कि बृजकृष्ण कोमलता, मधुरता और भक्ति के मिश्रण थे अतः युद्धों के लिये आवश्यक दृढ़ता और कठोरता उनमें नहीं आ सकती थी।
8 - जहाॅ बृजकृष्ण मानवता को अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा उच्चतम अनुभूति कराना चाहते थे वहीं पार्थसारथी कृष्ण परोक्ष अनुभूति से अपरोक्ष अनुभूति कराते हुए मानवता की उच्चतम अवस्था को अनुभव कराना चाहते थे। चूंकि अब तक लोगों के पास उन्नत मस्तिष्क और ज्ञान आधारित समाज था , योग विज्ञान की भी व्यावहारिकता से वे परिचित हो चुके थे अतः उन्हें कर्मयोग के माध्यम से परमपुरुष के प्रति शरणागति कैसे पाई जाती है इसकी शिक्षा देने के लिये पार्थसारथी की भूमिका ही उचित थी क्योंकि यही वह अवस्था है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों अनुभूतियाॅं मिलकर एक हो जाती हैं। स्पष्ट है कि एक भूमिका में संसार को मधुरता और प्रेम से भक्ति की ओर अर्थात् राधा भाव की ओर ले जाने का कार्य किया और दूसरी भूमिका में यह अनुभव कराया कि जीवन का सार संघर्ष में ही है, जीवन की मधुरता को संघर्ष पूर्वक प्राप्त कर परम मधुरता, परमपुरुष को कैसे पाया जाता है। इस प्रकार दोनों भूमिकायें एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं एक बिलकुल कोमल और मधुर तथा दूसरी दृढ और कठोर। इनमें से कौन सी भूमिका श्रेष्ठ है यह पूछना व्यर्थ है क्योंकि दोनों ही भूमिकायें अपने अपने समय की आवश्यकतायें थीं।
9 - जब परमपुरुष किसी संक्राॅंतिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप में पृथवी पर अवतरित करते हैं तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियाॅं करते हैं जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्टि और केवल्य। सालोक्य अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हें कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृजकृष्ण या पार्थसारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहाॅं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्षेत्र के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्योधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृजकृष्ण में अन्तर स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण, पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई बांसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते। सामीप्य अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृजकृष्ण के समीप आने वाले लोग अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि
पार्थसारथी के पास तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृजकृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा । सायुज्य की स्थिति में उन्हें स्पर्श करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगोपियाॅं साथ में नाचते , गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थसारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं। परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति है सारूप्य, इसमें भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता,माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं। परमपुरुष को शत्रु के रूप में संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे 'आराधना' कहते हैं और जो आराधना करता है उसे 'राधा' कहते हैं, यहाॅं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में उन्हें पाया ओर देखा जबकि पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया। अनुभूति का अगला स्तर है सार्ष्टी, इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता है, कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। सार्ष्टि का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा। इसप्रकार वे सार्ष्टि को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो इस अवस्था को कैवल्य कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है।
10 - बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्टि को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्टि तक क्रमशः प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्टि उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृजकृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनों का ही उद्देश्य परमपुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी। यहाॅं एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष तरंग दैर्घ्यों से युक्त होता है, इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साघक अभ्यास करते करते अपनी तरंग दैर्घ्य को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद, जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े होते हें तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूप से सालोक्य से सार्ष्टि तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और अथक पराक्रम करना पड़ा।
11 - बृजकृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्टि की अनुभूति क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार घ्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है, पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्टि कहते हैं यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे परम पुरुष! तुम हो , मैं हूँ और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्टि की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं, यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है , और अब दूर रह पाना कठिन है, मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।
12 - मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने बिखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने, स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनी को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, पर दर्शन
