Sunday, 30 August 2015

18 बाबा की क्लास ( दीक्षा )
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 - बाबा! आज मेरे साथ, मुझे स्कूल में पढ़ाने वाले विषय शिक्षक आये हैं वे आपसे मिलना चाहते हैं । 
-अच्छा, रवि !  उन्हें यहीं बुला लो। 
-बाबा ! नमस्कार। रवि से जानकारी पाकर आपसे मिलने और अपनी जिज्ञासा शान्त करने की इच्छा को हम रोक नहीं  सके---। 
- ठीक है , आप लोग शिक्षक हैं यदि आपके पास सही ज्ञान की जानकारी होगी तो आप दूसरों को भी सही जानकारी दे सकेंगे , परन्तु आप स्वयं भी उसका पालन करेंगे पहले इसका वचन दो ?
- बाबा! हम वचन देते हैं। 
- तो पूंछो क्या जानना चाहते हो ?
- बाबा! जानना तो बहुत कुछ है परन्तु  पहले दीक्षा क्या है , इसका क्या महत्त्व है , यह कैसे प्राप्त की जाती है, यह समझा  दीजिए। 

- दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परम ब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक  प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक  दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र, मंत्रचैतन्य और अभिषेक(अर्थात शपथ) आदि का समावेश  होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
- बाबा! क्या गायत्री मन्त्र ही दीक्षा में सिखाया जाता है ?
- वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी; वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। "मननात  तारयेत् यस्तु  सः मन्त्रः परिकीर्तितः। "  
- बाबा! इस गायत्री छंद द्वारा  प्रार्थना करते समय  अनेक विद्वानों को एक सुसज्जित महिला का चित्र सामने रखते हुए भी देखा गया है क्या यह सही है ?
- इस का अर्थ समझ लो फिर आप लोग ही निर्णय करना कि उस  चित्र का औचित्य क्या है। 
इस छंद  का अर्थ और भावार्थ भी  विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। 
शाब्दिक व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, " उत्पत्ति, पालन और संहार  की तरंगों में ओतप्रोत; निर्मित  , निर्माणोन्मुख  और निर्माण  योजनान्तर्गत  सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का  हम ध्यान वरण  करते हैं, जिससे  सभी प्रकाशित होते , आनंदित होते ,आते हैं  और वहीँ वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें । " 
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात। 
संक्षेप में इसे इस प्रकार समझाया जा सकता  है:-
(१) अ, उ और  का संयुक्ताक्षर 'ऊँ ' है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के  सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है ,   अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि  और हृदय  से अनुभव करना होता है क्योंकि यह cosmic sound of creation है। इसे  थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया  जा सकता  है।  यही "अ" उत्पत्ति , "उ" पालन और "म" संहार का द्योतक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश का क्रमशः प्रतिनिधि है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।

(२)'भूः  '  'भुवः ' और ' स्वः ' - भारतीय दर्शन में  माना  गया है कि   ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश 'भूः  '  'भुवः ' और ' स्वः ' हैं, आगे तपः , जनः , महः और सत्यम हैं। । आधुनिक  वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न  होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं।

(३)  " तत्सवितुर्वरेण्यं'' का अर्थ है 'उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान वरण  ' 
(४) "भर्गः " 'भ' = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो  सभी लोकों को प्रकाशित करता है, 
                    'र' = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और 
                   'ग ' = गच्छति यास्मिन  आगच्छति  यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ चले  जाते हैं ,
 (५) "देवस्य धीमहि" अर्थात परमदिव्य सत्ता , 
 (६) "धियोयोनः" अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७) "प्रचोदयात" अर्थात  शुद्ध करें।   

यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करना सिखाता  है इसके परिपक्व होने पर 'उनकी' कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में हो या आगे के।  
- बाबा! इसका अर्थ  हुआ कि पहले वैदिकी और फिर तांत्रिकी दीक्षा लेना चाहिए ?
- हाँ , तांत्रिकी दीक्षा  'सद्गुरु /महाकौलगुरु' स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को  अपने सामने अभ्यास  कराकर सिखाते  हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है। 
 तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर  अभ्यास कराते  हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनाद  (resonance) कराने  पर मन को स्थिर कर देता है।  इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm  का  resonance   कराना होता है  cosmic rhythm (अर्थात औंकार ध्वनि) से।  इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद करने पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विविन्न स्तरों पर  समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि  का अनुभव हो ही।  जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस  मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए शेष   रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और  अपने अनुभवों और  ब्रह्मविद्या को सबको  सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।  इसलिए सच्चे  जिज्ञासुअों को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का  प्रयत्न करते रहना चाहिए।
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Monday, 24 August 2015

