Sunday, 26 February 2017

110 बाबा की क्लास ( विश्वमाया से बचने के उपाय )

110  बाबा की क्लास ( विश्वमाया से बचने के उपाय )
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रवि- आपने बताया कि प्रकृति अर्थात् क्रियात्मक शक्ति को ही महामाया कहते हैं जिसका साक्ष्य देने वाली सत्ता ही उपास्य है परन्तु कुछ विद्वान शिवानी, कौशिकी, महासरस्वती, भैरवी, भवानी आदि नामों का भी उल्लेख करते हैं ये सब क्या हैं?
बाबा- ये सब उस निराकार परमसत्ता के साकार होने की क्रमागत स्थितियाॅं हैं।

राजू- तो इन सबके नियंत्रक भी अलग अलग ही होंगे?
बाबा- वह निर्गुण निराकार सत्ता जिसे तन्त्र की भाषा में परमपुरुष, हर या शिव कहा जाता है एक ही हैं और समस्त ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल कारण हैं। उनकी क्रियात्मक शक्ति जिसे प्रकृति कहते हैं वह भी नित्य निवृत्ता कहलाती है अर्थात् लगातार अपने रूप बदलती रहती है परन्तु परमपुरुष अपरिवर्तित रहते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे घी , आग को जलाये रखने के लिये स्वयं जलकर राख में बदलता जाता है। चूंकि प्रकृति परमपुरुष की आज्ञा के बिना किसी भी प्रकार का रूपान्तरण नहीं कर सकती अतः उसकी प्रत्येक रूपान्तरित अवस्था के लिए परमपुरुष की सहमति और संयोग होने पर प्रकृति और पुरुष के नाम भी दार्शनिक आधार पर ही कहे जाते हैं ।

इन्दु- फिर कन्फयुजन ! इसे क्या और सरल रूप में नहीं बताया जा सकता?
बाबा- तुम लोगों को यह बताया जा चुका है कि उस निर्गुण निराकार परमसत्ता की विचार तरंगों को साकार करने के लिये ही, उनकी ही क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति अनेक रूप बनाती जा रही है। बिलकुल प्रारंभिक अवस्था में जब केवल आधार ही निर्मित हो रहा होता है तो उसके साक्षी सत्ता का दार्शनिक नाम ‘परमशिव‘ और क्रियात्मक शक्ति का नाम ‘शिवानी ‘ या ‘कौशिकी‘ होता है क्योंकि इस समय तक कोशों का निर्माण हो चुकता है। संस्कृत में इसे ही महासरस्वती कहा गया है। अगले स्तर पर आकाश अर्थात् स्पेस और काल अर्थात् टाइम का निर्माण होता है जिसे साक्ष्य देने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम ‘भैरव‘ और मूल क्रियात्मक शक्ति '' भैरवी ‘‘ कहलाती है। अगले स्तर पर अन्य दृश्य पदार्थ आते हैं जिनकी गतिशीलता हेतु उचित कम्पन देने के लिये साक्षी सत्ता ‘भव‘ और क्रियात्मक सत्ता ‘भवानी ‘ कहलाती है। भव और भवानी के मेल से बना यह संसार इसीलिये भवसागर कहलाता है । इस प्रकार शिवानी, भैरवी और भवानी की साक्षी सत्तायें क्रमशः परमशिव, भैरव और भव से ओतप्रोत यह ब्रह्माॅंड ही उस निर्गुण ब्रह्म का सगुण रूप है।

चन्दू- तो क्या देवियों की आठ और दस हाथों वाली मूर्तियाॅं बना कर जो लोग पूजते हैं, ये वही हैं या और कुछ?
बाबा- नहीं , नहीं । अभी बताये गये नाम दार्शनिक व्याख्या के लिये ही कहे गए हैं इनका कोई भौतिक आधार नहीं है। विभिन्न आकार प्रकार और अनेक संख्याओं में मूर्तियाॅं बनाकर जिनकी पूजा कुछ लोग करते देखे जाते हैं वह माकण्डेय पुराण में वर्णित काल्पनिक कहानियों के आधार पर ही अस्तित्व में आई हैं उनका इन दार्शनिक तथ्यों और नामों से कोई तारतम्य नहीं है। इनका विस्तार से विवरण पिछली कक्षाओं में समझाया जा चुका है।

