Sunday, 28 August 2016

80 बाबा की क्लास (शिव . 5)

80  बाबा की क्लास (शिव . 5)
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रवि- काली के संबंध में आपने बताया परंतु वर्तमान में पार्वती और दुर्गा को एक समान मानने वालों की कमी नहीं है, इस पर आपका क्या मत है?
बाबा- शिव के परिवार से संबंधित अनेक अतार्किक कहानियाॅं जोड़ी जाती रहीं हैं जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। पार्वती को ही लें, इसके शाब्दिक अर्थ को पर्वतराज हिमालय की पुत्री के रूप में समझा जाता है जबकि क्या एक पहाड़ मानव कन्या को जन्म दे सकता है? नहीं। वास्तव में हिमालयन क्षेत्र में राज्य करने वाले आर्यन राजा दक्ष की पुत्री जिनका नाम गौरी था वही पार्वती अर्थात् ‘‘पर्वत देशीया कन्या‘‘ कहलाती थीं। आर्यों और भारत के मूल निवासियों जिन्हें आर्य लोग प्रायः अनार्य, दानव, असुर, दास, शूद्र आदि कहते थे, के बीच हमेशा  झगड़े हुआ करते थे। इसके पहले  मैंने तुम लोगों को स्पष्ट किया है कि तत्कालीन भारत के मूल निवासी आस्ट्रिको.मंगोलो.नीग्रोइड नस्ल के थे जिनकी अपनी संस्कृति थी और तंत्र विज्ञान तथा चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ये बहुत उन्नत थे। शिव, भारत के मूल निवासी थे। शिव की प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्वती ने उन्हें अपने पति के रूप में पाने की इच्छा की पर पिता को अनार्य से संबंध बनाना मान्य नहीं था। पार्वती ने शिव को पाने के लिये राजमहल त्यागकर जंगल में वनवासी कन्याओं की तरह पत्तों के वस्त्र पहिन कर तपस्या प्रारंभ कर दी। पत्तों को संस्कृत में पर्ण कहते हैं और वनवासिनी कन्यायें शिवरी कहलाती हैं। अतः उनका नाम पर्णशिवरी हो गया। पार्वती की तपस्या सफल होने पर शिव ने उनसे विवाह किया परन्तु पार्वती वही पत्तों के वस्त्र पहना करतीं थीं, बाद में राज्य के सम्मानितों के अनुरोध पर उन्होंने राजसी वस्त्र स्वीकार कर लिये, इसके बाद उनका नाम अपर्णा हो गया।

इंदु- तो क्या शिव और पार्वती के विवाह के बाद आर्यों  और अनार्यों की लड़ाइयाॅं बंद हो गई थीं?
बाबा- शिव से पार्वती का विवाह हो जाने के बाद लोगों ने सोचा था कि आर्यों और अनार्यों के संबंध सुधर जावेंगे पर यह संभव नहीं हुआ वरन् राजा दक्ष हमेशा  शिव का विरोध करते और अपमान करने का अवसर ढूंडते रहते थे। किसी अवसर पर उन्होंने यज्ञ किया जिसमें उन्होंने शिव को आमंत्रित ही नहीं किया। पार्वती यज्ञ में शिव के बिना अकेले ही जा पहुॅंचीं जहाॅं उन्होंने शिव का अपमान देखकर अपने आपको यज्ञ की अग्नि में जला डाला। इसके बाद से आर्यों और अनार्यों के परस्पर संबंध कुछ सुधर गये। इन गौरी या पार्वती का पौराणिक देवी दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। दुर्गा मार्कंडेय पुराण की आठ और दस हाथों वाली काल्पनिक देवी हैं, मात्र 1300 या 1400 वर्ष पुरानी । जबकि पार्वती मानव कन्या हैं दो हाथ वाली और 7000 वर्ष पुरानी। पौराणिक काल में दुर्गा को शिव से जोड़ दिया गया अन्यथा उन्हें मान्यता कैसे मिल पाती।

राजू- परंतु कुछ विद्वान तो दुर्गा को वेदों के द्वारा मान्यता प्राप्त मानते हैं?
बाबा- वेदों में भी दुर्गा के पूजन की कोई विधि वर्णित नहीं है । दुर्गा को वेदों की मान्यता देने के लिये देवीसूक्त की हेमवती उमा का उल्लेख किया जाता है परंतु इनका गौरी , पार्वती या  दुर्गा से कोई संबंध नहीं है। इसका कारण है  समय का अंतर। लोग गलती से उस संबंध को माने हुये हैं।

नन्दू- एक बार आपने बताया था कि शिव ने ही सबसे पहले विवाह नामक संस्था की संकल्पना दी और उन्होंने तत्कालीन लड़ते रहने वाली समाजों को एकीकरण करने के लिये तीन विवाह किये?
बाबा- हाॅं।  शिव की दूसरी  अनार्य पत्नी जिनका नाम था कालिका या काली  और तीसरी  मंगोलियन पत्नी जिनका नाम गंगा था, अवश्य  थी। आर्यों के भारत में आने के बाद आर्य, अनार्य या द्रविड़ और मंगोलियन सभ्यता के लोगों में परस्पर होने वाली लड़ाइयों को समाप्त करने के लिये शिव ने तीन विवाह किये। सच्चाई यही है कि विवाह और परिवार नाम की संकल्पना को शिव ने ही मूर्तरूप दिया और पुरुषों को परिवार के पालन पोषण की जिम्मेवारी दी तथा समाज में प्रथम विवाहित पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हुए। शिव के पहले यह सामाजिक नियम नहीं था।

इंदु- परंतु काली और गंगा के संबंध में भी लोग अनेक विचित्र कहानियाॅं सुनाते हैं जैसे गंगा को सिर पर रखना? काली को शिव की छाती पर पैर रखे खड्ग और मुंड लिये दर्शाना?
बाबा- काली और गंगा के संबंध में भी अनेक कथायें प्रचलित हैं पर सत्य की पहचान करना चाहिये अतार्किक कल्पनाओं को छोड़ देना चाहिये। शिव की आर्य  पत्नी गौरी या पार्वती से एक पुत्र ‘भैरव‘, दूसरी द्रविड़  पत्नी काली से एक पुत्री ‘भैरवी‘ और तीसरी मंगोल  पत्नी गंगा से एक पुत्र ‘कार्तिकेय या षडानन‘, हुए। भैरव और भैरवी दोनों ही तंत्र विज्ञान में प्रवीण होकर प्रगति कर रहे थे जबकि कार्तिकेय भौतिक जगत में ही रुचि लेने लगे थे। शिव के द्वारा सिखाई गयी तंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान  में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान  में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्।‘‘ अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम कावेरी हो गया। गंगा को अपने पुत्र की प्रगति की बड़ी चिन्ता थी क्योंकि वह भौतिकवादी होते जा रहे थे। शिव उनकी चिन्ता दूर करने के लिये उन्हें समझाते और इसी कारण उनकी प्रत्येक बात को काली अथवा गौरी की तुलना में अधिक महत्व देते थे, इस पर लोग विनोदवश  कहा करते कि शिव ने तो गंगा को अपने सिर पर बैठा रखा है। इन घटनाओं को पुराणकार ने क्रमशः  काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ वाहर निकाले हुये वर्णित किया, और गंगा को नदी के रूप में शिव के जटाओं में से बहते दर्शाया  है कितना आश्चर्य  है। स्पष्ट है कि पौराणिककाल की काल्पनिक चार हाथों वाली देवी दुर्गा अथवा आठ हाथों वाली कालिका से शिव का कोई संबंध नहीं है।