की कोई चर्चा नहीं की। भारतीय दर्शन के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक कपिल भी शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और
उन्हे नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर ‘‘ । संख्या से संबद्ध होने के कारण इसे साॅंख्य दर्शन कहा गया। पर कपिल ने जन्यईश्वर के संबंध में कुछ नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। निश्चय ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे। कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक
सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे। यहाॅं यह याद रखने योग्य है कि 'भागवत ' शास्त्र जो कि प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया। बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियाॅं, कार्यव्यवहार संपूर्णप्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन खिंच कर अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बाॅंसुरी सुनकर सभी उन की ओर ही दौड़ पड़ते थे। उन्हें लगता था कि वह बाॅसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या काॅंटे, उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नही तो और क्या है। इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्मकरना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहाॅं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।
13 - प्रश्न उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में? अब यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इसप्रकार कर्म प्रारंभ में
तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बाॅसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है।
14 - तंत्र और प्रपत्ति का पारस्परिक क्या संबंध हो सकता है? देखते हैं। तंत्र के प्रवर्तक हैं भगवान ‘‘सदाशिव‘‘। स्थानीय रूप से इसमें दो भाग हैं एक गौड़ीय और दूसरा कश्मीरी । गौड़ीय में व्यावहारिकता अधिक और
कर्मकाॅंड शून्य है जबकि कश्मीरी में कर्मकाॅंड अधिक और व्यावहारिकता कम। व्यावहारिकता के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करने पर पता चलता है कि तंत्र के पाॅंच विभाग हैं, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य। कहा जाता है कि शैवतंत्र में ज्ञान और सामाजिक चेतना पर अधिक जोर दिया जाता है, शाक्त तंत्र में शक्ति को प्राप्त कर उसे न्यायोचित ढंग से प्रयुक्त करने पर जोर रहता है, वैष्णवतंत्र में मधुर दिव्यानन्द को प्राप्त करने की ओर बल दिया जाता है पर सामाजिक चेतना की ओर कम, सौर तंत्र में चिकित्सा और जयोतिष को ही महत्व दिया जाता है तथा गाणपत्य तंत्र में विभक्त समाज के गुटों को एकीकृत रहकर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। जहाॅं तक प्रपत्ति का प्रश्न है वैष्णव तंत्र में बृज कृष्ण की तरह, दिव्यानन्द की मधुरता का स्वाद लेने को दौड़ना स्पष्टतः दिखाई देता है। इस अवस्था में ज्ञान और कर्म की कठिनाई से लड़ना संभव नहीं है। अब देखना यह है कि क्या कृष्ण का ज्ञानमार्ग, शैवतंत्र का ज्ञान मार्ग और वैष्णवतंत्र के मधुर दिव्यानन्द से कुछ समानता रखता
है या नहीं । पार्थसारथी कृष्ण ने अर्जुन को अपने प्रकाॅंड ज्ञान का दर्शन कराया पर उसमें नकारात्मकता या पलायनवाद कहीं पर नहीं था। उन्होंने बताया कि जीवधारी, विशेषतः मनुष्य दो संसारों में जीते हैं, एक संसार उनके छोटे ‘मैं‘ का और दूसरा परम पुरुष का। वह अपने छोटे संसार का स्वमी होकर अनगिनत आशायें और अपेक्षायें पाले रहता है पर ये सब उसी प्रकार होतीं हैं जैसे एक छोटा सा बुलबुला महाॅंसागर में तैरता है। इस छोटे से बुलबुले की इच्छायें तभी पूरी हो सकती हैं जब वह परमपुरुष के संसार अर्थात् महासागर में अपने को मिलाकर आपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है अन्यथा नहीं। स्पष्ट है कि मनुष्य की इच्छाओं की तरंगें जब तक परमपुरुष की इच्छातरंगों से मेल नहीं करती उनका पूरा होना संभव नहीं है। यह पूर्णप्रपत्ति है पर जब प्रारंभ में वे ज्ञान और दर्शन का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो यही बात विप्रपत्ति जैसी अनुभव होती है, पर जब वह समझाते हैं कि सब कुछ तो उन्होंने ही योजित कर रखा है तो यह अप्रपत्ति की तरह लगता है और जब वे कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा का कोई मूल्य नहीं मैं ही सब कुछ करता हॅूं तब वह स्पष्टतः प्रपत्ति ही है। ' मामेकम शरणम् व्रज ' , यह कहने पर तो सब कुछ प्रपत्ति का ही समर्थन हो जाता है। शैवतंत्र का दार्शनिक ज्ञान और वैष्ण्वों की
प्रपत्ति दर्शन क्या भिन्न हैं? शैवों का दर्शन ज्ञान , लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिये विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मकताओं में संघर्ष करने और कार्य कारण सिद्धान्त के विश्लेषण के आधार पर आगे बढ़कर लक्ष्य तक ले जाने की बात कहता है अतः प्ररंभ में विप्रपत्ति प्रतीत होती है पर अंत में जब लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तब न तो अप्रपत्ति न प्रपत्ति और न ही विप्रपत्ति बचती है।
15 - अपनी असाधारण बुद्धि, व्यक्तित्व, चतुराई और संगठनात्मक क्षमता के कारण जो समग्र समाज का नेतृत्व करते हैं वे समाजप्रर्वतक कहलाते हैं। वे जो कुल अर्थात् तंत्र साधना कर अन्तर्ज्ञान के सहारे सूक्ष्म ऋणात्मकता को विराट धनात्मकता में बदलकर अपने इकाई मन को परमसत्ता के मन के स्तर तक ऊंचा कर सकते हैं कौल कहलाते हैं। वे जो अपने अभ्रान्त ज्ञान के मार्गदर्शन से दूसरों को कौल बना देते हैं वे महाकौल कहलाते हैं। परंतु तारक ब्रह्म इन सबसे भिन्न विशेष सत्ता होते हैं जो एकसाथ समाज प्रवर्तक, आध्यात्मिक प्रवर्तक, कौल और महाकौल सबकुछ होते हैं इतना ही नहीं वह इन सब से भी अधिक होते हैं वे समाज के प्रत्येक भाग के लिये दिशा निर्देशक की तरह कार्य करते हैं। पिछले खंड में स्पष्ट किया गया है कि भगवान सदाशिव तारक ब्रह्म थे।
