Tuesday 18 August 2015

16 बाबा की क्लास ( श्री, श्रद्धा, ज्ञानी)
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चन्दू - बाबा! हम लोग किसी के नाम से पहले ‘श्री‘ क्यों लिखते या पुकारते हैं?
रवि- हः हः हः, यह भी नहीं मालूम?----  दूसरों को आदर देने के लिये।
बाबा- चंदु का प्रश्न  करना और रवि तुम्हारा उत्तर दोनों उचित हैं पर वास्तविकता यह है , 
   ऊर्जा का बीजमंत्र है ‘‘रम्‘‘। सभी लोग भौतिक जगत की उपलब्धियों के साथ ऊर्जा को भी सक्रिय रखना चाहते हैं अतः नाम और यश  के प्रेरक ‘‘श‘‘के साथ ऊर्जा की क्रियाशीलता के प्रेरक ‘‘र‘‘ को जोड़ने पर श + र= श्र , और स्त्रींलिं ग में यह हुआ श्री, इसे आधार मानकर ही भारत में नाम के आगे श्री लगाने का प्रचलन हुआ। आजकल इस अर्थ में ‘श्री‘ किसी के पास नहीं है फिर भी सभी के नाम से पूर्व श्री लगाते हैं और यह आदर देने का सूचक बन गया है।

नन्दु- परंतु बाबा! एक और शब्द  है ‘श्रद्धा‘ इसे भी दूसरों के प्रति सम्मान का सूचक माना जाता है?
बाबा- हाॅं, यह भी तुमने ठीक कहा, परंतु इसके पीछे की सच्चाई भिन्न  ही है। विश्वाश  और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द  नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह ‘सत‘ कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को ही श्रद्धा कहते हैं। ‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा‘।

रवि- तो क्या ज्ञान प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये?
बाबा- हाॅं, परंतु केवल ज्ञानी होने से कुछ नहीं मिलता, ज्ञान का उपयोग तभी तक है जब तक भक्ति उत्पन्न नहीं हो जाती। जैसे, जब किसी स्वादिष्ट भोजन को प्लेट में लेकर खाते हैं तो वह प्लेट (जिसमें खाद्य पदार्थ रखा होता है) ‘ज्ञान‘ है, भोजन करना ‘कर्म‘ है, और भोजन से मिलने वाला स्वाद ‘भक्ति‘ है।  भोजन को स्वाद लेकर समाप्त कर देने के बाद  प्लेट अर्थात् ज्ञान, डस्टविन में फेकने के अलावा और किस काम का बचता है। स्पष्ट है कि ज्ञान पूर्वक कर्म करने से ही भक्ति उत्पन्न होती है। इसलिये जीवन का एकमात्र लक्ष्य भक्ति को प्राप्त करने का होना चाहिये।

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