51 बाबा की क्लास (अष्टाॅंगयोग -1)
रवि- अभी तक के विवरण से तो यही ज्ञात होता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता अर्थात् परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है। क्या ऐंसा कोई उपाय नहीं है जो इन में समुचित समन्वय कर आदर्श पद्धति के रूप में स्वीकार किया जा सके?
बाबा- वास्तव में यह विभिन्न पद्धतियाॅं काल क्रम के प्रभाव से उसी एक ही आदर्श पद्धति जिसे ‘अष्टाॅंगयोग‘ के नाम जाना जाता है, से खंड खंड होकर अलग अलग हो गई हैं इन्हें फिर से यथावत जोड़ कर ही पुरातन आदर्श को पाया जा सकता है।
राजू- तो आप हमें उसी सम्पूर्ण और आदर्श विधि को क्यों नहीं बताते , इन अपूर्ण विधियों को अपना कर हम क्यों उलझें ?
बाबा- हम तो वास्तव में उस सम्पूर्ण पद्धति को ही अच्छी तरह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु वर्तमान में प्रचलित इन सभी विधियों से परिचय कराने का उद्देश्य केवल यह है कि इन पर एक बार चिंतन कर यह समझ लिया जाय कि इनमें दार्शनिक और व्यावहारिक स्तर की क्या कमी है जिससे बाद में हमारी गति में ये किसी प्रकार की बाधा या भ्रम उत्पन्न न कर सकें।
नन्दू- लेकिन अब तो हमें वर्तमान में प्रचलित सभी पद्धतियों के कमजोर पक्षों का पता चल ही गया है अतः अब क्या उसी आदर्श और सम्पूर्ण पद्धति पर चर्चा करना उचित नहीं होगा?
बाबा- हाॅं बिलकुल। ‘अष्टाॅंगयोग‘‘ का अर्थ है योग की वह पद्धति जिसके आठ स्तर होते है। ‘अष्ट‘ का अर्थ है आठ और ‘अंग‘ का अर्थ है भाग या स्तर। यदि इन आठों स्तरों पर सही ढंग से अभ्यास किया जाता है तो बहुत ही कम समय में वाॅंछित उपलब्धि प्राप्त हो जाती है। अब तुम लोग इन आठों स्तरों को ठीक ढंग से समझ लो और फिर नियमित रूपसे उनका अभ्यास करने में जुट जाओ।
इसके आठ स्तर क्रमशः ये है:- 1 यम, 2 नियम, 3 आसन, 4 प्रणायाम, 5 प्रत्याहार, 6 धारणा, 7 ध्यान, और 8 समाधि। इनका क्रमानुसार नियमित अभ्यास करने पर लगातार प्रगति करते हुए समाधि के स्तर पर आत्मसाक्षात्कार होता है। पहले जिन जिन पद्धतियों की चर्चा की गयी है उनके मूलतत्व इन्हीं आठ स्तरों पर यथोचित ढंग से जुड़े हुए हैं ।
इन्दु- तो इन आठों भागों को जल्दी से समझा दीजिये जिससे हम आज से ही उनका पालन करने लगे?
बाबा- हाॅं ठीक कहा परंतु इन्हें जल्दी जल्दी समझने की गलती न करना, इन्हें एक एक कर ढंग से हृदय में बैठाना होगा फिर उनका पालन करने में कोई कठिनाई नहीं जायेगी । इसके पहले स्तर ‘यम‘ को ही पाॅंच भागों में बाॅंटा गया है, वे हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हें अलग अलग ठीक ढंग से समझ लो-
अहिंसा- इसका अर्थ है मन, कर्म और वचन से किसी भी प्राणी को शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट न देना। प्राणी से तात्पर्य है जिसमें भी जीवन है अर्थात् पेड़ पौधे भी उसी में सम्मिलित हैं। अर्थात् न तो मानसिक न वाणी और न शारीरिक रूपसे ऐंसा कोई कार्य करेंगे जिससे किसी को किसी भी स्तर पर कष्ट पहुंचे।
राजू- यह तो बड़ा ही कठिन है, इसे शतप्रतिशत व्यवहार में नहीं लाया जा सकता?