16 - साॅंख्य दर्शन के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चैबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये जन्यईश्वर और संमग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रकृति को उत्तरदायी माना गया है। जन्य ईश्वर या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण। अब यदि इस दर्शन के प्रकाश में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहाॅं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता। बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह साॅंख्य दर्शन में कहीं भी दिखाई नहीं देता।
साॅंख्य का पुरुष अक्रिय जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते, उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते। बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता बसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण साॅंख्यदर्शन से बहुत ऊपर हैं, साॅंख्य दर्शन में उन्हें नहीं बाॅंधा जा सकता।
17 - साॅंख्य के अनुसार पार्थसारथी का स्तर कहाॅं है यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘ से लिया गया बुद्धि तत्व है, पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत
आवश्यकताओं के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहाॅं पाया जा सकता है वह पार्थसारथी के अलावा कोई नहीं है । साॅंख्य का
पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया, महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना
जैसे सक्रिय कार्य साॅंख्य के जन्यईश्वर में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन में क्या बाॅंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया। वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे जो बच्चों का खेल नहीं है। अतः साॅंख्य के जन्य ईश्वर या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।
18- यद्यपि प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण करना उचित होगा। विशुद्ध अद्वैतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमाॅंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तार किया। इस के अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रंह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्यों कि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहाॅ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन साॅंख्य और न्याय
दर्श न के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रंह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा। अब बृजकृष्णको देखें वह अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। बृह्माॅंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्माॅंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परम पुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके विना जीवों कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने कोई दर्शन का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है? इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जब कि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि साॅंसारिक वस्तुएॅं सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बाॅंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बाॅंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की माया है। बृह्म के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया संवित और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तथ्य पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों की भूमिकायें एक दूसरे से मेल खाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद व्यावहारिक या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है।
19 - जहाॅंतक पार्थसारथी का प्रश्न है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है। पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन वस्त्र आवास शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये कार्य किया। शान्ति और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को
एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियाॅं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों के होने अथवा वे कहाॅं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है। पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता शोषण किया जाना चरम
सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के आॅंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी शिक्षा दी। उन्हों ने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। (जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दबाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और सबको तथाकथित प्रसाद बाॅंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं)। इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।
20 - पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परम सत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। इसके बाद सूक्ष्म चिंतन और उस परम सत्ता के आकर्षण से यह मन उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृ्ति का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा। मनुष्य की संरचना में पचास छोटे बड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार बृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्रार चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है। परमपुरुष समस्त ब्रह्माॅंड पर नियंत्रण करते हैं। इस प्रकार सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीें है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयासों से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परम पुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं। विशुद्ध अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्माॅंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर , साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुघार करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों चिंगारियाॅं निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियाॅं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उनतक वापस लौटना आवश्यक नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हूँ और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण , महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष बाद हो पर होगा अवश्य । पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है। अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद्भुद करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद्गुणी लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज
भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियाॅं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश का समर्थन करता है। विनाश का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियाॅं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधी काल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हें। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता होती है जो उसे उचित दिशा दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैत वाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई
संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।
21 - सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? प्रारंभ में लोग दर्शन शास्त्र के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान, माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसमें जीव भाव को साॅंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं, जीव का यही इकाई ‘‘मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है। इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहाॅं होता है? जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है , जैसे मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया , मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका सह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परमसत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है। भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहाॅं बचता है? द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हूँ और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर
नहीं बनना चाहता , मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्कर का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक
देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में एक धन एक बराबर दो, दूसरी अवस्था में एक धन एक बराबर एक और तीसरी अवस्था में एक धन एक बराबर क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है। बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है। अब पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखा जाये। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वाॅम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः। मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्माें को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं, मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय। यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही हैं और उन्हें ‘एक‘ और अन्य द्वितीयक धर्म ‘शून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद शून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले शून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसी लिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। जो इस प्रकार प्रारंभिक धर्म परमपुरुष को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है । तो क्या पार्थसारथी अद्वैतवादी हैं? हाॅं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।
22 - आइये अब बृजगोपाल को द्वैताद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें। द्वैताद्वैत का अर्थ है प्रारंभ में द्वैत पर अंत में अद्वैत। अर्थात् पहले जीव अपने को परम पुरुष से पृथक मानते हैं पर बाद में साधना करके वे उनके अधिक निकट आ जाते हैं और फिर उन से मिलकर एक हो जाते हैं। अब प्रश्न है कि यह मिलकर एक हो जाना कैसा है? शक्कर और रेत जैसा या शक्कर और पानी जैसा? यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि जीव आखिर आते कहाॅं से
हैं? जीवों का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। पर द्वैताद्वैतवादी इस संबंध में बिलकुल मौन हैं कि जीव आते कहाॅं से हैं, पर यह कहते हैं कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। सभी जीव जानते हैं कि उनके पास एक जैविक बल है, उनकी अपेक्षायें और आशायें हैं, सुख दुख हैं, भावनायें और भाभुकतायें हैं। इन सब को भुलाकर छोड़ा नहीं जा सकता। ये सब बोझ भी नहीं हैं बल्कि आनन्ददायी जीवन का आनन्द हैं। अतः स्पष्ट है कि द्वैताद्वैतवाद में मानवता का मूल्य नहीं समझा गया। वह अनन्त सत्ता जिसका प्रवाह सतत रूप से विस्तारित हो रहा है उसका अन्त भी आनन्द स्वरूप अनन्त में ही होगा अतः जीव और षिव का मिलन षक्कर और रेत की तरह नहीं वरन् शक्कर और पानी की तरह ही संभव है । अपनी उन्नत बुद्धि और निस्वार्थ सेवा के बल से साधना और सत्कर्म करते हुए वे साधारण से असाधारण व्यक्तित्व को प्राप्त कर सकते हैं। अब देखें बृजगोपाल का व्यक्तित्व। वे पैदा ही जेल में हुए, उस रात में भयंकर जलवृष्टि और विजली की बज्र चमक हो रही थी जिसका मतलब ही था कि कंस की भ्रष्ट नीतियों को नष्ट करने के लिये दूरदर्शी विधान। जेल के प्रहरी के द्वारा ही दरवाजे के ताले खोले जाना , गोकुल के सभी व्यक्तियों का गहरी नींद में सो जाना, यह सब नवजात कृष्ण को सुरक्षित बचाने का दैवीय विधान था। बृज गोपाल के जीवन की छोटी छोटी घटनाये जैसे पूतना का मारा जाना, बकासुर और अघासुर कर मारा