नन्दू- शिव अपने कार्यकाल में आर्यों, मंगोलियनों और द्रविड़ों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित करने में कितने सफल हुए, क्या आर्यों ने उन्हें मान्यता दी ?
बाबा- जब किसी के व्यक्तित्व से उसका आदर्श  झलकने लगता है तो वह देवता के समान पूजनीय हो जाता है। अन्य सभी उसके आचरण के अनुयायी हो जाते हैं। शिव अपने समय के अंतिम कालखंड में देवों के देव महादेव के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। आर्य, अनार्य सभी उनकी भव्यता, सरलता और देवत्व के गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के कारण अपने भेदभाव भूल गये और परस्पर सौहार्द से रहने लगे थे। वैदिक देवताओं के साथ आर्य भी शिव को एक देवता की तरह पूज्य मानने लगे और उन्हें वेदों में मान्यता दी गई। शिव अपने कार्यकाल में जनसामान्य के इतने निकट थे कि कोई भी छोटी बड़ी समस्या को हल करने के लिये वे हर समय उनके पास होते थे। यही कारण है कि उस समय उनका कोई बीजमंत्र नहीं था, परंतु वेद में और तंत्र में, प्रत्येक विशेष देवता को उसके वीजमंत्र से ही पूजा जाता है। अतः शिव को वेद में ‘म‘ बीज मंत्र दिया गया और स्पष्ट किया गया कि शिव रूपान्तरण के देवता हैं, ‘म‘ ट्रांस्म्युटेशन अर्थात् रूपान्तरण का बीज मंत्र है। शिव को वेदों में मान्य भले ही किया गया हो पर शिव ने वैदिक कल्ट का पालन कभी नहीं किया, वे हमेशा  तांत्रिक कल्ट का ही  पालन करते थे और अन्य लोगों को भी उसी अनुसार चलने के निर्देश  देते थे।

रवि- वैदिक कल्ट और तान्त्रिक कल्ट में क्या अन्तर है?
बाबा- वैदिक नब्बे प्रतिशत सैद्धान्तिक और दस प्रतिशत व्यावहारिक है जबकि तन्त्र नब्बे प्रतिशत व्यावहारिक और दस प्रतिशत सैद्धान्तिक है।

Sunday, 21 August 2016

79 बाबा की क्लास ( शिव. 4)

79  बाबा की क्लास ( शिव. 4)

रवि-  शिव आज से सात हजार वर्ष पहले धरती पर थे और पौराणिक धर्म जिसने आज के समय में अपनी कहानियों से समाज को जकड़ रखा है तेरह सौ वर्ष पहले आया तो इस बीच के छै हजार वर्षों में क्या किसी ने शिव को याद नहीं किया?
बाबा- शिव तो जन जन के हृदय में महासंभूति के रूप में प्रारंभ से ही स्थापित हो चुके थे परंतु उनके बाद  लिपि के अनुसंधान हो जाने से भोजपत्र पर लिखना प्रारंभ हुआ और समय समय पर आये विद्वानों ने अपने अपने दार्शनिक सिद्वान्तों से लोगों का ध्यान बाॅंटना प्रारंभ कर दिया। इन विद्वानों में इतनी लंबी अवधि में क्रमशः महर्षि कपिल ने सांख्य, पतंजली ने योग, कणाद ने वैशेषिक, जैमिनी ने पूर्व मीमांसा, बादरायण व्यास ने उत्तर मीमांसा, इसी के समर्थन में गौड़पाद, गोविन्दपाद, शंकराचार्य आदि ने मायावाद, बृहस्पति अर्थात् चार्वाक ने भोगवादी सिद्धान्त, वर्धमान महावीर ने महानिर्वाणवाद या कर्मनिर्वाण , गौतमबुद्ध ने ज्ञाननिर्वाण, आदि का प्रतिपादन किया जिन से शिव के द्वारा दी गयी मूल शिक्षायें इनके आधार में नीव के पत्थर की तरह दबती चली गयीं और आज का प्रदर्शनवाद और भौतिकवाद लोगों के मन और मस्तिष्क में छा गया।

चंदू- क्या यह सभी सिद्धान्त आज कल प्रभावी हैं?
बाबा- भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म के प्रभावी होने के समय विभिन्न सिद्धान्तों और मतवादों को पौराणिक कल्ट में पांच विभागों में बाॅंट दिया गया वे हैं, शिवाचार, शाक्ताचार, वैष्णवाचार, सौराचार, और गणपत्याचार। तत्कालीन बंगाल के राजकुमार मत्स्येन्द्रनाथ, नाथ कल्ट के अनुयायी थे अतः इनके समय बौद्ध और जैन धर्म में उपरोक्त पांच  उपविभागों में बहुत परिवर्तन हुये। महाराष्ट्र में गणपत्याचार (गणेश  केन्द्रित), लगभग इसी समय बंगाल में शाक्ताचार (जिसमें पशु  बलि का विधान किया गया), दक्षिण भारत में शिवाचार और शेष भारत में वैष्णवाचार उदित हुआ। सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने सौराचार अपनाया क्योंकि वे सूर्य को ही प्रधानता देते थे और ज्योतिष का कार्य करते थे, ये लोग जहां भी रहे सूर्य मंदिर बनवाये। सूर्य देवता अफगानियों की तरह ढीले पाजामा जैकेट पहने सिर पर टोपी और हाथ में रोजरी लिये दिखाये गये हैं।

राजू- परंतु आज कल तो पौराणिक धर्म के सिद्धान्तों का ही बोलबाला है जिन्हें जगद गुरु  शंकराचार्य के द्वारा प्रतिपादित किया गया कहा जाता है और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना गया है?
बाबा-हाॅं बौद्ध और जैन धर्म का प्रभाव घटने और पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने के बीच के संधिकाल में शंकराचार्य का उद्भव हुआ जिन्होंने इन पांचों विभागों को एकीकरण करने का कार्य किया। इन्हें शिव का अवतार घोषित किया गया क्योंकि शिव के नाम बि ना उन्हें शायद महत्व कम मिलता। शिव का अवतार कहा जाना ही प्रकट करता है कि किसी भी नये सिद्धान्त को जनसामान्य से मान्यता दिलाने के लिये शिव से जोड़े बिना संभव नहीं है। शिव की दिव्यता इसी से सिद्ध हो जाती है।

