Monday, 29 December 2014

दीक्षा , मंत्र और यज्ञ

It is my pleasure; this blog is being liked and enthusiatically read by the readers of India, USA, Australia ,France, UAE, Germany, Poland and Spain. 

The postings in 4-1, 4-2 , 5-2, 5-3, 5-4 sections have been much appreciated during last week. 

Though I have explained about Diksha, Mantra, and Yagya etc in 3-2 to 3-4, yet many friends have queried about these philosophical terms. I am therefore illustrating them scientifically in the following post . Hope this will satisfy them and that they will not forget to share their feelings and comments.

दीक्षा क्या है? 
दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परम ब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक  प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक  दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र, मंत्रचैतन्य और अभिषेक आदि का समावेश  होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी; वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। "मननात  तारयेत् यस्तु  सः मन्त्रः परिकीर्तितः। "  

इस छंद  का अर्थ और भावार्थ भी  विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। शाब्दिक 
व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, " उत्पत्ति, पालन और संहार  की तरंगों में ओतप्रोत; निर्मित  , निर्माणोन्मुख  और निर्माण  योजनान्तर्गत  सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का  हम ध्यान वरण  करते हैं, जिससे  सभी प्रकाशित होते , आनंदित होते ,आते हैं  और वहीँ वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें । " 
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात। 
संक्षेप में इसे इस प्रकार समझाया गया है:-
(१) अ, उ और  का संयुक्ताक्षर 'ऊँ ' है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के  सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है ,   अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि  और हृदय  से अनुभव करना होता है क्योंकि यह cosmic sound of creation है। इसे  थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया  जा सकता  है।  यही  उत्पत्ति ,  पालन और  संहार का द्योतक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश का क्रमशः प्रतिनिधि है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।

(२) माना  गया है कि   ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश 'भूः  '  'भुवः ' और ' स्वः ' हैं। आधुनिक  वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न  होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं।

(३)  " तत्सवितुर्वरेण्यं'' का अर्थ है 'उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान ' 
(४) "भर्गः " 'भ' = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो  सभी लोकों को प्रकाशित करता है, 
                       'र' = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और 
                       'ग ' = गच्छति यास्मिन  आगच्छति  यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ 
                                  चले  जाते हैं ,
 (५) "देवस्य धीमहि" अर्थात परमदिव्य सत्ता , 
 (६) "धियोयोनः" अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७) "प्रचोदयात" अर्थात  शुद्ध करें।   

यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करता है इसके परिपक्व होने पर 'उनकी' कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में या आगे के।  उस समय  'सद्गुरु /महाकौलगुरु' स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को  अपने सामने अभ्यास  कराकर सिखाते  हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है। 
 तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर  अभ्यास कराते  हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनाद  (resonance) कराने  पर मन को स्थिर कर देता है।  इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm  का  resonance   कराना होता है  cosmic rhythm अर्थात औंकार ध्वनि से।  इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद करने पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विविन्न समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि  का अनुभव हो ही।  जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस  मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए बाकी  रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और  अपने अनुभवों और  ब्रह्म विद्या को सब को  सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।  इसलिए सच्चे  जिज्ञासुअों को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का  प्रयत्न करते रहना चाहिए।
 पूर्व में मैंने अपने ब्लॉग में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। 

 यज्ञ क्या है? 

इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ,
 नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात् (all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक  शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता है, यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्यों कि मनुष्य भी (created beings)  ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है। परंतु जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसी लिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि 
‘‘ पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः, 
ब्रह्मार्पणमं ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् , 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना‘‘। 
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हो गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।
आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जब कि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृयज्ञ चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के  ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इस लिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। इससे यह स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव , तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता हैं जो यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन का ही वहुरूप है (carbonic pebula) अतः इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमे आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड की , जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक  का उदाहरण देकर यह यज्ञकार्य किया जाता है वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है। वह श्लोक  कहता है कि 
‘‘ अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः। 
    यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।‘‘ 
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। अतः ऊपर वर्णित चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।

Thursday, 25 December 2014

5.4 भक्ति और कृपा

5.4 भक्ति और कृपा
भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिनी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।
भक्ति परमपुरुष की सेवा है, प्रेमानन्द स्वरूपी वह, भक्त की प्रत्येक श्वास और प्रश्वास है।
भक्ति =   भज्  + क्तिन, अर्थात् प्रेम पूर्वक प्रशंसा करना। किसी को पूजना। दो अस्तित्वों या सत्ताओं की आवश्यकता होती है, वह जिसकी प्रशंसा की जाती है और दूसरा वह  जो प्रशंसा करता है। यहां ये दो अस्तित्व हैं भक्त और भगवान।
आनन्दसूत्रम के अनुसार ‘भक्तिर्भगवदभावना न स्तुर्तिनार्चना।‘ भक्ति का अर्थ है परमब्रह्म का चिंतन, न कि प्रशंसा. स्तुति और न ही कर्मकांडीय प्रदर्शन । स्तुति का अर्थ है किसी के सामने उसकी प्रशंसा  करना। यह चापलूसी नहीं तो और क्या है? यदि कोई पुत्र अपने पिता के सामने उनकी तारीफ करे तो प्रसन्न होने के स्थान पर उन्हें गुस्सा नहीं आयेगा? अर्चना का अर्थ है फूलों और अन्य भौतिक कर्मकांडीय वस्तुओं के साथ पूजा करना। इन बस्तुओं को भेंट करने से किस स्तर का प्रेम प्रकट होगा? कर्मकांडीय प्रदर्शन  देश  काल और पात्र के बीच होता है जो इनके बीच भिन्नता पैदा कर भक्त और भगवान के बीच भिन्नता पैदा कर देता है। परंतु ब्रह्म के चिंतन में भक्त धीरे धीरे अपने इष्ट की ओर बढ़ता है और जैसे जैसे वह अधिक निकट बढ़ता जाता है उसका भक्तिभाव भी बढ़ता जाता है। जिस समय वह परम पुरुष को अपना व्यक्तिगत और अंतरंग आत्मा जैसा अनुभव करने लगता है वह उनके समक्ष ब्राह्मिक प्रवाह में अपना आत्मसमर्पण कर देता है। यदि व्यक्ति परमपुरुष के सामने आत्मसमर्पण नहीं कर सकता है तो वह जीवन में कभी आध्यात्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता । बिना आत्मसमर्पण किये परमात्मा की कृपा नहीं मिलेगी और बिना उसकी कृृपा के कुछ भी नहीं मिलेगा। इसलिये समर्पण के अलावा रास्ता है ही नहीं। भक्ति की अन्य परिभाषा है ‘‘ सा परानुराक्तिरीश्ववरे‘‘ । शब्द रक्ति का अर्थ है आकर्षण, अनुराग का अर्थ है किसी के लिये आकर्षण। दो प्रकार का आकर्षण एक अपरब्रह्म अर्थात् भौतिक बस्तुओं के लिये अैर दूसरा परम ब्रह्म अर्थात् अनन्त सत्ता के लिये। आकर्षण प्रकृति का नियम है, प्रतिकर्षण ऋणात्मक आकर्षण है। लक्षणों के अनुसार भक्ति को कुछ प्रकारों में निम्न प्रकार बांटा गया है।
1.निर्गुणा भक्ति: इसमें साधक अत्यधिक प्रेम के कारण बिना किसी अपेक्षा के अपने लक्ष्य की ओर चल पड़ता है। इसमें मानसिकता यह होती है कि मैं नहीं जानता कि मैं अपने ईश्वर  को क्यों चाहता हूं पर ऐंसा करने से मुझे अच्छा लगता है। मैं उन्हें चाहता हूॅं क्योंकि वह मेरे प्राणों के प्राण और आत्मा की आत्मा हैं।
2.वैधी भक्तिः इसमें साधक को ईश्वर  से कोई विशेष लवलीनता नहीं होती, । जिसमें कोई प्रतिज्ञा या व्रत के नाम पर गाय का गोबर लीपा जाता है, मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराकर राजसी वस्त्रों और आभूषणों से सजाकर, फूल, वेल पत्र चढ़़ाकर और विशेष मंत्रों का पाठ किया जाता है यह वैधी भक्ति में आता है। इस प्रकार की भक्ति में और जो कुछ भी हो पर भक्त के हृदय की सरलता का अभाव ही दिखाई देता है।
3.ज्ञानमिश्रा भक्तिः इसमें सात्विक साधक अपने उच्चतम लक्ष्य पर पहुंचकर भी परम ब्रह्म को भूलता नहीं है अतः आत्मज्ञान अपने आप उसके हृदय में प्रकट हो जाता है। यद्यपि यह निर्गुण भक्ति है पर इसमें कुछ अहंकार ज्ञान और दैवी शक्तियों के होने का भाव बना रहता है।
4.केवला भक्तिः  इसमें  जब भक्त अपने लक्ष्य से एकाकार हो चुकता है तो केवल एक ही सत्ता बचती है, परंतु यह किसी के अपने प्रयास से संभव नहीं होती परम पुरुष या महापुरुषों की कृपा से ही यह संभव होती है। भक्ति की यह परमोच्च अवस्था है। इसमें भक्त हर प्रकार की भेदात्मक बुद्धि और भिन्नताओं को भूल जाता है, इसे महिम्न ज्ञान कहते हैं। जबतक साधक के मन में भिन्नता का बोध रहता है वह ब्रह्म से एकाकार होने में संकोच करता है।
5.रागानुगा और रागात्मिका भक्ति: रागानुगा भक्ति में साधक की भावना रहती है कि वह भगवान को इसलिये प्रेम करता है क्योंकि इससे उन्हें  आनन्द मिलता है और इससे मुझे भी आनन्द प्राप्त होता है। रागात्मिका भक्ति में भक्त की यह भावना होती है कि मैं भगवान को प्रेम किये विना रह ही नहीं सकता भले ही इसमें मुझे कष्ट हो पर मेरी भक्ति से मेरे प्रभु प्रसन्न रहें। इन दोनों में अंतर यह है कि रागानुगा में आनन्द देने के बदले में आनन्द प्राप्त करने की भावना होती है जबकि रागात्मिका में केबल आनन्द देने की ही भावना होती है। इसलिये रागात्मिका भक्त श्रेष्ठ होता है। इस प्रकार के भक्त केवला भक्ति के पात्र होते है और गुरु कृपा से केवला भक्ति अर्थात् भक्ति की सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाते हैं। ये भक्त ही सिद्ध कहलाते हैं वे मृत्यु को जीत
लेते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं होती वे दुख, शोक और घृणा से मुक्त हो जाते हैं उन्हें किसी भी प्रकार की सांसारिक बस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती वे सदा ही  अपार आनन्दित अवस्था में रहते हैं।


      इसलिये अमरत्व के पुत्र पुत्रियो निर्भय होकर, हीन भावना त्यागो और अपने जन्म सिद्ध अधिकार ‘परमपुरुष का साक्षात्कार‘ को प्राप्त कर,  उन्हें अपना बना लो और अपने भीतर छिपी अपार शक्तियों, ज्ञान और तेज को प्रकाशित कर जगत का कल्याण करो और अमर हो जाओ।
5.3 मानव मन और माया तथा मानव मन पर माया का प्रभाव
अनन्द सूत्रम के अनुसार ‘शिवशक्तयात्मकम् ब्रह्म‘ अर्थात् ब्रह्म, शिव और शक्ति का सम्मिश्र हैं, उनका परस्पर संबंध अविच्छेद्य है। एक से दूसरे को अलग करने का प्रयास उनके अस्तित्व को ही खतरे में डाल देगा। वे, दूध और उसकी सफेदी, पानी और उसकी द्रवता, आग और उसकी दाहिकाशक्ति की तरह सघनता से संबद्ध हैं। कुछ लोग मानते हैं कि माया और प्रकृति समानार्थी हैं। सैद्धान्तिक रूप से उनकी समानता प्रतीत होती है पर प्रायोगिक रूप से  उनमें अंतर है। जब प्रकृति के तीनों गुण सत, रज और तम, बलसाम्य और भारसाम्य स्थिति में होते हैं तो वह अपनी आदिकालीन सुप्तावस्था में होती है और निर्माण व्यक्त नहीं होता। इस अवस्था को वर्णन करने के लिये पद ‘प्रकृति‘ का उपयोग किया जाता है। पर जब ये तीनों गुण अपना बलसाम्य और भारसाम्य खो देते हैं यह गुणात्मक जगत प्रकट होता है। इस अवस्था में जब प्रकृति , परमपुरुष  अर्थात् परम ज्ञानात्मक सत्ता के अनन्त शरीर के सीमित भाग पर निर्माण कार्य प्रारंभ करती है तब उसे माया अर्थात् परम रचनात्मक सत्ता  कहते हैं। विभिन्न जीवधारी, पेड़ पौधे और जानवर और अतुलनीय विभिन्नताओं वाले चारों ओर के संसार का निर्माण माया के द्वारा होता है, यह परम पुरुष की इच्छा और आज्ञा से होता है। निर्माण के क्षेत्र में रचनात्मक भूमिका की अनेकता होने के कारण माया की अनेक अभिव्यक्तियां होती हैं। जैसे,
1. महामाया
जब स्रष्टि भीतर और बाहर परम निर्माण सत्ता अपना रचनाधर्म जारी रखती है तो वह सत्ता जो गतिशीलता का वाह्य प्रभाव वनाये रखती है, वह महामाया कहलाती है। इस माया के प्रचंड प्रभाव के कारण ब्राह्मिक मन और पंच भूतों का निर्मााण होता है। इसके ही प्रभाव से प्रत्येक अणु और परमाणु सब अपने रूपान्तरण और परिवर्तन के स्तरों पर निर्धारित पथ का अनुसरण करते हैं और इकाई जीवों और इकाई मन अर्थात् चित्त, महत्, अहम आदि में बदलते रहते हैं। महामाया के प्रभाव से ही निर्जीव और सजीव संसार का निर्माण होता है। इसके विना सबकी सुप्त क्षमतायें विना किसी आकार के ही रह जावेंगी। ‘सर्वरूपमयी देवी सर्वं देवीमयं जगत, ततोहम विश्वरूपम् तम नमामी परमेश्वरीम्।‘ अर्थात् विश्व  का सभीकुछ उस महामाया के ही विभिन्न रूप है, मैं उस विश्वरूप वाली महामाया को प्रणाम करता हूॅं।
2. विष्णुमाया
जब वही माया अपनी बदली भूमिका में अपनी अतुलनीय रचनायें अंतहीनरूप से निर्मित करते हुए उनकी सुंदरता और आकर्षण में तल्लीन रहती है तो उसे विष्णु माया कहते हैं। विष्णु का अर्थ है सर्वव्याप्त अतः विष्णुमाया का अर्थ है जो इस अंतहीन संसार के प्रत्येक अणु परमाणु से अभिन्न रूपसे जुड़ी हुई है। भक्तों का एक समूह इस सर्वव्यापी विष्णु माया से अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अनेक प्रकार से अनुनय विनय करते रहते हैं, ‘‘ त्वम वैष्णवी शक्तिर्नन्तवीर्या, विश्वस्य वीजम् परमौसि माया, संम्मोहितम देवी समस्तमेतद, त्वम वै प्रसन्नभूवि मुक्ति हेतुः।‘‘
3. अनुमाया
प्रत्येक इकाई मन में रहने वाली रचनात्मक शक्ति को अनुमाया कहते हैं। इसके प्रभाव से सभी जीव अपने अपने वर्तमान भूत और भविष्य के रंगीन विचारों में व्यस्त बने रहते हैं। कुछ विचारों को वाह्य संसार में आकार मिल जाता है और कुछ मन में आते ही नष्ट हो जाते हैं। इसी के प्रभाव से अनेक लोग लुभावने भविष्य की आशा  से जानलेवा व्यवधानों से संघर्ष करते  आगे बढ़ते रहते हैं। धन दौलत नाम और यश  भी मानव मन के भीतर रहने वाली अनुमाया के प्रभाव से प्राप्त होते हैं।
4. योगमाया
जब परमप्रकृति जीवधारियों को परमपुरुष की ओर ले जाती है तो उसे योगमाया कहते हैं। यह संसार संचर और प्रतिसंचर के प्रवाह में लगातार परिवर्तित हो रहा है। ब्राह्मिक मन के अपकेन्द्र बल (centrifugal force) से पंच भूत और अभिकेन्द्र(centripetal force) बल से इकाई मन और उनमें जीवन का निर्माण हुआ है। मानव मन के द्वारा योगमाया का प्रभाव अधिक स्पष्ट अनुभव किया जाता है। सूक्ष्म जीवों को परम सत्ता तक ले जाने के प्रयास में वह इकाई मन को ब्राह्मिक मन से एकीकृत कराने हेतु लगातार जुटी रहती है।
5. अविद्यामाया
परमप्रकृति जो जीवों को सूक्ष्मता   से जड़ता ही ओर ले जाती है अविद्यामाया कहलाती है। स्रजन  की संचर क्रिया अविद्यामाया से ग्रस्त रहती है। यह मानव मन को दो प्रकार से प्रभावित करती है दार्शनिक रूप से एक को विक्षेपीशक्ति और दूसरी को आवरणीशक्ति कहते हैं। जब मनुष्य जड़ पदार्थ का चिंतन करता है तो उसका  मन परम सत्ता से हट जाता है और आध्यात्मिक  जागरूकता धूमिल होने लगती है यह विक्षेपशक्ति के कारण होता है। यदि कोई किसी के पास रहता है तो जरूरी नहीं कि वह उसके संबंध में सब कुछ जान ले जैसे कोई वस्तु कपड़े में लपेटकर किसी के पास रखी रहे तो उसे कुछ भी पता नहीं हो सकता कि वह क्या है जबतक उसका कपड़ा न हटाया जावे। यह प्रभाव आवरणीशक्ति का होता है वह ज्ञान पर परदा डाल देती है। अंधेरे में  किसी वस्तु का सही ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता भले ही अस्पष्ट विचार बन जावे। अविद्यामाया की इन्ही विक्षेपी और आवरणी शक्तियों के प्रभावी होने के कारण परम सत्ता के संबंध में मन, विभक्त विचार बना लेता है।
6. विद्यामाया
जड़ चिंतन से सूक्ष्म चिंतन की ओर जीवों को ले जाने वाली परमप्रकृति विद्यामाया के नाम से जानी जाती है। इसके सहारे इकाई मन स्थायी प्रगति करता हुआ परम पुरुष की ओर बढ़ता जाता है और अविद्या का बंधन ढीला हो जाता है और यात्रा के समाप्त होने पर विद्या भी समाप्त हो जाती है। आध्यात्मिक प्रगति के लिये विद्यामाया की आवश्यकता पड़ती है परंतु साधना के अंतिम स्तर पर पहुंचने पर उसकी आवश्यकता नहीं रह जाती। साधना की सहायता अविद्या के द्वारा बनाये गये अंधेरे परदों को फाड़कर प्रतिसंचर के रास्ते पर बढ़ने के लिये ली जाती है। विद्यामाया अपनी दो शक्तियों के माध्यम से कार्य करती है, संवित शक्ति  और ह्लादनी शक्ति या राधिकाशक्ति। संवितशक्ति का काम जागरूकता लाना है वह नींद से जगा देती है और संवितशक्ति के कारण वह अपना अस्तित्व पहचान जाता है कि वह स्रष्टि का शीर्ष है और उसे अविद्यामाया के आवरण को हटाकर परम सत्ता से साक्षात्कार करना है। जब यह विद्यामाया द्वारा प्रभावी बल साधक के मन में अच्छी तरह बस जाता है तो विक्षेपीशक्ति के विरुद्ध संघर्ष कर वह परमपुरुष के साथ समीपता का अनुभव करता है, इसे ह्लादनीशक्ति कहते हैं। साधकों को यह शक्ति सभी बाधाओं से पार कराते हुए आनन्द रस का अनुभव कराती है। वैष्णव लोग इसे श्रीराधा कहते हैं।

7. अनुमाया को छोड़ कर सभी प्रकार की माया विश्वमाया  कहलातीं हैं। इसप्रकार इकाई मानव और   परमपुरुष के बीच माया ने अपना गहरे काले रंग का संसार बसा दिया है यही कारण है कि लोग संसार का सही अर्थ समझ ही नहीं पाते क्योंकि उनकी आंखों के सामने यह स्पष्ट विभाजन रेखा खींची होती है। इस शक्तिशाली माया से जूझना कठिन है पर यह माया है तो परम पुरुष की ही अतः परमपुरुष की शरण में चले जाने वालों को माया स्वयं रास्ता दे देती है। देवी ह्येषा गुणमयी मममाया दुरत्यया, मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताम् तरन्ति ते।

8. साधना का संघर्ष करने के तीन रास्ते हैं, दक्षिणाचार, वामाचार और मध्यमाचार। दक्षिणाचार में साधक प्रकृति के विरुद्ध सीधे संघर्ष करने में डरता है। वह उससे अनुनय विनय और स्तुतियों से प्रसन्न और शान्त कर मुक्ति चाहता है।  यह सोचने की महत्वपूर्ण बात है कोई शक्तिशाली व्यक्ति चापलूसी और गुणगान से प्रसन्न होकर कुछ रियायत या छूट दे सकता है पर पूरी स्वतंत्रता नहीं। वामाचार में विना किसी लक्ष्य के अंधाधुंध, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़कर विजय प्राप्त कर साधक मुक्त होना चाहता है, पर इसमें उनका साहस प्रशंसनीय भले हो पर लक्ष्य का निर्धारण न होने से साधक बीच में ही भटक जाता है और अपने घोर पराक्रम से अर्जित शक्तियों का दुरुपयोग कर बैठता है और असफल रहता है और जानबूझकर पाश्विक स्तर तक गिर जाता है। मध्यमाचार में साधक का लक्ष्य ब्रहम प्राप्ति का होने से वह ब्रह्मज्योति के सहारे अविद्या के अंधेरे पर्दों को चीर कर आगे बढ़ता है और अपने लक्ष्य को पा जाता है।