17 : बाबा की क्लास ( बम बम भोले , हर हर भोले)

17 : बाबा की क्लास ( बम बम भोले , हर हर भोले)
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चंदु - बाबा! आज हम लोगों ने स्कूल से आते हुए कुछ लोगों को, रास्ते में लेटते फिर उठकर चलते, फिर लेटते फिर उठकर चलते और ‘‘बम बम भोले /हर हर भोले‘‘ के नारे लगाते हुए देखा। यह कैसा कार्य है?
बाबा - यह भोले भाले लोगों की, उनके भोले भाले भगवान शिव के प्रति उनकी भोली भाली पूजा करने का प्रकार है।
रवि - कुछ समझ में नहीं आया बाबा! बम तो आज विज्ञान के युग में बने हैं,  सात हजार वर्ष पहलेे शिव के कार्यकाल में यह कहाॅं थे? वे तो ‘बम बम भोले‘ जोर जोर से चिल्ला रहे थे?
बाबा - भारतीय दर्शन  के अनुसार वह सत्ता जो हमारी सभी बाधाओं, संस्कारों और पापों को हर लेती है वह ‘‘हर‘‘ कहलाती है। इसलिये कहा गया है कि जब तक कोई व्यक्ति इस ‘हर‘ के संपर्क में नहीं आता है वह संस्कारों और पापों से मुक्त नहीं हो सकता है। प्राचीन काल से ही भक्तगण इस सत्ता को परासत्ता मानकर उसका प्रसिद्ध मन्त्र ‘‘हर हर व्योम व्योम‘‘ गाते रहे हैं। ‘व्योम‘ भौतिक जगत के पदार्थ का सूक्ष्मतम  रूप है इसे आकाश  तत्व कहते हैं और ‘हर‘ आत्मिक क्षेत्र का।  अतः इस मंत्र को कहने का आशय यह है कि अपने मन को ‘व्योम‘ की तरह सूक्ष्म कर लो ताकि वह ‘हर‘ से संपर्क कर सके।
नन्दू - परंतु बाबा! वे तो बम बम बम... चिल्लाते थे...  ?
बाबा - वे क्या करें, हजारों वर्षों  में मानव समाज में विचारधाराओं, सिद्धान्तों और संघर्षों के अनेक आघात हुए हैं जिससे वास्तविकता विकृत हुई है और जिन्हें इसे अक्षुण्ण बनाये रखने का शिव ने दायित्व दिया था वे भी लोभ और स्वार्थ ग्रस्त होकर स्वयं पतित होते गये। शिव की सरलता, साधुता और तेजस्विता के कारण सभी जन सामान्य उन्हें  अपने अत्यधिक निकट अनुभव करते थे इसलिये वे सरल हृदय के लोगों के सरल देवता हैं। यही लोग ‘हर हर व्योम व्योम‘ को ही अपभ्रंशवश  ‘हर हर बम बम‘ बोलते हैं और दंडवत प्रणाम करते हुए इस विश्वाश  के साथ अपने घर से शिव मंदिर तक जाते हैं ताकि वह प्रसन्न हों।
चंदु - तो क्या शिव उनके इस कार्य से प्रसन्न होकर उनकी मनोकामना पूरी कर देंगे?
बाबा - कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते हैं, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उनके संचित संस्कार क्या हैं और इस कार्य के पीछे उनकी भावना क्या है। अधिकांश  लोग आडंबरी प्रदर्शन  कर ईश्वर  से यह चाहते हैं कि उन्हें संसार के सभी सुख और साधन सम्पन्नता मिल जाये परंतु यह भूले रहते हैं कि यह सब तो कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होते हैं। कर्म फल सबको भोगना ही पड़ता है।
रवि - तो ईश्वर  की पूजा करने का औचित्य ही क्या है?
बाबा - ईश्वर  की पूजा करने का क्या तुम यह अर्थ लगाते हो कि उन्हें एक नारियल चढ़ा कर और  अगरबत्ती की सुगंध भेंट कर सारे संसार के सुख प्राप्त कर लें? नहीं यह उद्देश्य  भी नहीं होना चाहिये । ईश्वर  की सच्ची पूजा वह है जिसमें हम अपने विशुद्ध मन से उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें कि उन्होंने कृपा कर हमें श्रेष्ठ मानव शरीर दिया है जिसकी सहायता से हम, हमारे अंतिम आश्रय ‘‘उन्हें ही‘‘ पाने का प्रयत्न कर सकते हैं इसका हम दुरूपयोग न करें  । तुम लोग याद रखना! यह कार्य अन्य किसी जीव के शरीर में संभव नहीं है। 
चंदु - यदि हमें उनसे कुछ नहीं मांगना चाहिये तो क्या कुछ देना भी नहीं चाहिये?
बाबा - हाॅं , नहीं माॅंगना चाहिये। हमें अपनी योग्यतानुसार उन्होंने पहले ही सब कुछ दे दिया है। उन्हें हम क्या दे सकते हैं ? सब कुछ तो उन्हीं का है , हम भी उन्हीं के हैं परंतु अहंकार के कारण उनसे भिन्नता पाले हुए हैं। हमें अपने विशुद्ध मन को ही उन्हें समर्पित करना चाहिये जिससे हमारा और उनका मन एक हो जाये, यही सच्ची पूजा है। 