नन्दू- परंतु ये सभी अपने अपने को श्रेष्ठ कहते हुए जन सामान्य के बीच मतभेद और वैमनस्य तो फैला रहे हैं, वे सभी अपने अपने धर्म प्रवर्तकों को ही देवता और भगवान कहते हैं?
बाबा- जब किसी का व्यक्तित्व और दर्शन  पूर्णतः एक समान हो जाते हैं तो वह देवता हो जाता है। ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मात् उदयते द्योतते दिवि, तस्मात् देव इति प्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।‘‘ अर्थात् ब्रह्मांड के नाभिक से उत्सर्जित होने वाले जीवन के अनंत आकार जो समग्र ब्रह्मांड में गतिशील हैं और प्रत्येक अस्तित्व के भीतर रहकर सबको प्रभावित करते हैं, देवता कहलाते हैं। इन प्रवर्तकों को इस परिभाषा के अनुसार जाॅंच करने पर यदि सही लगता है तो वे देवता कहला सकते हैं अन्यथा नहीं।  चूंकि शिव का आदर्श  उनके जीवन से विलकुल एकीकृत है अतः इस परिभाषा के अनुसार उन्हें देवता कहा जाना सार्थक है। परंतु शिव के व्यक्तित्व के अनुसार वह तो समग्र देवताओं के समाहार हैं अतः देवता शब्द तो उनके लिये बहुत छोटा लगता हैं, वे तो देवताओं के भी देवता हैं अतः  महादेव कहलाते  हैं।

इंदु- शाक्ताचार में तो केवल देवीशक्ति को ही प्रधानता दी गयी है?
बाबा- जब ब्रह्मांड के नाभिक से कोई रचनात्मक तरंग उत्सर्जित  होती है तो वह अपने संकोच विकासी स्वरूप के साथ विकसित होने के लिये प्रमुख रूप से दो प्रकार के बलों का सहारा लेती है। 1. चितिशक्ति 2. कालिकाशक्ति। वास्तव में पहला बल उसे आधार जिसे हम ‘‘स्पेस‘‘ कहते हैं, देता है और दूसरा बल ‘‘टाइम‘‘ अर्थात् कालचक्र में बांधता है, इसके बाद ही उस तरंग का स्वरूप आकार पाता है। ध्यान रहे इस कालिकाशक्ति का तथाकथित कालीदेवी से कोई संबंध नहीं है, काल ( eternal time factor ) के माध्यम से अपनी क्रियाशीलता बनाये रखने के कारण ही इसे कालिकाशक्ति नाम दिया गया है।

चंदू- तो ये काली देवी क्या हैं?
बाबा- शिव की तीन पत्नियों में से एक का नाम काली अवश्य था जो अस्ट्रिको मंगोलो नीग्रोइड अर्थात अनार्य  कन्या थी और उनका वैसा आकार नहीं था जैसा आज कल दिखाया जाता है। शिव के साथ जुड़े तथाकथित देवी देवता पश्चातवर्ती  हैं, 7000 वर्ष पहले वे शिव के समय नहीं थे। वैदिक काल में इंद्र, अग्नि, वरुण आदि को देवता कहा गया है परंतु मूर्तियों द्वारा उनकी पूजा नहीं की जाती थी, यज्ञाहुतियों में ही आर्य उन्हें स्मरण करते थे। परमब्रह्म की भी मूर्ति के रूप में पूजा नहीं होती थी। वेद में कहा गया है ईश्वरस्य  प्रतिमा नास्ति। प्रतिमा का अर्थ है ‘‘डुपलीकेट‘‘ अर्थात् मूल आकार के समान। चूंकि परमपुरुष के समान अन्य कोई चीज है ही नहीं अतः उसकी मूर्ति हो ही नहीं सकती। शिव के समय अनेक कालशक्तियां स्वीकृत थीं पर मूर्तियां नहीं । शिव के बहुत बाद जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव में विभिन्न देवी देवताओं और उनकी मूर्तियों को बनाया जाने लगा। शिवोत्तर काल में ही  बुद्ध और जैन तंत्र के प्रभाव से शिवतंत्र का रूपान्तरण हुआ है।

रवि- परंतु बौद्ध धर्म तो अनेक देशों में आज भी बहुत प्रभावी है?
बाबा- हाॅं बुद्ध के 300 वर्ष बाद बौद्ध धर्म दो भागों में 1. महासंघम 2. स्थाविरवादी या थेरावादी में बंट गया। इसके कुछ समय बाद एक भाग और हुआ जिसे सम्मितीय कहा गया पर वह अधिक नहीं टिक पाया। महासंघिक  अपने को महायानी और थेरावादी हीनयानी कहने लगे। महायानी, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, अफगानिस्तान, कश्मीर , नेपाल, भूटान, सिक्किम, नेफा, दक्षिणपूर्व रूस, जापान, कोरिया आदि में फैल गये, इनका साहित्य सामान्य संस्कृत में है जबकि बुद्ध ने अपने उपदेश  पाली भाषा में दिये हैं। हीनयानी, श्रीलंका, चिटगांव, बंगाल, वर्मा, इंडोनेशिया, थाइलेंड, फिलीपीन आदि में फैल गये इनका साहित्य मगधी प्राकृत अर्थात् पाली में है। इसके कुछ समय बाद महायानी दो भागों में बंट गये 1.मंत्रयान 2.तंत्रयान। इसी समय लोगों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अनेक नये बौद्ध देवी देवताओं की रचना की गई। इसके बाद तंत्रयान भी कालचक्रयान और वज्रयान दो भागों में बंट गया।

राजू- बौद्ध धर्म के लगातार विभाजन होते रहने का कारण क्या है?
बाबा- इसके पीछे कारण यह था कि बुद्ध ने अपने दर्शन  में दुखवाद को स्थान दिया, जैसे दुख है, दुख का कारण है, दुख दूर होता है, दुख से दूर होने के उपाय हैं, आदि आदि। इस कारण से लोगों में इसमें अरुचि उत्पन्न होने लगी अतः भौतिक जगत के आकर्षण और वस्तुएं प्रदान करने वाले देवी देवताओं की कल्पना की गई और उनके लिये पूजा की विधियां कल्पित की गईं । इस तरह, बुद्ध के शून्यवाद को अतिसुखवाद में परिवर्तित कर दिया गया और कहा गया कि वोधिसत्व अवस्था में बुद्ध आपको संसार के सभी सुखों को देंगे।