9. अब प्रश्न  यह है कि शक्तिशाली माया के बंधनों से मुक्त होने के लिये किसकी शरण ली जावे? किसे आश्रय के रूप में स्वीकार किया जावे? वेदों में कहा गया है कि
 ‘क्षरमप्रधानम् अम्रताक्षरम हरः, क्षारात्मनाविशते देव एकः,
 तस्याविध्यानद योजनात् तत्वभावाद् भूयशान्ते विश्वमायानिवृत्तिः।‘
           जब पुरुष को, प्रकृति अपने प्रभाव से इस संसार में परिवर्तित करती है तो जो भाग रूपान्तरित हो जाता है उसे क्षर कहते हैं। अतः संसार के संबंध, धन, दौलत और जमीन आदि सभी क्षर हैं इसलिये इनका लक्ष्य बना कर प्रकृति से संघर्ष करना व्यर्थ है। अक्षर, वह भाग है जो परिवर्तित नहीं होता और प्रकृति के साथ साक्षीसत्ता के रूप में रहता है। क्षर और अक्षर के अलावा एक और सत्ता होती है जिसे पुरुषोत्तम कहते हैं। परमचेतना जब तमोगुण के प्रभाव में होती है तब उसे प्रज्ञा कहते हैं। ईश्वर भाव पुरुषोत्तम की विशेष अवस्था है इसे साधना की जरूरत नहीं होती। परंतु प्रज्ञा अर्थात् इकाई चेतना, प्रकृ्ति के तमोगुण के प्रभाव के विरुद्ध अपना संग्राम जारी रखती है और जब संघर्ष में सफल हो जाती है तो वह परमात्मा में मिल जाती है। परंतु प्रकृति के विरुद्ध संग्राम छेड़ने से पहले योग्य व्यक्ति से उसकी विधि सीखना पड़ती है। यह योग्यता सदगुरु  में ही होती है और सदगुरु  ब्रह्म के अलावा कोई नहीं हो सकता है। इसलिये कहा गया है कि मुक्तयाकांक्षया सदगुरु प्राप्तिः, अर्थात् मुक्ति की  तीव्र इच्छा/आकांक्षा होने पर ब्रह्म ही सद्गुरु के रूप में दीक्षा देते हैं।  इसलिये आध्यात्म के क्षेत्र में सदगुरु  और दीक्षा का बहुत महत्व है।

Saturday, 20 December 2014

5.21 निद्रा और मृत्यु

5.21  निद्रा और मृत्यु
 इन में अंतर यह है कि मृत्यु के बाद स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों मनों के कार्य बंद हो जाते हैं। निद्रा के समय कारणमनधारी देह में दस वायुओं की क्रिया में वाधा नहीं पहुंचने से प्राण शक्ति ठीक ही रहती है परंतु मृत्यु में कारणमन कार्यकरना बंद कर देता है और शरीर जड़वत् पड़ा रहता है। निद्रा और अचेतन अवस्था में अंतर यह है कि निद्राकाल में स्थूल और सूक्ष्म मन अर्थात् काममय और मनोमय कोश  थकान के बाद विश्राम करते हैं जबकि अचैतन्य अवस्था में बाहर से आघात लगने पर स्थूल और सूक्ष्म मन काम करना बंद करने के लिये वाध्य हो जाते हैं। निद्रा सामयिक विश्रान्ति है इसलिये इसके बाद शरीर स्वस्थ मालूम होता है जबकि अचैतन्य के बाद शरीर अत्यंत कमजोर मालूम होता है।

 5.22  सविकल्प समाधि और निद्रा
सविकल्प समाधि में जैव मन ब्राह्मी मन में एकीभूत हो जाता है और अत्यधिक आनन्द प्राप्त करता है क्योंकि ब्राह्मी मन के बाहर कोई भोग्य सत्ता नहीं रहने के कारण उसकी शान्ति के नष्ट होने की कोई संभावना नहीं रहती। निद्रा और अचैतन्य के समान उसमें भी प्राणशक्ति ठीक ही रहती है और दैहिक कार्य जड़ वस्तुओं की तरह ब्राह्मी मन के द्वारा नियंत्रित होता रहता है। किन्तु शरीर का अभुक्त संस्कार जीव को अधिक काल तक इस ब्राह्मी अवस्था में नहीं रहने देता, प्रकृति का रजोगुण संस्कार भोग के लिये उसे जैव भाव में वापस ले आता है।
 5.23  सविकल्प और निर्विकल्प  समाधि
निर्विकल्प और सविकल्प समाधि में अंतर यह है कि निर्विकल्प में जैव मन निष्कल पुरुष में समाहित हो जाता है इसलिये इस अवस्था में भोग. भोग्य. भोक्ता या ज्ञान. ज्ञेय. ज्ञाता भाव नहीं रहता है। केवल एक अनभिव्यक्त आनन्दसत्ता रहती है जिसका भोक्ता आनन्द में आत्म विस्म्रित होकर ‘‘ क्या पाया हूॅं क्या पाता हॅू‘‘ भूल जाता है। जीव की यह अवस्था अधिक देर नहीं रह पाती क्योंकि, प्रकृति का रजोगुण अभुक्त संस्कार भोग के लिये उसे वापस जैव भाव में ले आता है। जैव भाव में आने के बाद वह पाता है कि अज्ञात लोक से एक अफुरन्त आनन्दधारा उसके मन को प्राण को और सर्व सत्ताओं को प्लावित कर रही है। अभाव बोध के बाद जब मन आनन्द श्रोत में डूब जाता है तब समझना चाहिये कि इससे पूर्व की अभावावस्था और कुछ नहीं निर्विकल्प समाधि थी। मन के नहीं रहने पर विषय नहीं था इसलिये वह अवस्था अभाव की थी, जिसके संस्कार बाकी नहीं हैं उसकी सविकल्प या निर्विकल्प समाधि के भंग होने का प्रश्न  ही नहीं है, इसी स्थायी सविकल्प का नाम मुक्ति है और स्थायी निर्विकल्प का नाम मोक्ष है।

5.24 समाधि प्राप्त करने का रहस्य
1. मन में हमेशा  संकल्प और विकल्प आते रहते हैं। संकल्प से इंद्रियों की सहायता लेकर मन जगत में कर्म करता है और विकल्प से विपरीत विचार लाकर कर्म से विपरीत जाने लगता है। मन की इस धनात्मक और ऋणात्मक विचारधारा का साधक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, समाधि के साथ उसका क्या संबंध है, साधक यदि कर्म में लगे रहकर समाजसेवा को लक्ष्य मान ले तो इस दशा  में क्या उसे समाधि प्राप्त हो सकती है?
समाधि, वास्तव में मन की न तो धनात्मक और न ही ऋणात्मक अवस्था है, यह तो साम्यावस्था है। जैसे जल की शांत निर्वात अवस्था में जब वह सरलरेखाकार होता है तब उसे साम्यावस्था कहा जाता है। चंचल
जलराशि की ऊर्ध्व  तरंगें यदि संकल्प और अधोतरंगें विकल्प कहलायें तो जब ये आपस में घुलमिलकर सरलरेखा में समाहित हो जावें तो वही साम्यावस्था कहलायेगी। समाधि में मन की भी यही अवस्था होती है। संकल्पविकल्पात्मक मन चंचल जलराशि  के समान हमेशा  आन्दोलित होता रहता है और इस आन्दोलन के समय संकल्प और विकल्प दोनों को ही एक बार मन की प्रशान्तवाहिता सरल रेखा को स्पर्श  कर जाना पड़ता है, इसीलिये प्रत्येक भावना में सभी स्थानों, समयों और पात्रों में एक प्रकार की अस्थायी साम्यावस्था का अनुभव होता है। यद्यपि प्रवृत्ति मूलक कर्म में व्यस्त रहने पर निर्वृत्ति  और साम्यावस्था दोनों ही असंभव लगती हैं। ठीक इसी प्रकार निवृत्ति मूलक कर्म जिनका स्वभाव हो गया है उन्हें प्रवृत्ति और साम्यावस्था असंभव लगतीं हैं। जल में रहने वाले प्राणी स्थल में और स्थल पर रहने वालों को  जल में रह पाना असंभव लगता है। वस्तुतः इस संदर्भ में व्यक्तिगत प्रयत्न और अभ्यास और प्राकृतिक व्यवस्था ही सबसे बड़ी बात है संभव या असंभव का
प्रश्न  ही नहीं है। जो मनः साम्य की साधना करते हैं उनके लिये मन की प्रशान्त वाहिता ही स्वाभाविक हो जाती है प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों असंभव हो जाते हैं।
2. प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही जागतिक वृत्ति के द्वारा जुड़े होते हैं, क्योंकि कोई भी मनःसाम्य की साधना नहीं है इसलिये इनमें से किसी के द्वारा परम शान्ति (absolute bliss)  प्राप्त करना संभव नहीं है। प्रवृत्ति की साधना के लिये वस्तु या भाव विशेष के प्रति राग और उसे प्राप्त करने का अभ्यास तथा निवृत्ति के लिये इनके
प्रति द्वेष तथा उससे मुुक्त होने का अभ्यास किया जाता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के लिये क्रमशः  राग और द्वेष तथा तत्संबंधी प्रयास दोनों की अनिवार्यता है, किसी एक की कमी होने पर सिद्धि प्राप्त करना असंभव है। इसलिये जो निवृत्ति मार्ग के अनुयायी हैं वे घर, माता पिता स्त्री पुत्र सब को माया जाल कहकर संन्नयास लेने को उत्प्रेरित  करते हैं अर्थात् द्वेष और त्याग का अभ्यास करने को कहते हैं जबकि समाधि न तो प्रवृत्ति मूलक है
और नही निवृत्ति। वास्तव में वैराग का अर्थ है राग का अभाव , अर्थात् विषयों का दास न होकर उनका समुचित व्यवहार करते हुए ब्रह्म भावना का अभ्यास करते जाना । अभ्यास कहते हैं ‘‘तत्रस्थितौ यत्नोअभ्यासः’’ अर्थात् एक विशेष प्रकार की मानस तरंग का क्रमागत अनुवर्तन करते जाने का नाम अभ्यास है। चित्त की साम्यावस्था को स्थायी बनाने का जो  अभ्यास है उसे कहेंगे समाधि का अभ्यास। किसी वस्तु के प्रति राग का अर्थ है उसकी ओर दौड़ना और द्वेष का अर्थ है उस वस्तु के विरुद्ध दौड़ना। साम्यावस्था पाने के लिये दोनों राग तथा द्वेष का वर्जन करना होगा अन्यथा समाधि का अनुभव करना संभव नहीं । मन की साम्यावस्था का अभ्यास करते करते साम्यावस्था ही स्वाभाविक हो जायेगी जैसे राग का अभ्यास करने से राग और द्वेष का अभ्यास करने से द्वेष स्वाभाविक होता है। दीर्घकाल के साधना के अभ्यास से ही समाधि में प्रतिष्ठित हुआ जाता है। इस में किसी प्रकार की दीर्घसूत्रता मान्य नहीं क्योंकि एक बार अभ्यास छूटने पर हजार प्रकार की काम्य धारायें उस स्थान को लेने के लिये आ दौड़तीं हैं।
3. किसी विषय को युक्ति तर्क के द्वारा समझ लेने के बाद उसका अनुशीलन करने पर श्रद्धा उत्पन्न होती है। साध्य के प्रति श्रद्धा नहीं होने पर सिद्धि नही मिलती, ‘‘श्रत् सत्यं तस्मिनधीयते  इति श्रद्धा’’। चित्त के सम्प्रसाद को भी श्रद्धा कहा जा सकता है, अर्थात् जिस वस्तु के सान्निध्य में आने पर चित्त की व्याप्ति होती है समझ लो तुम्हे उसके प्रति श्रद्धा है। समाधि चित्त की परम व्याप्ति है इसीलिये श्रद्धा समाधि का प्रथम सोपान है। दीर्घकाल
तक यथोपयुक्त भाव से श्रद्धा के साथ अभ्यास करते जाना होगा अन्यथा समाधि दार्शनिक   पुस्तकों का ही विषय बनी रहेगी जीवन के साथ उसका संपर्क नहीं हो सकेगा। किसी आचार्य ने कहा है इसलिये साधना करने के भाव से  कुछ नहीं मिलता बल्कि जो यह सोचते हैं कि मैं साधना में सिद्धि लाभ करना चाहता हूं और इसीलिये आचार्य मेरी सहायता कर रहे हैं, उन्ही की साधना लक्ष्य प्राप्त कराती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही मन की वृत्तियां हैं, जो जिसका जितना अभ्यास करता है उसके लिये वह उतना ही सहज हो जाता है । समाधि का स्थान प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से अतीत है। प्रवृत्ति, निवृत्ति की साधना में श्रद्धा अनिवार्य नहीं है। समाधि की साधना में किसी वस्तु की भावना के समय यदि कोई अवांछित चिन्ता या मानसिक तरंग उत्पन्न होती रहे तो उसे दूर करने के लिये जिस मनःशक्ति से वह हटायी जाती है उसे कहते हैं वीर्य। श्रद्धा के परिणाम से ही वीर्य उत्पन्न होता है, इस वीर्य के फलस्वरूप ही अवांछित तरंग के हट जाने से ध्येय विषय की एकतानता या निरविच्छिन्नता प्राप्त होती है।
4. ‘‘अनुभूतविषया सम्प्रमोषः स्मृतिः’’ अनुभूत विषय की तरंग को पुनः उत्पादित करने का नाम है स्मृति। वीर्य के द्वारा यह स्मृति उत्पन्न होती है। श्रद्धा के फलस्वरूप उत्पन्न वीर्य के द्वारा साधना के बाधा समूह को हटाकर जब ध्येय विषय के साथ एकतानता प्राप्त हो जाती है और यह किसी समय टूटती नहीं है तो उसे धु्रवास्मृति कहते है। प्रवृत्ति की तरंग तो सबकुछ को ही भुलाकर रखना चाहती है। ध्रुवास्मृति के फलस्वरूप जब ध्येय के अलावा और कोई विषय साधक के सामने नहीं होता है तो उसी अवस्था का नाम समाधि है। इस अवस्था में मन और उसका ध्येय एक हो जाते हैं। यदि सूक्ष्म विचार किया जाये तो यह भी मन की एक
निश्चयात्मक अवस्था है, जो आभोग की सीमा में होने से इससे शाश्वति शान्ति  प्राप्त होना संभव नहीं है। किन्तु आभोग से मुक्त होने का क्या है उपाय? विषय वितृष्णा एक प्रकार का ऋणात्मक भाव है, अतः इसका परिणाम भी एक प्रकार कर आभोग ही है, क्योंकि  यदि इससे स्थूल विषय से हट भी जायें  तो भी व्यक्ता प्रकृति के अभाव होने से अवयक्ता प्रकृति या अविषयाभूत प्रकृति में आसक्ति उन्पन्न होती है। चित्त,  जड़, या मानस, प्रत्याहार के फलस्वरूप अव्यक्त प्रकृति में वशीकार सिद्धि की अवस्था में  लीन हो जाता है, यह सिद्धि भी चरम सिद्धि नहीं है। भले यह जड़ात्मक नहीं पर निर्वीज भी नहीं क्योंकि इसमें व्यक्तिकरण की संभावना रहती है, इसे प्रकृतिलीन समाधि कह सकते हैं कैवल्य जैसी नही । निर्वीज समाधि की निरंतरता प्राप्त नहीं होने तक उसे असंप्रज्ञात कह सकते हैं पर मोक्ष नहीं।
5. निवृत्ति का पथ पकड़ कर सभी विषयों को हरा देने से साधक प्रकृति लीन हो जाता है, यहां पुनः जन्म की संभावना बनी रहती है भले ही वह लाखों वर्ष में हो । इसी प्रकार विदेहलीन अवस्था भी भव प्रत्यय के द्वारा होती है इसमें भी पुनः जन्म हेतु अविद्याश्रयी संस्कार रह जाते है, इसलिये निर्वीज होने पर भी ये असंप्रज्ञात नहीं। विदेहलीन अवस्था शून्य के  ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है। इससे शून्य का आभोग रह जाने से अर्थात् चित्त में एक तत्व का अभाव (पुरुष तत्व का) रहने से पुरुष में प्रतिष्ठा या मोक्ष लाभ नहीं होता है। इस प्रकार प्रकृतिलीन और विदेहलीन दोनों ही अवस्थायें ऋणात्मकता में प्रतिष्ठित हैं। इनके फलस्वरूप पुनः जन्म की संभावना अवश्य  ही रहती है। इसलिये साधकों का पथ, भव प्रत्यय नहीं वरन् उपाय प्रत्यय है। अर्थात् इसे उपाय के द्वारा , चेष्टा के द्वारा कालातीत भाव से समाधि में स्थापित करना होगा । प्रकृत वस्तु के भोग अथवा त्याग करने के उपाय में लगे रहना उचित नहीं, उनका पथ त्याग का नहीं मनः साम्य का हैं, प्रकृति उनका ध्येय नहीं तो वर्जनीय भी नहीं । पुरुष उनका ध्येय हैं, अतः धीरे धीरे उनकी संपूर्ण सत्ता पुरुष में ही लीन होगी। इसीलिये उपासना प्रकृति की नहीं पुरुष की करनी होगी, पुरुष की इस साधना से प्राप्त निर्वीज समाधि की निरंतरता को ही मोक्ष कहते हैं। संप्रज्ञात समाधि मन की एकाग्र भूमि में ही होती है। चित्त में एक विषय के आभोग के कारण समाधि पाने के बाद सुविधानुसार जिस किसी विषय में समाधि लाई जा सकती है क्योकि एक विषय की तरंग पर जिसका नियंत्रण हुआ है, अन्य विषय में भी सहज रूप में उसका नियंत्रण आ सकता है। त्रिकाल के संबंध में जो ज्ञान है वह सर्वज्ञता कहलाता है। सर्वज्ञता का बीज प्रत्येक व्यक्ति में ही है केवल उसकी विकास मात्रा में भेद होता है।
6. संप्रज्ञात समाधि में सर्वज्ञता का बीज सातिशय होता है और स्थायी सविकल्प में निरतिशय हो जाता है क्योंकि तब उसका विषय अनुमानस में सीमित न होकर भूमा में परिवर्तित हो जाता है और उसकी संभावना अपरिमाप्य हो जाती है। साधना के द्वारा अपरिपुष्ट बीज क्रमशः  परिपुष्टता प्रहण कर निरतिशयित्व की ओर बढ़ता जाता है अतः उच्च श्रेणीके साधकों को वाह्य वस्तु के ज्ञान आहरण का कोई प्रयोजन नहीं होता, भूमा के प्रसाद से ज्ञान प्रसाद स्फूर्त हो उठता है। ‘‘तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व बीजम्’’। संप्रज्ञात समाधि चंचल चित्त से उपलभ्य नहीं, जिस तरंग में मैंपन का बोध हुआ है वही संप्रज्ञात है, लेकिन जड़ समाधि को संप्रज्ञात नहीं कहेंगे। जब धन दौलत घर द्वार आदि जड़ पदार्थों में एकाग्रता प्राप्त चित्त केवल उन्हीं का रूप धारण करता है, जगत का और कुछ दिखाई नहीं देता, इसे ही संप्रज्ञात जड़ समाधि कहते हैं इसका ध्येय स्थूल या सूक्ष्म मानस आभोग  होता है। असंप्रज्ञात का ध्येय पुरुष होता है, अतः प्रकृतिलीन और विदेहलीन अवस्था संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात के बीच की अवस्था कही जा सकती हैं। संप्रज्ञात के चार स्तर हो सकते हैं, 1. सवितर्क स्तर पर पुत्र धन घर आदि में एकाग्रता होने पर, 2. ऋणात्मक सवितर्क स्तर पर उपरोक्त विषयों से मन को हटाने की एकाग्रता होने, 3. सविचार समाधि में चित्त स्थूल आभोगों में रत नहीं होता पर नाम यष आदि सूक्ष्म आभोगों के पीछे दौड़ता है, और 4. जब इन सब से दूर रहने के प्रयासों में एकाग्रता प्राप्त हो तो वह ऋणात्मक सविचार के अंतर्गत आती हैं। इसके बाद के स्तर को आनन्द समाधि कहते हैं, इसमें चित्त का कोई सूक्ष्म आभोग नहीं होता पर एक सूक्ष्म दैहिक और मानसिक बोध होता है कि मैं आनन्द का उपभोग कर रहा हूॅं, इसका भी ऋणात्मक पहलु है। इसके बाद चतुर्थ स्तर पर आती है सास्मित समाधि, इसमें पुरुष सत्ता का बोध अर्थात् मैंपन का बोध रहता हैं इस स्तर पर इस मैंपन का बोध समाप्त हो जाने पर एक सूक्ष्मस्तरीय एकात्मिका का ज्ञान आता है जिसे असंप्रज्ञात समाधि कहते हैं। इसमें रह जाती है केवल एक पुरुष सत्ता, सबको छोड़ केवल पुरुष भाव में रहने को कहते हैं पुरुष ख्याति।
7. पुरुष ख्याति में स्थापित होने का उपाय है कि वे मेरे विषयी तथा मैं उनका विषय हूँ  इस प्रकार का भाव रख कर उनमें आत्म समर्पण करना, अर्थात् अपने उत्स में लौट जाना। ईश्वर प्रणिधान  के द्वारा यह संभव है। प्रणिधान का अर्थ है जप क्रिया के द्वारा प्राप्त भक्ति। इसलिये ईश्वर  प्रणिधान का अर्थ हुआ ईश्वर  सूचक भाव लेकर ईश्वर  वाचक शब्द का जप करते जाना । यह एक वीर्यदीप्त साहसिक साधना है, दुनियाॅं को धोखा देना या भीरु की तरह दायित्व से छुटकारा पाना नहीं है। ईश्वर  प्रणिधान से चित्त की भावधारा सरलरेखाकार होजाने से असंप्रज्ञात समाधि पाना संभव हो जाता है परंतु ध्यान क्रिया इससे भी सरल है। ईश्वर  प्रणिधान संप्रज्ञात
 समाधि के लिये अधिकतर उपयोगी है क्योंकि इसमें अल्पकाल में ही मन एकाग्र होजाता है तथा उसके बाद जो सामान्य मैंपन का बोध रह जाता है उसे ध्यान क्रिया से सहज ही त्याग किया जा सकता है और असंप्रज्ञात समाधि में प्रतिष्ठा पाई जा सकती है। विषय विषयी भाव जब तक हैं उपासना का सुयोग तभी तक है क्योंकि उपासना सगुण या तारक ब्रह्म की ही होती है निर्गुण की नहीं । अनादिकाल से ही यदि कोई क्लेश  कर्म विपाक और आशय से मुक्त हुए रहे हों तो उनकी उपासना निरर्थक है। जीव कर्म के फल से ही क्लेश  भोगता है, क्लेश  से विपाक और विपाक से विपाकानुरूप वासना या आशय का उद्भव होता है जिन्हें इन का कुछ भी भान नहीं  जिन का मन कहकर कुछ भी नहीं है, उनकी उपासना से और  जो कुछ क्यों न पा लिया जाये कृपा तो नहीं पाई जा सकती। मनुष्य पर कृपा करने का अधिकार निर्गुण पुरुष का कैसे हो सकता है, यह तो उस मुक्त पुरुष का अधिकार है जो कभी बद्ध थे अर्थात् सगुण ब्रह्म का, और है तारक ब्रह्म का जिनका मन सगुण निर्गुण के स्पर्श
विन्दु में प्रतिष्ठित है। जो कभी बद्ध थे वर्तमान में मुक्त हैं भविष्य में भी बद्ध नहीं होंगे । वे भी सगुण ब्रह्म के ही समान हैं उन्हें कहा जाता है महापुरुष। कृपा करने का अधिकार उनका भी है। ब्रह्म कृपा से ईश्वर  प्रणिधान के पथ पर द्रुत गति से बढ़ते हुए उनके ध्यान में उनकी सत्ता में अपने मैंपन का उत्सर्ग कर जीव परम शान्ति लाभ कर सकता है।