राजू- तो क्या ‘हर‘, और क्रियात्मक शक्ति महामाया के सम्मिलित रूप अर्थात् सगुण ब्रह्म को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है?
बाबा- है, इन सबको नियंत्रित करने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम है ‘‘ पुरुषोत्तम‘‘। इसलिए मुक्ति और मोक्ष पाने की इच्छा करने वालों को इन्हीं पुरुषोत्तम की उपासना करना चाहिए अन्य किसी की नहीं ।

रवि- जब यह केवल दार्शनिक नाम ही हैं तो उनकी उपासना कैसे की जा सकती है?
बाबा- यह समस्या तब आती है जब हम परमपुरुष या पुरुषोत्तम को अपने से अलग और भौतिक जगत या ब्रह्माॅंड को पृथक मानने लगते हैं। जब आप यह जानते हैं कि यह सब कुछ उस एक ही परम सत्ता की मानसिक तरंगें है तो सब कुछ तो उसी सत्ता के मन के भीतर ही हुआ कि बाहर ?

राजू- जब सब कुछ उनके भीतर ही है तो ‘बाहर‘ नाम का अस्तित्व ही कहाॅं रहा।
बाबा- यही बात समझने और समझाने के लिये मनीषियों ने अनेक दर्शनों, कहानियों और दृष्टाॅंन्तों का सहारा लिया है। शब्दजाल में भ्रमित न होकर अपना लक्ष्य निर्धारित कर , बिना देर किए, उसी की ओर चल पड़ना ही बुद्धिमत्ता है। आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में दार्शनिक शब्द, ‘शिवानी‘ को ‘स्पेस‘, ‘भैरवी‘ को ‘टाइम‘ और ‘भवानी‘ को ‘पर्सन‘ कह सकते हैं जिनकी तरंग लम्बाई  क्रमशः घटती जाती है और आवृत्ति बढ़ती जाती है। इसलिए ‘पुरुषोत्तम‘ की उपासना करने का तात्पर्य यह हुआ कि हम अपनी भवानी को क्रमशः भैरवी और शिवानी में बदलते हुए परमशिव में स्थापित करें। उन्हें कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं है वे हमारे भीतर ही हैं।

इन्दु- तो पुरुषोत्तम की उपासना करने के लिए उनकी विश्वमाया से निवृत होना पड़ेगा? अर्थात् भवानी को भैरवी और भैरवी को शिवानी में बदलने और अंततः शिव में लीन हो पाने का क्या उपाय है?
बाबा- ‘‘ तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयाश्चान्ते विश्वमायानिवृत्ताः ‘‘ अर्थात् उस परमपुरुष के अभिध्यान (अर्थात् ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान), योजन (अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ना ) और उसीमय हो जाना  (अर्थात् उसमें अपने को अनुभव करना) आदि से इस विश्वमाया से निवृत्त हो सकते हैं।

चन्दू- आपने अभिध्यान को दो भागों में बाॅंटकर फिर से कठिन बना दिया, क्या इसे और सरल ढंग से नहीं बताया जा सकता?
बाबा- अभिध्यान से तात्पर्य है ध्यान करने की विशेष प्रक्रिया। इसके दो भाग होते हैं पहले बाहरी संसार की सभी वस्तुओं और संबंधों से मन के प्रवाह को हटाकर केवल एक निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रवाहित करने का प्रयास किया जाता है, इसे इष्टमन्त्र की सहायता से किया जाता है अतः इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। दूसरी स्थिति में आध्यात्मिक मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है जिसे अनुध्यान कहते हैं । जैसे, किसी भक्त को यह हीनभाव आ रहा है कि मैं तो पापी हॅूं, नीच प्रवृत्तियों में जुड़ा रहा हॅूं , मैं कैसे ईश्वर के निकट जाऊं? परन्तु इसके बाद भी वह अभ्यास में लगा रहता है यह मानकर कि भले ही मैं हीन हॅूं परन्तु मैं तो उनकी शरण में आकर ही रहॅूंगा, उनको पाए बिना नहीं रहॅूंगा, आखिर जैसे वह पुण्यात्माओं के पिता हैं तो पापात्माओं के भी पिता हैं, वे तो परमपिता हैं मुझे अपने से दूर कैसे कर सकते हैं? आदि।