बाबा- इसी लिये तो कहा है कि जल्दी जल्दी में कुछ समझ में नहीं आयेगा, अब अहिंसा के पालन करने का व्यावहारिक पक्ष समझ लो। तुम लोग सोच सकते हो कि इस प्रकार तो सभी का जीना ही मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि खेती बाड़ी करने वालों से तो इसका पालन हो ही नहीं सकता, उन्हें तो पेड़ पौधों और प्राणियों की हिंसा करना पड़ेगी। तो फिर क्या किया जाये क्योंकि खेती न करने पर तो किसी को भी भोजन नहीं मिलेगा? इतना ही नहीं हमारे शरीर की त्वचा के सैल हमारी गतिविधियों से मरते रहते हैं, श्वास के साथ वायु और वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म वेक्टेरिया मरते हैं, अनेक ऐंसे भी हैं जो हमारे भोजन को पचाने और उसे अन्य रूपान्तरण करने में सहायक होते हैं इसलिये मरते रहते हैं। और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे लगता है कि इस अहिंसा का पालन तो संभव ही नहीं है। यहाॅं अहिंसा को पालन करने के लिये हमें ‘वैष्णवाचार‘ का सिद्धान्त सहायक होता है, ‘‘वह यह कि यह सभी कुछ ‘द्रश्य अथवा अद्रश्य ‘ उस परमसत्ता की ही विचार तरंगें हैं, वह प्रत्येक परमाणु में ओत प्रोत है इसी लिये वह विष्णु है‘‘ अतः यदि प्रत्येक छोटे बड़े कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व हम "ब्रह्म भाव" धारण कर लें तो अहिंसा की श्रेणी में नहीं आयेंगे और कर्म बंधन से मुक्त रहेंगे। यथा खेतों में हल चलाते समय मन में यह भावना द्रढ़ करना होगी कि ब्रह्म रूपी खेतों में बीजारोपण का ब्राह्मिक कार्य किया जा रहा है। आदि।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि कोई भी हमारे जीवन को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से हम पर आघात करता है तो हम आत्म रक्षा नहीं करेंगे, वरन् ब्राह्मिक भाव लेते हुए हम ‘‘शाक्ता चार ‘‘ का पालन करेंगे, जिसमें अपनी पूरी शक्ति से उस नकारात्मकता के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। हमारे छः प्रकार के शत्रुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) और आठ प्रकार के बंधनों( भय, लज्जा, घृणा, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील और मान) को काटने के लिये हमें शाक्ताचार का सहयोग लेना ही पड़ेगा। इस तरह अहिंसा का व्यावहारिक पालन करने के लिये संयुक्त रूप से यथा समय वैष्णवाचार और शाक्ताचार का प्रयोग करने पर कर्म बंधन हमें नहीं बाॅंध पायेगा।
राजू- बाबा! इस अष्टाॅंग योग के पहले भाग के केवल पाॅंचवें हिस्से ने ही इतना भयभीत कर दिया है कि आगे की कल्पना करने से ही डर लगने लगा है?