Friday, 19 December 2014

5.2 समाधियाॅं

5.2  समाधियाॅं 
जब आप किसी वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं चाहे वह भौतिक हो काल्पनिक या आध्यात्मिक ,और जब आपका मन उस वस्तु के साथ पूर्णतः एकीकृत/समीकृत हो जाता है तो कहा जाता है कि आप उस वस्तु के साथ समाधि में आ गये हैं। इस प्रकार समाधियों को मोटे तौर पर निम्नाॅंकित भागों में बाॅंटा गया हैः-
1  जड़ समाधिः- जब मन की वृत्तियों को बलपूर्वक निलम्बित कर दिया जाता है तो उसे जड़ समाधि कहते हैं जैसे, पातंजली की परिभाषानुसार चित्तवृत्तियों का निरोध करने पर जड़ समाधि होगी क्यों  कि वे वृत्तियाॅं भीतर ही तो रहेंगी कुछ देर के लिये उनका निलंबन हुआ है अतः जड़ समाधि कहलायेगी। इसी प्रकार भौतिक जगत की वस्तुओं पर चिंतन करने पर यदि मन उनके साथ अपना समीकरण स्थापित कर ले तो जड़ समाधि होगी, लकड़ी पत्थर और अन्य पदार्थों पर किया गया चिंतन इसी प्रकार जड़ता में ले जाता है। यह दो प्रकार से हो सकती है, एक तो बाहरी आव्जेक्ट को देखने से और दूसरी इंद्रियों को बाहरी ओर से बंद कर लेने पर।
2 भावात्मक समाधिः- तन्त्र के अनुसार जीवात्मा और परमात्मा का पारस्परिक एकीकरण होने को योग कहा जाता हैं। अतः इंद्रियों के निलंबन करने के बाद भी समाधि हो भी सकती है और नहीं भी। जब मन किसी भावात्मक विचार में चिंतन करते हुये उस भाव के साथ समीकृत हो जाता है तो भावात्मक समाधि होती है। यह दो प्रकार की होती है। पहली पूर्णतः मानसिक होती है जैसे, आप फुटवाल के बारे में सोचते हुए उसके साथ एकीकृत होते हैं तो मन का एक भाग  फुटवाल का रूप लेता है और दूसरा उस रूप को देखता है। यहाॅं द्रश्य  और
द्रष्टा दोनों ही मानसिक हैं सब्जेक्टिव और आव्जेक्टिव मन। यदि सब्जेक्टिव मन पूर्णतः आव्जेक्टिव मन  के साथ समीकृत हो जाता है तो इसे पूर्णतः मानसिक समाधि कहेंगे। यह भी दो प्रकार से हो सकती है एक तो मानसिक वस्तु का निर्माण करने से और दूसरी उन इंद्रिय तंतुओं पर चिंतन करने से जो भीतर आने वाली तन्मात्राओं को ग्रहण करती हैं।
इसलिये जब भौतिक जगत की वस्तुओं पर समाधि हो तो वह जड़ और जब इंद्रियों पर समाधि हो वह मानसिक समाधि कहलायेगी क्योंकि इंद्रियाॅं मन का ही विस्तार हैं। अर्थात् किसी वस्तु पर लगातार देखने से यदि मन उसके साथ पूर्ण एकाकार हो जाये रूपतन्मात्रा के कारण, तो वह जड़ समाधि होगी, और जब किसी इंद्रिय को बल पूर्वक रोक कर वस्तु के साथ एकीकरण किया जावे तो भी वह जड़ समाधि कहलायेगी। निरोध का अर्थ निलंबन करना नहीं है वरन् प्रतिबंधित करना है। जब मानसिक वस्तु का निर्माण कर मन का कुछ भाग उसका आकार लेले और दूसरा भाग उसे देखे तो यह देखने वाला भाग एक प्रकार की समाधि का अनुभव करता है वह
 पूर्णतः मानसिक है और बाहर दिखाई दे रही वस्तु पर जब चिंतन न करते हुए देखने वाली इंद्रिय पर ही चिंतन किया जाता है, (यहाॅं इंद्रिय का अर्थ भौतिक इंद्रिय का प्रवेश  द्वार नहीं वरन् वह जो मस्तिष्क में नियंत्रण करने वाला विंदु है वह है,) तो इस प्रकार मन, देखने वाली चाक्षुस्  इंद्रिय में ही परिवर्तित हो जाता है, यह भाव समाधि का प्रकार ही है। यह आन्तरिक होती है पर फिर भी शुद्ध मानसिक नहीं। कुछ लोग इसे भी जड़ समाधि ही मानते हैं।
3. आध्यात्मिक समाधिः-  यह केवल एक प्रकार की ही होती है, और यह केवल प्रणिधान या अनुध्यान से ही होती है। मन आध्यात्मिक विषय में निलंबित होकर समाधि पाता है। अतः दो प्रकार की जड़ और दो प्रकार की मानसिक समाधियाॅं  और एक प्रकार की आध्यात्मिक समाधि होती है। आध्यात्मिक समाधि की ही सबसे अधिक मान्यता है। इनका वर्णन नीचे दिया जा रहा हैः-


    अनिन्द्यानन्द रस समाधि
मानव मन की विभिन्न प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये रीढ़ के भीतर पाये जाने वाली अनेक ग्रंथियों और उपग्रंथियों के द्वारा कई नाड़ी केन्द्र बनाये जाते हैं जिन्हें तंत्र में चक्र या प्लेक्सी कहते हैं। प्रत्येक चक्र निर्घारित संख्या की प्रवृत्तियों का नियंत्रण करता है। इस विशेष ग्रंथी से निकलने वाला रस या हारमोन उस ग्रंथी, उपग्रंथियों और उनसे जुड़ी वृत्तियों को नियंत्रित करता है। प्रति दिन हम जो भोजन करते हैं वह रस,रक्त,मास,मज्जा और लसिका (limph) में बदलता है, लसिका विभिन्न प्रकार के हारमोन्स में बदलती है। साधक के पिनियल ग्लेंड से निकलने वाला विशेष प्रकार का हारमोन पिट्यूटरी ग्लेंड में आता है और उस समय यदि साधक आध्यात्मिक गंभीर चिंतन में मग्न रहता है तो यह हारमोन पिनियल ग्लेंड के बायीं  ओर नीचे बहकर अन्य ग्रंथियों  और उपग्रथियों में प्रवेश  कर जाता है जो उन्हें सक्रिय कर देता है। परंतु यदि उस समय साधक जड़वादी भौतिक चिंतन में रहता है तो यह हारमोन पिट्युटरी ग्रंथी में ही जल जाता है।  नियम यह है कि उच्च ग्रंथी अपने नीचे स्थित ग्रंथी का नियंत्रण करती है अतः पीनियल ग्लेंड से निकलने वाला हारमोन पिट्यूटरी और क्रमशः  अन्य नीचे के ग्लेंडस् में प्रवाहित हो जाता है तो वे परस्पर एकदूसरे से नियंत्रित होकर अनाहत चक्र के चारों ओर एक आभामंडल का निर्माण करते हैं और साधक अनुभव करता है कि वह इस दिव्य अभामंडल में स्नानकर हृदय में अपार आनन्द ले रहा है।
इस अवस्था में वह साधक विश्व  की हर वस्तु से अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है, उसे कोई भी वस्तु अप्रिय नहीं लगती, उसे लगता है कि संसार की किसी भी वस्तु में इस प्रकार का आनन्द देने की क्षमता नहीं है। उसे लगता है कि सूर्य किरणें, चंद्र किरणें, धरती ,पानी यथार्थतः सभीकुछ आनन्ददायी अमृत का प्रवाह जैसा अनुभव कराते हैं। इतना तक कि जघन्य शत्रु भी बहुत ही प्यारा लगने लगता है। वैष्णव दर्शन  में यह समाधि मधुर भाव कहलाती है और तंत्र इसे अनिद्यानन्द रस समाधि कहता है। इस अवस्था में सभी ग्रंथियाॅं सक्रिय हो
 जाने से वे आनन्द का अनुभव कराती हैं और अन्य नाडि़याॅं अप्रभावी हो जातीं हैं। यह 32 प्रकार की समाधियों में से एक है जो बहुत ही उच्च स्तर के साधकों द्वारा अनुभव की जाती है। इसकी विशेषता यह है कि इसे कोई भी साधक अपने बलबूते पर प्राप्त नहीं कर सकता इसके लिये गुरु की कृपा आवश्यक  है। यह भी सत्य है कि परमपुरुष का साक्षात्कार करने के लिये समाधियों का अनुभव किया जाना अनिवार्य भी नहीं है। जब परमकृपालु तारकब्रह्म इस धरती पर भौतिक रूप में रहते हैं तो वे योग्यता धारक  साधक को यह अनुभूतियां करने में मदद करते हैं, परंतु जब वे नहीं रहते तब वे अन्य गुरुओं की मदद से सहायता करते हैं।
      कंकालमालिनी समाधि 
लगभग सात हजार वर्ष पहले भगवान सदाशिव और उनकी पत्नी काली ने आध्यात्मिक साधना करने के फलस्वरूप असाधारण दिव्यानन्द का अनुभव प्राप्त किया। सदाशिव तंत्र साधना के अधिष्ठाता थे। काली ने इस प्रकार की साधना के भीतरी रहस्यों को अपने पति से सीख लिया था और प्रतिदिन वह दिव्यानन्द का अनुभवकर नयी नयी समाधियों का अनुभव किया करती थीं। एक दिन सदाशिव ने खेल खेल में काली की यह क्षमता लंबे समय के लिये निलंबित कर दी। तब काली विना इस दिव्यानन्द का अनुभव करते हुये ही साधना करती  रहीं, बाद में शिव ने अचानक ही उन्हें यह क्षमता वापस कर दी और काली ने वह अनुभूतियां पुनः प्राप्त
कर लीं। इस पर काली ने सोचा कि अब वह शिव की तरह मानवमुडों की माला पहना करेंगी जैसी कि शिव पहना करते हैं, ताकि यह दिव्यानन्द स्थायी बना रहे। काली ने जब मुंडमाला पहनी तो उनका नाम कंकालमालनी हो गया और वह समाधि जिसमें साधक परमाप्रकृति के साथ अपना  तादात्म्य स्थापित कर लेता है उसे कंकालमालिनी समाधि कहते हैं। इस अवस्था में साधक परमाप्रकृति और परमशिव के साथ एकता का अनुभव कर अपार आनन्द पाता है, वह कुछ बोल नहीं पाता, श्वास गहरी हो जाती है, तंत्रिका तंत्र पर इतना दवाव हो जाता है कि संकोच और प्रसारण बहुत ही घातक हो जाता है।


       तन्मात्रिका समाधि 
इस द्रश्य  प्रपंच की प्रत्येक वस्तु अद्रश्य  संसार से आती है और अद्रश्य  संसार में विलुप्त हो जाती है।  दो अद्रश्य  संसारों के बीच द्रश्य  संसार का अस्तित्व पाया जाता है। यही कारण है कि कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है इसलिये किसी वस्तु के प्राप्त हो जाने या नष्ट होने में कोई सुख दुख नहीं मनाना चाहिए। यह संसार ठोस, द्रव, उष्मा, वायु  और ईथर से बना है और इसमें असंख्य तन्मात्राओं का संग्रह है। द्रश्य  संसार परमपुरुष का धनात्मक प्रक्षेप है अतः विपरीत प्रकार से उसके तन्मात्रात्मक कंपनों को पृथक किया जा सकता है जिससे तन्मात्रिका समाधि प्राप्त होती है। इस संसार की विशालता पंचभूतों के कारण है यदि एक एक कर उन्हें पृथक कारते जावें तो अंत में वह एक विंदु के रूप में ही बचता है। परम पुरुष ने पंच तत्वों को इस विंदु से संलग्न कर इस संसार की रचना की है अतः साधना के समय मन को विंदु के रूप में बनाना होता है। यह विंदु ही सापेक्षिक संसार और निर्पेक्ष संसार के बीच की रजत रेखा है। इसलिये साधक जब तन्मात्रिक कंपनों पर पूर्ण रूप से नियंत्रण कर लेता है तो उसे तन्मात्रिका समाधि का अनुभव होता है। मानव मन और पदार्थ दोनों ही निर्पेक्ष नहीं हैं। दोनों ही परमपुरुष की कल्पना के प्रवाह की अवस्थायें हैं। पदार्थों से तन्मात्रायें और मन से अहंकार निकाल दिया जावे तो दोनों  ही समाप्त हो जावेंगे। इसलिये साधकों को सच्चाई का अनुभव करने के लिये मन को
सापेक्षिक संसार से पृथक कर एक विंदु में एकत्रित कर लेना चाहिए। यह विंदु ही इकाई मन और भूमा मन (cosmic mind)के वीच संपर्क स्थापित करता है। साधना के द्वारा केन्द्रीकृत मन, भूमा मन के साथ एकत्व पा सकता है और इस प्रकार का मन संसार की सभी वस्तुओं और स्थानों की तस्वीरें मन में ही अनुभवकर उनका वर्णन कर सकता है। नियमित साधना से मानव मन इतना विस्तारित किया जा सकता है कि परमपुरूष में और उसमें कोई भेद ही नहीं रहता क्योंकि तन्मात्रायें भूमा मन से ही उत्सर्जित होतीं हैं इसलिये इस संसार को उसकी धनात्मक तन्मात्रिका समाधि कहते हैं। इसलिये ऋणात्मक तन्मात्रिका समाधि का अर्थ है सृष्टि का लय।

        अभेदज्ञान और निर्विकल्प समाधि 
एकबार शंकराचार्य से पूछा गया कि वह कौन हैं? तब वे बोले मैं न तो मन हूूॅं, न बुद्धि,न अहमतत्व, न चित्त, न ही आंख कान नाक जीभ त्वचा, न वायु न अग्नि न द्रव, न ठोस, मैं तो चिदानन्दस्वरूप शिव हूँ । जहाॅं जीव है वहाॅं शिव हैं। सूक्ष्म सत्ता को विराट सत्ता में परिवर्तित करने की विद्या को आध्यात्म विज्ञान कहते हैं इसे योग विद्या
भी कहा जाता है। जीवात्मा और परमात्मा को संयुक्त करने का नाम योग है, ‘संयोगो योगो  इत्युक्तो जीवात्मनो परमात्मना‘। जीवात्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं परंतु जब तक जीवात्मा में प्राकृतिक बंधन रहते हैं वह जीवन और मृत्यु के खेल में ब्रह्मचक्र में भटकता रहता है। स्थायी साधना के करते रहने पर जब जीवात्मा या इकाई मन से जुड़े सभी संस्कारों का क्षय हो जाता है तब वह परमात्मा में मिल जाता है। वास्तव में ये संस्कार और उपाधियां ही जीव को अपना पृथक अनुभव करातीं हैं। अब प्रश्न  है कि यथार्थ और अभेद ज्ञान को किस
 प्रकार प्राप्त किया जावे? इसका उत्तर है ईश्वर  प्रणिधान और अभिध्यान के द्वारा। ईश्वर  शब्द के अनेक भाष्य विद्वानों ने किये हैं, कुछ कहते हैं ‘ईशते यः सः ईश्वर , अर्थात् जो सब पर नियंत्रण करता है वही ईश्वर  है। महर्षि पातंजलि के अनुसार ‘‘क्लेशकर्मविपाकाशयैः  अपरामृष्ठ पुरुष विशेषः ईश्वरः ‘‘ अर्थात् जो क्लेश , कर्म, विपाक और आशय से प्रभावित नहीं होता वह ईश्वर  है। यहां ब्रह्मांड के नियंत्रक के रूप में ईश्वर  को माना गया है इसलिये ईश्वरप्रणिधान का अर्थ हुआ कि सभी मानसिक ऊर्जा को परम चिंतनीय सत्ता ईश्वर  की ओर प्रवाहित करना। तथा अनुध्यान का अर्थ है कि जब साधक अनुभव करता है कि उसका ध्येय (जो कि उसका जीवन और आत्मा है) ध्यान विंदु से हटने का प्रयास कर रहा है तो तत्काल उसके पीछे दौड़ कर उसे पुनः पकड़ने का प्रयास करना अनुध्यान कहलाता है। प्रणिधान और अनुध्यान दोनों को एक साथ कर देने को अभिध्यान कहते हैं। अभेदज्ञान की अवस्था को संप्रज्ञात समाधि कहते हैं। संप्रज्ञात का अर्थ है उचित और उत्तम ज्ञान। सविकल्प समाधिमें साधक को यह ज्ञान रहता है कि परमात्मा के अलावा  भी कोई दूसरी सत्ता है। मानव मन संकल्पात्मक और विकल्पात्मक कार्य करता है जैसे , जब कोई कुछ करने का तय करता है तो इसे संकल्प कहते हैं और जब इस कार्य को किया जा चुकता है तो उसे विकल्प कहते हैं। संप्रज्ञात समाधि की अवस्था में इकाई चित्त, ज्ञानात्मक सत्ता में परिवर्तित हो जाता है इसलिये विकल्पात्मक क्रिया निलंबित हो जाती है यद्यपि संकल्पात्मक अवस्था फिर भी सक्रिय रहती है। अर्थात् सविकल्प समाधि की अवस्था में संकल्पात्मक क्रिया सामान्यतः क्रियाशील रहती है। निर्विकल्प समाधि की अवस्था में मन की संकल्प और विकल्पात्मक क्रियायें पूर्णतः निलंबित हो जाती हैं और  साधक का मन कार्य करना पूर्णतः बंद कर देता है, अतः नाड़ी तंत्र और इंद्रियाॅं भी काम करना बंद कर देतीं है इसीलिये कहा गया है कि ‘ तस्य स्थिति अमानसीकेतु‘। कुछ साधकों का मन पिट्युटरी ग्लेंड पर जाकर कार्य करना बंद कर देता है, कुछ साधक सभी चक्रों को क्रास करते हुये सहस्त्रार चक्र अर्थात् पीनियल ग्लेंड तक जा पहुते हैं जो कि आत्म अनुभूति की चरम अवस्था है, यह इंद्रियों की पहुंच से परे है। इस स्थिति में पहुंचने पर सभी प्रकार के संस्कार क्षय हो जाते हैं और मन भी समाप्त हो जाता है क्योंकि वह साक्षात् शिव में लीन हो जाता है जहां से फिर वापस नहीं आता है। स्थानिक भिन्नतायें मिट जाने के कारण साधक की भौतिक मृत्यु हो जाती है। ‘‘पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तो भवेत् शिवः"। परंतु जिन साधकों के संस्कार पूर्णतः क्षय नहीं हो पाते वे कुछ देर आनंदानुभूति कर वापस आ जाते हैं। कुछ साधकों का मन काल (time) की अवस्था से आगे जा कर कार्य करना बंद कर देता है अतः सामान्य परिस्थितियों में ये साधक अपने वाह्य शरीर की अनुभूति के विना चार पांच घंटों तक रहते है कुछ इससे भी अधिक समय चौबीस घंटों तक रह कर फिर संस्कार भोगने के लिये वापस आ जाते हैं। समाधि की अवस्था से बाहर आने पर साधक को दो भिन्न प्रकार के संसार में रहना पड़ता है एक भीतरी जो आनंदमय और मधुर लगता है और दूसरा वाह्य जो शुष्क और महत्वहीन लगता है।
 भीतरी संसार में आत्मीय संपर्क और परम पिता के दुलार का अनुभव कर लेने के बाद बाहरी संसार में कठिनाई का अनुभव होता है और सामंजस्य बैठाने में कष्ट होता है। परम पिता से दूर होने पर मन उदास रहता है कभी कभी अट्टहास करता कभी सिसकियां भरता है, सामान्य लोग यह देखकर उसे असामान्य कह हंसी उड़ाते हैं परंतु यह अवस्था आत्मिक उपलब्धि की परम अवस्था होती है। परमात्मा की कृपा से इसके बाद साधक परम सत्ता परम ब्रह्म में लय पाता है।