रवि-तो ‘योजनात्‘ अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ने की प्रक्रिया क्या है?
बाबा- वास्तव में ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान के द्वारा ही उस परमसत्ता के साथ अधिक निकट हुआ जाता है। संस्कृत में दो क्रियाएं हैं ‘युज‘ और ‘युञ्ज ‘ । युज का अर्थ है अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए निकट होना जैसे शक्कर और रेत। यहाॅं रेत और शक्कर मिल तो जाते हैं पर अपना अलग अलग अस्तित्व बनाए रहते हैं। युञ्ज  का अर्थ है अपना अस्तित्व खोकर मिल जाना, जैसे नदी का महासागर में मिलकर एक हो जाना । इस एकीकरण का तात्पर्य है व्यक्ति के इकाई मन का परम.मन में विलय होना, छोटे ‘‘मैं‘‘ का ‘‘बड़े मैं‘‘ से मिलकर एक हो जाना।

राजू- और ‘ततत्वभावात्‘ का अर्थ क्या है?
बाबा-  ततत्व = तत् + त्व । तत् अर्थात् वह (परमपुरुष), और त्व है प्रत्यय जिसे लगाकर उसे गुणवाचक संज्ञा बनाया गया है अर्थात् मय। अंग्रेजी में तत = that और  त्व त्= ness  इसलिए ततत्व का अर्थ हुआ thatness अर्थात् उसमय । और भावात् का मतलब है ‘विचार से‘। इसका मूल अर्थ हुआ कि अपने मन को उस परमपुरुष के भावों में मग्न कर इस प्रकार मिला लेना कि कोई भिन्नता न रहे। यह कार्य ‘गुरुमन्त्र‘ की सहायता से ही हो पाता है जिसमें, जो भी देखते हैं, जिसमें भी रहते हैं, जो भी काम करते हैं उस सबमें परमपुरुष को ही देखने का अभ्यास करना होता है।

इन्दु- विश्वमाया, महामाया और योगमाया क्या एक ही हैं या अलग अलग?
बाबा- परमनिर्माण सत्ता को विश्वमाया कहते हैं और यही जब व्यक्त जगत के सभी स्तरों पर कार्य करती है तो महामाया कहलाती है, चूॅंकि ये सभी परमपुरुष से जुड़ी हुई हैं अतः योगमाया भी कहलाती हैं। इसलिए जो भी व्यक्ति परमपुरुष से अभिध्यान अर्थात् प्रणिधान और अनुध्यान तथा योजनात और ततत्वभावात विधियों से जुड़ जाता है वह विश्वमाया के चंगुल से मुक्त हो जाता है।

नन्दू- यह बात तो समझ में आई लेकिन मेरी तो अभी भी वही समस्या है कि अभिध्यान, योजन और ततत्वभाव में अपने को स्थापित कैसे किया जाय?
बाबा- उसके लिए एक ही उपाय है, वह है ‘‘भक्ति‘‘ । इसे वैज्ञानिक भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है, " अपने इष्टमंत्र ( fundamental frequency) की सहायता से लक्ष्य निर्धारित कर उस ओर बढ़ना और गुरुमंत्र की सहायता से वातावरण अनुकूल बनाना और फिर परमसत्ता की आवृत्ति (cosmic frequency ) के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने की क्रियाविधियाॅं ही भक्ति के अन्तर्गत आती हैं।" तान्त्रिक भाषा में इसे ही 'भवानी को  भैरवी' , 'भैरवी को शिवानी' और 'शिवानी को शिव' में स्थापित करना कहा जाता है।  इनसे बिना देर किए जुड़ जाना चाहिए।

Sunday, 19 February 2017

109 बाबा की क्लास ( ध्यान का विषय )

109 बाबा की क्लास ( ध्यान का विषय )