बाबा- नहीं, ऐंसा बिलकुल नहीं है, सही ढंग से समझ लेने पर सब कुछ सरल हो जाता है। अब, इसके आगे आता है ‘‘सत्य‘‘ । सत्य का अर्थ है जो कभी बदलता नहीं हो वह। इसे निर्पेक्ष सत्य कहते हैं। परमपुरुष ही केवल निर्पेक्ष सत्य हैं। हम सभी इस जगत में स्थान और समय से बंधे हैं अतः हमें सापेक्षिक सत्य से ही काम लेना पड़ता है। सापेक्षिक सत्य स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। किसी की प्राण रक्षा करने में , व्यापक समाज हित में बोला गया असत्य भी सत्य ही माना जाता है। एक ही कार्य किसी के लिये सत्य और किसी के लिये परिस्थितियों वश असत्य हो जाता है। इसलिये निस्वार्थ, सार्वजनिक हित और कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए ही प्रत्येक कार्य करने का निर्देश है। इसके आगे है ‘‘ अस्तेय‘‘ । इसका अर्थ है बिना अनुमति के किसी की कोई भी वस्तु न लेना, अर्थात् चोरी न करना। यहाॅं ध्यान रखने योग्य यह है कि किसी की कोई वस्तु के संबंध में मन में अपवित्र विचार आना भी अस्तेय के विरुद्ध ही आता है। इसलिये विचारों का सात्विक बनाये रखना सदा ही वाॅंछनीय होता हैं। इसके बाद आता है ‘‘ब्रह्मचर्य‘‘ जिसका अर्थ है सदा ही ब्राह्मिक भाव में बने रहना, उसी में विचरण करना। सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश हैं । इसके बाद यम का अंतिम पद होता है ‘‘अपरिग्रह‘‘ जिसका अर्थ है आवश्यकता से अधिक वस्तुओं या धन का संग्रह न करना।
इंदु- बाबा! सावधानी से देखा जाय तो, यदि सभी लोग केवल ‘‘यम‘‘ के पाॅंचों भागो का ही पालन ईमानदारी से करने लगें तो समाज की नब्बे प्रतिशत समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं?
बाबा- क्यो नहीं ? यह व्यवस्था ऋषियों ने लंबे शोध के उपरान्त ही बनाई है लेकिन लोभियों और स्वार्थ पीडि़त लोगों ने ही इसमें अनेक विसंगतियाॅं और विकृतियाॅं बना दी हैं।
राजू- अष्टाॅंगयोग का दूसरा स्तर क्या है बाबा! क्या वह भी इतना ही क्लिष्ट है?
बाबा- हाॅं, दूसरा स्तर है ‘‘नियम‘‘ इसके भी पाॅंच अवयव हैं। ये हैं, शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वर प्रणिधान। ‘‘शौच‘‘ का अर्थ है शरीर और मन दोनों की सफाई रखना। शरीर को तो साबुन और पानी से साफ कर लेते हैं परंतु मन को साफ रखने के लिये पवित्र विचारों को सदैव मन से चिंतन करते रहना होता है, जिसमें ब्राह्मिक भाव लिये रहने पर मन स्वच्छ बना रहता है। यदि कभी परिस्थितियों वश कलुषित विचार आ भी जायें तो तत्काल ब्राह्मिक भाव आरोपित कर उन्हें उदासीन करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके बाद है ‘‘संतोष‘‘ अर्थात् प्रत्येक अच्छी या बुरी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में मन में संतुलन बनाये रखना, किसी भी प्रकार से मन को उद्विग्न और उद्वेलित न होने देना। इसके आगे है ‘‘स्वाध्याय‘‘ अर्थात् सद् साहित्य का अध्ययन करते रहना, जब भी थोड़ा सा समय मिले उसका सदुपयोग सद्साहित्य को पढ़ने में ही लगाना। अगला नियम है ‘‘तप‘‘ अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में मन और वाणी पर संयम बनाये रखने का अभ्यास करना। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि असामान्य परिस्थितियाॅं निर्मित कर शरीर को कष्ट देना ( जैसे कुछ लोग हठ पूर्वक एक पैर पर खड़े रहनें या आग के सामने शरीर को तपाने , पानी में डूबे रहने आदि को तप कहते हैं) । और अंतिम नियम है ‘‘ईश्वर प्रणिधान‘‘ अर्थात् ‘इष्टमंत्र‘ की सहायता से ‘इष्टचक्र‘ पर आघात कर उसे सक्रिय करना। इसे अष्टाॅंगयोग के प्रतिष्ठित आचार्य ही सिखाते हैं। इसे दोनों समय नियमित रूप से करना होता है जिससे आगे के स्तरों पर जाने में सरलता मिलती है। यह शैवाचार के अन्तर्गत आता है।
(-अगले स्तरों पर चर्चा क्रमशः दूसरे भाग में अगली क्लास में देखिये -)
रवि- अभी तक के विवरण से तो यही ज्ञात होता है कि विद्यातन्त्र और उपनिषदों में वर्णित अद्वितीय, निष्कल, सच्चिदानन्दघनसत्ता अर्थात् परमपुरुष को पाने के उपायों को तथ्यों सहित कोई भी पद्धति , पूर्णतः सम्मिलित नहीं कर पाती वरन् एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में आडम्बर और परस्पर वैमनस्यता को ही बढ़ावा देती है। क्या ऐंसा कोई उपाय नहीं है जो इन में समुचित समन्वय कर आदर्श पद्धति के रूप में स्वीकार किया जा सके?