          रागानुगा और रागात्मिका समाधि 
मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य परमपुरुष हैं। जो साधक इस सत्य को अनुभव कर लेते हैं वे अपने सभी विचार और इच्छाओं को परम पुरुष की ओर ही परिचालित करते जाते हैं जिससे उन्हें आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति होने लगती है और अंततः वे अपने लक्ष्य परम पुरुष तक पहुंच जाते हैं। ईश्वर  प्रणिधान के अभ्यास स्वरूप उपलब्ध होने वाले समर्पण के स्तर के अनुसार साधकों को विभिन्न प्रकार की समाधियों का अनुभव होता है। कुछ भक्तों का मानना है कि आध्यात्मिक उपलब्धि की चरम सीमा वह है जब अपने आप को परम ब्रह्म के साथ एकाकार कर लिया जावे क्योंकि जब तक शरीर है इंद्रियों के प्रभावसे मन कभी भी भौतिक आकर्षण में आकर फिर से फंसकर पतित हो सकता है। परंतु कुछ भक्त ऐंसे भी हैं कि वे परम पुरुष में मिलना नहीं चाहते, उनका तर्क है कि यदि परम पुरुष में मिल गये तो फिर उस उपलब्धि के आनन्द का उपभोग कौन करेगा? वे कहते हैं कि ‘‘मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि शक्कर हो जाने पर उसका स्वाद कौन लेगा?‘‘वैष्णव दर्शन  में यह भाव गोपी भाव या ब्रज भाव कहलाता है। किसी विशेष उपलब्धि के आकर्षण में ईश्वर  से प्रेम करना रागानुगा भक्ति कहलाती है। इसमें ज्ञान और आध्यात्मिक शक्तियों के प्राप्त होने का मिथ्याभिमान रहता है और वैधी भक्ति की तरह आडंबर का प्रदर्शन  नहीं होता। रागानुगा भक्त को अनुभव होने वाली समाधि में साधक साधना में बैठे बैठे गहरी सांस लेने लगता है और प्रत्येक सांस में हुंकार भरता है। इस अवस्था में मन अपना अस्तित्व बनाये रखता है और परमपुरुष के निकट होने का अनुभव करते हुए आनंदित होता है। इस प्रकार का भक्त अगले चरण में रागात्मिका भक्ति का अनुभव करता है। अनेक साधक गोपी भाव में नहीं रुकना चाहते वे कहते हैं कि संचर और प्रति संचर की क्रिया में किसी न किसी दिन प्रत्येक अणु और परमाणु को अन्ततः परम पुरुष में मिलना ही होगा अतः रुकने का अर्थ होगा परम पुरुष की तुलना में संचर को अधिक महत्व देना। ब्रह्म , संचर और प्रतिसंचर के माध्यम से जीवों को उन्नतिपथ पर ले जा रहा है अतः अंतिम उन्नति का बिंदु ब्रह्म के अलावा अन्य कुछ नहीं हो सकता। अतः इस प्रकार परम ब्रह्म में मिलने की तीव्र इच्छा रखते हुए जब अपने सभी विचार और उर्जा उसी की ओर प्रवाहित कर देता है तो इस प्रकार उत्पन्न भक्ति भाव रागात्मिका भक्ति और इसी की गहराई में जाने पर प्राप्त समाधि को रागात्मिका समाधि कहते हैं। सभी जीवों का इकाई मन वास्तव में परम ब्रह्म का सीमित प्रदर्शन  है अतः उसे परम ब्रह्म के निर्देशों  का पालन करना ही होगा।
         भाव समाधि 
आध्यात्मिक साधना का उद्देश्य  इकाई मन को भूमा मन में रूपान्तरित करना है अतः साधक अपने मन को परम ब्रह्म की ओर और सामान्य व्यक्ति वाह्य वृत्तियों की ओर लगाता है। जब इकाई मन अपनी सीमितता को ब्रह्म की असीम सत्ता के साथ मिला देता है तो इसे आत्म समर्पण कहते हैं। आत्मसमर्पण के परिणाम स्वरूप इकाई मन का छोटा ‘मैं‘ ब्रह्म के बड़े ‘मैं‘ द्वारा संचालित होने लगता है। प्रत्येक का छोटा मैं भिन्न भिन्न होता है, भौतिक सुख संबंधी कम्पन छोटा मैं उत्पन्न करता है जबकि आध्यात्मिक कम्पन ब्रह्म के द्वारा उत्पन्न और नियंत्रित किये जाते हैं, इसे प्राप्त करने के लिये लगातार अभ्यास जरूरी होता है। जब इस प्रकार के अभ्यास से ब्रह्म के साथ गहरे प्रेम का संबंध बन जाता है तो ब्रह्म के अलावा किसी अन्य का विचार मन में नहीं आता है, इस प्रकार के भक्ति भाव में लगने वाली समाधि को भाव समाधि कहते हैं। ध्यानासन में बैठकर साधक ब्रह्म का मनन और ध्यान पहले मूलाधार चक्र पर करते हुए जैसे ही ब्रह्म के साथ अपना मन जोड़ता है तो उसे आनन्द की अनुभूति होने लगती है इसके बाद आगे के चक्रों पर ध्यान करता हुआ जब सभी ऊर्जाओं को ब्रह्म की ओर प्रवाहित करता जाता है तो वह अनुभव करता है कि परम पुरुष के अलावा कुछ है ही नहीं। अनाहत चक्र पर पहुंचने पर वह अनुभव करता है कि परम पुरुष उसके अपने ही हैं और आनन्द में इतना मग्न हो जाता है कि उसे अपने आप का कोई ध्यान नहीं रहता, चूंकि विभिन्न चक्रों पर होने वाले कंपन भूमा मन के द्वारा नियंत्रित होते हैं अतः अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति होती है और साधक का शरीर लगातार कंपने लगता है। भाव समाधि इन चार चक्रों अर्थात् मूलाधार से अनाहत तक किसी पर भी अनुभव की जा सकती है पर ज्योंही अनाहत चक्र से ऊपर मन पहुंचता है, उच्च समाधियों का अनुभव होने लगता है।

         धर्ममेघ समाधि 
मानव मन उच्च मानसिक वृत्तियों का घर है। दुख, भौतिक आनन्द, भक्ति और आध्यात्मिक आनन्द इन सबका हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जब मानव भौतिक जड़ वस्तुओं के चिन्तन में ही लगा रहता है तो उसे आत्मानन्द की अनुभूति नहीं होती परंतु जिस क्षण वह ब्राह्मिक चिंतन प्रारंभ करता है तो उसके हृदय में ब्राह्मिक भावों की तीव्रता बढ़ने लगती है। इस प्रकार इष्ट का लगातार चिंतन और ब्राह्मिक भाव में विलय करते रहने पर उसके प्रत्येक विचार और कार्य में ब्रह्मिक भावों का समावेश  बढ़ता जाता है और वह अपने हृदय के साथ साथ पूरे संसार में ब्रह्म का अनुभव करने लगता है। इसके परिणाम स्वरूप अनाहत चक्र के चारों ओर गहन धर्ममेघ उत्पन्न हो जाता है जिससे साधक के मन में अपार आनन्द की अनुभूति होती है। इस अवस्था में अनुभव की गई समाधि को धर्ममेघ समाधि कहते हैं इस समाधि में साधक ध्यान करते हुए स्थिर नहीं रह पाता वरन् वह जमीन पर गिर पड़ता है।

Friday, 12 December 2014

5.0: विशुद्ध ज्ञान

मध्य (भाग चार) दर्शन

सभी प्रकार के बलों ( अर्थात् विद्युतीय , चुंबकीय, नाभिकीय और गुरुत्वीय ) के मूल श्रोत का पता लगाने के लिये एलवर्ट आइंस्टीन ने यूनीफाइड फील्ड थ्योरी को विकसित करने का प्रयास किया पर सफलता नहीं मिली और वे यह मानने को विवश  हुए कि ‘कास्मिक माइंड‘ ही इनका श्रोत हो सकता है । अनेक वैज्ञानिकों के इस विषय पर मतभेद हैं और वे जुटे हुए हैं कि बिग बेंग के समय का वातावरण पृथ्वी पर बनाकर ही हम इस संबंध में कुछ कह सकेंगे और LHC नामक प्रयोग करने के बाद प्राप्त आॅंकड़ों के विश्लेषण में लगे हैं। उनके परिणाम जब आयेंगे तब उन्हें समझेंगे पर इस संबंध में हमारी उपनिषदों में क्या कहा गया है इस लेख में स्पष्ट किया गया है।
5.0: विशुद्ध ज्ञान
5.1  ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति की तान्त्रिक व्याख्या और आत्मसाक्षात्कार का सिद्धान्त

1.  केवल एक ही परमब्रह्म या परमसत्ता का अस्तित्व है। जो कुछ दिखाई देता है या नहीं दिखाई देता है वह सब सापेक्षिक  है और वे सब एक ही परमसत्ता ¼cosmic entity½ की काल्पनिक विचार तरंगें हैं।  यह परम सत्ता या परम ब्रह्म निर्पेक्ष रूप में अपनी त्रिगुणात्मक प्रकृति को स्थैतिक रूपमें(अर्थात् potential energy के
रूप में) रखते हैं जब वे अपने मन (cosmic mind ) में एक से अधिक होने की इच्छा करते हैं तो प्रकृति के तीनों गुणों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है और यह विश्व  ब्रह्माण्ड, परमपुरुष या परमशिव ¼cosmic entity½
 का रास मंच बन जाता है।

2. प्राथमिक स्तर पर जब प्रकृति अपने तीनों गुणों में साम्यावस्था में होती है तब परमपुरुष अपनी तन्मय अवस्था¼aabsolute srate½ में रहते हैं। तीनों गुण sentient, mutative, static forces अर्थात् सत, रज और तम, क्रमशः  संतुलन में रहते हैं, परंतु परमपुरुष की , अनेक रूपों में परिवर्तित होने की इच्छा ¼cosmic will½ से प्रकृति द्वारा कोषों का निर्माण कार्य हो चुकता है अतः प्रकृति की इस अवस्था को शिव की शिवानी शक्ति ¼potential form of energy½ कहते हैं। इसका अन्य नाम कौषिकी  भी है।
 यह ब्रह्म ¼cosmic entity½  की अव्यक्तावस्था कहलाती है।


3  द्वितीय अवस्था में इन तीनों बलों में जब अधिक असंतुलन उत्पन्न होने लगता  है तो इससे नाद (cosmic sound of creation) उत्पन्न होता है, इसे शिव की भैरवी शक्ति (  kinetic form of energy) कहते हैं। यह सरलरेखा में गति करने लगती है।

4. तृतीय अवस्था में नाद, कला (curvature) में रूपान्तरित होता है तथा भैरवी, भवानी ( अर्थात् kinetic energy in action गतिज ऊर्जा का क्रियात्मक रूप) में। यहीं से आकाश, वायु, अग्नि जल, भूमि आदि पंच तत्वों का निर्माण क्रमशः  होता है। इसे ब्रह्म की व्यक्तावस्था कहते हैं।

5. वायु ,प्रकाश , प्राणशक्ति आदि विभिन्न सत्ताओं में यह भवानी ही क्रियाशीला होती है। भवानी ही इंद्रियग्राह्य होकर स्थूल के साथ सूक्ष्म का संयोग संभव करती है। इसी से एक कोषीय जीव और क्रमषः बहुकोषीय जीव मनुष्य आदि उत्पन्न होते हैं और यह प्रपंच भवसागर कहलाता है। इनकी क्रमशः  अग्रगति , भवानी से भैरवी और भैरवी से कौषिकी के साथ मिलकर अपने उद्गम के साथ एकाकार होने तक का कार्य , स्रष्टि चक्र कहलाता है जिसका प्रथम अर्ध चक्र संचर और अगला अर्ध चक्र प्रतिसंचर कहलाता है।

6. स्रष्टि चक्र में आगे प्रगति न करने पर प्रकृति  सब को अपने अपने कर्मफल के अनुसार इसी ब्रह्माॅंड में भटकाती रहती है अतः आगे बढ़ते जाने के लिये अपनी भवानी शक्ति को भैरवी में और भैरवी को शिवानी में
मिलाते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिये इसे ही भजन करना या साधना करना कहते हैं। भजन किसका करना है? अवश्य  ही पुरुषोत्तम का। पुरुषोत्तम को भजने का दिशा  संकेत है-भवानी से भैरवी और भैरवी से
कौशिकी की ओर बढ़ चलना। स्थूल जगत को मन का ध्येय बनाने से पुरुषोत्तम तक पहुचना संभव नहीं। जड़ यदि तुम्हारा ध्येय होगा तो उस दशा  में तुम भवानी के जड़त्व की ओर बढ़ चलोगे। अपने मूल स्वरूप में एक्य स्थापित करने के लिये स्थूल तरंगों को सूक्ष्म तरंगों में रूपान्तरित करना होता है।

7. भवानी को भैरवी में रूपान्तरित करने के लिये श्रद्धा शक्ति के संप्रयोग की आवश्यकता  होती है जो साधना के अलावा अन्य तरह प्राप्त नहीं हो सकती, आलस्यवश  पिण्डवत बैठे रहने से साधना नहीं हो सकती अतः भक्त
को सतत कर्म करते रहना होगा। भक्त का प्रत्येक कार्य भजन का ही अंग होता है।

8. वास्तव में व्यक्तिगत भैरवी शक्ति, चिति शक्ति की सहायता से भवानी को प्रतिहत कर भैरवी में , उसके बाद उसके भी ऊर्ध्व  में स्थित कौषिकी में प्रतिष्ठित होती है। अतः इस संग्राम में चिति शक्ति का ही प्राधान्य है, तुम्हारी साधना, विकास इच्छा सभी उनकी चेष्टा में ही विधृत है। यथार्थ में वे ही तुम्हारा वास्तविक ‘‘मैं’’ हैं, उनकी सहायता से ही उनको पाने की साधना तुम्हें करते जाना होगा।

9. जेा भोगवादी और अहंकारी  हैं उनकी भैरवी क्रमशः  भवानी में रूपान्तरित होती जाती है।

10. भक्त चाहता है चिति शक्ति अर्थात् परमपुरुष में महामिलन। इसलिये भैरवी के विकास के साथ उसके उचित संप्रयोग से सफलता न मिले तो वह कहेगा‘‘प्रभो मुझमें तुम्हारा विकास अधिक हो, मुझे अपना बना लो ’’ परंतु जबतक शक्ति है तब तक कुछ नहीं मांगेगा। इस समय वह यह प्रार्थना करेगा ‘‘मैं तुम्हारी शक्ति लेकर कार्य कर रहा हूं, इसे अपनी समझने की भूल न करू, मैं तुम्हें भूलूं नहीं।’’

11. भवानी का प्रभाव जिसमें अधिक है उसमें भेद ज्ञान उतना ही अधिक होता है। भैरवी का प्रभाव अधिक होने पर जगत में एकात्मिका द्रष्टि उतनी ही अधिक होती है।

12.  भवानी को भैरवी में परिवर्तित  करने के लिये प्रत्येक वस्तु को ब्रह्म का विकास समझकर देखने की चेष्टा करना चाहिये। इसके निरंतर अभ्यास से भवानी , भैरवी में रूपान्तरित होकर सभी वस्तुयें ब्रह्म के विकास रूप
में उपलब्ध होती रहती है। पुस्तक ज्ञान केवल वोध मात्र है।

13. सबकुछ ब्रह्म मय द्रष्ट होने पर तृतीय स्तर में द्रष्टा, दृश्य  का भेद समाप्त हो जाता है। कर्ता कर्म तथा द्रष्टा भाव एक निर्विरोध सत्ता में समाप्त हो जाता है। जीव के मानस स्तर में जो ब्राह्मी शक्ति क्रियारत है वह भैरवी है उसका उद्भव विन्दु से होता है उस कारण उसे विन्दु में ही बैठाना पड़ता है। आसन शुद्धि में भैरवी को मूल विन्दु
में बैठाने पर वह धीरे धीरे कौषिकी में रूपान्तरित हो जायेगी।

14. भक्त को शक्तिवादी होना पड़ेगा क्योंकि उसे भवानी और भैरवी शक्तियों की सहायता लेना आवश्यक  होता है, भीरु बनने से काम नहीं चलेगा। यदि उसकी भावधारा भवानी की ही ओर रहे तो उसकी भैरवी भी धीरेधीरे जड़ता को प्राप्त होती जायेगी। जड़ात्मक शक्ति के विरुद्ध संग्राम करते हुए पुरुष भाव लेकर भैरवी को कौषिकी में रूपान्तरित करना होगा। जगत की स्थूल बस्तुओं का व्यवहार करते समय भी भवानी द्वारा निर्मित स्थूल वस्तुओं के रूप रंग के पश्चात्  जो पुरुष सत्ता रह जाती है, उसकी ही भावना से वह निवृत हो जाती है इस प्रकार की भावना को ब्रह्मचर्य कहते हैं।

15. ब्रह्म प्राप्ति में ही साधक के भाववाद (ideology)  की जय है, प्रथम भैरवी की जय फिर शिवानी की जय। इसके बाद प्रथम भवानी की पराजय फिर भैरवी और शिवानी की भी पराजय में पुरुष की प्रतिष्ठा होती है। इस पर्यायक्रम में शक्ति नियंत्रण के फलस्वरूप बाहरी जगत में भी साधक पाप का दमन और धर्म की रक्षा करने में समर्थ होता है। जो शक्ति नियंत्रण तथा चितिशक्ति की व्यापकता  अर्जन की साधना नहीं करता उससे दुष्टों का दमन और शिष्ट का पालन नहीं हो सकता। शक्ति नियंत्रण की इस साधना को साधना समर कहते हैं। लक्ष्य यदि ठीक रहे तो किसी भी व्यक्ति की ब्राह्मी स्थिती होगी ही, और जिनकी  यह स्थिती हुई है उन विजयी साधकों की द्रष्टि में उच्च, नीच, मूर्ख, पंडित , स्पृश्य  अस्पृश्य  का भेद ही नहीं रह सकता। ‘श्मशाने  वा ग्रहे, हिरण्ये वा तृणे, तनुजे वा रिपो हुताशे  वा जले , स्वकीये वा परे  समत्वेन बुद्धया विराजे अवधूतो द्वितीयो महेशः ।‘‘

16. इस प्रकार उस परम सत्ता से साक्षात्कार करने के लिये या तो अपने इकाई मन को संश्लेषित करते हुए परम सत्ता के बृहद् मन अर्थात् कास्मिक माइंड के केन्द्र बिंदु के संपर्क में लाया जाय क्योंकि सब कुछ उसी के भीतर है, या फिर विश्लेषित करते हुए इतना विस्तारित कर लिया जाये कि इकाई मन और कास्मिक माइंड में कोई अंतर ही न रहे । जिन्होंने इन प्रणालियों से इकाई मन को संश्लेषित या विश्लेषित किया है उन्होंने अपने अनुभवों के विभिन्न स्तरों को जिस प्रकार बताया है, उन्हें अगले खंड में दर्शाया  गया है।