इन्दु- कुछ लोग कहते हैं कि काल अर्थात् समय ही सब कुछ है उससे ताकतवर और कोई नहीं है, इसलिये वही ध्यान करने योग्य है ।
चन्दु- लेकिन वैज्ञानिक तो समय को दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ही मानते हैं?
रवि- इतना ही नहीं वे समय को स्पेस के साथ बुना हुआ लचीला रेशा भी कहते हैं, सच्चाई यह है के वे स्पष्टतः उसे पारिभाषित ही नहीं कर पाते हैं।
बाबा- देखो, समय या काल , वास्तव में क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है जबकि पात्र, मन की सहायता से इसे ग्रहण करने वाला और स्पेस, पात्र तथा काल के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली सत्ता है। स्पष्ट है कि समय अलौकिक घटक नहीं है।  इसका कारण यह है कि जहाॅं क्रिया नहीं होगी वहाॅं समय भी नहीं होगा। जैसे सूर्य के चारों ओर धरती चक्कर लगाती है इससे हम सौर वर्ष, सौर माह , सौर दिन पाते हैं और चन्द्रमा धरती के चक्कर लगाता है जिससे चन्द्र वर्ष, चन्द्र मास और चन्द्र दिन पाते हैं। यह सभी गतियाॅं हमारे मन के द्वारा किये गये मापन से ही इन नामों के द्वारा प्रकट की जाती हैं। इसलिये मन एक सापेक्षिक घटक है, मन और गतिशीलता में से किसी एक के न होने पर समय का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्पष्ट है कि वह परम या निर्पेक्ष घटक या अखंड सत्ता नहीं है इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकता।

बिन्दु- तो क्या प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय माना जा सकता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि ब्रह्माॅंड का क्रियात्मक पक्ष क्या है। किसी समय विशेष पर क्रियात्मक पक्ष द्वारा प्रयोग में लाई गयी प्रणाली ही प्रकृति कहलाती है। कुछ लोग मानते हैं कि प्रकृति से ही ब्रह्माॅंड उत्पन्न हुआ है जो गलत है। यह तो उस क्रियात्मक सिद्धान्त की शैली है इसलिये यह सर्जनात्मक सत्ता नहीं है। पदार्थवादियों ने प्रकृति को सर्जनात्मक माना है जो सही नहीं है, इसलिए प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय नहीं माना जा सकता।

राजू- तो क्या भाग्य को ही मार्गदर्शक घटक मान लेना चाहिए?
बाबा- नहीं, भाग्य मानव गतिशीलता को नियन्त्रित नहीं करता। भाग्य क्या है? वह है तुम्हारे पिछले अभुक्त संस्कारों का परिणाम। सभी को अपने अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब तक क्रिया की प्रतिक्रिया को (जो बीज रूप में रहती है) पूरी तरह सन्तुष्ठ हो जाने का अवसर नहीं मिलता है तब तक मुक्ति नहीं मिलती। यही सुप्त बीज रूपी संस्कार भाग्य कहलाते हैं अतः वे मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं।

रवि- कुछ लोग कहते हैं कि इस धरती पर या अन्य ग्रहों की संरचना और उनकी स्थिति के आधार पर ही जीवों का जन्म होता है, ज्योतिषी तो यही कहते हैं?
बाबा- नहीं । जिस प्रकार के किसी ने कर्म किए होते हैं उस प्रकार की ग्रह स्थिति के अनुसार ही उसे संस्कार भोग पाने का अवसर जुट पाता है और उसे जन्म मिलता है, और अपने पूर्व कर्मों के अनुसार सुख या दुख मिलता है। स्पष्ट है कि ग्रह जीवों को नियंत्रित नहीं करते उनके अपने कर्म ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। जहाॅं मूल क्रिया अथवा कर्म का पता नहीं होता है परन्तु उसका फल मिलता है तो उसे कहते हैं नियति। इसलिए भाग्य न तो नियंत्रक और न ही रचनात्मक घटक है अतः वह ध्यान का विषय भी नहीं हो सकता।

इन्दु- पर कुछ लोग तो इसको एक दुर्घटना अर्थात् एक्सीडेंट कहते हैं ?
बाबा- वे अपने अज्ञान को छिपाने के लिए  यह कहते हैं। तुम लोग  तो जानते हो कि ब्रह्माॅंड में कुछ भी बिना कारण के नहीं घटित होता, यह अलग बात है कि हमें वह पहले से मालूम हो भी सकता है और नहीं भी होता। हाॅं कभी कभी यह होता  है कि  कारण बहुत कम समय के लिए अपना प्रभाव डालता है और उसे लोग एक्सीडेंट कहने लगते हैं, जो उचित नहीं है। अतः यह भी ध्यान करने का विषय नहीं हो सकता।