बाबा- वास्तव में यह विभिन्न पद्धतियाॅं काल क्रम के प्रभाव से उसी एक ही आदर्श पद्धति जिसे ‘अष्टाॅंगयोग‘ के नाम जाना जाता है, से खंड खंड होकर अलग अलग हो गई हैं इन्हें फिर से यथावत जोड़ कर ही पुरातन आदर्श को पाया जा सकता है।
राजू- तो आप हमें उसी सम्पूर्ण और आदर्श विधि को क्यों नहीं बताते , इन अपूर्ण विधियों को अपना कर हम क्यों उलझें ?
बाबा- हम तो वास्तव में उस सम्पूर्ण पद्धति को ही अच्छी तरह समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु वर्तमान में प्रचलित इन सभी विधियों से परिचय कराने का उद्देश्य केवल यह है कि इन पर एक बार चिंतन कर यह समझ लिया जाय कि इनमें दार्शनिक और व्यावहारिक स्तर की क्या कमी है जिससे बाद में हमारी गति में ये किसी प्रकार की बाधा या भ्रम उत्पन्न न कर सकें।
नन्दू- लेकिन अब तो हमें वर्तमान में प्रचलित सभी पद्धतियों के कमजोर पक्षों का पता चल ही गया है अतः अब क्या उसी आदर्श और सम्पूर्ण पद्धति पर चर्चा करना उचित नहीं होगा?
बाबा- हाॅं बिलकुल। ‘अष्टाॅंगयोग‘‘ का अर्थ है योग की वह पद्धति जिसके आठ स्तर होते है। ‘अष्ट‘ का अर्थ है आठ और ‘अंग‘ का अर्थ है भाग या स्तर। यदि इन आठों स्तरों पर सही ढंग से अभ्यास किया जाता है तो बहुत ही कम समय में वाॅंछित उपलब्धि प्राप्त हो जाती है। अब तुम लोग इन आठों स्तरों को ठीक ढंग से समझ लो और फिर नियमित रूपसे उनका अभ्यास करने में जुट जाओ।
इसके आठ स्तर क्रमशः ये है:- 1 यम, 2 नियम, 3 आसन, 4 प्रणायाम, 5 प्रत्याहार, 6 धारणा, 7 ध्यान, और 8 समाधि। इनका क्रमानुसार नियमित अभ्यास करने पर लगातार प्रगति करते हुए समाधि के स्तर पर आत्मसाक्षात्कार होता है। पहले जिन जिन पद्धतियों की चर्चा की गयी है उनके मूलतत्व इन्हीं आठ स्तरों पर यथोचित ढंग से जुड़े हुए हैं ।
इन्दु- तो इन आठों भागों को जल्दी से समझा दीजिये जिससे हम आज से ही उनका पालन करने लगे?
बाबा- हाॅं ठीक कहा परंतु इन्हें जल्दी जल्दी समझने की गलती न करना, इन्हें एक एक कर ढंग से हृदय में बैठाना होगा फिर उनका पालन करने में कोई कठिनाई नहीं जायेगी । इसके पहले स्तर ‘यम‘ को ही पाॅंच भागों में बाॅंटा गया है, वे हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हें अलग अलग ठीक ढंग से समझ लो-
अहिंसा- इसका अर्थ है मन, कर्म और वचन से किसी भी प्राणी को शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट न देना। प्राणी से तात्पर्य है जिसमें भी जीवन है अर्थात् पेड़ पौधे भी उसी में सम्मिलित हैं। अर्थात् न तो मानसिक न वाणी और न शारीरिक रूपसे ऐंसा कोई कार्य करेंगे जिससे किसी को किसी भी स्तर पर कष्ट पहुंचे।
राजू- यह तो बड़ा ही कठिन है, इसे शतप्रतिशत व्यवहार में नहीं लाया जा सकता?