Wednesday, 10 December 2014

मध्यान्तर

मध्यान्तर

अभी तक आप लोगों ने मेरे विद्यार्थी जीवन से ही ज्ञान पाने हेतु किये गये संघर्षपूर्ण प्रयत्नों और क्रमागत रूपसे हुई आध्यात्मिक प्रगति का विवरण प्रथम अध्याय में जाना । उस संघर्ष से मेरे मन में जागी उत्सुकता ने विज्ञान सम्मत खोज के लिये उकसाया और जीव जगत , स्पेस टाइम , सोलर सिस्टम और गैलेक्सियाॅं, ब्लेक होल और ब्रह्माॅंड की आयु आदि पर वैज्ञानिक तथ्यों को द्वितीय अध्याय में संकलित करा दिया। इस ब्रह्माॅंड के अकल्पनीय विस्तारित क्षेत्र और उसमें हो रही घटनाओं का चित्रण भी संक्षेप में किया गया जिससे स्पष्ट हुआ कि हमारी पृथ्वी अथवा पूरा सौर परिवार ही आकाषीय गेलेक्सियों और ब्लेक होलों की तुलना में धूल के कण की तरह नगण्य हैं। वैज्ञानिकों की एक बात यह भी महत्वपूर्ण पाई गई कि वह अभी भी स्पेस और टाइम को सही ढंग से पारिभाषित नहीं कर पाये, इतना ही नहीं वे नहीं बता सकते कि बिगबेंग कैसे हुआ और किसके द्वारा हुआ पर वे उस समय की परिस्थितियों को पृथ्वी पर निर्मित करने का प्रयास अवश्य  कर रहे हैं ताकि अब तक अज्ञात उस काल्पनिक ग्रविटान नामक कण का पता लगा सकें जो गुरुत्वाकर्षण के लिये उत्तरदायी है। वर्तमान वैज्ञानिक सिद्वान्तों के अनुसार काॅसमस की उत्पत्ति 13.7 विलियन वर्ष पहले हुई। द्रष्य काॅसमस का व्यास लगभग 93 बिलियन लाईट ईयर माना जाता है और   1040   वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में   2x1099    वर्ष लेगा, अतःस्पष्ट है कि ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेक होलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , विद्युत, रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और टाइम के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं।
इस विचार से उत्कंठा हुई कि क्या हमारे हजारों वर्ष पूर्व से प्रतिष्ठित आध्यात्मिक ग्रंथों उपनिषदों और वेदों में अथवा संसार के अन्य दार्शनिक  ग्रंथों में इससे संबंधित कोई जानकारी दी गयी है या नहीं ? अतः उन सिद्धान्तों को समझने और ब्याख्या करने हेतु आवश्यक  अवधारणाओं, तथ्यों और परिभाषाओं के संकलन को दिये गये तीसरे अघ्याय में पढ़कर आपने अवश्य  ही अपनी वर्षों पुरानी मान्यताओं में संशोधन कर लिया होगा क्यों कि यहाॅं आडम्बरी और अतार्किक सामग्री को छोड़ते हुए केवल उन तथ्यों को ही रखा गया है जो विज्ञान सम्मत हैं और आगे के अध्यायों में  दिये जाने वाले विवरण को समझने में सहायक हैं। 
 चौथे अध्याय में संसार में सर्वाधिक चर्चित दो महासंभूतियों भगवान सदाशिव और भगवान श्रीकृष्ण के संबंध में यथार्थ तथ्यों का संकलन कर दिखाया गया है कि समय समय पर स्वार्थी तत्वों द्वारा उन्हें किस प्रकार आडम्बर में लपेटकर अपनी  स्वार्थ सिद्धि का साधन बनाया गया और हजारों वर्षों से जनसामान्य को अंधेरे में रखा गया है।
अब आप अगले अध्यायों में विशुद्ध  आध्यात्मिक ज्ञान को वैज्ञानिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में पायेंगे और देखेंगे कि ऊपर प्रस्तुत की गई उत्कंठा को संतृप्त करने में यह विवरण किस स्तर तक सफल हो पाया है। इस सामग्री को संकलित करने, ब्याख्या करने या पारस्परिक संबंध स्थापित करने में प्रामाणिक और विज्ञान सम्मत संदर्भ ग्रंथों का ही सहारा लिया गया है जिससे ‘आद्यान्तिका‘ की विश्वश्नीयता   अक्षुण्ण रहे। आशा  है कि हमारे इस प्रयास से, आपके मन में सदियों से बैठाये गये आडम्बरी ज्ञान को दूर करते हुए नये ज्ञान के नये आयाम का सूत्रपात हो सकेगा।

