Sunday, 30 August 2015

18 बाबा की क्लास ( दीक्षा )
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 - बाबा! आज मेरे साथ, मुझे स्कूल में पढ़ाने वाले विषय शिक्षक आये हैं वे आपसे मिलना चाहते हैं । 
-अच्छा, रवि !  उन्हें यहीं बुला लो। 
-बाबा ! नमस्कार। रवि से जानकारी पाकर आपसे मिलने और अपनी जिज्ञासा शान्त करने की इच्छा को हम रोक नहीं  सके---। 
- ठीक है , आप लोग शिक्षक हैं यदि आपके पास सही ज्ञान की जानकारी होगी तो आप दूसरों को भी सही जानकारी दे सकेंगे , परन्तु आप स्वयं भी उसका पालन करेंगे पहले इसका वचन दो ?
- बाबा! हम वचन देते हैं। 
- तो पूंछो क्या जानना चाहते हो ?
- बाबा! जानना तो बहुत कुछ है परन्तु  पहले दीक्षा क्या है , इसका क्या महत्त्व है , यह कैसे प्राप्त की जाती है, यह समझा  दीजिए। 

- दीपज्ञानम यतो दद्यात् कुर्यात् पापक्षयम, तस्मात्दीक्षेति सा प्रोक्ता सर्वतंत्रस्य सम्मता। अर्थात् अनेक जन्मों के संस्कारों को क्षय कर जो विधि ईश्वरत्व की ओर बढ़ने की व्यावहारिक क्रिया सिखाती है उसे दीक्षा कहते हैं। सामान्यतः दो प्रकार की दीक्षायें प्रचलित हैं वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक विधि की दीक्षा साधक को सही धर्म को चुनने और परम ब्रह्म की ओर जाने का रास्ता बताती है, इसमें अनेक वैदिक श्लोक  प्रयुक्त होते हैं। तान्त्रिकी विधि में सही रास्ते पर चलने की व्यावहारिक विधि योग्यताधारक गुरु सिखाता है जो जड़ता से मुक्त कर इष्ट से मिलने का रास्ता स्वयं समझाता है। वैदिक दीक्षा को शुद्धीकरण की विधि कह सकते हैं दीक्षा नहीं, सही अर्थों में तांत्रिक दीक्षा ही सही होती है क्योंकि उसमें आवश्यक  दीक्षा के घटकों जैसे दीपनी, मंत्र, मंत्रचैतन्य और अभिषेक(अर्थात शपथ) आदि का समावेश  होता है। इस प्रकार यदि सही गुरु से दीक्षा लेकर साधक ईमानदारी, नियमितता और समर्पण से साधना करता है तो वह माया के विरुद्ध अपने संग्राम में सफल हो जाता है और आत्मसाक्षात्कार करता है।
- बाबा! क्या गायत्री मन्त्र ही दीक्षा में सिखाया जाता है ?
- वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की प्रथा थी; वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। "मननात  तारयेत् यस्तु  सः मन्त्रः परिकीर्तितः। "  
- बाबा! इस गायत्री छंद द्वारा  प्रार्थना करते समय  अनेक विद्वानों को एक सुसज्जित महिला का चित्र सामने रखते हुए भी देखा गया है क्या यह सही है ?
- इस का अर्थ समझ लो फिर आप लोग ही निर्णय करना कि उस  चित्र का औचित्य क्या है। 
इस छंद  का अर्थ और भावार्थ भी  विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। 
शाब्दिक व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, " उत्पत्ति, पालन और संहार  की तरंगों में ओतप्रोत; निर्मित  , निर्माणोन्मुख  और निर्माण  योजनान्तर्गत  सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का  हम ध्यान वरण  करते हैं, जिससे  सभी प्रकाशित होते , आनंदित होते ,आते हैं  और वहीँ वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें । " 
ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात। 
संक्षेप में इसे इस प्रकार समझाया जा सकता  है:-
(१) अ, उ और  का संयुक्ताक्षर 'ऊँ ' है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के  सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है ,   अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि  और हृदय  से अनुभव करना होता है क्योंकि यह cosmic sound of creation है। इसे  थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया  जा सकता  है।  यही "अ" उत्पत्ति , "उ" पालन और "म" संहार का द्योतक और ब्रह्मा, विष्णु, महेश का क्रमशः प्रतिनिधि है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।

(२)'भूः  '  'भुवः ' और ' स्वः ' - भारतीय दर्शन में  माना  गया है कि   ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश 'भूः  '  'भुवः ' और ' स्वः ' हैं, आगे तपः , जनः , महः और सत्यम हैं। । आधुनिक  वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न  होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं।

(३)  " तत्सवितुर्वरेण्यं'' का अर्थ है 'उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान वरण  ' 
(४) "भर्गः " 'भ' = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो  सभी लोकों को प्रकाशित करता है, 
                    'र' = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और 
                   'ग ' = गच्छति यास्मिन  आगच्छति  यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ चले  जाते हैं ,
 (५) "देवस्य धीमहि" अर्थात परमदिव्य सत्ता , 
 (६) "धियोयोनः" अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७) "प्रचोदयात" अर्थात  शुद्ध करें।   

यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करना सिखाता  है इसके परिपक्व होने पर 'उनकी' कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में हो या आगे के।  
- बाबा! इसका अर्थ  हुआ कि पहले वैदिकी और फिर तांत्रिकी दीक्षा लेना चाहिए ?
- हाँ , तांत्रिकी दीक्षा  'सद्गुरु /महाकौलगुरु' स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को  अपने सामने अभ्यास  कराकर सिखाते  हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है। 
 तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर  अभ्यास कराते  हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनाद  (resonance) कराने  पर मन को स्थिर कर देता है।  इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm  का  resonance   कराना होता है  cosmic rhythm (अर्थात औंकार ध्वनि) से।  इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद करने पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विविन्न स्तरों पर  समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि  का अनुभव हो ही।  जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस  मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए शेष   रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और  अपने अनुभवों और  ब्रह्मविद्या को सबको  सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।  इसलिए सच्चे  जिज्ञासुअों को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का  प्रयत्न करते रहना चाहिए।
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