नन्दू- लेकिन बौद्ध भी तो शक्तियों को मानते हैं?
बाबा- हाॅं, लोगों को यह बताया गया कि वोधिसत्व अवस्था, आत्मसाक्षात्कार के थोड़े पहले की अवस्था है, इसे पंच बुद्धशक्तियों से जोड़ा गया और अक्षोभ्य, अमोघसिद्धि, अमिताभ, वैरोचन और ध्यानीबुद्ध नाम दिये गये। वोधिसत्व को, बुद्धत्व की ओर बढ़ता हुआ या बुद्धत्व प्राप्त व्यक्ति जिसने स्वेच्छा से वाह्य संसार से अपना संबंध बनाये रखा है, के अर्थ में प्रचारित किया गया। प्रारंभ में बुद्धशक्तियां  पांच थीं परंतु समयानुसार इनकी संख्या बढ़ती गई। भारत में उग्रतारा, चीन में भ्रामरीतारा, तिब्बत में वज्रतारा, वज्रयोगनी, वज्रवाराही आदि नामों से इन बुद्धशक्तियों को प्रचारित किया गया। बाद में इनके साथ हारिति, मारिचि, शीतला, मनहार जैसी वैदिक देवियों को भी जोड़ दिया गया। इस तरह परस्पर अनेक देवीदेवताओं का आदान प्रदान शिवोत्तरकाल में होता रहा और लौकिक देवीदेवता जैसे मंगला चंडी, औलाई चंडी, बानबीबी, शंकराचंडी, सुवाचनी, भी जोड़ दी गईं और भय के कारण लोग अंधश्रद्धालु होकर पूजने लगे। पौराणिक काल में भी इन में से अधिकांश  को मान्यता दे दी गई। वास्तव में शिव की फिलासफी और पर्सनालिटी एक समान थी, उनके असाधारण व्यक्तित्व, क्रियाशीलता और कार्य करने की जादुई क्षमता ने उन्हें देवों का देव महादेव बना दिया । इसी कारण वे शिवोत्तर तंत्रकाल तक महादेव ही रहे। जैन और बौद्ध तंत्र काल ने इनकी मूर्ति पर अपना अपना प्रभाव डाला और नया आकार दे दिया। पौराणिक काल में इन्हें जनेऊ पहनाया गया जबकि शिव अपने काल में सर्पो की माला ही पहनते थे। स्पष्ट है कि इन कल्पित देवी देेवताओं की मान्यता नहीं हो पाती यदि उन्हें कहानियों के द्वारा शिव से संबंधित न किया जाता ।

Sunday, 14 August 2016

78 बाबा की क्लास ( शिव -3 )

78 बाबा की क्लास ( शिव -3 )
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राजू- बाबा ! आपने बताया है कि शिव ने वैद्यकशास्त्र में धनवन्तरि को प्रशिक्षित कर जनसामान्य को स्वस्थ रखने के लिये उन्हें इसका प्रचार प्रसार करने का कार्य सौंपा परंतु, शिव से पहले वेदों में भी तो आयुर्वेद का उल्लेख पाया जाता है? तो वैद्यक शास्त्र और आयुर्वेद में क्या भिन्नता है?
बाबा- हाॅं, शिव से पूर्व वैदिक काल में आर्युवेद अर्थात् मुष्टियोग प्रचलित था, पर व्यवस्थित नहीं था। शिव ने तंत्र आधारित वैद्यकशास्त्र की रचना की और धन्वन्तरी को इसमें प्रशिक्षित कर इसके प्रचार प्रसार का कार्य सौंपा। वैदिक आयुर्वेद में सर्जीकल कार्य की, कहीं भी उल्लेखनीय प्रगति नहीं पाई जाती है।

रवि- तो क्या शिव के वैद्यकशास्त्र में सर्जरी का उल्लेख पाया जाता है?
बाबा- हाॅं, शिव ने अपने वैद्यकशास्त्र में सर्जीकल आपरेशन्स की विधियाॅं पहले ही समझा दी थीं, क्योंकि वैद्यकशास्त्र और चिकित्सा विज्ञान को उन्होंने अपने कार्यकाल में ही व्यवस्थित किया था। इसी कारण भारत के मूल निवासी शवपरीक्षण और सर्जरी से पूर्व से ही परिचित थे परंतु आर्यों के भारत आगमन के बाद इन मूल निवासियों को उन्होंने अस्पृश्य  माना क्योंकि वेदों में मृत देह का स्पर्श  करना अछूत  माना गया है।

इंदु- परंतु आधुनिक आयुर्वेद में तो शल्यक्रिया विज्ञान पढ़ायी जाती है, वह कहाॅं से आयी?
बाबा- सेक्डोनियन ब्राह्मण शिव के 6000 वर्ष  बाद भारत आये जिन्होंने आयुर्वेद में सर्जरी को जोड़कर उसे उन्नत किया ।

चंदू- लेकिन सेकडोनियन ब्राह्मण कहाॅं से आये और भारत में क्यों आये?
बाबा- सेंट्रल एशिया के सेक्डोनिया से ब्राह्मणों का एक दल आया जिसने इस क्षेत्र में सर्जरी का प्रचार किया। सेक्डोनिया को संस्कृत में शाकद्वीप या शाकलद्वीप कहते हैं, वर्तमान में इसका नाम ताशकंद है। चूंकि सेक्डोनियन ब्राह्मणों ने इस्लाम को अस्वीकार कर दिया था अतः उन्हें अपना घर छोड़कर समुद्री मार्ग से पश्चिम  भारत आना पड़ा।

रवि- सेक्डोनियन ब्राह्मणों के पास और कौन सा ज्ञान था जिससे उन्हें भारत में मान्यता मिली?
बाबा-  वे,  अपने साथ लोंग और हस्तरेखा ज्ञान लाये। संस्कृत में लोंग का समानार्थी लवंग, देवकुसुम या वारिसंभव है। वारिसंभव का अर्थ है जो समुद्र के उस पार से लाया गया है। इसी प्रकार हस्तरेखा ज्ञान को सामुद्रिक शास्त्र कहा जाता है क्योंकि वह भी समुद्र के उस पार से आया है।

इंदु- लेकिन बाबा! आपने एक बार समझाया था कि कृष्ण के कार्यकाल में जरासंध नाम के राजा का जन्म सर्जीकल आपरेशन से ही हो पाया था, वह तो सेक्डोनियन्स के आने के पहले की घटना है?
बाबा- हाॅं यह सत्य है कि कृष्ण के काल में ‘जरा‘ नाम की महिला शल्य चिकित्सक ने जरासंध का जन्म कराया था इसीलिये उनका नाम ‘जरासंध‘ अर्थात् " जिसे जरा के द्वारा सिल गया है", रखा गया। वास्तव में शिव के कार्यकाल से ही भारत के मूल निवासी शल्य क्रिया में प्रवीण हो गये थे परंतु जैसा अभी मैं ने कहा कि  वे लोग शव परीक्षण किया करते थे और आर्य उन्हें अस्प्रश्य मानते थे तथा इसे राक्षसी विद्या कहा करते थे। इसीलिये वे सदैव घृणा से देखे जाते रहे और राक्षस कहलाते हुए अपने सीमित क्षेत्र में इस विद्या को उन्नत करते रहे। तुम लोग शायद जानते हो कि  इस विद्या में पारंगत  अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या, जिसे आजकल हिप्नोटिज्म कहते हैं,  का जानकार  उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है। विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था।