Wednesday, 3 December 2014

4.2: भगवान श्रीकृष्ण

4.2: भगवान श्रीकृष्ण
भगवान कृष्ण के संबंध में जितने लोग उतनी ही तरह से उनकी व्याख्यायें पाई जाती हैं फिर भी उनकी आकर्षक विलक्षण कार्यशैली के सभी प्रशंसक हैं। यहाॅं कुछ सर्वथा अज्ञात या उन पर अब तक किये गये शोधों  के परिणामों पर ध्यान केन्द्रित किया गया है ।
1 - गर्ग, वसुदेव और नन्द का एक ही परिवार था वे चचेरे भाई थे। गर्ग ने ही कृष्ण का नाम कृष्ण रखा था क्योंकि वे बहुत ही अकर्षक थे। कृष्ण का अर्थ है जो आकर्षण करने वाला है या  सबको अपनी ओर खींचता हो। उस समय केवल वर्ण परम्परा ही प्रचलित थी जातियाॅं नहीं और गुणों तथा कर्मों के अनुसार ही लोगों के वर्ण परिवर्तित होते रहते थे। इस प्रकार एक ही माता पिता की अनेक संताने भिन्न भिन्न वर्ण की हो सकती थीं। जैसे गर्ग बौद्धिक स्तर पर अन्य भाइयों से उन्नत और विद्याअध्ययन तथा अध्यापन के कार्य में संलग्न होने के कारण उन्हें विप्र वर्ण में , वसुदेव शारीरिक बल और शस्त्रों के  परिचालन में प्रवीणता रखते थे और अभिरक्षा कार्य में संलग्न थे अतः वे क्षत्रिय, और नन्द व्यावसायिक बौद्धिक स्तर के थे और पशुपालन तथा कृषि कार्य करते थे अतः वैश्य  वर्ण में प्रतिष्ठित हुये।
2 - कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिये हमें दो भागों में अध्ययन करना सहायक होगा क्योंकि वे दो भाग अपने आप में पृथक भूमिका वाले और उनके व्यक्तित्व के सम्पूरक हैं। पहला है ‘‘बृजकृष्ण‘‘ अर्थात् उनका बाल्यावस्था का चरित्र और दूसरा है ‘‘पार्थसारथी कृष्ण‘‘ अर्थात् उनका युवा शासक का चरित्र। बृज
कृष्ण बहुत मधुर और सबको आकर्षक करने वाली भूमिका है जिसमें वे प्रत्येक को बिना किसी भेद भाव के आत्मिक आकर्षण में बाॅंध कर आत्मीय सुख और संतुष्ठि प्रदान करते थे। पार्थसारथी की भूमिका में उनके पास सब नहीं जा सकते थे केवल राजा और राज्य कार्य से जुड़े लोग ही अनुशासन में सीमित रहते हुए निकटता पा सकते थे। उनकी यह कठोरता आध्यात्मिकता से मिश्रित होती थी। इस तरह उनकी दोनों प्रकार की भूमिकायें अतुलनीय थीं।
3 - महाभारत में कृष्ण के पूरे जीवन चरित्र को सम्मिलित नहीं किया गया है पर यह सत्य है कि कृष्ण के बिना महाभारत और महाभारत के बिना कृष्ण नहीं रह सकते। यदि हम कृष्ण चरित्र से मूर्खतापूर्वक महाभारत को घटा दें तो कृष्ण का व्यक्तित्व थोड़ा कम तो हो जाता है पर फिर भी उनका महत्व बना रहता है।
4 - बृज कृष्ण में माधुर्य, साहस, बल , तेज और सभी प्रकार के सद्गुण थे परंतु मधुरता से सबको अपनी बांसुरी की तान से आकर्षित कर लेना अधिक प्रभावशाली गुण था। इतना ही नहीं जरूरत के समय अपने मित्रों और अनुयायियों की रक्षार्थ शस्त्र  उठा लेने में भी वे संकोच नहीं करते थे। गोपियाॅं उन्हें अपने से बहुत ऊंचा और श्रेष्ठ समझतीं थीं पर यह भी कहती थीं कि वह हमारा ही है, हमारे बीच का ही है। परंतु जो व्यक्ति अपने भक्तों के साथ इतना निकट और सुख दुख में साथ रहा हो उसने यह अनुभव किया कि इस प्रकार तो मानवता की अधिकतम भलाई नहीं की जा सकती।  अतः तत्कालीन समय की असहाय, अभिशप्त और नगण्य समझी जाने वाली मानवता की कराह सुन कर उन्होंने यह भूमिका त्याग कर पार्थसारथी की भूमिका स्वीकार की।
5 - कॅंस का अर्थ है दूसरों के अस्तित्व के लिये जो खतरनाक हो, जो दूसरों के सार्वभौमिक भलाई और विकास में बाधा पहुंचाता हो। और कृष्ण का अर्थ है जो दूसरों को पूर्णता की ओर ले जाता हो, जो विध्वंसकारक विचारों को सहन नहीं कर सकता हो, जो पूर्णेापलब्धि की ओर सबको ले जाता हो। अतः सब के भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक दुखों को दूर करने के लिये और धर्म के रास्ते में बाधायें उत्पन्न करने वाले विध्वंसी बलों को समाप्त करने के लिये ही उन्हें पार्थसारथी की भूमिका निभाना पड़ी क्योंकि बृज कृष्ण की भूमिका में यह संभव नहीं था। उसके लिये बृज भूमि उचित नहीं थी कुरुक्षेत्र ही उचित था।
6 - पार्थ का अर्थ है पृथा का पुत्र, पृथा या पृथि नाम के राज्य की राजकुमारी कुन्ती का पुत्र अर्थात् कौन्तेय। प्राचीन भारत में आर्यों के आगमन से पहले तक कुल माता के नाम से पुत्रों के परिचय देने की परम्परा चलती थी। सारथी का अर्थ है जो रथ की देखभाल अपने पुत्र की भाॅंति करता है। उपनिषदों में शरीर को रथ, मन को लगाम और बुद्धि को सारथी तथा आत्मा को रथ का स्वामी कहा गया है। अतः आगे बढ़ने के लिये इन चारों में से किसी को भी नगण्य नहीं माना जा सकता। किसी एक के भी अप्रसन्न हो जाने पर सब कुछ नष्ट हो जायेगा। इसी के अनुरूप युद्ध भूमि में पार्थ के सारथी कृष्ण हुए और उन्होने रथ सहित रथ की सवारी करने वाले की देखरेख अपने पुत्र की भाॅंति की। धर्म की रक्षा की।
7 - कृष्ण के समय में मुट्ठी भर लोगों के द्वारा छोटे छोटे राज्यों जैसे , अंग, बंग, कलिंग,सौराष्ट्र , मगध आदि को बना लिया गया था और आपस में ही लड़ते झगड़ते रहते थे, जबकि सामान्य जनता उनकी मौलिक आवश्यकताओं  जैसे, भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा आदि के लिये तरसते थे। अतः एकीकृत  और सामूहिक समाज के महत्व को कृष्ण ने समझा और इस महती जिम्मेवारी को निभाने के लिये उन्होंने पार्थसारथी की भूमिका को चयन किया। जन समान्य की सामाजिक आर्थिक और आघ्यात्मिक उन्नति करने के लिये छोटे छोटे राजाओं को नैतिक रूप से एक समान सहयोग के आधार पर संघीय ढाँचे  में एकीकृत करने का
महान लक्ष्य कृष्ण के सामने था जिसके लिये बृजकृष्ण से पार्थसारथी कृष्ण में परिवर्तित होना उनके लिये अनिवार्य हो गया था क्यों कि बृजकृष्ण कोमलता, मधुरता और भक्ति के मिश्रण थे अतः युद्धों के लिये आवश्यक  दृढ़ता  और कठोरता उनमें नहीं आ सकती थी।
8 - जहाॅ बृजकृष्ण मानवता को अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा उच्चतम अनुभूति कराना चाहते थे वहीं पार्थसारथी कृष्ण परोक्ष अनुभूति से अपरोक्ष अनुभूति कराते हुए मानवता की उच्चतम अवस्था को अनुभव कराना चाहते थे। चूंकि अब तक लोगों के पास उन्नत मस्तिष्क और ज्ञान आधारित समाज था , योग विज्ञान की भी व्यावहारिकता से वे परिचित हो चुके थे अतः उन्हें कर्मयोग के माध्यम से परमपुरुष के प्रति शरणागति कैसे पाई जाती है इसकी शिक्षा देने के लिये पार्थसारथी की भूमिका ही उचित थी क्योंकि यही वह अवस्था है जिसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों अनुभूतियाॅं मिलकर एक हो जाती हैं। स्पष्ट है कि एक भूमिका में संसार को मधुरता और प्रेम से भक्ति की ओर  अर्थात् राधा भाव की ओर ले जाने का कार्य किया और दूसरी भूमिका में यह अनुभव कराया कि जीवन का सार संघर्ष में ही है, जीवन की मधुरता को संघर्ष पूर्वक प्राप्त कर  परम मधुरता, परमपुरुष को कैसे पाया जाता है। इस प्रकार दोनों भूमिकायें एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं एक बिलकुल कोमल और मधुर तथा दूसरी दृढ  और कठोर। इनमें से कौन सी भूमिका श्रेष्ठ है यह पूछना व्यर्थ है क्योंकि दोनों ही भूमिकायें अपने अपने समय की आवश्यकतायें थीं।
9 - जब परमपुरुष किसी संक्राॅंतिकाल में अपने को तारक ब्रह्म के रुप में  पृथवी पर अवतरित करते हैं  तो समकालीन व्यक्ति कुछ विशेष प्रकार की अनुभूतियाॅं करते हैं  जो परमपुरुष के अवतार होने का प्रमाण देती है। इन्हें इन छः प्रकारों से अनुभव किया जाता है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्टि  और केवल्य। सालोक्य अवस्था में व्यक्ति अनुभव करते हें कि वे उस समय धरती पर आये जब परमपुरुष ने भी अवतार लिया। इस प्रकार के विचार में जो आनन्दानुभूति होती है उसे सालोक्य कहते हैं। जो भी बृजकृष्ण या पार्थसारथी कृष्ण के संपर्क में आया उन्होंने अनुभव किया कि वह उनके अधिक निकट है । यहाॅं एक उदाहरण से यह समझा जा सकता है। सालोक्य की अनुभूति दुर्योधन की अपेक्षा अर्जुन को अधिक थी, कुरुक्षेत्र  के युद्ध में सहायता के लिये दुर्योधन, अर्जुन से पहले कृष्ण के पास पहुंचे पर कृष्ण ने पहले देखा अर्जुन को बाद में दुर्योधन को, इस तरह अर्जुन कृष्ण की सहायता लेने में सफल हुए। यहाॅं पार्थसारथी और बृजकृष्ण में अन्तर  स्पष्ट होता है क्योंकि यदि बृजकृष्ण, पार्थसारथी के स्थान पर होते तो वे तो अपनी जादुई बांसुरी बजाकर दुर्याधन और अर्जुन दोनों को ही अपने पास ले आते। सामीप्य अवस्था में लोग परमपुरुष से इतनी निकटता अनुभव करते हैं कि वे अपनी एकदम व्यक्तिगत बातों को या समस्याओं को उनसे मित्रवत् कह सकते हैं और उनका समाधान पा सकते हैं। यहाॅं ध्यान देने की बात यह है कि बृजकृष्ण के समीप आने वाले लोग अत्यन्त सामान्य स्तर के थे जबकि
पार्थसारथी के पास  तो अत्यंत उच्चस्तर के सन्त , विद्वान या राजा लोग ही जा पाते थे। अन्य किसी के पास यह सामर्थ्य  नहीं था। यह भी स्पष्ट है कि सालोक्य या सामीप्य की अनुभूति करने के लिये अनेक कठिनाईयों का समना करना पड़ता है। बृजकृष्ण के पास जितनी सहजता है पार्थसारथी के पास उतनी ही अधिक कठिनता। यह भी आवश्यक  नहीं कि यदि किसी ने पार्थसारथी के सालोक्य का अनुभव कर लिया है तो वह सामीप्य पाने में भी सफल हो ही जायेगा । सायुज्य की  स्थिति  में उन्हें स्पर्श  करना भी संभव होता है, जैसे बृजकृष्ण के साथ गोपगोपियाॅं साथ में नाचते , गाते, खेलते, खाते थे जबकि पार्थसारथी के साथ यह बहुत ही कठिन था पाॅंडवों में से केवल अर्जुन को ही यह कृपा प्राप्त थी अन्य किसी को नहीं। परमपुरुष को अनुभव करने की अगली स्थिति है सारूप्य, इसमें भक्त यह सोचता है कि मैं उनके न केवल पास हॅू बल्कि उन्हें अपने आसपास सभी दिशाओं में देखता भी हॅूं। इस प्रकार की स्थिति तब आती है जब भक्त परमपुरुष को अपने निकटतम संबंध से जैसे, पिता,माता, पुत्र, पुत्री, मित्र या पत्नि के रूप में प्रिय संबंध स्थापित करके साधना करते हैं। परमपुरुष को शत्रु के रूप में  संबंध बना कर भी पाया जा सकता है जैसे, कंस, पर यह बड़ा ही दुखदायी होता है व्यक्ति या तो पागल हो जाता है या मर जाता है, और समाज हमेशा  उसे धिक्कारता है। कहा जाता है कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले कंस हर एक वस्तु में कृष्ण को देखता था और पागल हो चुका था। इसलिये सामीप्य अनुभव करने के लिये परमपुरुष के साथ अपना निकटतम संबंध जोड़कर सभी वस्तुओं और स्थानों में उन्हीं को देखना चाहिये। जब किसी के मन में उन्हें पाने के लिये अत्यंत तीब्र इच्छा जागती है तो यह अवस्था बहुत आनन्ददायी होती है उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है और अनिरुद्ध चाहत से वह आगे बढता जाता है तो संस्कृत में इसे 'आराधना' कहते हैं और जो आराधना करता है उसे 'राधा' कहते हैं, यहाॅं राधा का तात्पर्य भक्त के मन से है। बृज के निवासियों ने उन्हें अपने हर कार्य और विचारों में उन्हें पाया ओर देखा जबकि पार्थसारथी को पाॅंडवों ने अपने मित्र के रूप में तथा कौरवों ने अपने शत्रु के रूप में पाया। अनुभूति का अगला स्तर है सार्ष्टी, इसमें भक्त परमपुरुष को सभी संभावित तरीकों और कल्पनाओं से अनुभव करता है। भावना यह रहती है कि प्रभु तुम हो मैं भी हॅूं और हमारे बीच संपर्क भी है। अर्थात् कर्ता  है, कर्म है और संबंध जोड़ने के लिये क्रिया भी है। सार्ष्टि  का यही सही अर्थ है। यहाॅं ध्यान देने वाली बात यह है कि परमपुरुष और भक्त के बीच यहाॅं बहुत निकटता का संबंध होता है पर द्वैत भाव भी होता है। अनेक वैष्णव ग्रंथों  में इसी द्वैत को महत्व देने में यह तर्क दिया गया है कि मैं शक्कर नहीं होना चाहता क्योंकि यदि हो गया तो उसका स्वाद कौन लेगा। इसप्रकार वे सार्ष्टि  को ही उच्चतम अवस्था मानते हैं। पर कुछ वैष्णव दर्शन  यह भी मानते हैं कि हे प्रभु केवल तुम ही हो इस अवस्था को कैवल्य कहते हैं जो अनुभूति की सर्वोत्तम और सर्वोच्च अवस्था स्वीकार की गयी है।
10 -  बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों ने सार्ष्टि   को अनुभव कराया पर बृजकृष्ण ने जहाॅं मधुर भाव से सालोक्य से सार्ष्टि  तक क्रमशः  प्रगति कराई वहीं पार्थसारथी ने सामाजिक चेतना और कर्मयोग के माध्यम से पराक्रम और समर्पण आधारित सालोक्य से सीधे ही सार्ष्टि  उपलब्ध करा दी। इस मामले में बृजकृष्ण यदि आम के फल हैं तो पार्थसारथी बेल के फल। बेल, आम की तुलना में पेट के लिये अधिक गुणकारी होता है परंतु स्वाद में आम की तुलना में कम मीठा होता है और तोड़कर खाने में आम की तुलना में अधिक पराक्रम करना पड़ता है। दोनों  का ही उद्देश्य  परमपुरुष की ओर ले जाने का है पर एक की विधि कोमलता और मधुरता  भरी है तो दूसरे की कठिनाई भरी। यहाॅं एक बात ध्यान देने की है वह यह कि विश्व  में जो भी व्यक्त रूप में आया है वह अपनी विशेष  तरंग दैर्घ्यों  से युक्त होता है, इन सभी छः स्तरों की अनुभूति तभी होती है जब साघक अभ्यास करते करते  अपनी तरंग दैर्घ्य  को सूक्ष्म बनाकर बिलकुल सरल रेखा में ले आता है इस अवस्था में भक्त, पार्थसारथी को भी अपना निकटतम मित्रवत अनुभव करने लगता है। जब किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच स्नेह का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि वे एक दूसरे का विछोह क्षण भर भी नहीं सह सकते तो उन्हें बंधु कहते हैं। जब दो व्यक्ति हमेशा  एक सी विचारधारा के होते हैं और किसी भी विषय  पर मतभिन्नता नहीं होती तो वे सुहृद, जब दो व्यक्ति एक से व्यवसाय या काम से जुड़े  होते हें तो वे मित्र और जब प्रगाढ़ता और निकटता इतनी होती है कि उनके प्राण भी एक जैसे दिखाई देते है तो उन्हें सखा कहते हैं। कृष्ण अर्जुन के सखा थे। अर्जुन ने ही वास्तविक कृष्ण को क्रमागत रूप से सालोक्य से सार्ष्टि  तक पाया परंतु उन्हें अपार शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना और  अथक पराक्रम करना पड़ा।
11 - बृजकृष्ण अपनी बाॅंसुरी के मधुर स्वर सुनाते सुनाते सबसे पहले झींगुर जैसी, फिर समुद्र जैसी दहाड़, फिर बादलों की गड़गड़ाहट, फिर ओंकार ध्वनि के साथ सार्ष्टि  की अनुभूति  क्रमागत रूपसे सभी स्तरों को पार कराते हुए अनुभव कराते हैं। ओंकार घ्वनि बिना किसी ठहराव या रुकावट के लगातार सुनाई देती है, पर इस अवसर पर भी साधक मधुर बाॅंसुरी ही सुनता रहता है इसे ही सार्ष्टि  कहते हैं यहाॅं साधक की विचारधारा यह होती है कि हे  परम पुरुष! तुम हो , मैं हूँ  और इतनी निकटता है कि मैं तुम ही हो गया हॅूं। पार्थसारथी भी सार्ष्टि  की अनुभूति निःसंदेह कराते हैं पर इस प्रकार की नहीं, यहाॅं साधक अनुभव करता है कि प्रभु तुमने मुझे विशेष रूपसे अपना बना लिया है , और अब दूर रह पाना कठिन है, मैं तो तुम्हारे हाथ का खिलौना हूँ  और जैसा तुम चाहते हो वैसे हर काम के लिये मैं सदा ही प्रस्तुत हॅूं। अर्जुन के साथ सबसे पहले तो सामान्य वार्तालाप हुआ और फिर अचानक जोर की पाॅंचजन्य की ध्वनि कानों में गूँजने लगी और उन्हें आत्मसाक्षात्कार हुआ।
12 - मानव बुद्धि और अन्तर्ज्ञान  के क्षेत्र में एक उत्तम विचार है ‘‘प्रपत्ति‘‘ का। शिव के समय लोगों में बौद्धिक विकास इतना नहीं था कि वे दर्शन  अर्थात् फिलासफी को समझ सकें अतः शिव ने बिखरे हुए समुदायों को एक साथ रहने,  स्वस्थ और प्रसन्न रहने के लिये शिक्षित किया, उन्होंने धन्वन्तरी को वैद्यक शास्त्र और भरत मुनी को संगीत अर्थात् नृत्य वाद्य और गीत की विद्या में पारंगत कर सब को सिखाने के लिये तैयार किया, पर दर्शन
की कोई चर्चा नहीं की। भारतीय दर्शन  के मान्यता प्राप्त प्रथम दार्शनिक  कपिल भी शिव के बहुत बाद में और कृष्ण के कुछ समय पहले हुए। उन्होंने बताया कि विश्व  की उत्पत्ति और विकास चौबीस तत्वों से हुआ है और
उन्हे नियंत्रित करने वाली सत्ता हैं ‘‘जन्यईश्वर ‘‘ । संख्या से  संबद्ध होने के कारण इसे  साॅंख्य दर्शन  कहा गया। पर कपिल ने जन्यईश्वर  के संबंध में कुछ नहीं कह पाया इसलिये कुछ लोगों ने इसका विरोध प्रारंभ कर दिया और तर्क दिया कि जिसकी इच्छा से पत्ता भी नहीं हिल सकता कपिल उनके बारे में कैसे बोल सकते हैं अतः नयी विचारधारा का जन्म हुआ इसे प्रपत्तिवाद के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ  है परम सत्ता के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर स्वयम् को उनके हाथों का खिलौना समझना। निश्चय  ही इसी के साथ इसका विरोधी पक्ष विप्रपत्ति लेकर आया और जो उदासीन रहे वे अप्रपत्ति की विचारधारा को मानने लगे। कृष्ण का आगमन इसी प्रकार के वातावरण में हुआ । यद्यपि वे कोई दार्शनिक  नहीं थे पर बृजकृष्ण और पार्थसारथी दोनों की भूमिकाओं में वे एक
 सक्रिय और व्यावहारिक व्यक्तित्व थे।  यहाॅं यह याद रखने योग्य है कि  'भागवत ' शास्त्र जो कि प्रपत्तिवाद को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में कृष्ण से समर्थित बताया गया है वह कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आया।  बृजकृष्ण ने मौखिक रूप से प्रपत्ति, ज्ञान या कर्म के पक्ष या विपक्ष में कुछ नहीं कहा, पर उनकी सब गतिविधियाॅं, कार्यव्यवहार संपूर्णप्रपत्ति का द्योतक है। वास्तव में विराट के आकर्षण से भक्त का मन खिंच कर  अनुनादित हो जाता है और फिर वह उनके बिना नहीं रह सकता। बृज कृष्ण की बाॅंसुरी सुनकर सभी उन की ओर ही दौड़ पड़ते थे। उन्हें लगता था कि वह बाॅसुरी उनका नाम लेकर पुकार रही है, फिर दौड़ते भागते रास्ते में क्या है पत्थर या काॅंटे, उन्हें कोई ध्यान नहीं रहता था, यह प्रपत्ति नही तो और क्या है।  इस प्रकार लोग आगे बढ़ते गये। पर पार्थसारथी ने कहा कि तुम्हें हाथ पैर दिये गये हैं शरीर दिया गया है, यह सबसे अच्छी मशीन है इसका अधिकतम उपयोग करो, कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो। कर्मकरना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है , यदि फल पाने में असफल होते हो तो भी चिंता की बात नहीं है क्यों कि फल देना तुम्हारे हाथ में नहीं है। फल की चिंता करते हुए किये गये कार्य में सफलता मिलना संदेहपूर्ण होता है। यह क्या है ? कर्मवाद। अतः पार्थसारथी यहाॅं फिर बृजकृष्ण से अलग हैं।
13 - प्रश्न  उठता है कि क्या पार्थसारथी का कर्मवाद प्रपत्ति के पक्ष में है या विपक्ष में? अब यदि हम ध्यान से सोचें तो स्पष्ट होगा कि यह हाड़ मास का तन, मन ,मस्तिष्क और आत्मा सब कुछ परमपुरुष से ही अपना उद्गम पाते हैं। अतः यदि हम शरीर मन और आत्मा जो कि परम पुरुष के द्वारा दिये गये उपहार हैं, को उपयोग में लाते हैं तो हम प्रपत्ति का ही अनुसरण करते हैं। क्योंकि यदि उन्होंने इससे भिन्न सोचा होता तो इनके स्थान पर और कुछ होता क्यों कि सब कुछ तो  उन्हीं की इच्छा से होता है। अतः जब उन्होंने कृपा कर यह मन बुद्धि और आत्मा के उपहार हमें दिये हैं तो उनका उचित उपयोग करना प्रपत्ति के अनुकूल ही है। इसप्रकार कर्म प्रारंभ में
तो प्रपत्ति के प्रतिकूल जाता प्रतीत होता है पर वह उसका शत्रु नहीं वरन् उसके अनुकूल ही है। यदि बृज कृष्ण की बाॅसुरी के आनन्द उठाते समय कोई अकृपा का स्थान नहीं है तो पार्थसारथी के कर्मयोग की पुकार में भी अक्रियता के लिये कोई स्थान नहीं है।
14 - तंत्र और प्रपत्ति का पारस्परिक क्या संबंध हो सकता है? देखते हैं। तंत्र के प्रवर्तक हैं भगवान ‘‘सदाशिव‘‘। स्थानीय रूप से इसमें दो भाग हैं एक गौड़ीय और दूसरा कश्मीरी । गौड़ीय में व्यावहारिकता अधिक और
कर्मकाॅंड शून्य  है जबकि कश्मीरी  में कर्मकाॅंड अधिक और व्यावहारिकता कम। व्यावहारिकता के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण  करने पर पता चलता है कि तंत्र के पाॅंच विभाग हैं, शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर एवं गाणपत्य। कहा जाता है कि शैवतंत्र में ज्ञान और सामाजिक चेतना पर अधिक जोर दिया जाता है, शाक्त तंत्र में शक्ति को प्राप्त कर उसे न्यायोचित ढंग से प्रयुक्त करने पर जोर रहता है, वैष्णवतंत्र में मधुर दिव्यानन्द को प्राप्त करने की ओर बल दिया जाता है पर सामाजिक चेतना की ओर कम, सौर तंत्र में चिकित्सा और जयोतिष को ही महत्व दिया जाता है तथा गाणपत्य तंत्र में विभक्त समाज के गुटों को एकीकृत रहकर आगे बढ़ने को प्रोत्साहित किया जाता है। जहाॅं तक प्रपत्ति का प्रश्न  है वैष्णव तंत्र में बृज कृष्ण की तरह, दिव्यानन्द की मधुरता का स्वाद लेने को दौड़ना स्पष्टतः दिखाई देता है। इस अवस्था में ज्ञान और कर्म की कठिनाई से लड़ना संभव नहीं है। अब देखना यह है कि क्या कृष्ण का ज्ञानमार्ग, शैवतंत्र का ज्ञान मार्ग और वैष्णवतंत्र के मधुर दिव्यानन्द से कुछ समानता रखता
है या नहीं । पार्थसारथी कृष्ण ने अर्जुन को अपने प्रकाॅंड ज्ञान का दर्शन  कराया पर उसमें नकारात्मकता या पलायनवाद कहीं पर नहीं था। उन्होंने बताया कि जीवधारी, विशेषतः मनुष्य दो संसारों में जीते हैं, एक संसार उनके छोटे ‘मैं‘ का और दूसरा परम पुरुष का। वह अपने छोटे संसार का स्वमी होकर अनगिनत आशायें और अपेक्षायें पाले रहता है पर ये सब उसी प्रकार होतीं हैं जैसे एक छोटा सा बुलबुला महाॅंसागर में तैरता है। इस छोटे से बुलबुले की इच्छायें तभी पूरी हो सकती हैं जब वह परमपुरुष के संसार अर्थात् महासागर में अपने को मिलाकर आपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर देता है अन्यथा नहीं। स्पष्ट है कि मनुष्य की इच्छाओं की तरंगें जब तक परमपुरुष की इच्छातरंगों से मेल नहीं करती उनका पूरा होना संभव नहीं है। यह पूर्णप्रपत्ति है पर जब प्रारंभ में वे ज्ञान और दर्शन  का विवरण प्रस्तुत करते हैं तो यही बात विप्रपत्ति जैसी अनुभव होती है, पर जब वह समझाते हैं कि सब कुछ तो उन्होंने ही योजित कर रखा है तो यह अप्रपत्ति की तरह लगता है और जब वे कहते हैं कि तुम्हारी इच्छा का कोई मूल्य नहीं मैं ही सब कुछ करता हॅूं तब वह स्पष्टतः प्रपत्ति ही है। ' मामेकम शरणम् व्रज ' , यह कहने पर तो सब कुछ प्रपत्ति का ही समर्थन हो जाता है। शैवतंत्र का दार्शनिक  ज्ञान और वैष्ण्वों की
प्रपत्ति दर्शन  क्या भिन्न हैं? शैवों का दर्शन  ज्ञान , लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिये विभिन्न सकारात्मक और नकारात्मकताओं में संघर्ष करने और कार्य कारण सिद्धान्त के विश्लेषण  के आधार पर आगे बढ़कर लक्ष्य तक ले जाने की बात कहता है अतः प्ररंभ में विप्रपत्ति प्रतीत होती है पर अंत में जब लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तब न तो अप्रपत्ति न प्रपत्ति और न ही विप्रपत्ति बचती है।
15 - अपनी असाधारण बुद्धि, व्यक्तित्व, चतुराई और संगठनात्मक क्षमता के कारण जो समग्र समाज का नेतृत्व  करते हैं वे समाजप्रर्वतक कहलाते हैं। वे जो कुल अर्थात् तंत्र साधना कर अन्तर्ज्ञान  के सहारे सूक्ष्म ऋणात्मकता को विराट धनात्मकता में बदलकर अपने इकाई मन को परमसत्ता के  मन के स्तर तक ऊंचा कर सकते हैं कौल कहलाते हैं। वे जो अपने अभ्रान्त ज्ञान के मार्गदर्शन  से दूसरों को कौल बना देते हैं वे महाकौल कहलाते हैं। परंतु तारक ब्रह्म इन सबसे भिन्न विशेष सत्ता होते हैं जो एकसाथ समाज प्रवर्तक, आध्यात्मिक प्रवर्तक, कौल और महाकौल सबकुछ होते हैं इतना ही नहीं वह इन सब से भी अधिक होते हैं वे समाज के प्रत्येक भाग के लिये दिशा निर्देशक की तरह कार्य करते हैं। पिछले खंड में स्पष्ट किया गया है कि भगवान सदाशिव तारक ब्रह्म थे।
16 - साॅंख्य दर्शन  के अनुसार इस संसार की संरचना कुल मिलाकर चैबीस तत्वों से हुई है और इन पर नियंत्रण करने के लिये जन्यईश्वर  और संमग्र कार्यों को सम्पन्न करने के लिये प्रकृति को उत्तरदायी माना गया है। जन्य ईश्वर  या पुरुष को केवल उत्प्रेरक की तरह निष्क्रिय माना जाता है जैसे मकरध्वज का निर्माण करते समय स्वर्ण। अब यदि इस दर्शन  के प्रकाश  में बृज कृष्ण को देखें तो हम पाते हैं कि यहाॅं पुरुष तो केवल एक ही है और प्रकृति अर्थात् जीव अनेक । जब जीव का मन एक केन्द्रित होता है तो वे केवल परमपुरुष की ओर ही दौड़ पड़ते हैं। इकाई मन में केवल परमपुरुष के प्रति आकर्षण होना राधा भाव कहलाता है। बृज कृष्ण की ओर सभी दौड़ पड़ते थे और अनुभव करते थे कि वे उनके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकते, यह थी उन की आराधना और अंतर्निहित भाव था राधा भाव। राधा भाव, बृज कृष्ण के अलावा और कहीं दिखाई नहीं देता। बृजकृष्ण सान्त्वना के साक्षात् स्वरूप थे जो कि तारक ब्रह्म का ही लक्षण है और यह साॅंख्य दर्शन  में कहीं  भी दिखाई नहीं देता।
साॅंख्य का पुरुष अक्रिय जबकि बृजकृष्ण सदैव सक्रिय, बिना किसी भेदभाव के वे सबको पास बुलाते और उन्हें मधुरता का अनुभव कराते, उनमें जैवधर्म, मानव धर्म और भागवत धर्म का समन्वय कराते। सभी कृष्ण के साथ रहना चाहते, वे अपने आपको भूलकर केवल कृष्ण को पाकर अपने सब दुखदर्द और शंकायें, समस्यायें सब भूल जाते। बृज कृष्ण के समय में ही भक्ति का उद्गम हुआ। भिन्न भिन्न लोगों ने अपने अपने संस्कारों के अनुसार एक ही कृष्ण को अलग अलग मधुरभाव से चाहा जैसे नन्द और यशोदा ने वात्सल्य भाव से जबकि उनके वास्तविक पिता बसुदेव देवकी को यह अवसर प्राप्त नहीं हुआ। गोप गोपियों को मित्र भाव में , राधा ने मधुर भाव में अनुभव किया। बृज कृष्ण के पहले किसी ने भी इस मधुर भाव की अनुभूति नहीं कराई । इस तरह हम देखते हैं कि बृजकृष्ण साॅंख्यदर्शन  से बहुत ऊपर हैं, साॅंख्य दर्शन  में उन्हें नहीं बाॅंधा जा सकता।
17 - साॅंख्य के अनुसार पार्थसारथी का स्तर कहाॅं है यह जानने के लिये यह ध्यान में रखना होगा कि सारथी का अर्थ रथ चलाने वाला नहीं वरन् ‘‘बुद्धिंतु सारथिम् विद्धि‘‘  से लिया गया बुद्धि तत्व है, पार्थसारथी की बुद्धि से ही जगत के सब मनुष्य बुद्धि पाते हैं। मनुष्य का अर्थ केवल मानव शरीर होना नहीं है। वरन् मूलभूत
आवश्यकताओं के लिये संघर्ष करने के साथ मन का होना भी है जो अन्ततः आत्मा से ही प्रेरणा पाता है। जीवन के उतार चढाव़, सुखदुख और संघर्ष में सही दिशा  देना किसका काम है? इस स्तर की बौद्धिक क्षमता किसके पास है? एक ही स्थान पर यह सब जहाॅं पाया जा सकता है वह पार्थसारथी  के अलावा कोई नहीं है । साॅंख्य का
 पुरुष अक्रिय है जबकि पार्थसारथी की सक्रियता ने लोगों की जीवन पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया, महाभारत का युद्ध, जन सामान्य को अनुशासित रहने की शिक्षा और कर्म की ओर प्रेरित कर लोक शिक्षा देना
जैसे सक्रिय कार्य साॅंख्य के जन्यईश्वर  में कहीं दिखाई नहीं देते। अतः इस अद्वितीय व्यक्तित्व को किसी दर्शन  में क्या बाॅंधा जा सकता है? पार्थसारथी यद्यपि राजाओं से ही मेल मिलाप करते थे पर उनके मनमें हमेशा  जनसामान्य के सुख दुख और मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के विचार रहते थे जिन्हें मूर्तरूप देने में वे हमेशा  सक्रिय रहते थे । मानवता की रक्षा के लिये उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना की । इसके लिये उन्होंने नैतिक और अनैतिक राजाओं का ध्रुवीकरण कर धर्मयुद्ध कराया और जन सामान्य की नैतिक मूल्यों में आस्था को स्थापित किया।  वे ओत और प्रोत योग से सामूहिक और व्यक्तिगत रूपसे सब से जुड़े रहे जो बच्चों का खेल नहीं है। अतः साॅंख्य के जन्य ईश्वर या पुरुष, पार्थसारथी जो कि पुरुषोत्तम थे, के समक्ष कहीं नहीं टिकते ।
18-  यद्यपि प्रचलित दार्शनिक  सिद्धान्त कृष्ण के बहुत बाद में अस्तित्व में आये परंतु उनकी दोनों भूमिकाओं की परख इन दर्शनों  के आधार पर करने के लिये क्रमानुसार विश्लेषण करना उचित होगा। विशुद्ध  अद्वैतवाद या मायावाद को प्रारंभ में उत्तरमीमाॅंसा के नाम से जाना जाता था जो वादरायण व्यास के द्वारा प्रतिपादित हुआ और बाद में शंकराचार्य ने विस्तार किया। इस के अनुसार ‘‘ब्रह्म सत्य है , जगत मिथ्या और जीव भी ब्रंह्म से भिन्न नहीं है।‘‘ इसके विश्लेषण और व्याख्या करने वाले तार्किक कहते हैं कि यह किसी भी प्रकार अद्वैत नहीं वरन् द्वैत है क्यों कि यदि अद्वैत का कोई प्रमाण है तो वह क्या है? और यदि नहीं है तो फिर अद्वैत क्या है? यदि वह माया है तो भी वह ब्रह्म से भिन्न होकर दूसरा कुछ हुआ अतः फिर भी अद्वैत कहाॅ? फिर कहते हैं कि माया के कारण पदार्थों में भेद होने से अनेकता दिखाई देती है। इस प्रकार अपने आप में उलझा यह दर्शन साॅंख्य और न्याय
दर्श न के अनुसार जीव और परमपुरुष की पृथकता को स्वीकार करेगा अर्थात् ब्रंह्म और जीव में कोई आकर्षण नहीं होगा, जो कि सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के विपरीत होगा। अब बृजकृष्णको देखें वह अद्वैत के ब्रह्म और संसार के जीव भी नहीं वह तो इन दोनों से ऊपर स्वयं पुरुषोत्तम है, वे जाने अनजाने सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, लोग उनके बिना रह नहीं सकते। बृह्माॅंड में भी सभी एक दूसरे को आकर्षित किये हुए हैं और यदि इस आकर्षण में थोड़ा सा भी परिवर्तन हो जावे तो समग्र ब्रह्माॅंड का संतुलन बिगड़ जावेगा। बृजकृष्ण का यह प्रदर्शन विशुद्ध अद्वैतवाद के ब्रह्म और जीव की एकता के विपरीत है। परम पुरुष सभी जीवों को आकर्षित करते हैं और जीव उनमें ही आश्रय पाकर उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, जैसे जैसे केन्द्रभिसारी बल के प्रभाव से जीव ब्रह्म के पास आते जाते हैं उनमें भक्ति जाग्रत हो जाती है और उनके बीच का अन्तर घटता जाता है। निकट आने पर जीव अनुभव करता है कि कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है वह तो भावस्वरूप हैं जो मनोआत्मिक समान्तरता से प्राप्त होते है । भक्ति का आवेग और बढ़ने पर अनुभव होता है कि कृष्ण तो जीवों के जीवन हैं और उनके विना जीवों कोई अस्तित्व नहीं ,वे हैं अतः अन्य सब हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बृज कृष्ण के सामने कोई दर्शन  का महत्व नहीं रह जाता है। अतः विशुद्ध अद्वैतवाद जैसे दोषपूर्ण दर्शन  से उन्हें किस प्रकार समझा जा सकता है? इसी के साथ मायावाद की भी चर्चा की जाती है। ध्यान देने की बात यह है कि जितने भी उदाहरण मायावदियों ने माया के समर्थन में दिये हैं वह सब इस जगत के ही हैं जब कि वे इस जगत को मिथ्या कहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि साॅंसारिक वस्तुएॅं सदा एकसी नहीं रहती समय के साथ वे बदलती रहती हैं इसीलिये संसार को जगत कहते हैं अर्थात् जो गतिशील है रुका नहीं है। बृजकृष्ण के लिये सारा संसार मधुर है वे प्रत्येक अणु और परमाणु सहित सब जीवों को अपनी ओर बाॅंसुरी के स्वर से आकर्षित करते हैं । जबकि मायावादी, शब्दों के जादू से जगत को ही झूठा सिद्ध करते हैं। बृज कृष्ण के लिये कोई छोटा या बड़ा नहीं वे जो कृष्ण का मनन करते हैं तत्काल उनकी बाॅंसुरी सुनते है पर जो सांसारिकता में उलझे रहते हैं वे नहीं। यथार्थ यह है कि यह संसार भी सापेक्षिक सत्य है और माया भी परम पुरुष की माया है। बृह्म के चारों ओर घूमते हुए सभी पर केन्द्राभिसारी अर्थात् केन्द्र की ओर और केन्द्रापसारी अर्थात् केन्द्र से बाहर की ओर बल लगते हैं। केन्द्र के बाहर की ओर जो बल लगता है उसे अविद्यामाया और भीतर की ओर जो बल लगता है उसे विद्यामाया कहते हैं। अविद्यामाया विक्षेप और आवरणी शक्ति से जीवों को परमपुरुष के केन्द्र से दूर ले जाती है और विद्यामाया संवित और ह्लादनी शक्ति से परमपुरुष की ओर खींचती है। इस तरह वे पृथक नहीं वरन् संतुलन बनाये रखने के लिये आवश्यक हैं। अतः परमपुरुष और उनकी माया अलग अलग नहीं हैं, जो परमपुरुष को चाहते हैं वे माया के प्रभाव में नहीं पड़ते। इस तथ्य पर  बृजकृष्ण और पार्थसारथी कृष्ण दोनों की भूमिकायें एक दूसरे से मेल खाती हैं। इस तरह हम देखते हैं कि विशुद्ध अद्वैतवाद व्यावहारिक  या आध्यात्मिक रूप से महत्वहीन हो जाता है अतः बृजकृष्ण के सामने नगण्य प्रतीत होता है।
19 -  जहाॅंतक पार्थसारथी का प्रश्न  है वह तो अत्यंत सक्रिय और व्यावहारिक हैं जब कि मायावाद या विशुद्ध अद्वैतवाद तो इसके बिलकुल ही विपरीत है।  पार्थसारथी ने अपना अधिकतम समय और ऊर्जा का उपयोग भोजन वस्त्र आवास शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र और मानसिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में सभी लोगों की उन्नति के लिये कार्य किया। शान्ति  और प्रगति के लिये उन्होंने विवेकी राजाओें और साधारण नागरिकों को
एक ही प्लेटफार्म पर लाकर धर्मराज्य की स्थापना की। अतः मायावाद के अनुसार उनके व्यक्तित्व को हम कैसे नाप सकते हैं? वह तो वैसा ही होगा जैसे, इंचीटेप से दूध को नापना। पार्थसारथी कृष्ण सार्वभैमिक सत्ता, परमपुरुष थे। मानसिक संसार में भी हजारों भावनायें और अनुभूतियाॅं होती हैं वे इन्हीं परमपुरुष से ही प्रेरणा पाती हैं। एक अन्य संसार होता है वह है आध्यात्मिक संसार । किसी का आध्यात्मिक स्तर कितना ही क्यों न हो उसके हृदय में हीरे की तरह चमकती एक इकाई चेतना रहती है इसे भी परमपुरुष से ही प्रेरणा प्राप्त होती है। परंतु मायावाद कहता है पिता नहीं, माता नहीं, कैसे भाई कैसे मित्र? अतः मायावाद के अनुसार पार्थसारथी को परखने का प्रयास करना ही व्यर्थ है क्योंकि जब इन सब का अस्तित्व ही नहीं है तो उनमें पारस्परिक भौतिक मानसिक या आध्यात्मिक संबंधों  के होने अथवा वे कहाॅं से आये हैं इसका कोई महत्व ही नहीं है। पार्थसारथी का उद्गम वैदिक युग की समाप्ति के बाद हुआ जब अवसरवादियों के द्वारा मानवता  शोषण किया जाना चरम