जाना किस प्रकार संभव हुआ। ये सब कंस के जासूस थे वे तो यह काम अपनी आजीविका के लिये करते थे, उन्हें कृष्ण से व्यक्तिगत रूपसे कुछ भी लेना देना नहीं था। कृष्ण ने भी उन्हें जानबूझकर नहीं मारा ,वे सब उन्हें मारने आये थे अतः अपने बचाव में कृष्ण ने उन्हें मारा और वे स्वभावतः मारे गये । पूतना का वे गला दबाकर या तलवार से बध कर सकते थे पर उन्होंने यह नहीं किया बल्कि दाॅंत से काटा और उसके द्वारा लगाया गया विष उसी के शरीर में प्रवेश कर गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। स्पष्ट है कि इन सब में कृष्ण ने अपना मानवीय द्रष्टिकोण नहीं छोड़ा। जीव परमपुरुष से आये हैं और उन्हीं में अंत में चले जायेंगे। पूतना आदि भी परमपुरुष से ही आये थे, वे भी द्वैतवादी थे यदि उन्होंने साधना की होती तो परम पुरुष में मिलकर एक हो गये होते पर उन्हों ने नकारात्मक रास्ता चुना और उन्होंने विश्व के केन्द्र को ही नष्ट करना चाहा और अंततः कृष्ण को उन्हें उनकी बुरी प्रबृत्तियाॅं नष्ट कर मानवता की रक्षा के लिये मारना पड़ा। कोई यदि आग के पास बिना किसी सुरक्षा के जाता है तो वह उन्हें राख कर देती है, कृष्ण यदि केवल द्वैतवादी की तरह व्यवहार करते तो वे अपने को उनसे दूर कर लेते पर उन्होने यह नहीं किया, उन्होंने उन सबको अपने पास ही बुला लिया। गोपियाॅं भी कोई पढ़ी लिखीं नहीं थीं, पर वे अपने द्वैत को अद्वैत में बदलने के लिये लगातार उनके पास जाने के लिये गतिशील बनी रहीं। अब यह मेल कैसा था? पानी और शक्कर की तरह । बृजगोपाल ने सभी ग्वाल बालों और गोपियों के साथ अपने को इस प्रकार मिला लिया था कि उन्हें पहचानना संभव नहीं होता था। यहाॅं द्वैत समाप्त था। साॅंसारिक रंग भेद और आकर्षण , द्वैत में फुसला कर भटकाये रहते हैं और परमपुरुष से दूर करते जाते हैं, कृष्ण का कहना था कि ये सब आकर्षण और भेद उन्हें देकर उनके साथ ही एक हो जाओ क्योंकि परम पुरुष से आये हो तो परमपुरुष में ही मिलने का लक्ष्य होना चाहिये, यह अद्वैत है। उन्हीं की वस्तु उनको ही सौपकर भार मुक्त होने में ही बुद्धिमत्ता है। स्पष्ट है कि बृजगोपाल का मिलन शक्कर और रेत के जैसा नहीं बल्कि शक्कर और पानी की तरह है, क्यों कि वे तारक बृह्म हैं। इस परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी ने क्या किया? उन्होंने सच्चे लोगों को एकत्रित कर मानवता के मूल्यों की रक्षा करने के लिये लगातार संघर्षरत रखां। साधक को परम पुरुष के समीप जाने के लिये साधना के कटीले रास्ते पर चलना ही पड़ता है। जब रास्ते के काॅंटे हटकर दूर हो जाते हैं साधक आगे बढ़कर परमपुरुष की गोद में आश्रय पा ही लेता है। यह भी हो सकता है कि भक्त सच्चाई और ईमानदारी से अपनी सभी ऊर्जा को एक बिंदु पर केन्द्रित कर एक स्थान पर बैठा अधीरता से पुकार कर कहे कि हे परमपुरुष मेरे ऊपर कृपा करो और मेरे पास आ जाओ। इस प्रकार उसकी सभी मनोवैज्ञानिक ऊर्जा एक बिंदु पर केन्द्रित होकर परम पुरुष से एकीकृत हो जाती है, यह अद्वैत है। इस प्रकार का रास्ता भक्ति मार्ग , ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कहलाता है, प्रारंभ में भक्त और परमपुरुष दो, फिर अंत में केबल परमपुरुष एक। पार्थसारथी ने सच्चाई का पालन करने के लिये कुशल रणनीति बनाने का कौशल भी सिखाया। बार बार जरासंध के आक्रमण से नागरिकों को बचाने के लिये अपनी राजधानी को मथुरा से द्वारका में ले जाना इसी रण नीति का हिस्सा था, क्योंकि जरासंध को द्वारका जाने में मरुस्थल को पार करना कठिन था। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में सच्चाई के साथ रहते हुए दुष्टों के विरुद्ध शस्त्र किस प्रकार उठाये जाते हैं यह भी उन्होंने सिखाया। उन्होंने धर्म के प्रति स्थिर और बुद्धिमान लोगों को एकत्रित कर सत्य और उच्चतर जीवन जीने की ओर प्रेरित किया जिससे लोग उन्हें अपना निकटतम मानने लगे। यही कारण है कि वे आज तक सब के दिलों पर राज्य कर रहे हैं। उन्हों ने स्पष्टतः कहा कि मुझ से ही सभी उत्पन्न हुए हैं मुझ में ही सभी प्रतिष्ठित हैं और अंत में मुझमें ही मिल जायेंगे। द्वैताद्वैतवाद यह नहीं कह पाता कि जीव कहाॅं से आते हैं, केवल यह कहता है कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैताद्वैतवाद के प्रकाश में परीक्षित करना व्यर्थ है, वह उससे बहुत ऊपर हैं।
23 - जब आनन्द के साथ आगे की ओर गति की जाती है तो उसे बृज कहते हैं। अनेक प्रकार की तन्मात्राओं के द्वारा हमें बाह्य भौतिक जगत का ज्ञान होता है और इन तन्मात्राओं का नियंत्रण मन के द्वारा होता है। परंतु एक और नियंत्रक होता है जो मन के पीछे छिपा होता है वह दिखाई नहीं देता ठीक कठपुतली के प्रदर्शनकर्ता की तरह। यही कारण है कि लोग कहते हैं वाह! कितना अच्छा वक्ता है, गायक है, नर्तक है पर यह नहीं जानते कि वास्तव में यह सब कराने वाला कौन है। पूरी महत्ता प्रदर्शन करने वाले को ही प्राप्त होती है। सभी प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिये हम ज्ञानेन्द्रियों की सहायता लेते हैं, संस्कृत में गो का अर्थ है इन्द्रियां और वह सत्ता जो इनका संरक्षण और संवर्धन करता है वह गोपाल। अतः आनन्द पूर्वक लोगों को आगे ले जाने और अनुभूतियाॅं कराने का कार्य करने वाला कहलायेगा बृजगोपाल। बृजगोपाल सभी को अपनी ओर आकर्षित करते
, हंसाते , रुलाते , मन में जिज्ञासा जगाते, संदेह निर्मित करते, मन में अनेक रसों का प्रसार करते, हर बार नये नये रसों और प्रकारों से आनन्दित करते सब को आगे बढ़ते जाने का मार्गदर्शन करते हैं क्यों कि विश्व अनन्त रसों का सागर है। इस प्रकार वे जीवन के सार तत्व परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं क्योंकि इसके अलावा जीवन में कुछ नहीं है। लोगों ने प्रयास किया कि बृजगोपाल की तुलना करने के लिये कौन उचित होगा पर जीवों के प्रति उनका प्रेम, भाव, और अन्तर्ज्ञान , दूरदर्शिता और ज्ञान की गहराई देखकर कोई भी उनके समतुल्य