रवि- तो क्या पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया जाए?
बाबा- यदि पदार्थ ही सब कुछ होता तो ‘कारण मन‘ उससे कैसे आ सकता है? मन पदार्थ से श्रेष्ठ होता है, मानव बुद्धि और आत्मा उससे भी श्रेष्ठ होती है। इसलिए पदार्थ को पूजा का या ध्यान का विषय नहीं बनाया जा सकता अन्यथा वह व्यक्ति पदार्थ में ही बदल जा सकता है।

इन्दु- तो क्या जीवात्मा को मूल तत्व माना जा सकता है?
बाबा- नहीं, क्योंकि असंख्य जीवात्माऐं  हैं, हर सत्ता की अपनी जीवात्मा है। इतना ही नहीं पदार्थों में भी जीवात्मा है यह अलग बात है कि उनका मन अविकसित होने से वे उसका अनुभव नहीं कर पाते। किसी भी इकाई मन के सुख दुख के अनुसार वह जीवात्मा भी प्रभावित होती रहती है, जैसे दो टीमें फुटवाल मैच खेलती हैं और तुम देखते हो, उनके जीतने हारने से तुम्हें कोई मतलब नहीं है परन्तु फिर भी मैच देखते हुए तुम प्रभावित होते हो कि नहीं?  इसे इस प्रकार भी समझ सकते हो, जैसे दर्पण का कोई रंग नहीं है परन्तु लाल रंग का फूल उसके सामने लाने पर वह लाल दिखने लगता है वैसे ही जीवात्मा भी सुख दुख से प्रभावित होता  है। अतः स्पष्ट है कि कोई विशेष जीवात्मा, विशेष सत्ता या इकाई चेतना पूरे ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं हो सकती इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकती ।

नन्दू- तो क्या काल, प्रकृति या स्वभाव, नियति, और दुर्घटना, इन सब घटकों का संयोजन ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल घटक है?
बाबा- नहीं, क्योंकि इनमें  से प्रत्येक में कोई न कोई अपूर्णता अवश्य है अतः ये अथवा ये सभी मिलकर भी ब्रह्माॅंड के होने का परम कारण नहीं हो सकते ।

इन्दु- परन्तु कुछ लोग तो महामाया को इसका कारण मानते हैं?
बाबा- महामाया अर्थात् क्रियात्मक सत्ता कोई भी कार्य कर सकती है परन्तु संज्ञानात्मक सत्ता की स्पष्ट अनुमति के बिना कुछ नहीं कर कर सकती। शिव के बिना शक्ति का पृथक अस्तित्व नहीं है, अतः महामाया भी ब्रह्मांड की रचना का मूल कारण नहीं है।

राजू-इकाई चेतना कर्मफल के अनुसार रूप बदलती रहती है, प्रकृति भी सदा ही अपने रूप बदलती रहती है तो फिर वह कौन है जो इनका संज्ञान रखता है?
बाबा- तुम हो, तुम्हारे होने का तुम अनुभव करते हो, परन्तु इसका साक्ष्य कौन देता है कि तुम हो ? वही संज्ञानात्मक परम सत्ता जिससे सभी आते हैं, जिसमें रहते हैं और अन्त में जिसमें जा पहुँचते हैं उसे ही शिव, परमब्रह्म या अखंड सत्ता कहते हैं। केवल वही चिन्तन करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मनन करने योग्य और पूजनीय है अन्य सब व्यर्थ है।

Sunday, 12 February 2017

108 बाबा की क्लास (एकर्षि अग्नि या मुखाग्नि)

108 बाबा की क्लास (एकर्षि अग्नि या मुखाग्नि)
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राजूः- कुछ लोग आग को एकर्षि अग्नि क्यों कहते हैं?
बाबा- एकर्षि उस अग्नि का नाम है जिसे प्राचीनकाल में लोग बहुत ही पवित्र मानते थे।