सीमा पर था, उस समय यह मायावाद सिखाना सार्थक होता या कराहती मानवता के आॅंसू पोंछना? पार्थसारथी ने पलायनवाद नहीं सिखाया वरन् वह सब की भलाई के लिये सब को एकत्रित करके शोषण के बिरुद्ध संघर्ष करने के लिये कटिबद्ध रहे हैं। अतः मायावाद की शिक्षायें पार्थसारथी की शिक्षाओं से विपरीत हैं। पार्थसारथी ने सिखाया कि शरीर और ऊर्जा में पारस्परिक संबंध है उसे मजबूत कर मानवता को हानि पहुचाने वाली शक्तियों के विरुद्ध संग्राम करो वे हमेशा  उनके साथ हैं। मायावाद उपाधिवाद को भी स्थापित करता है जो भावजड़ता का ही पोषक है। पार्थसारथी ने धर्मराज्य की स्थापना के साथ मानसिक मुक्ति की भी शिक्षा दी। उन्हों ने बताया कि अवसरवादियों के द्वारा अतार्किक, अमनोवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण विचारों को मन में संक्रमित कर दिया जाता है जिससे वे अनन्त काल तक जनसामान्य का शोषण करते रहें। (जैसे, सब लोग जानते हैं कि महामारी/बीमारी का इलाज दबाईयों से होता है पर इन संक्रमित किये गये डागमेटिक विचारों से लोग देवी देवताओं की पूजा करके इसे दूर करना चाहते हैं और  सबको तथाकथित प्रसाद बाॅंटकर महामारी को उनके घर तक पहुंचा देते हैं)। इसलिये पार्थसारथी ने स्पष्ट कहा कि इस प्रकार की मानसिक बीमारियों को पनपने ही न दो। इस प्रकार पार्थसारथी मायावाद या उपाधिवाद या विशुद्ध अद्वैतवाद के विपरीत थे।
20 -  पदार्थ और चेतना में थोड़ा सा ही अंतर है, पदार्थों की संरचना के समय पड़ने वाले परस्पर दबाव और संघर्ष के परिणाम स्वरूप अर्थात् परम सत्ता की संचरक्रिया के समय, चित्त अथवा जड़ात्मक मन की उत्पत्ति होती है। इसके बाद सूक्ष्म चिंतन और उस परम सत्ता के आकर्षण से यह मन उच्चतर स्थितियों की ओर जाता है। लाखों वर्ष पहले मनुष्य ने धरती पर जन्म लिया और तब से  अब तक बहुत परिवर्तन उसकी संरचना में होते गये और आगे भी होते जायेंगे। प्रकृ्ति का यह अटल नियम है कि जो आया है उसे जाना ही पड़ेगा। मनुष्य की संरचना में पचास छोटे बड़े ग्लेंड्स या ऊर्जा केन्द्र हैं जो भीतर बाहर और दसों दिशाओं में सक्रिय रहते हैं, इस प्रकार सब मिलाकर एक हजार बृत्तियों  को नियंत्रित करने के लिये पीनियल ग्लेंड या सहस्रार  चक्र सक्रिय रहता है। हर ग्लेंड अपने से नीचे के ग्लेंड पर नियंत्रण करता है। मनुष्य की भाभुकता का नियंत्रण इकाई चेतना करती है और इन सभी इकाई चेतनाओं पर, परमचेतना इस सहस्रार चक्र से नियंत्रण रखती है। परमपुरुष समस्त ब्रह्माॅंड पर नियंत्रण करते हैं। इस प्रकार सबके अपने अपने नियंत्रणकर्ता और आश्रय हैं। कोई भी निराश्रय नहीें है क्योंकि आश्रयहीनता का अर्थ है महामृत्यु। परंतु महामृत्यु नहीं होती रूपान्तरण होता रहता है। सभी जीव परम सत्ता के चारों ओर चक्कर लगाते हैं क्यों कि वे सब उनसे अकर्षित होते है। प्रकृति में भी अन्य पिंड अपने अपने नियंत्रक तारों से आकर्षक होकर  उनके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सभी कार्बनिक और अकार्बनिक  पदार्थ और जीव, जानते हुए या अनजाने में  परम पुरुष के ही चक्कर लगाते हैं। जो सचेत हैं वे अपने प्रयासों से अपने केन्द्र की ओर जाने की गति बढ़ाने का प्रयास करते हैं और अंत में अपने उद्गम परम पुरुष तक पहुॅंच जाते हैं, जो नहीं करते वे नकारात्मक प्रतिसंचर में जाकर केन्द्र से दूरी बढ़ाते जाते हैं और भटकते रहते हैं। विशुद्ध अद्वैतवाद और विशिष्ठाद्वैतवाद में अंतर यह है कि विशिष्ठाद्वैतवाद परिपक्व है इसने संसार को माया कहकर दूर नहीं फेका है। विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्माॅंड के नियंत्रक के रूप में परम सत्ता को स्वीकार किया गया है परंतु इसके अंतर्गत महाविष्णुवाद जोड़ा गया है जो कहता है कि ब्रह्माॅंड के केन्द्र में परमपुरुष हैं जो हर प्रकार से पूर्ण, मधुर , साहसी हैं। वे कभी कभी शत्रुओं को मारने के लिये शस्त्र भी उठा लेते हैं, पर वे कोमल हृदय भी है अतः उन्हें नष्ट नहीं करते वरन् उन्हें अपने में सुघार करने का अवसर भी देते हैं। उनसे अग्नि की सैकड़ों चिंगारियाॅं निकलती रहती हैं, सभी जीवधारी यही चिंगारियाॅं ही हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब जीव कार्य करते हैं। इन चिंगारियों को उनतक वापस लौटना आवश्यक  नहीं है, पर कुछ लौट भी सकते हैं। परंतु बृजकृष्ण तो सभी को अपनी ओर बुलाते हैं वे कहते हैं कि आओ मेरे और निकट आओ मैं तुम्हारा हूँ  और तुम हमारे। तुम्हारा भविष्य उज्जवल है। अतः बृजकृष्ण , महाविष्णुवाद के विपरीत हैं। विशिष्ठाद्वैतवाद भी बृज कृष्ण के साथ संबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि जो भी उनके निकट आता है वह उन्हीं में मिल जाता है, उसका व्यक्तिगत अस्तित्व उन्हीं की आभा में मिलकर एक हो जाता है भले वह आज न हो सौ वर्ष  बाद हो पर होगा अवश्य । पर विशिष्ठाद्वैतवाद के अनुसार जीवों का वापस आना अनिवार्य नहीं है। अब पार्थसारथी को इस परिप्रेक्ष्य में देखें। सामान्यतः लोगों में नया और अद्भुद करने का पर्याप्त साहस नहीं होता परंतु यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार के सर्वजनहिताय कार्य को करने का साहस करता है तो अन्य सद्गुणी व्यक्ति भी उसे सहायता करने लगते हैं। पार्थसारथी के पास यह आदर्श  गुण था कि वे समाज के हित में जो भी उत्तम होता उसे अवश्य  ही करते थे। लोगों की भावनाओं और आशाओं , अपेक्षाओं को पूरा करने का सद्गुण उनमें था। सद्गुणी लोगों की अपेक्षायें भी पवित्र होती हैं, इन्हें पूरा करने का कार्य कौन कर सकता है? परमपुरुष। पार्थसारथी इन पवित्र लोगों के मन ही चुरा लेते थे और वे आज
भी यह करते हैं। महाविष्णुवाद के अनुसार उनसे चिनगारियाॅं निकलने के बाद अपने श्रोत में कभी नहीं लौट पाती, पर पार्थसारथी की शिक्षा अच्छे बुरे सभी प्रकार के मनुष्यों को आध्यात्मिक प्रगति को ओर ले जाकर उनके मूल श्रोत तक पहुंचाने के लिये है। वे कहते हैं कि चाहे कोई कितना ही दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्य भाव से मेरी ओर आता है तो मैं उसे पाप से मुक्त करता हॅूं, धर्म की संस्थापना और दुष्टों का विनाश  करने और साधुओं की रक्षा करने के लिये बार बार आता हॅूं। अर्थात् वे विनाश  की बात तो करते हैं परंतु प्रणाश  की नहीं जबकि महाविष्णुवाद प्रणाश  का समर्थन करता है। विनाश  का अर्थ है कि संबंधित को उचित परिस्थितियाॅं देकर आगे बढ़ने का अवसर देना जबकि प्रणाश  का अर्थ है सम्पूर्णतः नष्ट करना। जब एक युग समाप्त हो रहा होता है और दूसरे का प्रारंभ होने को होता है तो बीच के समय अर्थात् संधी काल में लोग अनिर्णय की स्थिति में होते हैं, वे नहीं समझ पाते कि क्या सही है और क्या गलत क्योंकि एक प्रकार के मूल्य समाप्त हो रहे होते हें और दूसरे प्रकार के स्थापित हो रहे होते हें। इस अवस्था में पार्थसारथी जैसे बहादुर और कुशाग्र बुद्धि के व्यक्तित्व की समाज को आवश्यकता होती है जो उसे उचित दिशा  दे सके। पार्थसारथी अपने भक्तों को अपनी ओर आकर्षित कर उनकी आशाओं के अनुरुप संरक्षण देते हैं और समाज को दूषित करने वाले दुष्टों को दंड देते हैं ताकि वे सही रास्ते पर आ सके, उनका भी वे प्रणाश  नहीं करते। इस तरह विशिष्ठाद्वैत वाद और पार्थसारथी कृष्ण में कोई
संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता।
21 -  सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? प्रारंभ में लोग दर्शन  शास्त्र के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे  अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान, माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसमें जीव भाव को साॅंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं, जीव का यही इकाई ‘‘मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है। इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहाॅं होता है? जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है , जैसे मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया , मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका सह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परमसत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है। भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहाॅं बचता है? द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हूँ  और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर
नहीं बनना चाहता , मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्कर  का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक
देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में एक धन एक बराबर दो, दूसरी अवस्था में एक धन एक बराबर एक और तीसरी अवस्था में एक धन एक बराबर क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है। बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है। अब पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखा जाये। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक  होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वाॅम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः। मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्माें को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं, मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय। यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही हैं और उन्हें ‘एक‘  और अन्य द्वितीयक धर्म ‘शून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद शून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले शून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसी लिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। जो इस प्रकार प्रारंभिक धर्म परमपुरुष को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं  उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है । तो क्या पार्थसारथी अद्वैतवादी हैं? हाॅं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।
22 - आइये अब बृजगोपाल को द्वैताद्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में देखें। द्वैताद्वैत का अर्थ है प्रारंभ में द्वैत पर अंत में अद्वैत। अर्थात् पहले जीव अपने को परम पुरुष से पृथक मानते हैं पर बाद में साधना करके वे उनके अधिक निकट आ जाते हैं और फिर उन से मिलकर एक हो जाते हैं। अब प्रश्न  है कि यह मिलकर एक हो जाना कैसा है? शक्कर और रेत जैसा या शक्कर और पानी जैसा?  यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि जीव आखिर आते कहाॅं से
हैं? जीवों का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। पर द्वैताद्वैतवादी इस संबंध में बिलकुल मौन हैं कि जीव आते कहाॅं से हैं, पर यह कहते हैं कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। सभी जीव जानते हैं कि उनके पास एक जैविक बल है, उनकी अपेक्षायें और आशायें हैं, सुख दुख हैं, भावनायें और भाभुकतायें हैं। इन सब को भुलाकर छोड़ा नहीं जा सकता। ये सब बोझ भी नहीं हैं बल्कि आनन्ददायी जीवन का आनन्द हैं। अतः स्पष्ट है कि द्वैताद्वैतवाद में मानवता का मूल्य नहीं समझा गया। वह अनन्त सत्ता जिसका प्रवाह सतत रूप से विस्तारित हो रहा है उसका अन्त भी आनन्द स्वरूप अनन्त में ही होगा अतः जीव और षिव का मिलन षक्कर और रेत की तरह नहीं वरन् शक्कर और पानी की तरह ही संभव है । अपनी उन्नत बुद्धि और निस्वार्थ सेवा के बल से साधना और सत्कर्म करते हुए वे साधारण से असाधारण व्यक्तित्व को प्राप्त कर सकते हैं। अब देखें बृजगोपाल का व्यक्तित्व। वे पैदा ही जेल में हुए, उस रात में भयंकर जलवृष्टि और विजली की बज्र चमक हो रही थी जिसका मतलब ही था कि कंस की भ्रष्ट नीतियों को नष्ट करने के लिये दूरदर्शी  विधान। जेल के प्रहरी के द्वारा ही दरवाजे के ताले खोले जाना , गोकुल के सभी व्यक्तियों का गहरी नींद में सो जाना, यह सब नवजात कृष्ण को सुरक्षित बचाने का दैवीय विधान था। बृज गोपाल के जीवन की छोटी छोटी घटनाये जैसे पूतना का मारा जाना, बकासुर और अघासुर कर मारा जाना किस प्रकार संभव हुआ। ये सब कंस के जासूस थे वे तो यह काम अपनी आजीविका के लिये करते थे, उन्हें कृष्ण से व्यक्तिगत रूपसे कुछ भी लेना देना नहीं था। कृष्ण ने भी उन्हें जानबूझकर नहीं मारा ,वे सब उन्हें मारने आये थे अतः अपने बचाव में कृष्ण ने उन्हें मारा और वे स्वभावतः मारे गये । पूतना का वे गला दबाकर या तलवार से बध कर सकते थे पर उन्होंने यह नहीं किया बल्कि दाॅंत से काटा और उसके द्वारा लगाया गया विष  उसी के शरीर में प्रवेश  कर गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। स्पष्ट है कि इन सब में कृष्ण ने अपना मानवीय द्रष्टिकोण नहीं छोड़ा। जीव परमपुरुष से आये हैं और उन्हीं में अंत में चले जायेंगे। पूतना आदि भी परमपुरुष से ही आये थे, वे भी द्वैतवादी थे यदि उन्होंने साधना की होती तो परम पुरुष में मिलकर एक हो गये होते पर उन्हों ने नकारात्मक रास्ता चुना और उन्होंने विश्व  के केन्द्र को ही नष्ट करना चाहा और अंततः कृष्ण को उन्हें उनकी बुरी प्रबृत्तियाॅं नष्ट कर मानवता की रक्षा के लिये मारना पड़ा। कोई यदि आग के पास बिना किसी सुरक्षा के जाता है तो वह उन्हें राख कर देती है, कृष्ण यदि केवल  द्वैतवादी की तरह व्यवहार करते तो वे अपने को उनसे दूर कर लेते पर उन्होने यह नहीं किया, उन्होंने उन सबको अपने पास ही बुला लिया। गोपियाॅं भी कोई पढ़ी लिखीं नहीं थीं, पर वे अपने द्वैत को अद्वैत में बदलने के लिये लगातार उनके पास जाने के लिये गतिशील बनी रहीं। अब यह मेल कैसा था? पानी और शक्कर की तरह । बृजगोपाल ने सभी ग्वाल बालों और गोपियों के साथ अपने को इस प्रकार मिला लिया था कि उन्हें पहचानना संभव नहीं होता था। यहाॅं द्वैत समाप्त था। साॅंसारिक रंग भेद और आकर्षण , द्वैत में फुसला कर भटकाये रहते हैं और परमपुरुष से दूर करते जाते हैं, कृष्ण का कहना था कि ये सब आकर्षण और भेद उन्हें देकर उनके साथ ही एक हो जाओ क्योंकि परम पुरुष से आये हो तो परमपुरुष में ही मिलने का लक्ष्य होना चाहिये, यह अद्वैत है। उन्हीं की वस्तु उनको ही सौपकर भार मुक्त होने में ही बुद्धिमत्ता है। स्पष्ट है कि बृजगोपाल का मिलन शक्कर और रेत के जैसा नहीं बल्कि शक्कर और पानी की तरह है, क्यों कि वे तारक बृह्म हैं। इस परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी ने क्या किया? उन्होंने सच्चे लोगों को एकत्रित कर मानवता के मूल्यों की रक्षा करने के लिये लगातार संघर्षरत रखां। साधक को परम पुरुष के समीप जाने के लिये साधना के कटीले रास्ते पर चलना ही पड़ता है। जब रास्ते के काॅंटे हटकर दूर हो जाते हैं साधक आगे बढ़कर परमपुरुष की गोद में आश्रय पा ही लेता है। यह भी हो सकता है कि भक्त सच्चाई और ईमानदारी से अपनी सभी ऊर्जा को एक बिंदु पर केन्द्रित कर  एक स्थान पर बैठा अधीरता से पुकार कर कहे कि हे परमपुरुष मेरे ऊपर कृपा करो और मेरे पास आ जाओ। इस प्रकार उसकी सभी मनोवैज्ञानिक ऊर्जा एक बिंदु पर केन्द्रित होकर परम पुरुष से एकीकृत हो जाती है, यह अद्वैत है। इस प्रकार का रास्ता भक्ति मार्ग , ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कहलाता है, प्रारंभ में भक्त और परमपुरुष दो, फिर अंत में केबल परमपुरुष एक। पार्थसारथी ने सच्चाई का पालन करने के लिये कुशल रणनीति बनाने का कौशल भी सिखाया। बार बार जरासंध के आक्रमण से नागरिकों को बचाने के लिये अपनी राजधानी को मथुरा से द्वारका में ले जाना इसी रण नीति का हिस्सा था, क्योंकि जरासंध को द्वारका जाने में मरुस्थल को पार करना कठिन था। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में सच्चाई के साथ रहते हुए दुष्टों के विरुद्ध शस्त्र किस प्रकार उठाये जाते हैं यह भी उन्होंने सिखाया। उन्होंने धर्म के प्रति स्थिर और बुद्धिमान लोगों को एकत्रित कर सत्य और उच्चतर जीवन जीने की ओर प्रेरित किया जिससे लोग उन्हें अपना निकटतम मानने लगे। यही कारण है कि वे आज तक सब के दिलों पर राज्य कर रहे हैं। उन्हों ने स्पष्टतः कहा कि मुझ से ही सभी उत्पन्न हुए हैं मुझ में ही सभी प्रतिष्ठित हैं और अंत में मुझमें ही मिल जायेंगे। द्वैताद्वैतवाद यह नहीं कह पाता कि जीव कहाॅं से आते हैं, केवल यह कहता है कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैताद्वैतवाद के प्रकाश  में परीक्षित करना व्यर्थ है, वह उससे बहुत ऊपर हैं।
23 -  जब आनन्द के साथ आगे की ओर गति की जाती है तो उसे बृज कहते हैं। अनेक प्रकार की तन्मात्राओं के द्वारा हमें बाह्य भौतिक जगत का ज्ञान होता है और इन तन्मात्राओं का नियंत्रण मन के द्वारा होता है। परंतु एक और नियंत्रक होता है जो मन के पीछे छिपा होता है वह दिखाई नहीं देता ठीक कठपुतली के प्रदर्शनकर्ता  की तरह। यही कारण है कि लोग कहते हैं वाह! कितना अच्छा वक्ता है, गायक है, नर्तक है पर यह नहीं जानते कि वास्तव में यह सब कराने वाला कौन है। पूरी महत्ता प्रदर्शन  करने वाले को ही प्राप्त होती है। सभी प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिये हम ज्ञानेन्द्रियों की सहायता लेते हैं, संस्कृत में गो का अर्थ है इन्द्रियां  और वह सत्ता जो इनका संरक्षण और संवर्धन करता है वह गोपाल। अतः आनन्द पूर्वक लोगों को आगे ले जाने और अनुभूतियाॅं कराने का कार्य करने वाला कहलायेगा बृजगोपाल। बृजगोपाल सभी को अपनी ओर आकर्षित करते
, हंसाते , रुलाते , मन में जिज्ञासा जगाते, संदेह निर्मित करते, मन में अनेक रसों का प्रसार करते, हर बार नये नये रसों और प्रकारों से आनन्दित करते सब को आगे बढ़ते जाने का मार्गदर्शन  करते हैं क्यों कि विश्व  अनन्त रसों का सागर है। इस प्रकार वे जीवन के सार तत्व परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं क्योंकि  इसके अलावा जीवन में कुछ नहीं है। लोगों ने प्रयास किया कि बृजगोपाल की तुलना करने के लिये कौन उचित होगा पर जीवों के प्रति उनका प्रेम, भाव, और अन्तर्ज्ञान  , दूरदर्शिता  और ज्ञान की गहराई देखकर कोई भी उनके समतुल्य
नहीं मिल पाया अतः उन्होंने कहा तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति। उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं । ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित करती है ग्रहों को तारे तारों को गेलेक्सी और गेलेक्सियों को ब्रह्माॅंड का केन्द्र और इन सब को परमपुरुष। जब कोई यह सोचता है कि परमपुरुष उसे आकर्षित कर रहे हैं और वह भी परमपुरुष को आकर्षित करता है तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इस भक्ति कहा जाता है। इस तरह कोई छोटा हो या बड़ा , वे परस्पर  और इस महान के आकर्षण से मुक्त नहीं है। यह समझ कर परम पुरुष की ओर बढ़ते जाना भक्ति है। बृजगोपाल क्या करते हैं, वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सब को अपने प्रेम और मधुरता के भावों में प्रसन्नता से आगे बढ़ते जाने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः बृजगोपाल के अलावा अन्य कोई सत्ता भक्ति की इस उच्च स्थिति को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है। परिप्रश्न  क्या है? वह जिसका उत्तर पा जाने पर लोग प्रोत्साहित होकर उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं और तदानुसार परिणाम भी प्राप्त होने लगता है। हर प्रभाव का कारण खोजते खोजते मूल कारण प्राप्त कर लेना।सबसे पहले जब मनुष्यों ने सोचा कि जगत का मूल कारण क्या है तो जो उत्तर मिला वह आद्या शक्ति कहलाता है। आध्यात्मिक साधकों ने कहा है कि ‘‘ यच्छेदवाॅंग्मनसी प्रज्ञस्तदयच्छेद्ज्ञानात्मनि। ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि।‘‘ अर्थात् साधना के द्वारा इंद्रियों को चित्त में अर्थात् जड़ मन में समाहित करे, इस प्रकार इंद्रियों के चित्त में समाहृत हो जाने पर आप अपनी और अन्यों की इंद्रियों को स्तंभित कर सकते हो अर्थात् उनकी गतिविधियों पर अपने मन से नियंत्रण कर सकते हो। इसके बाद अपने चित्त की क्षमता को अहमतत्व अर्थात् ‘मैं करता हॅूं‘ इस भावना में संयोजित कर दे जो कि ‘मैं हॅू‘‘ भावना अर्थात् महत्तत्व से जुड़ा है। इस प्रकार वे अन्तर्ज्ञान  के क्षेत्र  में प्रवेश  पा लेंगे और उन्हें बिना किसी औपचारिकता के सभी ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। अब ‘मैं हॅूं‘  भावना को परम पुरुष में समर्पित कर दो इससे परम शान्ति प्राप्त होगी। इस प्रकार साधना की प्रगति की दशाओं पर प्रकाश  डाला गया है जो कि वास्तव में परमपुरुष के संबंध में परिप्रश्न  कहलाता है। बृजगोपाल क्या करते हैं? वे सभी को बिना भेदभाव के अपनी ओर आकर्षित करते हैं और भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी स्तरों पर प्रगति का रास्ता दिखलाते हैं। इतना ही नहीं जो उनकी आलोचना करते हैं वे भी उनको अपना अंतरंग ही मानते हैं। इस तरह परिप्रश्न  के संदर्भ में बृजगोपाल विश्व  के केन्द्र हैं और मानव हृदय और संवेदनों के सार हैं, वे जीवों के अंतिम आश्रय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में अद्वैत , बाद में द्वैत और अंत में अद्वैत की स्थिति बनती है जो ‘‘एकोहमवहुस्याम‘‘ के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। जिसका अर्थ है मैं एक था फिर अनेक होगया और फिर एक ही रहूँगा। यथार्थतः बृजगोपाल का हृदय सबका आश्रय है।
24 -  भक्ति को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक  आधार पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आश्चर्यजनक रूपसे किन्हीं सद्गुणों की जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलंबित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है। प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारंभ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष, अतः परमपुरुष की ही ओर सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये, उन्हें ही पूजना चाहिये। अब पार्थसारथी को देखें। उन्हें सब के रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और होगा सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सब ओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेशा  पाॅंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान,
 बुद्धि और स्मरण शक्ति की विशालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईश्वर  कहते हैं ये ईश्वर  कोटि के लोग भी परम पुरुष को महेश्वर  कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेश्वर  ही हैं, यह उनकी ऐश्वर्यता प्रकटकरने वाली अष्ट सिद्धियों  से सिद्ध होता है। उनके पास अणिमा , महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईशित्व, वशित्व, प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों  ऐश्वर्य  असीम स्तर पर थे यही कारण है कि सभी उनके
समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों ऐश्वर्य  उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य
नहीं कर सकता। परिप्रश्न  यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हाॅं तो उनका स्तर क्या है? अब देखें कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाश  और दूसरा है छह गुणों का समाहार। भग के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है भेति भास्यते लोकान, अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाश  से सभीलोक प्रकाशित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है , इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्। अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव  वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उदगम  भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘ऐश्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यशासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोष्च च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ ऐश्वर्य  का अर्थ है ऊपर बतायी गयीं आठ सिद्धियाॅं, वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से शत्रु काॅंपने लगें, जो सब पर प्रशासन कर सके। यशासह काअर्थ है यश  और अपयश  दोनों। श्री का अर्थ है सभी
 भौतिक उपलब्धियों के साथ शक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे, महाभारत से अनेक उद्धरणों में
से , इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना,  पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके शरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंशावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम शरणम् बृज अहम त्वाॅंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा शुचः,  अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आजाओ मैं तुम्हें
 सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थ सारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं।
25 -  नन्दन का अर्थ है आनन्द देना और लेना। और गोप का अर्थ है केवल आनन्द देना। परम पुरुष को आनन्द देना और उसी समय उनसे आनन्द प्राप्त करना रगानुगा भक्ति कहलाता है  इसमें भक्त की भावना यह रहती है
कि मैं परम पुरुष को इसलिये प्रेम करता हॅूं जिससे उन्हें आनन्द प्राप्त हो चूंकि  मेरे इस कार्य से परमपुरुष को आनन्द मिलता है यह जानकार मुझे भी आनन्द मिलता है। सर्वोच्च स्तर की भक्ति रागात्मिका भक्ति कहलाती है जिसमें भक्त की यह भावना रहती है कि मैं परमपुरुष को प्रेम करता रहूँगा  क्यों कि मैं उन्हें आनन्द देना चाहता हॅूं चाहे मुझे मुझे आनन्द मिले या न मिले, इसके लिये मैं कोई भी कठिनाई या कष्ट उठाने को तैयार हॅूं। नन्दन विज्ञान की उत्तमता यह है कि इसमें भक्त परमपुरुष की अनेक अभिव्यक्तियों का आनन्द पाता है।  भक्त की भावना यह होती है कि परम पुरुष मेरी व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, उनके समान कोई नहीं , मैं उन्हें चाहता हूँ  मैं प्रत्येक वह कार्य करना चाहता हॅूं जिसमें उन्हें आनन्द मिले, इस तरह नन्दन विज्ञान में दोनों  प्रकार की भक्तियाॅं एक साथ मिल जाती हैं क्योंकि भक्त सब में परम पुरुष का ही प्रसार देखने लगता है चाहे वह पर्वत, नदियाॅं, पेड़ , जानवर या कोई भी जीव क्यों न हो। वह कहता है हे परम पुरुष ! मैं तुम्हें अनेक प्रकार से अनगिनत रूपों में युगों युगों में चाहता रहा हूँ  प्रेम करता रहा हॅूं तुम ‘‘अखंडचिदैकरस‘‘ अर्थात् सतत आनन्दरस प्रवाह  हो, मैं तुममें अपनी पूर्णता को ढूॅड रहा हॅूं। भले ही जीव, परमपुरुष को उनकी अलौकिकता में न पाये पर उनकी हलकी सी झलक ही उन्हें  आनन्द से उछाल देती है। संसार की कोई भी वस्तु से निकलने वाले स्पंदन हमारे मन पर सहानुभूतिक कंपन करते हैं तो हमें लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं और हम आनन्दित हो उठते हैं। वे जो संसार के पदार्थों को केवल मनोरंजन का साधन मानते हैं वे कभी परमपुरुष के वास्तविक प्रेम को अपने जीवन में कभी नहीं जान पाते। बृजगोपाल सब को आकर्षित करते हैं, वे प्रेम स्वरूप है ,जो भी थोड़ा सा आगे बढ़कर उन्हें देख लेता है वह उन्हें पाने की इच्छा करता है और उनके साथ प्रेम स्थापित कर लेता है इतना कि उनके बिना नहीं रह सकता। लोग कहते हैं , देखो जिसे तुम चाहते हो वह तो माखन चोर है, अरे वह तो हृदयहीन है वह अपने चाहनेवालों को छोड़कर नदी के उस पर मथुरा चला जाता है, पर भक्तों पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उत्तर में वे कहते हैं कि बस, एक बार हमने उसे चाहा है तो अब हम आजीवन चाहते ही रहेंगे। परमपुरुष की चाह अपरिवर्तनीय होती है। वेद कहते हैं कि यह पंचतत्वात्मक जगत आनन्द  से उत्पन्न हुआ है, आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जायेगा। यही आनन्द परमपुरुष से प्रेम करने वाले अनुभव करते हैं। भले ही लोग एक सौ वर्ष  की उम्र आने पर कहने लगे कि वे मरना चाहते हैं पर आन्तरिक हृदय से वे नहीं मरना चाहते क्यों कि वे  अपने चारों ओर प्यारी प्यारी संग्रहीत वस्तुओं से अलग नहीं होना चाहते। परम पुरुष सबके अन्तिम आश्रय हैं, उनके अलावा जीवों को कहीं आनन्द नहीं मिल सकता। बृजगोपाल कृष्ण आनन्द के सागर हैं। अतः नन्दन विज्ञान के द्रष्टिकोण से वह एकमेवाद्वितीयम हैं। जब कोई व्यक्ति साधना करता है तो वह तन्मात्राओं के द्वारा परम पुरुष का आनन्द पाता है। ये तन्मात्रायें शब्द , स्पर्श , रूप, रस  और गंध हैं। प्रारंभिक अवस्था में वह सुगंध की अनुभूति करता है चाहे वह ज्ञात फूलों की हो या अज्ञात। यह संसार परमपुरुष की रसमय कल्पना है, वे रसिक हैं और आनन्दरस की तरंगों से सभी को अपनी रासलीला में सहभागी बनाते हैं। चाहे लोग चाहें या न चाहें उन्हें इस रासलीला में उनके साथ नाचना ही पड़ता है। यह संसार परमपुरुष के अनन्त रूपों का सीमित परावर्तन है वे सर्वद्योतनात्मक   हैं अर्थात् सभी का रूप सौंदर्य उन्हीं के प्रकाश  से चमकता है अतः रूप तन्मात्रा के द्वारा वे ही सब में आभास देते हैं। वे ही लुका छिपी का खेल खेलते हैं। भक्त कहते हैं कि उनके रूपको देखने का खूब प्रयास किया पर वे इतने सुदर हैं कि मेरी आॅंखें चैंधिया गयीं और मैंने पहचान ही नहीं पाया। बृजगोपाल अपार कोमलता के श्रोत हैं, स्पर्श  तन्मात्रा के द्वारा भक्तों ने उन्हें  अनुभव किया और पाया कि संसार की सब कोमलता और कृपा उनसे ही अभिव्यक्त होते हैं, उनकी मृदुलता और कोमलता और अद्रश्य  मधुरता अमाप्य है। इसी प्रकार शब्द तन्मात्रा के माध्यम से वे अपनी वाॅंसुरी से ओंकार ध्वनि प्रसारित करते हैं जो कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय से अविराम जारी है इसे भक्तगण
प्रणव कहते हैं। यह वह ध्वनि है जिसकी सहायता से इकाई सत्ता उस परमपुरुष से संपर्क स्थापित करती है। जिसने यह समझ लिया तो उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं  परंतु उसे सच्चा भक्त होना चाहिये, क्यों कि
परम पुरुष प्राकाम्य सिद्धि के अधिष्ठाता हैं। यह हो सकता है कि प्रारंभ में भक्त उन्हें न पहचान पायें क्यों कि उनकी अनन्त आनन्द तरंगे कभी इस रूप में तो कभी  उस रूप में अनुभव होती हैं पर भक्त कहता है कि यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो वह उनके मार्ग में अवरोध क्यों करे। वास्तव में भक्त ने जिस भी तन्मात्रा के आधार पर उन्हें अनुभव करना चाहा है उसी से वह अनुभव करता है, हमारे बृजगोपाल कभी गंध कभी रस कभी रूप कभी स्पर्श  कभी शब्द तन्मात्राओं के आधार पर अपना आनन्द बरसाते हुए भक्तों को आनन्दित करते रहते हैं । पार्थसारथी तो अन्याय और अपराध के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे हैं फिर नन्दन विज्ञान की द्रष्टि में वे क्या थे यह विचार करने से पहले नन्दनविज्ञान के मनोविज्ञान को जानना होगा। मानव मन किसी दिशा  में उसके संस्कारों के अनुसार  क्रियाशील रहता है। जब बाहर से आने वाले स्पंदनों की तरंग लंबाई उसके स्वयं के मन के स्पंदनों की तरंग लंबाई को बढ़ाकर अपने अनुकूल करने लगते हैं तो व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है। पर यदि ये बाहरी स्पंदन उसके मन के स्पन्दनों की तरंग लंबाई को घटाने लगते हैं तो उसे दुख होता है। अनुकूलवेदनीयम सुखम् प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्। नन्दन विज्ञान में दुख का कोई स्थान नहीं है, जब आने वाले स्पंदनों की तरंगों की वकृता में कमी आने लगती है आनन्द प्राप्त होता है जब तरंगों की वकृता में बृद्धि होने लगती है तो दुख प्राप्त होता है। जब यह वकृता बिलकुल शून्य  हो जाती है अर्थात् तरंग सीधी रेखा की तरह हो जाती है तो आनन्दम् की अवस्था आ जाती है यह परानन्दन विज्ञान के अंतर्गत आता है। पार्थसारथी दुष्टों और अपराधियों के विरुद्ध लड़ते रहे जिससे जन सामान्य को राहत मिली और उन्हें आनन्द मिला, वे अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से जी सके। अतः जिस प्रकार बृजगोपाल ने शब्द स्पर्ष रूप रस और गंध के माघ्यम से आनन्द बाॅंटा उसी प्रकार पार्थसारथी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सुख बाॅंटा। दोनों के कार्यों के प्रकार अलग थे पर उद्देश्य  एक सा था। पार्थ सारथी को नन्दन विज्ञान का निर्माता माना जाना चाहिये क्यों कि नन्दन विज्ञान की आवश्यक  विषयवस्तु समग्र रूपसे पार्थ सारथी के कार्यों और जीवन में पायी जाती है। बृजगोपाल ने जो कार्य कोमलता और मृदुलता से किया पार्थसासरथी ने अपनी समग्र ब्रह्माॅंड की भाभुकता के साथ किया। इस प्रकार बृजगोपाल और पार्थसारथी का नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समान महत्व है। परमपुरुष ओतयोग और प्रोतयोग से सब से जुड़े रहते हैं, ओत योग का अर्थ है व्यक्तिशः  जुड़ना और प्रोत योग का अर्थ है सामूहिक रूपसे जुड़ना। बृजगोपाल ओत योग से और पार्थसारथी प्रोतयोग से सब से जुड़े रहे। समाज को भीतर तक हिला देने के लिये छः घटकों की आवष्यकता होती है, आध्यात्मिक आदर्श , सामाजिक द्रष्टिकोण, सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त, साहित्य और निर्देशक। कृष्ण ने अपने समय में उच्चस्तरीय सामाजिक चेतना जाग्रत की और बताया कि सभी के मिलजुल कर रहने से ही सामाजिक प्रगति हो सकती है पृथक पृथक रहकर नहीं। इसीलिये उन्होंने सामान्य जीवन को स्वाभाविक रूपसे उन्नत किये जाने पर बल दिया और जो भी इस के मार्ग में बाधक बना उसे समाप्त कर दिया। इस प्रकार कृष्ण की सामाजिक चेतना से कुछ लोगों के आनन्द में बाधा भले ही पहुंची हो पर इससे नन्दन विज्ञान का क्षेत्र और विस्त्रित हो गया। पार्थसारथी के निकट आकर लोग अपने मन की तरंग लंबाई में बृद्धि का अनुभव करते, वे उनका स्मरण और चिंतन करने पर भी अपनी तरंग लंबाई में बृद्धि होने से आन्न्द का अनुभव करते थे जो सामाजिक चेतना के जाग्रत होने पर ही संभव था। पार्थसारथी के अनन्त सद्गुणों के चिंतन में लोग उन्हीं में खो जाते थे, परम पुरुष का इस प्रकार चिंतन करते उन्हीं में खो जाना रहस्यवाद कहलाता है। इस प्रकार सभी लोग उनसे अपना व्यक्तिगत संबंध बनाये थे और केवल उन्हीं के संबंध में सोचना और उन्हीं का नाम सुनना चाहते थे जो प्रकट करता है कि वे नन्दन विज्ञान के स्वयं जन्मदाता थे अतः नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका परीक्षण कौन कर सकता है?


