Friday 4 September 2015

19 बाबा की क्लास ( यज्ञ )

19 बाबा की क्लास ( यज्ञ  )
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-  बाबा ! कुछ लोग कहते हैं कि वे विश्व में शान्ति हो इसलिए यज्ञ कर रहे हैं यह यज्ञ क्या है? 
- इसका अर्थ है कृतज्ञता पूर्वक किया गया कर्म। यह चार प्रकार से किया जाता है, भूतयज्ञ,
 नृयज्ञ, पितृयज्ञ और आध्यात्म यज्ञ। 

- इसका  क्या अर्थ ? क्या भूतप्रेत होते हैं जो उनके लिए  कार्य  किया जाये ?
- नहीं , भूत का अर्थ है इस संसार में जो भी जिस भी रूप में आया है वह अर्थात् (all created beings) अतः उन सबके लिये निर्पेक्ष भाव से की गयी सेवायें भूतयज्ञ के अंतर्गत आती हैं, जैसे पौधों को पानी देना, पशुओं का पालन करना, वैज्ञानिक  शोध कार्य करना और समाज कल्याण के लिये, सबकी भलाई के लिये उनका उपयोग करना। नृयज्ञ वह कार्य है जो मनुष्यों की भलाई के लिये किया जाता है, यर्थातः यह भूतयज्ञ का ही भाग है क्यों कि मनुष्य भी (created beings)  ही हैं। पितृयज्ञ का अर्थ है अपने पूर्वजों और ऋषियों को याद करना और कृतज्ञता ज्ञापित करना। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक शरीर में रहता है वह अपने पूर्वजों का ऋणी रहता है। ऋषि वे हैं जो समाज की भलाई के लिये नये अनुसंधान कर अनेेक प्रकार से मदद कर रहे हैं या की है तथा वे जो संयमपूर्वक प्राप्त ज्ञान से अपनी मुक्ति स्वयं करने का कार्य कर रहे हैं और समाज को भी लाभान्वित कर रहे हैं ऐंसे ऋषियों का ऋण भी समाज के ऊपर रहता है।

- कुछ वैज्ञानिकों ने प्रचंड विस्फोटकों का अनुसन्धान किया है क्या वे  ऋषि तुल्य हैं? 
- नहीं।  जिन्होंने विध्वंसात्मक शस्त्रों का अनुसंधान किया है उससे समाज को किसी प्रकार का कल्याण नहीं होता अतः वे ऋषि नहीं कहला सकते। इसी लिये पितृयज्ञ करते समय श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित यह भावना रखना चाहिये कि 
‘‘ पितृ पुरुषेभ्योनमः , ऋषिदेवेभ्योनमः, 
ब्रह्मार्पणम ब्रह्म हर्विब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् , 
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं , ब्रह्मकर्मसमाधिना‘‘। 
अर्थात् जिन्होंने अपना प्रत्येक कार्य ब्राह्मिक भाव से करते हुए अपने को ब्रह्म स्वरूप ही बना लिया और अंततः ब्रह्म में ही समाधिस्थ हैं  गये उन पितृपुरुष ऋषिगणों को प्रणाम।

-अच्छा यह बात है तो , बाबा !  फिर आध्यात्म यज्ञ का क्या मतलब ?
- आध्यात्म यज्ञ का सूत्रपात आत्मा से होता है और कर्म होता है मन के द्वारा। मन साधना करता है और कर्म भी, जो कि आत्मा के क्षेत्र में समाप्त हो जाते हैं। आध्यात्म यज्ञ निवृत्ति दिलाता है जब कि भूत ,नृ और पितृ यज्ञ निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों में उलझाते हैं। नृयज्ञ भी चार प्रकार का होता है, शूद्रोचित, वैश्योचित , क्षत्रियोचित और विप्रोचित। शूद्रोचित सेवा में अपने सुखों का त्याग कर दूसरों को प्रसन्न करना या उनके कष्टों को दूर कर देना जैसे मरीजों की सेवा आदि, आते हैं। वैश्योचित सेवा में किसी को रुपया पैसा देकर सेवा करना, और अपने जीवन को खतरे में डालकर दूसरों का रक्षण करना क्षत्रियोचित सेवा कहलाता है। विप्रोचित सेवा में अपने द्वारा प्राप्त किये गये आध्यात्म के  ज्ञान को दूसरों को सिखाना और सद्गुणों को सिखा कर सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करना आदि आते हैं। शूद्रोचित सेवा समाज की रीढ़ की हड्डी है इसे किसी प्रकार हेय नहीं समझना चाहिये। जो शूद्रोचित सेवा नहीं कर सकता वह वैश्योचित , क्षत्रियोेचित और विप्रोचित सेवा भी नहीं कर सकता। इसलिये जिनमें यह चारों प्रकार के गुण हैं वही विप्र कहला सकते हैं। हमें अहंकार रहित सेवा करना चाहिये यह मान कर कि हम नारायण की सेवा कर रहे हैं। भूत, नृ और पितृ यज्ञ करते समय नारायण की सेवा करने का भाव रखने पर मैंपन की भावना को जागने का अवसर नहीं मिल पायेगा और कर्मबंधन से भी दूरी बनी रहेगी। ध्यान रखिये कर्मबंधन से मुक्त होने और अहंकार को नष्ट करने के लिये ही यज्ञ किया जाता है , इस लिये उपरोक्त चारों यज्ञ कोई भी सम्पन्न कर सकता है। 