नहीं मिल पाया अतः उन्होंने कहा तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति। उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं । ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित करती है ग्रहों को तारे तारों को गेलेक्सी और गेलेक्सियों को ब्रह्माॅंड का केन्द्र और इन सब को परमपुरुष। जब कोई यह सोचता है कि परमपुरुष उसे आकर्षित कर रहे हैं और वह भी परमपुरुष को आकर्षित करता है तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस भक्ति कहा जाता है। इस तरह कोई छोटा हो या बड़ा , वे परस्पर और इस महान के आकर्षण से मुक्त नहीं है। यह समझ कर परम पुरुष की ओर बढ़ते जाना भक्ति है। बृजगोपाल क्या करते हैं, वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सब को अपने प्रेम और मधुरता के भावों में प्रसन्नता से आगे बढ़ते जाने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः बृजगोपाल के अलावा अन्य कोई सत्ता भक्ति की इस उच्च स्थिति को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है। परिप्रश्न क्या है? वह जिसका उत्तर पा जाने पर लोग प्रोत्साहित होकर उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं और तदानुसार परिणाम भी प्राप्त होने लगता है। हर प्रभाव का कारण खोजते खोजते मूल कारण प्राप्त कर लेना।सबसे पहले जब मनुष्यों ने सोचा कि जगत का मूल कारण क्या है तो जो उत्तर मिला वह आद्या शक्ति कहलाता है। आध्यात्मिक साधकों ने कहा है कि ‘‘ यच्छेदवाॅंग्मनसी प्रज्ञस्तदयच्छेद्ज्ञानात्मनि। ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि।‘‘ अर्थात् साधना के द्वारा इंद्रियों को चित्त में अर्थात् जड़ मन में समाहित करे, इस प्रकार इंद्रियों के चित्त में समाहृत हो जाने पर आप अपनी और अन्यों की इंद्रियों को स्तंभित कर सकते हो अर्थात् उनकी गतिविधियों पर अपने मन से नियंत्रण कर सकते हो। इसके बाद अपने चित्त की क्षमता को अहमतत्व अर्थात् ‘मैं करता हॅूं‘ इस भावना में संयोजित कर दे जो कि ‘मैं हॅू‘‘ भावना अर्थात् महत्तत्व से जुड़ा है। इस प्रकार वे अन्तर्ज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश पा लेंगे और उन्हें बिना किसी औपचारिकता के सभी ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। अब ‘मैं हॅूं‘ भावना को परम पुरुष में समर्पित कर दो इससे परम शान्ति प्राप्त होगी। इस प्रकार साधना की प्रगति की दशाओं पर प्रकाश डाला गया है जो कि वास्तव में परमपुरुष के संबंध में परिप्रश्न कहलाता है। बृजगोपाल क्या करते हैं? वे सभी को बिना भेदभाव के अपनी ओर आकर्षित करते हैं और भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी स्तरों पर प्रगति का रास्ता दिखलाते हैं। इतना ही नहीं जो उनकी आलोचना करते हैं वे भी उनको अपना अंतरंग ही मानते हैं। इस तरह परिप्रश्न के संदर्भ में बृजगोपाल विश्व के केन्द्र हैं और मानव हृदय और संवेदनों के सार हैं, वे जीवों के अंतिम आश्रय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में अद्वैत , बाद में द्वैत और अंत में अद्वैत की स्थिति बनती है जो ‘‘एकोहमवहुस्याम‘‘ के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। जिसका अर्थ है मैं एक था फिर अनेक होगया और फिर एक ही रहूँगा। यथार्थतः बृजगोपाल का हृदय सबका आश्रय है।
24 - भक्ति को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक आधार पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आश्चर्यजनक रूपसे किन्हीं सद्गुणों की जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलंबित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है। प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारंभ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष, अतः परमपुरुष की ही ओर सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये, उन्हें ही पूजना चाहिये। अब पार्थसारथी को देखें। उन्हें सब के रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और होगा सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सब ओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेशा पाॅंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान,
बुद्धि और स्मरण शक्ति की विशालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईश्वर कहते हैं ये ईश्वर कोटि के लोग भी परम पुरुष को महेश्वर कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेश्वर ही हैं, यह उनकी ऐश्वर्यता प्रकटकरने वाली अष्ट सिद्धियों से सिद्ध होता है। उनके पास अणिमा , महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईशित्व, वशित्व, प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों ऐश्वर्य असीम स्तर पर थे यही कारण है कि सभी उनके
समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों ऐश्वर्य उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य
नहीं कर सकता। परिप्रश्न यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हाॅं तो उनका स्तर क्या है? अब देखें कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाश और दूसरा है छह गुणों का समाहार। भग के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है भेति भास्यते लोकान, अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाश से सभीलोक प्रकाशित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है , इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्। अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उदगम भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘ऐश्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यशासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोष्च च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ ऐश्वर्य का अर्थ है ऊपर बतायी गयीं आठ सिद्धियाॅं, वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से शत्रु काॅंपने लगें, जो सब पर प्रशासन कर सके। यशासह काअर्थ है यश और अपयश दोनों। श्री का अर्थ है सभी
भौतिक उपलब्धियों के साथ शक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे, महाभारत से अनेक उद्धरणों में
से , इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना, पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके शरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंशावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम शरणम् बृज अहम त्वाॅंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा शुचः, अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आजाओ मैं तुम्हें
सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थ सारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं।
25 - नन्दन का अर्थ है आनन्द देना और लेना। और गोप का अर्थ है केवल आनन्द देना। परम पुरुष को आनन्द देना और उसी समय उनसे आनन्द प्राप्त करना रगानुगा भक्ति कहलाता है इसमें भक्त की भावना यह रहती है
कि मैं परम पुरुष को इसलिये प्रेम करता हॅूं जिससे उन्हें आनन्द प्राप्त हो चूंकि मेरे इस कार्य से परमपुरुष को आनन्द मिलता है यह जानकार मुझे भी आनन्द मिलता है। सर्वोच्च स्तर की भक्ति रागात्मिका भक्ति कहलाती है जिसमें भक्त की यह भावना रहती है कि मैं परमपुरुष को प्रेम करता रहूँगा क्यों कि मैं उन्हें आनन्द देना चाहता हॅूं चाहे मुझे मुझे आनन्द मिले या न मिले, इसके लिये मैं कोई भी कठिनाई या कष्ट उठाने को तैयार हॅूं। नन्दन विज्ञान की उत्तमता यह है कि इसमें भक्त परमपुरुष की अनेक अभिव्यक्तियों का आनन्द पाता है। भक्त की भावना यह होती है कि परम पुरुष मेरी व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, उनके समान कोई नहीं , मैं उन्हें चाहता हूँ मैं प्रत्येक वह कार्य करना चाहता हॅूं जिसमें उन्हें आनन्द मिले, इस तरह नन्दन विज्ञान में दोनों प्रकार की भक्तियाॅं एक साथ मिल जाती हैं क्योंकि भक्त सब में परम पुरुष का ही प्रसार देखने लगता है चाहे वह पर्वत, नदियाॅं, पेड़ , जानवर या कोई भी जीव क्यों न हो। वह कहता है हे परम पुरुष ! मैं तुम्हें अनेक प्रकार से अनगिनत रूपों में युगों युगों में चाहता रहा हूँ प्रेम करता रहा हॅूं तुम ‘‘अखंडचिदैकरस‘‘ अर्थात् सतत आनन्दरस प्रवाह हो, मैं तुममें अपनी पूर्णता को ढूॅड रहा हॅूं। भले ही जीव, परमपुरुष को उनकी अलौकिकता में न पाये पर उनकी हलकी सी झलक ही उन्हें आनन्द से उछाल देती है। संसार की कोई भी वस्तु से निकलने वाले स्पंदन हमारे मन पर सहानुभूतिक कंपन करते हैं तो हमें लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं और हम आनन्दित हो उठते हैं। वे जो संसार के पदार्थों को केवल मनोरंजन का साधन मानते हैं वे कभी परमपुरुष के वास्तविक प्रेम को अपने जीवन में कभी नहीं जान पाते। बृजगोपाल सब को आकर्षित करते हैं, वे प्रेम स्वरूप है ,जो भी थोड़ा सा आगे बढ़कर उन्हें देख लेता है वह उन्हें पाने की इच्छा करता है और उनके साथ प्रेम स्थापित कर लेता है इतना कि उनके बिना नहीं रह सकता। लोग कहते हैं , देखो जिसे तुम चाहते हो वह तो माखन चोर है, अरे वह तो हृदयहीन है वह अपने चाहनेवालों को छोड़कर नदी के उस पर मथुरा चला जाता है, पर भक्तों पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उत्तर में वे कहते हैं कि बस, एक बार हमने उसे चाहा है तो अब हम आजीवन चाहते ही रहेंगे। परमपुरुष की चाह अपरिवर्तनीय होती है। वेद कहते हैं कि यह पंचतत्वात्मक जगत आनन्द से उत्पन्न हुआ है, आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जायेगा। यही आनन्द परमपुरुष से प्रेम करने वाले अनुभव करते हैं। भले ही लोग एक सौ वर्ष की उम्र आने पर कहने लगे कि वे मरना चाहते हैं पर आन्तरिक हृदय से वे नहीं मरना चाहते क्यों कि वे अपने चारों ओर प्यारी प्यारी संग्रहीत वस्तुओं से अलग नहीं होना चाहते। परम पुरुष सबके अन्तिम आश्रय हैं, उनके अलावा जीवों को कहीं आनन्द नहीं मिल सकता। बृजगोपाल कृष्ण आनन्द के सागर हैं। अतः नन्दन विज्ञान के द्रष्टिकोण से वह एकमेवाद्वितीयम हैं। जब कोई व्यक्ति साधना करता है तो वह तन्मात्राओं के द्वारा परम पुरुष का आनन्द पाता है। ये तन्मात्रायें शब्द , स्पर्श , रूप, रस और गंध हैं। प्रारंभिक अवस्था में वह सुगंध की अनुभूति करता है चाहे वह ज्ञात फूलों की हो या अज्ञात। यह संसार परमपुरुष की रसमय कल्पना है, वे रसिक हैं और आनन्दरस की तरंगों से सभी को अपनी रासलीला में सहभागी बनाते हैं। चाहे लोग चाहें या न चाहें उन्हें इस रासलीला में उनके साथ नाचना ही पड़ता है। यह संसार परमपुरुष के अनन्त रूपों का सीमित परावर्तन है वे सर्वद्योतनात्मक हैं अर्थात् सभी का रूप सौंदर्य उन्हीं के प्रकाश से चमकता है अतः रूप तन्मात्रा के द्वारा वे ही सब में आभास देते हैं। वे ही लुका छिपी का खेल खेलते हैं। भक्त कहते हैं कि उनके रूपको देखने का खूब प्रयास किया पर वे इतने सुदर हैं कि मेरी आॅंखें चैंधिया गयीं और मैंने पहचान ही नहीं पाया। बृजगोपाल अपार कोमलता के श्रोत हैं, स्पर्श तन्मात्रा के द्वारा भक्तों ने उन्हें अनुभव किया और पाया कि संसार की सब कोमलता और कृपा उनसे ही अभिव्यक्त होते हैं, उनकी मृदुलता और कोमलता और अद्रश्य मधुरता अमाप्य है। इसी प्रकार शब्द तन्मात्रा के माध्यम से वे अपनी वाॅंसुरी से ओंकार ध्वनि प्रसारित करते हैं जो कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय से अविराम जारी है इसे भक्तगण
प्रणव कहते हैं। यह वह ध्वनि है जिसकी सहायता से इकाई सत्ता उस परमपुरुष से संपर्क स्थापित करती है। जिसने यह समझ लिया तो उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं परंतु उसे सच्चा भक्त होना चाहिये, क्यों कि