बाबा- इसी लिये तो कहा है कि जल्दी जल्दी में कुछ समझ में नहीं आयेगा, अब अहिंसा के पालन करने का व्यावहारिक पक्ष समझ लो। तुम लोग सोच सकते हो कि इस प्रकार तो सभी का जीना ही मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि खेती बाड़ी करने वालों से तो इसका पालन हो ही नहीं सकता, उन्हें तो पेड़ पौधों और प्राणियों की हिंसा करना पड़ेगी। तो फिर क्या किया जाये क्योंकि खेती न करने पर तो किसी को भी भोजन नहीं मिलेगा? इतना ही नहीं हमारे शरीर की त्वचा के सैल हमारी गतिविधियों से मरते रहते हैं, श्वास के साथ वायु और वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म वेक्टेरिया मरते हैं, अनेक ऐंसे भी हैं जो हमारे भोजन को पचाने और उसे अन्य रूपान्तरण करने में सहायक होते हैं इसलिये मरते रहते हैं। और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिससे लगता है कि इस अहिंसा का पालन तो संभव ही नहीं है। यहाॅं अहिंसा को पालन करने के लिये हमें ‘वैष्णवाचार‘ का सिद्धान्त सहायक होता है, ‘‘वह यह कि यह सभी कुछ ‘द्रश्य अथवा अद्रश्य ‘ उस परमसत्ता की ही विचार तरंगें हैं, वह प्रत्येक परमाणु में ओत प्रोत है इसी लिये वह विष्णु है‘‘ अतः यदि प्रत्येक छोटे बड़े कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व हम "ब्रह्म भाव" धारण कर लें तो अहिंसा की श्रेणी में नहीं आयेंगे और कर्म बंधन से मुक्त रहेंगे। यथा खेतों में हल चलाते समय मन में यह भावना द्रढ़ करना होगी कि ब्रह्म रूपी खेतों में बीजारोपण का ब्राह्मिक कार्य किया जा रहा है। आदि।
परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि कोई भी हमारे जीवन को क्षति पहुंचाने के उद्देश्य से हम पर आघात करता है तो हम आत्म रक्षा नहीं करेंगे, वरन् ब्राह्मिक भाव लेते हुए हम ‘‘शाक्ता चार ‘‘ का पालन करेंगे, जिसमें अपनी पूरी शक्ति से उस नकारात्मकता के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। हमारे छः प्रकार के शत्रुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) और आठ प्रकार के बंधनों( भय, लज्जा, घृणा, शंका, जुगुप्सा, कुल, शील और मान) को काटने के लिये हमें शाक्ताचार का सहयोग लेना ही पड़ेगा। इस तरह अहिंसा का व्यावहारिक पालन करने के लिये संयुक्त रूप से यथा समय वैष्णवाचार और शाक्ताचार का प्रयोग करने पर कर्म बंधन हमें नहीं बाॅंध पायेगा।
राजू- बाबा! इस अष्टाॅंग योग के पहले भाग के केवल पाॅंचवें हिस्से ने ही इतना भयभीत कर दिया है कि आगे की कल्पना करने से ही डर लगने लगा है?