Tuesday, 18 August 2015

16 बाबा की क्लास ( श्री, श्रद्धा, ज्ञानी)
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चन्दू - बाबा! हम लोग किसी के नाम से पहले ‘श्री‘ क्यों लिखते या पुकारते हैं?
रवि- हः हः हः, यह भी नहीं मालूम?----  दूसरों को आदर देने के लिये।
बाबा- चंदु का प्रश्न  करना और रवि तुम्हारा उत्तर दोनों उचित हैं पर वास्तविकता यह है , 
   ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श + र= श्र , और स्त्रींलिं ग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में ‘श्री‘ किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम से पूर्व श्री लगाते हैं और यह आदर देने का सूचक बन गया है।

नन्दु- परंतु बाबा! एक और शब्द  है ‘श्रद्धा‘ इसे भी दूसरों के प्रति सम्मान का सूचक माना जाता है?
बाबा- हाॅं, यह भी तुमने ठीक कहा, परंतु इसके पीछे की सच्चाई भिन्न  ही है। विश्वाश  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द  नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह ‘सत‘ कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को ही श्रद्धा कहते हैं। ‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा‘।

रवि- तो क्या ज्ञान प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये?
बाबा- हाॅं, परंतु केवल ज्ञानी होने से कुछ नहीं मिलता, ज्ञान का उपयोग तभी तक है जब तक भक्ति उत्पन्न नहीं हो जाती। जैसे, जब किसी स्वादिष्ट भोजन को प्लेट में लेकर खाते हैं तो वह प्लेट (जिसमें खाद्य पदार्थ रखा होता है) ‘ज्ञान‘ है, भोजन करना ‘कर्म‘ है, और भोजन से मिलने वाला स्वाद ‘भक्ति‘ है।  भोजन को स्वाद लेकर समाप्त कर देने के बाद  प्लेट अर्थात् ज्ञान, डस्टविन में फेकने के अलावा और किस काम का बचता है। स्पष्ट है कि ज्ञान पूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न होती है। इसलिये जीवन का एकमात्र लक्ष्य भक्ति को प्राप्त करने का होना चाहिये।

Monday, 10 August 2015

 15 बाबा की  क्लास ( पंडित, विद्वान और ब्राह्मण)
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- बाबा ! मैंने अनेक जगह सुना और पढ़ा है कि जो विद्वान है उसे ही पंडित कहते हैं और ब्राह्मण लोग तो जन्म से ही पंडित कहलाते हैं , इसमें क्या सच्चाई है? रवि ने पूंछा।
= बाबा बोले , संस्कृत में एक धातु अर्थात क्रिया है " पंडा  " जिसका मतलब है 'मैं ब्रह्म हूँ इस प्रकार की बुद्धि हो जाना ।'( अहम् ब्रह्मास्मीति   तामितः प्राप्तः बुद्धि सा पंडा ) इसीलिए  वे सज्जन जिन्होंने अपनी बुद्धि को वेदोज्ज्वला कर  लिया है अर्थात यथार्थ ज्ञान से  बुद्धि को उज्जवल बना  लिया है या उसको ब्रह्ममय  कर लिया है, "पंडित " कहलाते हैं। अतः वे जो इस प्रकार की बुद्धि को प्राप्त करने का लगातार  अभ्यास कर रहे हैं  "पाण्डेय" कहलाते हैं। ऋषियों ने प्रथम वेद में इसे "वेदोज्ज्वला बुद्धि " कहा है। इसलिए  एक वेद के ज्ञाता को "पाण्डे " कहा जाता है। अपने  बुंदेलखंड में किसी को अपूर्ण ज्ञान हो और यदि वह बहुत प्रदर्शन करता दिखता  है तो कुछ अधिक जानकारी रखने बाले लोग उसे दुत्कारते हुए कहते है " बड़े जानपाड़े  बने फिरते हो। "   सुना है या नहीं ?