परम पुरुष प्राकाम्य सिद्धि के अधिष्ठाता हैं। यह हो सकता है कि प्रारंभ में भक्त उन्हें न पहचान पायें क्यों कि उनकी अनन्त आनन्द तरंगे कभी इस रूप में तो कभी उस रूप में अनुभव होती हैं पर भक्त कहता है कि यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो वह उनके मार्ग में अवरोध क्यों करे। वास्तव में भक्त ने जिस भी तन्मात्रा के आधार पर उन्हें अनुभव करना चाहा है उसी से वह अनुभव करता है, हमारे बृजगोपाल कभी गंध कभी रस कभी रूप कभी स्पर्श कभी शब्द तन्मात्राओं के आधार पर अपना आनन्द बरसाते हुए भक्तों को आनन्दित करते रहते हैं । पार्थसारथी तो अन्याय और अपराध के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे हैं फिर नन्दन विज्ञान की द्रष्टि में वे क्या थे यह विचार करने से पहले नन्दनविज्ञान के मनोविज्ञान को जानना होगा। मानव मन किसी दिशा में उसके संस्कारों के अनुसार क्रियाशील रहता है। जब बाहर से आने वाले स्पंदनों की तरंग लंबाई उसके स्वयं के मन के स्पंदनों की तरंग लंबाई को बढ़ाकर अपने अनुकूल करने लगते हैं तो व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है। पर यदि ये बाहरी स्पंदन उसके मन के स्पन्दनों की तरंग लंबाई को घटाने लगते हैं तो उसे दुख होता है। अनुकूलवेदनीयम सुखम् प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्। नन्दन विज्ञान में दुख का कोई स्थान नहीं है, जब आने वाले स्पंदनों की तरंगों की वकृता में कमी आने लगती है आनन्द प्राप्त होता है जब तरंगों की वकृता में बृद्धि होने लगती है तो दुख प्राप्त होता है। जब यह वकृता बिलकुल शून्य हो जाती है अर्थात् तरंग सीधी रेखा की तरह हो जाती है तो आनन्दम् की अवस्था आ जाती है यह परानन्दन विज्ञान के अंतर्गत आता है। पार्थसारथी दुष्टों और अपराधियों के विरुद्ध लड़ते रहे जिससे जन सामान्य को राहत मिली और उन्हें आनन्द मिला, वे अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से जी सके। अतः जिस प्रकार बृजगोपाल ने शब्द स्पर्ष रूप रस और गंध के माघ्यम से आनन्द बाॅंटा उसी प्रकार पार्थसारथी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सुख बाॅंटा। दोनों के कार्यों के प्रकार अलग थे पर उद्देश्य एक सा था। पार्थ सारथी को नन्दन विज्ञान का निर्माता माना जाना चाहिये क्यों कि नन्दन विज्ञान की आवश्यक विषयवस्तु समग्र रूपसे पार्थ सारथी के कार्यों और जीवन में पायी जाती है। बृजगोपाल ने जो कार्य कोमलता और मृदुलता से किया पार्थसासरथी ने अपनी समग्र ब्रह्माॅंड की भाभुकता के साथ किया। इस प्रकार बृजगोपाल और पार्थसारथी का नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समान महत्व है। परमपुरुष ओतयोग और प्रोतयोग से सब से जुड़े रहते हैं, ओत योग का अर्थ है व्यक्तिशः जुड़ना और प्रोत योग का अर्थ है सामूहिक रूपसे जुड़ना। बृजगोपाल ओत योग से और पार्थसारथी प्रोतयोग से सब से जुड़े रहे। समाज को भीतर तक हिला देने के लिये छः घटकों की आवष्यकता होती है, आध्यात्मिक आदर्श , सामाजिक द्रष्टिकोण, सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त, साहित्य और निर्देशक। कृष्ण ने अपने समय में उच्चस्तरीय सामाजिक चेतना जाग्रत की और बताया कि सभी के मिलजुल कर रहने से ही सामाजिक प्रगति हो सकती है पृथक पृथक रहकर नहीं। इसीलिये उन्होंने सामान्य जीवन को स्वाभाविक रूपसे उन्नत किये जाने पर बल दिया और जो भी इस के मार्ग में बाधक बना उसे समाप्त कर दिया। इस प्रकार कृष्ण की सामाजिक चेतना से कुछ लोगों के आनन्द में बाधा भले ही पहुंची हो पर इससे नन्दन विज्ञान का क्षेत्र और विस्त्रित हो गया। पार्थसारथी के निकट आकर लोग अपने मन की तरंग लंबाई में बृद्धि का अनुभव करते, वे उनका स्मरण और चिंतन करने पर भी अपनी तरंग लंबाई में बृद्धि होने से आन्न्द का अनुभव करते थे जो सामाजिक चेतना के जाग्रत होने पर ही संभव था। पार्थसारथी के अनन्त सद्गुणों के चिंतन में लोग उन्हीं में खो जाते थे, परम पुरुष का इस प्रकार चिंतन करते उन्हीं में खो जाना रहस्यवाद कहलाता है। इस प्रकार सभी लोग उनसे अपना व्यक्तिगत संबंध बनाये थे और केवल उन्हीं के संबंध में सोचना और उन्हीं का नाम सुनना चाहते थे जो प्रकट करता है कि वे नन्दन विज्ञान के स्वयं जन्मदाता थे अतः नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका परीक्षण कौन कर सकता है?
26 - नन्दन विज्ञान में आनन्द का आदान प्रदान होता है, पर मोहन विज्ञान इससे भिन्न है। निःसंदेह मानवता ने इसके थोड़े से पक्ष को अनुभव किया है पर यह विज्ञान विशिष्ठ रूप से परमपुरुष से संबंधित है कृष्ण से संबंधित है । यहाॅं कृष्ण से तात्पर्य दोनों बृज और पार्थसारथी कृष्ण से है। मोहन विज्ञान में ये दोनों एकसाथ मिल जाते हैं। मोहन विज्ञान में परमपुरुष, मनुष्यों को तन्मात्राओं या एक्टोप्लाज्मिक आकर्षण से अपने निकट खींचते हैं अथवा अन्य लोग उनके अनवरुद्ध आकर्षण से खिंचे चले जाते हैं। कृष्ण अपने आन्तरिक प्रेम से लोगों को अपने निकट खींचते हैं, मन में वे लोग सोचते हैं कि नहीं जाऊंगा , नहीं जाऊंगा पर फिर भी आकर्षण इतना अधिक होता है कि न चाहते हुए भी उनकी ओर चले जाते हैं यह है मोहन विज्ञान। नन्दन विज्ञान और मोहन विज्ञान में यही अन्तर है। यहाॅं कृष्ण ही परम सत्ता होते हैं अन्य कोई नहीं और वे भक्तों को अपने व्यक्तिगत संबंधों से आकर्षित करते हैं। संसार से जुड़े होने के कारण तन्मात्राओं से परिचित लोगों को इन्हीं से परमपुरुष आकर्षित करते हैं पर ये तन्मात्रायें भौतिक संसार से संबंधित होती हैं मानसिक संसार से संबंधित नहीं होती हैं। परमपुरुष का जब गहराई से चिंतन किया जाता है तो भक्त एक्टोप्लाजिमक सैलों से निकलने वाली गंध तन्मात्राओं को भौतिक संसार की तरह ही अनुभव करता है। इसी प्रकार रुप, रस, स्पर्श और शब्द तन्मात्राओं के बारे में भी घटित होता है। एक्टोप्लाज्मिक संसार में कृष्ण कहते हैं आओ, आना ही पड़ेगा ,तुम आने के लिये रोक नहीं सकते, और पास आ जाने पर उनके सुंदर रूपको देखकर आॅंखें चैधिया जाती हैं और भक्त का प्रत्येक अंग अपने भीतर कृष्णमय ही अनुभव करता है और फिर उनसे पृथक नहीं रह सकता। इस प्रकार परमपुरुष तन्मात्राओं के माध्यम से सब को अपने अधिक निकट ले आते हैं, मोहन विज्ञान का यही सार तत्व है। भक्तगण भौतिक बृंदावन में नहीं वरन् भाव के बृंदावन में यात्रा करते हैं। कृष्ण ने कहा भी है कि आघ्यात्मिक बृंदावन छोड़कर वे एक कदम भी कहीं नहीं जाते। इस प्रकार भक्त के हृदय के बृंदावन में बृजगोपाल और पार्थसारथी दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और परमपुरुष का लीलानन्द पक्ष, नित्यानन्द पक्ष में बदल जाता है। इसलिये उत्तम यह है कि मोहन तत्व के आभास होते ही बिना देर किये उनकी शरण में आ जाना चाहिये।