बाबा- नहीं, ऐंसा बिलकुल नहीं है, सही ढंग से समझ लेने पर सब कुछ सरल हो जाता है। अब, इसके आगे आता है ‘‘सत्य‘‘ । सत्य का अर्थ है जो कभी बदलता नहीं हो वह। इसे निर्पेक्ष सत्य कहते हैं। परमपुरुष ही केवल निर्पेक्ष सत्य हैं। हम सभी इस जगत में स्थान और समय से बंधे हैं अतः हमें सापेक्षिक सत्य से ही काम लेना पड़ता है। सापेक्षिक सत्य स्थान, समय और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित हो जाता है। किसी की प्राण रक्षा करने में , व्यापक समाज हित में बोला गया असत्य भी सत्य ही माना जाता है। एक ही कार्य किसी के लिये सत्य और किसी के लिये परिस्थितियों वश असत्य हो जाता है। इसलिये निस्वार्थ, सार्वजनिक हित और कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए ही प्रत्येक कार्य करने का निर्देश है। इसके आगे है ‘‘ अस्तेय‘‘ । इसका अर्थ है बिना अनुमति के किसी की कोई भी वस्तु न लेना, अर्थात् चोरी न करना। यहाॅं ध्यान रखने योग्य यह है कि किसी की कोई वस्तु के संबंध में मन में अपवित्र विचार आना भी अस्तेय के विरुद्ध ही आता है। इसलिये विचारों का सात्विक बनाये रखना सदा ही वाॅंछनीय होता हैं। इसके बाद आता है ‘‘ब्रह्मचर्य‘‘ जिसका अर्थ है सदा ही ब्राह्मिक भाव में बने रहना, उसी में विचरण करना। सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश हैं । इसके बाद यम का अंतिम पद होता है ‘‘अपरिग्रह‘‘ जिसका अर्थ है आवश्यकता से अधिक वस्तुओं या धन का संग्रह न करना।
इंदु- बाबा! सावधानी से देखा जाय तो, यदि सभी लोग केवल ‘‘यम‘‘ के पाॅंचों भागो का ही पालन ईमानदारी से करने लगें तो समाज की नब्बे प्रतिशत समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं?
बाबा- क्यो नहीं ? यह व्यवस्था ऋषियों ने लंबे शोध के उपरान्त ही बनाई है लेकिन लोभियों और स्वार्थ पीडि़त लोगों ने ही इसमें अनेक विसंगतियाॅं और विकृतियाॅं बना दी हैं।
राजू- अष्टाॅंगयोग का दूसरा स्तर क्या है बाबा! क्या वह भी इतना ही क्लिष्ट है?
बाबा- हाॅं, दूसरा स्तर है ‘‘नियम‘‘ इसके भी पाॅंच अवयव हैं। ये हैं, शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वर प्रणिधान। ‘‘शौच‘‘ का अर्थ है शरीर और मन दोनों की सफाई रखना। शरीर को तो साबुन और पानी से साफ कर लेते हैं परंतु मन को साफ रखने के लिये पवित्र विचारों को सदैव मन से चिंतन करते रहना होता है, जिसमें ब्राह्मिक भाव लिये रहने पर मन स्वच्छ बना रहता है। यदि कभी परिस्थितियों वश कलुषित विचार आ भी जायें तो तत्काल ब्राह्मिक भाव आरोपित कर उन्हें उदासीन करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसके बाद है ‘‘संतोष‘‘ अर्थात् प्रत्येक अच्छी या बुरी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में मन में संतुलन बनाये रखना, किसी भी प्रकार से मन को उद्विग्न और उद्वेलित न होने देना। इसके आगे है ‘‘स्वाध्याय‘‘ अर्थात् सद् साहित्य का अध्ययन करते रहना, जब भी थोड़ा सा समय मिले उसका सदुपयोग सद्साहित्य को पढ़ने में ही लगाना। अगला नियम है ‘‘तप‘‘ अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति में मन और वाणी पर संयम बनाये रखने का अभ्यास करना। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि असामान्य परिस्थितियाॅं निर्मित कर शरीर को कष्ट देना ( जैसे कुछ लोग हठ पूर्वक एक पैर पर खड़े रहनें या आग के सामने शरीर को तपाने , पानी में डूबे रहने आदि को तप कहते हैं) । और अंतिम नियम है ‘‘ईश्वर प्रणिधान‘‘ अर्थात् ‘इष्टमंत्र‘ की सहायता से ‘इष्टचक्र‘ पर आघात कर उसे सक्रिय करना। इसे अष्टाॅंगयोग के प्रतिष्ठित आचार्य ही सिखाते हैं। इसे दोनों समय नियमित रूप से करना होता है जिससे आगे के स्तरों पर जाने में सरलता मिलती है। यह शैवाचार के अन्तर्गत आता है।
(-अगले स्तरों पर चर्चा क्रमशः दूसरे भाग में अगली क्लास में देखिये -)