Monday 14 September 2015

21 बाबा की क्लास (अमृतत्व) 
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- "बाबा! हम लोगों ने अनेक स्थानों पर पढ़ा है और रसायन में भी पढ़ाते हैं कि अनेक पदार्थ हैं जो विषैले होते हैं जिनके खाने पर मृत्यु हो जाती है, और इनके विपरीत स्वभाव के पदार्थ भी होते हैं जिनका उपयोग करने या खाने से व्यक्ति पर इनका असर घट जाता है?"
- "सभी पदार्थों का अपना अपना अपना गुणधर्म होता है , एक पदार्थ किसी के लिये विष तो दूसरे के लिये अमृत होता है।"
- "बस बाबा! हम लोग आज यही समझने आये हैं कि हमने ‘अमृत‘ नामक वस्तु की अनेक चर्चायें सुनी हैं परंतु , क्या सचमुच उसका भौतिक अस्तित्व होता है जैसा कि विष का?"
- "ठीक कहा, पर अमृत तुम्हारे भीतर ही है बाहर नहीं, उसे समझने के लिये चिंतन करना होगा। इसलिये मैं तुम लोगों को अपने समय के मूर्धन्य, कुशाग्रबुद्धि आचार्य और शास्त्रार्थ में अपराजेय शीर्ष कोटि के विद्वान ऋषि याज्ञवल्क्य जी का द्रष्टान्त सुनाकर इसे स्पष्ट करना चाहता हॅूं सुनो - "

याज्ञवल्क्य जी, ग्रहस्थ आश्रम त्याग कर सन्यास लेने लगे तब उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों, कात्यायिनी और मैत्रेयी से अनुमति लेते हुए कहा -
 ‘‘तुम दोनों मेरे पश्चात्  सम्पत्ति पर विवाद न करो इसलिये मुझे बताओ किसे क्या चाहिये है, मैं अपने सामने ही वंटवारा कर दूॅं।‘‘  कात्यायिनी ने अपनी लम्बी सूची बनाकर दे दी परंतु मैंत्रेयी ने कहा, ‘‘ भगवन्! धन दौलत से भरी यह सम्पूर्ण पृथ्वी मुझे मिल जाये, तो क्या मैं अमर हो सकती हॅूं?‘‘
याज्ञवल्क्य बोले, ‘‘ नहीं, जैसे धन सम्पन्न लोगों का जीवन होता है वैसे ही तुम्हारा जीवन हो जायेगा, धन से अमर होने की आशा  करना व्यर्थ है।‘‘
मैत्रेयी बोली, ‘‘ जिसे पाकर मैं अमर नहीं हो सकती, उसे लेकर क्या करूंगी ? आप तो मुझे अमृतत्व का जो भी साधन जानते हों वही बताते जाइये।"
वह बोले - मैत्रेयी! मेरी इन बातों पर चिंतन करना, यही अमृतत्व का रास्ता बतायेंगी। 
‘‘पति के प्रयोजन के लिये पति प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिये स्त्री प्रिया नहीं होती अपने ही प्रयोजन के लिये स्त्री प्रिया होती है। पुत्र के प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये पुत्र प्रिय होता है। धन के प्रयोजन के लिये धन प्रिय नहीं होता अपने ही प्रयोजन के लिये धन प्रिय होता है। पशुओं के प्रयोजन के लिये पशु  प्रिय नहीं होते अपने ही प्रयोजन के लिये पशु  प्रिय होते हैं। सब के प्रयोजन के लिये सब प्रिय नहीं होते अपने प्रयोजन के लिये ही सब प्रिय होते हैं। अतः अपना आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान करने योग्य है। आत्मा का दर्शन  हो जाने पर अप्राप्त, प्राप्त हो जाता है, और अज्ञात, ज्ञात हो जाता है।‘‘
इस प्रकार के अनेक उदाहरण देने के बाद भी जब मैत्रेयी ने कहा कि मुझे विशेष कुछ समझ में नहीं आया, तब वे बोले-
‘‘ मैत्रेयी! मन में भेद रहने पर ही अन्य , अन्य को देखता, सूंघता ,रसास्वादन करता, सुनता, मनन करता, और स्पर्श  करता है परंतु जिसे सब कुछ आत्ममय ही हो गया वह किसके द्वारा किसे देखे , सुने , सूंघे, अभिवादन करे, मनन करे? जिसके द्वारा मनुष्य इस सब को जान पाता है उसे किसके द्वारा जाने, किस साधन से जाने? वह ग्रहण नहीं किया जा सकता, उसका नाश  नहीं होता, वह व्यथित और क्षीण नहीं होता। मैत्रेयी! विज्ञाति के विज्ञाता को किसके द्वारा जाने? बस इतना चिंतन करना, यही अमृतत्व है।‘‘ 
यह कहते हुए उन्होंने सन्यास ले लिया।

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