- नंदू ने  कहा , तो  फिर विद्वान किसे कहेंगे ?

= बाबा बोले,  संस्कृत  में एक क्रिया है विद। इसका अर्थ है जानना, इसीलिए जानकारी के संग्रह को वेद कहते हैं और जिनके पास ज्ञान विशेष होता है वे उस क्षेत्र के विद्वान कहलाते  हैं। हम विद्वान और पण्डित शब्दों का उपयोग एक समान अर्थों में करते हैं जो गलत है। 

-  रवि, नंदू और चंदू  एक साथ बोल पड़े , ब्राह्मण लोग प्रायः अपने को पंडित लिखते हैं और कहलाना पसंद करते हैं तो क्या यह उचित है ?
= बाबा  ने कहा , किसी को भी अपने नाम के आगे या पीछे कुछ भी लिखने की पाबन्दी नहीं है ,परन्तु  ब्रह्म  का अर्थ है 'ब्रहत ' (ब्रहत्त्वात  ब्रह्म ),  अर्थात जो बहुत बड़ा है। 
दूसरा अर्थ है ( बृंहणत्वात्    ब्रह्म ) अर्थात जिसके संपर्क में आने वाला 'ब्रहत'  हो जाता है। इसलिए ब्राह्मण का अर्थ हुआ  जो ब्रह्म को भलीभांति जानता  पहचानता है। 

- रवि बोला तो यह दुबे, तिवारी, चौबे -- सब क्या हैं ? 
= बाबा बोले,  काल क्रम के प्रभाव में जैसे जैसे ज्ञान बढता गया उसे  वेदों के रूप में क्रमशः
ऋक , यजु, अथर्व और साम ये नाम दिए गए। इनका ज्ञान जिन्हें होता गया वे विद्वान् यदि एक वेद  के ज्ञाता हैं तो उन्हें पाण्डे , दो वेदों के ज्ञाता हैं तो द्विवेदी या दुबे , तीन वेदों के ज्ञाता हैं तो त्रिवेदी या तिवारी  और  चार वेदों के ज्ञाता हैं तो चतुर्वेदी या चौबे  पदनाम से सम्मानित किये जाने लगे। ज्ञान के बहुत अधिक हो जाने के कारण और लिपि का अनुसन्धान न होने के कारण वेदों को लिखा नहीं जा सका  फिर  लिपि का ज्ञान हो जाने के बाद भी रूढीवादी परंपरा के प्रभाव में उन्हें लिखने का साहस नहीं जुटाया जा  सका ।  महर्षि अथर्वा  ने अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर विरोध होने के बाद भी  वेदों को लिखने का साहस जुटाया। अथर्वा के कार्यकाल तक तीन वेद ही थे बाद में वेदव्यास ने इनके पद्य भाग को अलग कर चौथा वेद, साम बनाया और चारों को व्यवस्थित किया। 

चंदू बोली , बाबा! जब लिपि नहीं थी तो  इतना अधिक ज्ञान संचित रखने और संरक्षित करने की क्या विधियां थीं? 

=  बाबा ने बताया कि लिपि के आभाव और ज्ञान की अधिकता के कारण विद्वानों ने यह  नियम बनाया कि ' आवृत्तिः सर्व शास्त्रानाम वोधादपी गरीयसी ' अर्थात चाहे समझ में आये या नहीं याद कर लो।  इस प्रकार वेदों को याद करके  अनेक विद्वान पांडे , दुबे आदि बहुत हो गए पर वे याद की गयी विषय वस्तु  को ठीक तरह से समझाने में सक्षम नहीं थे। कालांतर में व्याकरण का ज्ञान  हो जाने के के बाद  व्याकरण में पारंगत लोगों को दुबे तिवारी आदि से सुनी गयी वेद  ऋचा को समझाने हेतु जिन विद्वानों को लाया गया वे त्रिपाठी कहलाये।  ये पहले सुनते थे फिर अन्वय करते थे फिर जनता को उसका अर्थ समझाते थे। एक ही विषय वस्तु  को तीन बार पढ़ने के कारण इन्हें त्रिपाठी पदनाम दिया गया।

- यह जानकर तीनों  छात्र सोचने लगे कि क्या इन मूल परिभाषाओं  के अनुसार कोई पंडित, विद्वान या ब्राह्मण तलाशने पर भी  मिल सकेगा?