रवि- क्यों?
बाबा- अत्यन्त प्राचीन काल में लोग अग्नि को जानते ही नहीं थे। वे अपना जीवन कन्द, मूल, फल और कोमल हरी पत्तियाॅं कच्चे माॅंस को खाकर व्यतीत करते थे। वे लोग आग उत्पन्न करने अथवा उपयोग करने के कोई तरीके नहीं जानते थे। जंगलों में आॅंधियों के समय सूखे पेड़ों के आपस में रगड़ने से आग लग जाती थी। भय और पूज्यभाव के कारण उन्होंने इसे अग्नि देवता मान लिया। वे बिजली की तड़क और कड़क से डरते थे इसलिये इन्द्र को परम सत्ता मानकर पूजने लगे। इन्द्र का एक अर्थ ‘‘सबसे अच्छा‘‘ भी होता है। इसी प्रकार वर्फीले तूफान और वायु के देवता मरुत उनके दूसरे आराध्य देवता हुए। विशाल समुद्री लहरों के डर से वरुण देवता की पूजा करने लगे। यही उन इतिहास पूर्व लोगों के प्रमुख देवता थे। जिन लोगों ने इन्हें खोजा वे ऋषि कहलाये। आग की खोज का दिन मानव इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण है । उस समय के लोगों ने आग के पता चलने के शताब्दियों बाद इसके उपयोगों के बारे में जाना । इसके साथ ही वे दूसरे प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ हो गए। आग के अनेक उपयोग होना सीख लेने के बाद वह जीवन का अपरिहार्य अंग बन गई।

चन्दू- लेकिन अग्नि के साथ एकर्षि जोड़ने का क्या आशय है?
बाबा- आग को उत्पन्न करना, उसको बनाये रखना, उसकी रक्षा करना और उससे दूसरों की रक्षा करना बड़ा ही कठिन कार्य था। यह कार्य कोई भी नहीं कर सकता था इसलिये कुछ ऋषियों को इसकी रक्षा करने के लिये ही नियुक्त कर दिया गया। इस प्रकार के अग्नि रक्षक ऋषियों को ‘साग्निक‘ या ‘अग्निहोत्री‘ कहा जाने लगा। इस प्रकार आग को बनाये रखने के लिये उसे पवित्र देवता मानकर उसे सन्तुष्ठ करने के लिये प्रचुर भोजन (अर्थात् पवित्र लकड़ियाॅं और कुछ मंत्र आदि) दिया जाने लगा इसे बाद में हवन का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्य को सामान्य शब्दों में ‘यज्ञ‘ नाम दिया गया। (यज्ञ = यज + न) अर्थात् क्रिया या विशेष प्रकार का पवित्र और शुभ कार्य। यज की मूल क्रिया का अर्थ है ‘कार्य करना‘ (  ‘यज‘ + ‘घ´  ´‘ = ‘याग‘)। साग्निक के अस्वस्थ हो जाने या अनुपस्थित हो जाने के समय उसकी पत्नी या बेटा उस अग्नि की रक्षा का दायित्व निभाते थे और इसे लगातार ईंधन जुटाते रहते थे ताकि वह बुझ न जाये ।

इन्दु- अग्नि की खोज और संरक्षण की व्यवस्था तो आदि काल से सम्बंधित है, परंतु आपने पहले बताया है कि परिवार अर्थात् माता, पिता और पुत्र पु़ित्रयों आदि की संकल्पना का व्यावहारिक रूप तो साढ़े सात हजार वर्ष पहले भगवान सदाशिव के आने के बाद ही सामने आया?
बाबा- हाॅं सही है। यहाॅं एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखना होगी वह यह कि भगवान शिव के आने के पूर्व समाज में विवाह नाम की कोई संस्था ही नहीं थी। माता और पिता के पारस्परिक कोई कर्तव्य निर्धारित नहीं थे माताओं को ही बच्चों की देखभाल और पालन पोषण की जिम्मेवारी उठाना पड़ती थी। इस कारण महिलाओं की प्रगति विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में पिछड़ती गई। शिव ने अपने तर्क और शक्ति के प्रभाव से पुरुषों को सामाजिक उत्तरदायित्व से बाॅंधा। यह पहला अवसर था जब समाज मंे विवाह नाम की संस्था स्थापित हुई। शिव के बाद अवसरवादियों ने महिलाओं के सामाजिक स्तर को अनेक वर्गो में बाॅंट दिया। जैसे,
पत्नी - इसे पति के समान ही सामाजिक और धार्मिक अधिकार दिये गए और इनके बच्चों को भी यह अधिकार विरासत में ही मिल जाता था।
जाया- इसे पति के धार्मिक अधिकारों से बंचित किया गया परन्तु उसके बच्चे पिता के  धार्मिक और सामाजिक अधिकार पा सकते थे।
भार्या - इसके विवाह को तो मान्यता प्राप्त थी परन्तु पति के किसी भी धार्मिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उसके बच्चों को यह अधिकार प्राप्त थे क्योंकि भार्या केवल इसलिये विवाह की जाती थी ताकि वंश चल सके। इसीलिये कहा गया कि ‘‘पुत्रार्थे क्रियते भार्या‘‘ ।
कलत्र- इस प्रकार के पति पत्नी सम्बंध में कलत्र को अपने पति के धार्मिक और सामाजिक अधिकार नहीं थे और उसके बच्चों को भी यह अधिकार नहीं थे। यह प्रणाली ‘बुद्ध‘ युग से पहले प्रारम्भ हुई परन्तु प्रभाव में उनके बाद आई। इसमें पिता उच्च वर्ण का और माता निम्न वर्ण की होती तो बच्चों को माता का गोत्र ही रखना पड़ता था। यदि इस प्रकार के विवाह को सामाजिक मान्यता नहीं होती तो बच्चों को माता के गोत्र को भी नहीं दिया जाता था , उन्हें अग्नि की सुरक्षा भी नहीं दी जा सकती थी। उन्हें व्रात्य अर्थात् जाति विहीन, कहा जाता। माता यदि उच्च वर्ण की होती और विवाह को सामाजिक मान्यता होती तो उसके बच्चों को पैत्रिक धार्मिक और सामाजिक अधिकार मिलते थे और यदि माता को अपने गोत्र में अग्नि की रक्षा का अधिकार मिला था तो उसके बच्चों को भी यह अधिकार मिल जाता था।