चंदू- लेकिन पौराणिक ग्रंथों में तो राक्षसों और ब्राह्मणों का विवरण दूसरे प्रकार से मिलता है?
बाबा- पौराणिक धर्म तो आज से 1300 वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। जिन लोगों ने इसे स्वीकार किया उन्होंने प्रयाग में एक सम्मेलन किया जिसमें ब्राह्मणों की मान्यता संबंधी मानदंड निर्धारित किये गये। पौराणिक धर्म अपनाने वाले जिन्होंने वेदों की सर्वोत्तमता स्वीकार की, भले ही वे उनके निर्देशानुसार चलते हों या  न चलते हों, उन्हें ब्राह्मण कहा गया। भारत के मूल निवासी जो शवपरीक्षण करते थे उन्हें ब्राह्मण नहीं माना गया भले ही वे कितने ही सदाचार से रहते हों।

रवि- प्रयाग सम्मेलन में तत्कालीन भारत के किन किन क्षेत्रों के ब्राह्मणों को ब्राह्मण के नाम से मान्यता दी गयी?
बाबा- प्रयाग सम्मेलन में उत्तर भारत के 5 वर्ग अर्थात् पंचगौड़ी ;पंजाब के सारस्वत, कश्मीर , दक्षिण रूस, अफगानिस्तान और राजस्थान के गौड़, पश्चिम  उत्तरप्रदेश और मिथिला के मैथिल और गुजरात के नागर ,  और 5 वर्ग दक्षिण भारत के अर्थात् पंचद्रविड ;उत्कल, तैलंग, द्रविड, कर्नाट और चित्पावन ब्राह्मण, को ब्राह्मण के रूप में मान्य किया गया। बंगाल के राढ़ी, वारेंद्र, केरल के नंबूदरी, कौकण के गौड़सारस्वत, मगध के क्रोंचद्वीपी, पश्चिम  विहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश  के सरयूपारी ब्राह्मणों को इस सम्मेलन में मान्यता नहीं दी गयी। सेक्डोनियन ब्राह्मण इस सम्मेलन के बहुत बाद भारत आये, इनमें से जो ज्योतिष और आयुर्वेद जानते थे उन्हें ब्राह्मण माना गया, पर बंगाल के वैद्यकशास्त्र के जानकार यद्यपि चिकित्सा के क्षेत्र में भले ही आगे थे पर उन्हें ब्राह्मण के रूप में मान्य नहीं किया गया।

राजू- जब पौराणिक काल आज से 1300 वर्ष पहले ही आया तो  शिव तो इसके भी  6000 वर्ष पहले आये थे तो इसके बीच के कार्यकाल की इतनी लंबी अवधि में क्या क्या परिवर्तन हुये हैं उसे बता सकते हैं?
बाबा- शिव के बाद कृष्ण का कार्यकाल रहा परंतु इस पर विस्तार से अलग से चर्चा करेंगे। अभी शिव के बारे में चर्चा चल रही है तो उससे संबंधित जानकारी ही दिया जाना उचित होगा क्योंकि इतनी लंबी अवधि में भले ही अनेक महापुरुषों  जैसे कृष्ण, महावीर और बुद्ध के कार्यकाल आये परंतु शिव की शिक्षाओं को कोई भी अपने जीवन से पृथक नहीं कर सका और शैव धर्म ने भारतीय समाज में धरती के भीतर ही भीतर बहने वाले पानी की तरह अपना प्रभाव आन्तरिक रूप से बनाये रखा।

रवि- महावीर जैन और गौतम बुद्ध के कार्यकाल में शैव धर्म किस प्रकार प्रभावित हुआ?
बाबा- बौद्ध और जैन धर्म का वाह्य रूप लिये अभी भी बंगाल में शिव को केन्द्रित किये अनेक उत्सव मनाये जाते हैं जो भले ही शिव ने नहीं सिखाये जैसे, चरक अर्थात् चक्र- धर्मचक्र, गाजन अर्थात् गर्जन, झानयन आदि, परंतु ये सभी शिव के 5500 वर्ष बाद बुद्धोत्तर और जैनोत्तर काल में जनसाधारण के, शिव से जुड़े होने के कारण चलन में बने रहे। शैव धर्म के बाद बुद्ध और जैन धर्म का प्रभाव बढ़ा परंतु इनका दर्शनाधार  घटते जाने के कारण इसी बीच नया धर्म पौराणिक धर्म आया। अतः इस संक्रमणकाल में नयी संकल्पना लिये नये ‘‘कल्ट‘‘ ने बौद्ध योगाचार अर्थात् वज्रयान और पौराणिक धर्म जो शिवाचार कहलाया (भले ही वह शैव धर्म से संबंधित नहीं था) को संयुक्त करके इसे "नाथ धर्म" का नाम दिया । इसमें इसके प्रवक्ताओं के नाम के बाद नाथ लिखने की परंपरा बन गयी। इसका प्रभाव उत्तरप्रदेश , विहार, बंगाल आदि में हुआ। इससे न केवल शैव, वरन् बौद्ध और जैन धर्म भी प्रभावित हुये।

Monday, 8 August 2016

77 बाबा की क्लास ( शिव. 2 )

77 बाबा की क्लास ( शिव. 2 )

रवि- वे ऋषि गण कौन थे जो शिव से सबसे पहले प्रभावित हुए? क्या शिव ने उन्हें अपने सामाजिक उत्थान के कार्य में लगाया?
बाबा- वे ऋषि थे भरत, धनवन्तरि, विश्वकर्मा, नन्दी आदि। शिव ने इन्हें उनकी रुचि के अनुसार क्रमशः संगीत, वैद्यकशास्त्र, भवन निर्माण शिल्प अर्थात् स्थपत्य कला और कृषि तथा पशुपालन करने की विद्या में पारंगत किया और फिर जनसाधारण को सिखाने के कार्य में उन्हें लगा दिया।

इंदु- तो क्या संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य यह सब शिव की देन है?
बाबा- हाॅं, शिव ने निरीक्षण कर सात प्रकार के प्राणियों से संगीत के स्वरों को जोड़ा जैसे, मोर षड़ज, बैल ऋषभ, बकरा गंधार, घोड़ा मध्यम, कोयल पंचम, गधा धैवत्य, और हाथी निषाद। इनके प्रथम अक्षर लेकर स्वर सप्तक बनाया, सा रे ग म प ध नि आदि। इस प्रकार शिव ने समाज को संगीत  अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य दिया। उन्होंने श्वाश , प्रश्वाश  आधारित लय के साथ मुद्रा को जोड़ा और अनेक प्रकार की नृत्य मुद्राओं का अनुसंधान किया। वैदिक काल में छंद था पर मुद्रा नहीं, वैदिक ज्ञान के 6 भाग थे, छंद, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद या धनुर्वेद। उन्होंने महर्षि भरत को संगीत विद्या में प्रवीण कर इच्छुक व्यक्तियों को संगीत की शिक्षा का कार्य सौंपा।

नन्दू- वैदिक युग में तो बोलचाल में भी गेयता रहती थी, क्या उसमें भी छन्दों का उपयोग होता था?
बाबा- वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परम पुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक गायत्रीछंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं, यद्यपि प्रार्थना के रूप में वह सर्वोत्तम है।

