Tuesday 4 August 2015

14 मानव धर्म
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जयेन्द्र को अपना मकान बनाते समय अनेक मजदूरोें को रोज बदलना पड़ा। कुछ तो उसके व्यवहार से अधवीच में ही छोड़कर चले जाते और कुछ जो उस दिन किसी प्रकार शाम तक टिके रहते अपना मेहनताना लेकर दूसरे दिन आते ही नहीं। होता यह था कि वह प्रत्येक मजदूर के काम में कुछ न कुछ कभी बता देता और फिर अपशब्द कहकर उन्हें प्रताडि़त करता मजदूरी के पैसे भी काट लेता। एक दिन एक मजदूर जयेन्द्र की अपेक्षा के अनुकूल काम करता रहा और उसकी झिड़की भी सुनता रहा और अगले दिनों भी काम करने आता रहा । अब जयेन्द्र सप्ताह के अंत में उसके मेहनताने का एक दिन का पैसा कम देता ताकि वह बराबर अगले दिन काम पर आ जाया करे। एक माह में काम समाप्त हो गया और उस मजदूर को एक माह में चार दिन की जो मजदूरी कम दी गई थी उसे भुला कर जयेन्द्र ने मजदूर को जाने के लिये कहा। मजदूर ने बिना कुछ कहे अपना रास्ता पकड़ा। जयेन्द्र भी मन में यह सोचकर प्रसन्न था कि इसको मैंने चार दिन के पैसे तो दिये ही नहीं और इसने भी नहीं मांगे, चलो अच्छा ही हुआ।
दो चार माह बाद, जयेन्द्र अपनी कार से कहीं जाते हुए  रेत से भरे एक ट्रक से आगे निकलने के प्रयास में सामने से आ रही जीप से टकरा कर पलट गया और बेहोश  हो गया। पास की एक बिल्डिंग में काम कर रहे मजदूर दौड़े जिनमें पूर्व वर्णित मजदूर भी था, और दोनों वाहनों के प्रभावित लोगों को मदद करने लगे । संयोग यह हुआ कि वही मजदूर जयेन्द्र की कार की ओर दौड़ा और बेहोश   अवस्था में रहे जयेन्द्र को पहचान कर अन्य लोगों की मदद से उस के घर तक लाया। उपचार के बाद जयेन्द्र और उसके संबंधी तलाशते हुए उस मजदूर के पास आभार व्यक्त करने के लिये आये और उसे पाॅंच पाॅंच सौ रुपये के दो नोट देकर धन्यवाद दिया। 
दोनो नोट लेते हुए मजदूर बोला, महोदय ! क्या आपके पास पाॅंच सौ रुपये खुले नहीं हैं? व्यक्ति के साथ आये अन्य संबंधी ने पाॅंच सौ के एक नोट के बदले सौ सौ के पाॅंच नोट दे दिये। मजदूर ने उनमें से तीन सौ रखकर दो सौ रुपये जयेंद्र  को वापस कर दिये। जयेंद्र  ने कहा भाई साब! कम लग रहे हों तो और माॅंग लो मैं तो खुशी  से दे रहा हॅूं। वह मजदूर बोला महोदय! मेरे पराक्रम के जो रुपये आपकी जेब में थे उन्हीं पर मेरा अधिकार है वे अधिक देर तक आपकी जेब में कैसे रहते, उन्हें तो मेरे पास आना ही था। चार दिन की मजदूरी के आठ सौ रुपये मेरे हैं , वह मेरे पास आ गये, अन्य का मुझे क्या काम?
जयेन्द्र बोला, परंतु तुमने तो मेरी जान बचाई है उसका क्या ? वह मजदूर बोला वह तो मेरा मानव धर्म था।

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