Tuesday, 4 August 2015

14 मानव धर्म
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जयेन्द्र को अपना मकान बनाते समय अनेक मजदूरोें को रोज बदलना पड़ा। कुछ तो उसके व्यवहार से अधवीच में ही छोड़कर चले जाते और कुछ जो उस दिन किसी प्रकार शाम तक टिके रहते अपना मेहनताना लेकर दूसरे दिन आते ही नहीं। होता यह था कि वह प्रत्येक मजदूर के काम में कुछ न कुछ कभी बता देता और फिर अपशब्द कहकर उन्हें प्रताडि़त करता मजदूरी के पैसे भी काट लेता। एक दिन एक मजदूर जयेन्द्र की अपेक्षा के अनुकूल काम करता रहा और उसकी झिड़की भी सुनता रहा और अगले दिनों भी काम करने आता रहा । अब जयेन्द्र सप्ताह के अंत में उसके मेहनताने का एक दिन का पैसा कम देता ताकि वह बराबर अगले दिन काम पर आ जाया करे। एक माह में काम समाप्त हो गया और उस मजदूर को एक माह में चार दिन की जो मजदूरी कम दी गई थी उसे भुला कर जयेन्द्र ने मजदूर को जाने के लिये कहा। मजदूर ने बिना कुछ कहे अपना रास्ता पकड़ा। जयेन्द्र भी मन में यह सोचकर प्रसन्न था कि इसको मैंने चार दिन के पैसे तो दिये ही नहीं और इसने भी नहीं मांगे, चलो अच्छा ही हुआ।
दो चार माह बाद, जयेन्द्र अपनी कार से कहीं जाते हुए  रेत से भरे एक ट्रक से आगे निकलने के प्रयास में सामने से आ रही जीप से टकरा कर पलट गया और बेहोश  हो गया। पास की एक बिल्डिंग में काम कर रहे मजदूर दौड़े जिनमें पूर्व वर्णित मजदूर भी था, और दोनों वाहनों के प्रभावित लोगों को मदद करने लगे । संयोग यह हुआ कि वही मजदूर जयेन्द्र की कार की ओर दौड़ा और बेहोश   अवस्था में रहे जयेन्द्र को पहचान कर अन्य लोगों की मदद से उस के घर तक लाया। उपचार के बाद जयेन्द्र और उसके संबंधी तलाशते हुए उस मजदूर के पास आभार व्यक्त करने के लिये आये और उसे पाॅंच पाॅंच सौ रुपये के दो नोट देकर धन्यवाद दिया। 
दोनो नोट लेते हुए मजदूर बोला, महोदय ! क्या आपके पास पाॅंच सौ रुपये खुले नहीं हैं? व्यक्ति के साथ आये अन्य संबंधी ने पाॅंच सौ के एक नोट के बदले सौ सौ के पाॅंच नोट दे दिये। मजदूर ने उनमें से तीन सौ रखकर दो सौ रुपये जयेंद्र  को वापस कर दिये। जयेंद्र  ने कहा भाई साब! कम लग रहे हों तो और माॅंग लो मैं तो खुशी  से दे रहा हॅूं। वह मजदूर बोला महोदय! मेरे पराक्रम के जो रुपये आपकी जेब में थे उन्हीं पर मेरा अधिकार है वे अधिक देर तक आपकी जेब में कैसे रहते, उन्हें तो मेरे पास आना ही था। चार दिन की मजदूरी के आठ सौ रुपये मेरे हैं , वह मेरे पास आ गये, अन्य का मुझे क्या काम?
जयेन्द्र बोला, परंतु तुमने तो मेरी जान बचाई है उसका क्या ? वह मजदूर बोला वह तो मेरा मानव धर्म था।

Saturday, 1 August 2015

13 बाबा की क्लास ( परमसत्ता और देवता)
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रवि - बाबा! ये देवता कौन हैं? जितना पढ़ते हैं उतना ही कन्फ्यूजन होता है?