राजू- शिव ने किस धर्म की स्थापना की?
बाबा- शिव ने ही सर्वप्रथम धर्म की अवधारणा को स्थापित किया जिसके अनुसार नैतिकता और आध्यात्मिक अभ्यास के द्वारा परम सत्ता को पाने की ललक ही वास्तविक धर्म है। तुम लोगों को शायद मालूम हो कि वेदों में किसी धर्म विशेष  का उल्लेख नहीं है, उनमें विभिन्न ऋषियों की शिक्षाओं का  संग्रह है अतः समय के अनुसार उनकी शिक्षायें बदलती रही हैं। ऋग्वेद का आर्ष धर्म अर्थात् ऋषियों का कथन यजुर्वेद से भिन्न है। मंत्रों का उच्चारण और जप क्रिया भी भिन्न भिन्न है। बंगाली यजुर्वेदी तथा गुजराती ऋग्वेदीय विधियों का पालन करते हैं।

चंदू- तो फिर शैव धर्म क्या है?
बाबा- आर्यों और अनार्यों की लड़ाई में अनार्यों को दास बनाकर उन्हें ‘ओम‘ शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिबंध लगाया गया था। महिलायें भी ओम के स्थान पर केवल नमः कह सकतीं थीं। शिव ने इस प्रतिबंध को हटाया और यज्ञों में पशुओं की आहुति देने का विरोध किया। उन्होंने अहिंसा तथा शांति का मार्ग बतलाया जो कि आर्यों के ‘ज्यो और सोसियो सेंटीमेंट‘ (geo and socio sentiments)  से ऊपर था। इसे ही शैव धर्म कहा गया है। विखरे हुये तंत्रयोग को उन्होंने एकीकृत किया और उसके व्यावहारिक पक्ष का महत्व समझाते हुये आव्जेक्टिव और सव्जेक्टिव संसार के वीच आदरर्श  संतुलन बनाने की व्यवस्था की। इसमें किसी भी वर्णजाति की अवहेलना नहीं की गई, शैव धर्म परमपुरुष के साथ प्रीति करने का धर्म है। इसमें कर्मकांडीय विधियों अथवा घी या प्राणियों की आहुतियों का कोई विधान नहीं है।

इंदु- लेकिन शिव के साथ असुरों अर्थात् राक्षसों और भूतों के समूह को दर्शाया जाता है, यह क्या है? शिव को भूतनाथ भी कहा जाता है?
बाबा- असुर कोई डरावनी सूरत के 50 फीट लंबे या बड़े बड़े नाखूनों और दाॅंतों  वाले अर्थात् ‘एबनार्मल‘ नहीं थे, ये सेंट्रल एशिया के असीरिया देश  के निवासी थे। ये अनार्य थे अतः आर्य इनसे घृणा करते थे और असीरिया के होने के कारण उन्हें असुर कहते थे। अभी भी पलामू जिले में इनकी समाज पाई जाती है। शिव ने इनकी रक्षा करने की जिम्मेवारी ली और अपने पास ही रखा और बताया कि सभी परमपुरुष की संताने हैं और सब को जीने का अधिकार है । वे लोग शारीरिक रूप से कमजोर और दुबले पतले होते थे इसलिये कहा जाने लगा कि शिव के आस पास तो भूत प्रेत रहते हैं। तुम लोग जानते हो कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं है। भूत का अर्थ है जो कुछ भी जड़ या चेतन भौतिक अस्तित्व में आया है वह भूत है, चूंकि शिव ने न केवल मनुष्यों वरन् पेड़ पौधों और पशुओं को भी संरक्षण दिया था अतः उन्हें आदर से लोग पशुपतिनाथ या भूतनाथ कहने लगे ।  शिव सबको आदर्श  जीवन जीने में सहायता करने के लिये सदा तत्पर रहते थे।

रवि- शिव का अन्य महत्वपूर्ण अनुसंधान क्या है?
बाबा- शि व ने जीवन का कोई भी क्षेत्र अनछुआ नहीं छोड़ा, उन्होंने देखा कि जीवन श्वास की आवृत्तियों से बंधा हुआ है। ये प्रतिदिन 21000 से 25000 तक होती हैं जो हर व्यक्ति में बदलती रहती हैं। मनुष्य की श्वास लेने की पद्धति, मन, बुद्धि और आत्मा पर प्रभाव डालती है। इडा, पिंगला, और सुषुम्ना स्वरों की पहचान और किस स्वर में जगत के किस कार्य को करना चाहिये  और आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान आदि कब करना चाहिये यह सब स्वरविज्ञान या स्वरोदय कहलाता है। शिव से पहले यह किसी को ज्ञात नहीं था, बद्ध कुंभक, शून्य कुंभक आदि इसी के अन्तर्गत हैं। उन्होंने बताया कि जब इडा सक्रिय होती है तो वायां स्वर, जब पिंगला सक्रिय होती है तो दांया स्वर और सुषुम्ना के सक्रिय होने पर दोनों नासिकाओं से स्वर चलते हैं। उन्होंने स्वर विज्ञान के नियमानुसार छंद और मुद्रा के साथ नृत्य करना सिखाया अतः इससे न केवल स्वयं करने वालों को वरन् दर्शकों  को भी लाभ पहुंचा।

राजू- क्या उन्होंने कोई ऐसी विधियों का भी अनुसंधान किया जिनसे प्राप्त होने वाला लाभ नृत्य, मुद्रा अथवा छंद से प्राप्त नहीं किया जा सकता?
बाबा- शिव ने अवलोकन किया कि मनुष्य शरीर में पायी जाने वाली अनेक ग्रंथियों को यदि उचित अभ्यास कराया जावे तो उनसे निकलने वाला हारमोन न केवल शरीर को वरन् आत्मा को भी लाभ देता है। परंतु कुछ ऐंसे ग्लेंड होते हैं जिन्हें नृत्य, मुद्रा और छंद से लाभ नहीं होता जैसे सोचना, याद करना आदि । अतः शिव ने तांडव नृत्य बनाया और पार्वती के सहयोग से महिलाओं के लिये कौषिकी नृत्य बनाया। तांडव में बहुत उछलना होता है, जब तक नर्तक जमीन से ऊपर होता है उसे अधिक लाभ मिलता है जमीन के संपर्क में आते ही यह लाभ शरीर में समा जाता है। अतः अधिक लाभ लेने के लिये अधिक देर तक जमीन से ऊपर रहना चाहिये। इस तरह छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य दिया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है।

इंदु- लेकिन ‘तांडव‘ को तो भयानक विनाश का समानार्थी बताया गया है?
बाबा- जिन्हें यथार्थता का ज्ञान नहीं है, वे इस प्रकार का प्रचार करते देखे गये हैं। ओखली और मूसल से जब धान से चावल निकाला जाता है तो वह बहुत उछलता है उसे ‘तंदुल‘ कहते हैं । तांडव नृत्य में भी बहुत उछल कूद करना पड़ती है। तांडव शब्द ‘तंदुल‘ से ही बना है। तुम लोगों को शायद ज्ञात हो कि संस्कृत में बिना पकाया गया चावल ‘तंदुल‘ तथा पकाया गया चावल ‘ओदन‘ कहलाता है। शुद्धोदन का अर्थ है जिसका पकाया गया चावल शुद्ध हो अर्थात् जो ईमानदारी से अपना भोजन कमाता हो। बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोदन था।

