Monday, 14 September 2015

22 चलते हैं...


- जा...  रहे हो??.. यह भी कोई बात हुई?
- क्यों ? मैं तो जाने के लिये ही आया था।
- इतनी जल्दी क्या है?
- जल्दी ? पेंतालीस वर्ष हो चुके हैं साथ साथ चलते ?
- तुम भी ! क्या व्यर्थ की बातें करते हो?
- तुमने सत्य कहा, हमें प्रकृति के द्वारा मुफ्त में मिली चीजें महत्वहीन लगती हैं और जिन्हें हम अपने पराक्रम से  अर्जित करते हें वे मूल्यवान।
- तुम्हारी यह फिलासफी समझ से परे है?
- अरे! समय और स्थान से बंधे हम इनकी गतिशीलता पर कभी ध्यान ही नहीं देते, सोचते हैं वे तो स्थिर हैं हमारे साथ हमेशा  हैं जबकि प्रत्येक 'क्षण' हमारे हाथ से फिसलता जा रहा है, वैसे ही,  देखो ! जैसे ट्रेन आगे बढ़ती जा रही है स्थान पीछे हटते जा रहे हैं । नया स्टेशन आने वाला है, वहॉं से अब इस बर्थ पर किसी और की पात्रता है।
- लेकिन मैं अकेली...?
- परमपिता की अंतरंगता का अनुभव करो, कोई भी, कभी भी, अकेला नहीं है।
   देखो ! स्टेशन आ गया, 
अच्छा.... तो..... हम.... च...ल...ते... हैं... ... ..! ! !

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