- लेकिन कुछ लोग तो अग्नि में घी  और अन्य पौष्टिक वस्तुओं के  जलाने को यज्ञ कहते हैं? 
-  अब तुम लोग स्वयं ही निष्कर्ष निकालो ?  स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव , तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता हैं जो यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन  (carbonic pebula) का ही वहुरूप हैअतः इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमें  आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड की , जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर। 
- तो क्या  वे सब गलत हैं ?
- सही गलत का निर्णय तुम लोग ही करो।  श्रीमद्भगवद्गीता के जिस श्लोक  का उदाहरण देकर वे लोग यह करते हैं , वह भी उसका मनमाना अर्थ किये जाने के कारण है। 
वह श्लोक  कहता है कि 
‘‘ अन्नाद भवति भूतानि, पर्जन्यादन्न संभवः। 
    यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञःकर्मसमुद्भवः।‘‘ 
जिसका सीधा अर्थ यह है कि अन्न से सभी जीवधारी उत्पन्न होते और जीवित रहते हैं, वर्षा से अन्न होता है, यज्ञ करने से वर्षा होती है और यज्ञ, कर्म करने से संभव होता है। 
- ओह बाबा! अब हम समझे।  जैसा आपने समझाया  है  उन  चारों प्रकार के यज्ञकर्म सबको नारायण समझकर करने पर ही प्रकृति संतुलन में रहेगी अर्थात् वर्षा होगी, अन्न उत्पन्न होगा और जीवन बना रहेगा तभी सब लोग अपने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।


2 comments:

  1. - लेकिन कुछ लोग तो अग्नि में घी और अन्य पौष्टिक वस्तुओं के जलाने को यज्ञ कहते हैं?
    - अब तुम लोग स्वयं ही निष्कर्ष निकालो ? स्पष्ट है कि अग्नि में घी, यव , तिल या अन्य वस्तुओं को जलाना यज्ञ नहीं है और न ही इस प्रकार खाद्यान्न को जलाने से समाज का कोई लाभ होता हैं जो यह कहते हैं कि इससे वातावरण शुद्ध होता है और वर्षा होती है वह किसी भी प्रकार वैज्ञानिक सत्य नहीं है। पृथ्वी पर जो भी जीव जगत है वह कर्बन (carbonic pebula) का ही वहुरूप हैअतः इनमें से किसी के भी जलाने पर कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न होती है और कार्बन ही बचता है। स्वस्थ जीवन के लिये हमें आक्सीजन की आवश्यकता होती है और पौधों को कार्बनडाई आक्साइड की , जो हम स्वाभाविक रूप से एक दूसरे को आदान प्रदान करते रहते हैं अतः पृथक से कार्बनडाई आक्साइड उत्पन्न करने का कोई औचित्य नहीं वह भी धार्मिक भावनाओं की कीमत पर।
    - तो क्या वे सब गलत हैं ?
    - सही गलत का निर्णय तुम लोग ही करो।

    आपके इस प्रयास पर शत शत http://ajaysaxena.in/devobhav.com

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    1. धन्यवाद सक्सेना जी। इस ब्लॉग को पढ़ते रहिये, हमेशा तार्किक,वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण जानकारी ही मिलेगी।

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