राजू- ‘‘बाबा! अभी कुछ दिनों तक हमारे विषय शिक्षक यहाॅं नहीं आ पायेंगे , वे कहते हैं कि श्राद्ध दिवस चल रहे हैं ‘‘।
चंदू- ‘‘ ये श्राद्ध दिवस क्या हैं, बाबा!‘‘
बाबा- चलो , आज हम लोग इसी पर चर्चा करें।
तुम लोगों को याद है, एक बार हमने श्रद्धा के बारे में क्या समझाया था ? नहीं ? अच्छा फिर से सुनो अब नहीं भूलना। ‘‘विश्वास और समर्पण के संयुक्त भाव को श्रद्धा कहते हैं, अंग्रेजी में इसका कोई शब्द नहीं है। जीवन का जो कुछ भी मूलाधार है वह ‘सत‘ कहलाता है और जब सभी ज्ञान और भावनायें इसी को प्राप्त करने के लिये चेष्टा करने लगती हैं तो यह ‘श्रत‘ कहलाता है, और इससे जुड़ी भावना को ही श्रद्धा कहते हैं। ‘श्रत् सत्यम तस्मिन धीयते या सा श्रद्धा‘।‘‘
स्पष्ट है कि वे दिन जिनमें हम जीवन के मूलाधार ‘सत‘ को जानने के लिये विश्वास और समर्पण के साथ जुट जाते हैं उन्हें श्राद्ध दिवस कहते हैं। इसके लिये कोई अलग से निर्धारित समय या दिन नहीं हैं फिर भी कर्मकाॅंड में इन्हें आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को निर्धारित किया गया है।
नन्दू - बाबा! कुछ लोग कहते हैं कि वे अपने पूर्वजों को स्मरण करते हुए इन दिनों में ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं और दान भी देते हैं, जिससे उनकी आत्मा को शान्ति मिलती है और वे तृप्त होकर मुक्त हो जाते हैं।
बाबा- तुम लोग इस बात को ध्यान से समझ लो कि पूर्वजों को याद करना और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना अलग बात है और उनका मुक्त और तृप्त होना बिलकुल अलग।
राजू- कैसे?
बाबा- हमें यह मानव शरीर अपने अपने माता पिता से प्राप्त हुआ है इसमें रह कर ही हम सत्य को जानने और अनुभव करने का कार्य कर सकते हैं अतः हमें कृतज्ञता से प्रति दिन ही उनका स्मरण करना चाहिये केवल आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में ही नहीं। इसे स्मरण करने की क्रिया को मंत्र और मुद्रा के साथ तुमलोगों को सिखाया गया है जिसे पित्रयज्ञ कहते हैं। तुम लोग रोज करते हो कि नहीं?
राजू- हाॅं बाबा! स्नान मंत्र के साथ ही न ?
बाबा- हाॅं ठीक है।
चंदू- परंतु बाबा! कुछ लोग कहते हैं कि यह तो केवल दिवंगत हो चुके पितरों के लिये ही किया जाता है, जिनके माता पिता जीवित हो तो उन्हें यह आवश्यक नहीं है ?
बाबा- नहीं चंदू, यह गलत है। सभी को अपने माता पिता सहित पित्रपुरुषों को भी प्रति दिन कृतज्ञता ज्ञापित करना ही चाहिये। यह नहीं कि जीवित रहते समय बृद्धावस्था में तो पानी के लिये भी नहीं पूछा और मरने के बाद पानी दे रहे हैं।
नन्दू- तो क्या पितरों के याद कर लेने से ही कृतज्ञता प्रकट हो जाती है?
बाबा- नहीं याद करने का तात्पर्य यह है कि उनके द्वारा किये गये सत्कार्यों को अपने जीवन में उतारना तथा असत्कार्यों और की गई त्रुटियों को त्यागना।
राजू- लेकिन, तृप्ति और मुक्ति की बात क्या है, बाबा!?
बाबा- किसी को भोजन कराने पर भोजन करने वाले भले ही तृप्त हो जायें परंतु शरीरहीन दिवंगत किस प्रकार तृप्त हो सकते हैं? जिसे अनेक दिनों से भरपेट भोजन न मिला हो और उसे नारायण समझकर आत्मीयता से पेट भर भोजन करा दिया जाय तो यह उनको खिलाने की तुलना में अधिक अच्छा होता है जो रोज ही अनेक बार खाते हैं।
नन्दू- और मुक्ति?
बाबा- मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होना अपने अपने कर्मों पर आधारित होता है किसी के कर्मों के फल को किसी अन्य के पुण्यों से बदला नहीं जा सकता, कर्मफल उसी को भोगना पड़ता है जिसने कर्म किया होता है। इसी लिये मैं बार बार कहता हॅूं कि इस अमूल्य मनुष्य देह में आकर इसका अधिकतम सदुपयोग करते हुए सत्य को जानने का अभ्यास करने में ही समय लगाना चाहिये।
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