नन्दू- तांडव और कौशिकी नृत्यों से क्या लाभ हैं ? क्या सभी को इन्हें करना चाहिये?
बाबा- छंद, मुद्रा और ग्रंथियों के उचित तालमेल से तांडव नृत्य बनाया गया है जो ब्रेन के लिये एकमात्र भौतिक एक्सरसाईज है जिसका न तो भूतकाल में कोई विकल्प था और न ही भविष्य में कोई विकल्प है। सभी पुरुषों को इसे सीखकर अभ्यास करते रहना चाहिये इससे मन, शरीर और बुद्धि पर नियंत्रण करना सरल हो जाता है। कौशिकी में शरीर और मन के सूक्ष्म स्तरों को उचित पोषण मिलता है और उनकी क्रियाशीलता से मन बुद्धि और आत्मा के बीच सामंजस्य बनाये रखने में सरलता होती है। यह महिलाओं के लिये विशेष रूप से लाभदायी है।

इंदु- तो क्या तांडव पुरुषों और कौशिकी स्त्रियों के लिये निर्धारित है?
बाबा- पुरुष, तांडव और कौशिकी दोनो  का अभ्यास नियमित रूप से कर सकते हैं परंतु कौशिकी केवल महिलाओं के लिये ही है। शिव ने इसे पार्वती के सहयोग से महिलाओं के हारमोनिक असंतुलन से होने वाले रोगों को दूर करने के लिये बनाया था। महिलायें यदि कौशिकी का नियमित अभ्यास करती हैं तो वे सदा निरोग रहेंगी।

Monday, 1 August 2016


76 बाबा की क्लास (शिव .1)

मित्रो! बाबा की क्लास में अभी तक आपने आध्यात्म के विभिन्न सिद्धान्तों और तथ्यों पर तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या के माध्यम से अपना ज्ञानवर्धन किया है, अब आगे की क्लासों में हम वह विषय ले रहे हैं जिस पर जनसामान्य ही नहीं विद्वान मनीषियों को भी सच्चाई का पता नहीं है और केवल कुछ अविश्वसनीय कहानियों को सुना कर ही उनका अन्त करते पाये जाते हैं । वह विषय है ‘‘ भगवान सदाशिव ‘‘ के संबंध में सच्ची जानकारी। तथाकथित शिव भक्तों ने ‘‘ शिव‘‘ के द्वारा समाज को दिये गये योगदान को भुलाकर किस प्रकार उन्हें गंजेड़ी , भंगेड़ी , श्मशान वासी और बहुरूपिया बना दिया है यह किसी से छिपा नहीं हैं।  आश्चर्य  यह  है कि इसके बाद भी उन्हें अवढरदानी और आशुतोष  कहा गया है। 
यथार्थतः आध्यात्म विज्ञान में शिव  को महायोगी, महासम्भूति, तारकब्रह्म आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया है और तन्त्रविज्ञान का जनक कहा गया है। यद्यपि शिव के बारे में पूर्णता से जानकारी देना तो केवल ‘शिव‘ के लिये ही संभव है फिर भी विद्वान शोधकर्ताओं के माध्यम से जो भी उपलब्ध हुआ है उसे एक क्लास में प्रस्तुत कर पाना भी कठिन है इसलिये सभी तथ्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिये भी इसे आगामी अनेक क्लासों में क्रमशः पूरा किया जा पायेगा। इसलिये निवेदन है कि सभी क्लासों में मनोयोग से उपस्थित रहकर चिंतन करें और किसी भी प्रकार की शंका को समाधान करने के लिये अपने प्रश्न अवश्य पूंछें।

76  बाबा की क्लास (शिव .1)

रवि- बाबा! भगवान सदाशिव के संबंध में आपका क्या कहना है? क्या वह सचमुच वैसे ही थे जैसा चित्रों में बताया जाता है या कुछ और?
बाबा- भगवान शिव को लोगों ने सही ढंग से समझा ही नहीं है। जिन्होंने समझा है वे शिव ही हो गये।

नन्दू- कुछ समझ में नहीं आया, सरल ढंग से बताइये न? उनके जन्म से लेकर आजीवन जो कुछ उन्होंने किया हो, उसको बताइये?
बाबा- भगवान शिव अजन्मा हैं इसलिये वह स्वयंभू कहलाते हैं, उनके कोई भी माता पिता नहीं हैं परंतु वे सब के माता पिता हैं, वे सदा युवा अवस्था में ही देखे गये हैं। उस सार्वभौमिक परम सत्ता ने ही तत्कालीन मानवों और वनस्पति सहित अन्य जीवों के पारस्परिक सामंजस्यपूर्ण जीवन के लिये अपने पवित्र संकल्प से उस स्वरूप को व्यक्त किया था। वे प्रारंभ से ही सार्व भौमिक सत्ता के रूप में समाज की हर समस्या का हल करने के लिये उपलब्ध रहे हैं अतः मानव सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में उनका अतुलनीय योगदान है।

राजू- परंतु उनके आकार को इतना विचित्र क्यों बताया गया है, चार हाथ, सिर पर गंगा नदी, साॅपों और भूतप्रेतों का संग?
बाबा- यह सब पुराणों में वर्णित काल्पनिक  कहानियों का ही प्रभाव है जिससे सामान्य जन भ्रमित होते हैं और उनमें निहित असली शिक्षा को भूल जाते हैं।

चंदू- तो आप हमें सही सही जानकारी दीजिये नहीं तो हम सभी दूसरों की तरह भ्रमित होते रहेंगे?
बाबा- कुछ भी कहने के पहले हमें अपने चिंतन को उस समय पर ले जाना होगा जब वैदिक  सभ्यता का उदय हुआ था और आत्म उन्नति के लिये लोग भिन्न भिन्न उपाय खोज रहे थे। उस समय सभी जगह, चाहे वह सेंट्रल
एशिया  हो यूरोप या दक्षिण पूर्व एशिया, एक सी भाषा थी। इसकी जो शाखा दक्षिण पूर्व एशिया में प्रसिद्ध थी वह संस्कृत कहलाती थी और उत्तरपूर्व में बोली जाने वाली वैदिक कहलाती थी। वैदिक संस्कृत आर्यों के साथ आयी जबकि संस्कृत भारत के मूल निवासियों की भाषा थी।