बाबा - परम निर्पेक्ष चेतना ही सत्य और आनन्दघन सत्ता है। उसकी कार्यकारी त्रिगुणमयी प्रकृति उसे, उसी की सहमति से, उसके ही कुछ भाग को नये नये आकार देकर उसके विभिन्न सगुण रूप बनाती और मिटाती रहती है। ऋषियों ने उसके इस कार्य को  ब्रह्मचक्र नाम दिया है। इसके प्रत्येक अस्तित्व को दिव्य तरंगें अर्थात् देवता कहा जाता है और हम सब भी वही हैं पर अपने अहंकार और संस्कारों के रंग से रंगे होने के कारण पृथक पृथक होने का आभास पाते हैं।  इसलिये देवता वह है जिसके व्यक्तित्व और आदर्श  एकसमान हो गये हैं और जिसने अपने अहंकार और संस्कारों के सभी रंगों को अभ्यास, वैराज्ञ और संघर्ष से समाप्त कर लिया है। स्पष्ट है कि वे कहीं अन्यत्र  नहीं हैं और न ही वे प्रसन्न और अप्रसन्न होते हैं। हममें से कोई भी निरंतर अभ्यास के द्वारा अपने व्यक्तित्व और आदर्श  में एकरूपता ला सकता है।

रवि - तो फिर देवताओं की संख्या 33 करोड़  क्यों बताई जाती है?

बाबा -  संख्या के संबंध में सच्चाई यह है कि हमारे शरीर के संचालन के लिये प्रकृति ने तेतीस करोड़ नर्व सैल और नर्व फाइवर्स बनाये हैं जिन्हें नियंत्रित करने के लिये कुल तेतीस नाडि़याॅं या ऊर्जा केन्द्र ही प्रधान होते हैं । ये परस्पर अपने व्यक्तित्व और आदर्श  से ओतप्रोत होने के कारण देवता कहलाते हैं। जो कुछ मनुष्य शरीर के भीतर है वही ब्रह्मांड में गेलेक्सियों तारों , वनस्पतियों और जीवधारियों के रूप में भी है।
इन्ही ऊर्जा केन्द्रों को एकादश  रुद्र,  (अर्थात् पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं, पाॅंच कर्मेद्रियाॅं और एक मन कुल ग्यारह) जब कोई व्यक्ति अपना शरीर छोड़ देता है तो ये एकादश  अवयव भी एक एक कर चले जाते हैं और संबंधीजन रोने लगते हैं, चूंकि ये सबको अंत में रुलाते हैं इस लिये रुद्र कहलाते हैं। 
द्वादश  आदित्य, (इनमें वर्ष के बारह माह सम्मिलित होते हैं वही आदित्य हैं) आदित्य का अर्थ है ‘लेना‘ चूंकि ये बारह माह धीरे धीरे व्यक्ति की आयु को लेते जाते हैं अतः आदित्य कहलाते हैं।
अष्ट वसु , (अर्थात् वासस्थान ), चूंकि जीव का वासस्थान भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश , सूर्य, चंद्र और अंतरिक्ष इन आठ स्थानों में माना गया है अतः ये अष्ट वसु कहलाते हैं।
एक इंद्र अर्थात् ऊर्जा या कर्मशक्ति और 
एक प्रजापति अर्थात् यज्ञ या कर्म ।
इस प्रकार इनकी कुल संख्या (11+12+8+1+1= 33) तेतीस हैं। यह, जब देह में  होते हैं तब दैहिक देवता और ब्रह्म में होने पर में ब्राह्मी देवता कहलाते हैं । इसलिये जो देह में है वही ब्रह्माॅंड में भी है, यह कहा जाता है। 

रवि, चंदु और नन्दू एक साथ बोले -  ओह! तो... सच्चाई ये है, सब कन्फ्यूजन दूर....! 

बाबा -  हम सभी के पास इन तेतीस देवताओं अर्थात् ऊर्जा केन्द्रों का समूह होता है जिसे केवल एक ही परमनियंत्रक सत्ता जिसे ब्रह्म कहते हैं नियंत्रित करता है अतः मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि इनकी सहायता से अपनी तमोगुणी और रजोगुणी प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कर सत्य में प्रतिष्ठित होने की विजय प्राप्त करे और अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य इस परमपुरुष तक पहॅुंचने का कर्म करे। जितने भी महापुरुष हुए है और जिन्हें हम देवतुल्य पूजते हैं वे सभी भी हमारी ही तरह सामान्य रहे हैं परंतु उन्होंने  सभी जड़ प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष कर विजय पायी और अद्वितीय कहलाये। उनकी जय बोलने का अर्थ यह है कि हम अपनी ही जय बोलते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उनकी ही तरह हम अपने आदर्श  और व्यक्तित्व को समेकित करने में सफलता पायें।