26 -  नन्दन विज्ञान में आनन्द का आदान प्रदान होता है, पर मोहन विज्ञान इससे भिन्न है। निःसंदेह मानवता ने इसके थोड़े से पक्ष को अनुभव किया है पर यह विज्ञान विशिष्ठ रूप से परमपुरुष से संबंधित है कृष्ण से संबंधित है । यहाॅं कृष्ण से तात्पर्य दोनों  बृज और पार्थसारथी कृष्ण से है। मोहन विज्ञान में ये दोनों एकसाथ मिल जाते हैं। मोहन विज्ञान में परमपुरुष, मनुष्यों को तन्मात्राओं या एक्टोप्लाज्मिक आकर्षण से अपने निकट खींचते हैं अथवा अन्य लोग उनके अनवरुद्ध आकर्षण से खिंचे चले जाते हैं। कृष्ण अपने आन्तरिक प्रेम से लोगों को अपने निकट खींचते हैं, मन में वे लोग सोचते हैं कि नहीं जाऊंगा , नहीं जाऊंगा पर फिर भी आकर्षण इतना अधिक होता है कि न चाहते हुए भी उनकी ओर चले जाते हैं यह है मोहन विज्ञान। नन्दन विज्ञान और मोहन विज्ञान में यही अन्तर है। यहाॅं कृष्ण ही परम सत्ता होते हैं अन्य कोई नहीं और वे भक्तों को अपने व्यक्तिगत संबंधों से आकर्षित करते हैं। संसार से जुड़े होने के कारण तन्मात्राओं से परिचित लोगों को इन्हीं से परमपुरुष आकर्षित करते हैं पर ये तन्मात्रायें भौतिक संसार से संबंधित होती हैं मानसिक संसार से संबंधित नहीं होती हैं। परमपुरुष का जब गहराई से चिंतन किया जाता है तो भक्त एक्टोप्लाजिमक सैलों से निकलने वाली गंध तन्मात्राओं को भौतिक संसार की तरह ही अनुभव करता है। इसी प्रकार रुप, रस, स्पर्श  और शब्द तन्मात्राओं के बारे में भी घटित होता है। एक्टोप्लाज्मिक संसार में कृष्ण कहते हैं आओ, आना ही पड़ेगा ,तुम आने के लिये रोक नहीं सकते, और पास आ जाने पर उनके सुंदर रूपको देखकर आॅंखें चैधिया जाती हैं और भक्त का प्रत्येक अंग अपने भीतर कृष्णमय ही अनुभव करता है और फिर उनसे पृथक नहीं रह सकता। इस प्रकार परमपुरुष तन्मात्राओं के माध्यम से सब को अपने अधिक निकट ले आते हैं, मोहन विज्ञान का यही सार तत्व है। भक्तगण भौतिक बृंदावन में नहीं वरन् भाव के बृंदावन में यात्रा करते हैं। कृष्ण ने कहा भी है कि आघ्यात्मिक बृंदावन छोड़कर वे एक कदम भी कहीं नहीं जाते। इस प्रकार भक्त के हृदय के बृंदावन में बृजगोपाल और पार्थसारथी दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और परमपुरुष का लीलानन्द पक्ष, नित्यानन्द पक्ष में बदल जाता है। इसलिये उत्तम यह है कि मोहन तत्व के आभास होते ही बिना देर किये उनकी शरण में आ जाना चाहिये।