इंदु- तो वैदिक सबसे प्राचीन है क्या?
बाबा- वैदिक भाषा की प्राचीनता की सही सही जानकारी किसी को नहीं है, इस भाषा का सबसे प्रचीन ग्रंथ ऋग्वेद है जो लिखित रूप में बहुत बाद में आया क्योंकि उस समय लिपि का ज्ञान नहीं था। ब्राह्मी, खरोष्टी और अन्य लिपियां 5000 से 7000 वर्ष पूर्व अस्तित्व में आईं। सारद, नारद, कुटिला आदि लिपियां ब्राह्मी से तथा श्रीहर्ष  लिपि कुटिला से उद्भूत हुई है। यद्यपि मानव का उद्भव लाखों वर्ष पहले हो गया था पर मानव सभ्यता का प्रारंभ 15000 वर्ष पहले ही माना जाता है।

राजू- तो भगवान सदाशिव का कार्य काल इसमें कौन सा है?
बाबा-ऋग्वेद 15000 वर्ष पहले से 7500 वर्ष पहले के बीच रचा गया माना जाता है। ऋग्वेद काल की समाप्ति और यजुर्वेद काल के प्रारंभ में भगवान सदाशिव का भौतिक आविर्भाव माना जाता है। इन्हीं के समय आर्य लोग उत्तर पश्चिम  से भारत में आये। इस प्रकार संस्कृत और वैदिक भाषा का एक दूसरे पर प्रभाव पड़ा।

नन्दू- बाबा! शिव का सही अर्थ क्या है? उन्होंने आते ही वह कौन सा काम किया जिससे वे सब को प्रभावित कर सके?
बाबा- शिव  का शाब्दिक अर्थ है कल्याण, अस्तित्व का चरम बिंदु तथा 7000 वर्ष  पहले धरती पर आये महासंभूति सदाशिव। उन्होंने विद्यातंत्र को सुव्यवस्थित किया, यद्यपि गौड़ीय और कश्मीर  तन्त्र के रूप में वह पहले से अव्यवस्थित और बिखरा हुआ था।

इंदु- कभी आप शिव को महासंभूति कहते हैं और कभी तारक ब्रह्म, यह कैसी शब्दावली है?
बाबा- वह सत्ता जो प्रकृति को अपने वश में करके प्राणियों को प्रगति दायक सही दिशा देने के लिये अपने व्यक्तित्व तथा दर्शन को एक समान करते हुए अपने आपको व्यक्त करती है उसे महासंभूति कहते हैं। यही सत्ता जब ब्रह्म चक्र की प्रतिसंचर धारा में मनुष्यों को तेज गति से चलने की प्रेरणा देकर मुक्तिमार्ग की ओर ले जाती है तो यह व्यक्त और अव्यक्त जगत के बीच पुल (bridge) की तरह काम करती है, इसे तारक ब्रह्म कहा गया है। शिव महासंभूति और तारक ब्रह्म दोनों हैं।

राजू- शिव के कार्यकाल में सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार थी?
बाबा- उस समय जनसामान्य, पहाड़ों पर रहा करते थे और प्रत्येक पहाड़ का एक मुखिया होता था जो ऋषि कहलाता था। संस्कृत में पहाड़ को गोत्र कहते हैं अतः मुखिया गोत्र पिता के नाम से जाना जाता था इसी कारण गोत्र बताने की पृथा चली जो किसी समूह विषेष की पहचान हेतु अभी भी प्रचलन में है। शिव  के काल में विभिन्न गोत्रों में अपने आप को एक दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ में लड़ाइयां होती रहती थी। जब एक समूह अर्थात् गोत्र दूसरे को लड़ाई में जीत लेता था तो हारने वाले को जीतने वाले का गोत्र मानना पड़ता था। जीतने वाला गोत्र समूह हारने वाले समूह की सम्पत्ति और स्त्रियों को बल पूर्वक ले जाते थे और पुरुषों को दास बनाकर उनके गोत्र बदल दिये जाते थे जिन्हें उपगोत्र अर्थात् प्रवर कहा जाता था। वर्तमान में  विवाह के समय वर और वधू को कपड़े से बांधना और महिलाओं की मांग लाल रंग से भरना वास्तव में उस काल में लड़कर जीतने और बंधक बनाने की प्रथा का ही बदला रूप है।  शिव  ने विवाह व्यवस्था का नया रूप देकर इस प्रकार के लड़ाई झगड़े बंद कराये । वास्तव में विवाह नाम की संकल्पना शिव  ही की देन है। उनके पूर्व यह पृथा नहीं थी, अतः माता को तो पहचाना जा सकता था पर पिता को नहीं । शिव  ने विवाह नाम की संस्था को स्थापित कर समाज में इस पर आधारित ‘‘विशेष व्यवस्था के अंतर्गत जीवन निर्वाह करना‘‘ सिखाया। इसलिये वह सर्व प्रथम विवाहित पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं।

रवि- तो क्या उनके समय एक ही सामाजिक सभ्यता प्रचलित थी?
बाबा- नहीं, आर्य , मंगोल और द्रविड़ सभ्यतायें थीं और उनके सदस्य अपने अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये आपस में लड़ाई झगड़े किया करते थे। शिव  के काल में मातृसत्तात्मक सामाजिक प्रणाली समाप्ति की ओर थी और पितृसत्तात्मक प्रणाली उत्थान की ओर थी। फिर भी मातृ सम्पत्ति अधिकार की प्रथा शिव  के काल से बुद्ध और महावीर जैन के काल अर्थात् 2500 वर्ष पहले तक प्रचलित रही।

नन्दू- इन झगड़ों को शान्त करने में शिव की भूमिका क्या थी?
बाबा- उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की द्रष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः  पार्वती, गंगा और काली नाम की कन्याओं से  विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने  को नया आयाम दिया।

राजू- शिव की वह शिक्षा कौन सी है जिस के आधार पर तत्कालीन विद्वान ऋषिगण प्रभावित हुए?
बाबा- महासंभूति शिव  ने सबसे पहले यह बताया कि परमब्रह्म (cosmic entity) अपने क्रियात्मक पक्ष जिसे हम प्रकृति (nature) के नाम से जानते हैं, की सहायता से आकार देकर ब्रह्माॅंड का संपूर्ण सृजन करते  हैं । प्रकृति सात्विक बल (sentient force) को आधार बनाकर राजसिक(mutative force) और तामसिक (static force) बलों की मदद से दृश्य  प्रपंच रचती है। यथार्थतः आधार अदृश्य  सा ही रहता है केवल राजसिक और तामसिक बलों की ही जड़ानुभूति सबको होती रहती है और द्वन्द्वों का आभास होता रहता है। जबकि इन द्वन्द्वों का अस्तित्व उस सात्विक बल अर्थात  परमब्रह्म (cosmic entity)  पर ही टिका रहता है। यदि इनमें असंतुलन हो जाये तो वे सब अस्तित्वहीन हो जावेंगे।

इंदु- क्या इसे और अधिक सरलता से नहीं समझाया जा सकता?
बाबा- इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र इलेक्ट्रान सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं, जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य  रूप में रहती है। इसे समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर  संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से तो दो बलों को प्रदर्शित किया जाता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य  सेंटिऐंट बल परमब्रह्म (cosmic entity)  वह आधार है जो तस्वीर को टांगे रहता है।