रवि- आश्चर्य है! इतना सब गड्ड मड्ड होता रहा फिर भी महिलाएं अधिकार विहीन भी बनी रही? क्या इन कुप्रथाओं के कारण ही अनेक जातियों का उद्गम हुआ?
बाबा- इतना ही नहीं, इस प्रकार तथाकथित कुलीनों के उद्गम के साथ ही अन्य पृथा उत्पन्न हुई जिसे ‘नियोग‘ कहा जाता था। ये कुलीन जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते थे उन्हें उन सबके भरण पोषण उचित रूपसे करने में अनेक कठिनाइयाॅं आने लगीं। इस कारण कुछ स्त्रियाॅं अपने पति के पास तो कुछ अपने पिता के पास रहा करतीं थीं। इन परिस्थितियों में सामाजिक रूप से अमान्य पतियों के द्वारा भी संतान उत्पन्न होने लगी जो नियोगज सन्तान कहलाती थी। इस प्रकार की सन्तान को यद्यपि अपनी माता के विवाहित पति का नाम ही पिता के रूप में मान्यता प्राप्त था परन्तु उसको सामाजिक और धार्मिक अधिकार से बंचित रखा जाता था। इस कुप्रथा से कुलीन तो बढ़ते गये परन्तु उनकी गुणवत्ता में कमी आती गई। नियोगज सन्तान को अपने मामाओं के घर ही रहना पड़ता था और उन्हें पिता की तरह अग्नि की रक्षा करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता था। यदि पिता उच्च गोत्र का और माता निम्न गोत्र की हुआ करती तो सन्तान को पिता का गोत्र और सामाजिक, धार्मिक अधिकार  मिलता था परन्तु यदि माता उच्च गोत्र की और पिता निम्न गोत्र का होता तो उत्पन्न सन्तान को माता का गोत्र और सामाजिक स्तर नहीं मिलता था। अतः यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि इस प्रकार की सन्तान को अग्नि की रक्षा करने का भी अधिकार नहीं होता था। इन कुप्रथाओं के कारण मानव समाज में सैकड़ों जातियों का उदय हुआ जो आज भी अभिशाप बना हुआ है।

नन्दू-  यह बात समझ में आई, परन्तु मुखग्नि क्या है क्या यह एकर्षि अग्नि का ही पर्याय है या इन्हीं कुप्रथाओं में से एक?
बाबा- अग्नि को संरक्षित रखने के नियम बने थे परन्तु उनमें अपवाद भी थे। कुछ ऋषि ऐसे थे जो स्वयं ही अग्नि की विभिन्न प्रकार से रक्षा करने के काम में लगे रहते थे जैसे कर्मकांड, अग्नि को जलाये रखने के लिये लकड़ियों का प्रबंध आदि। इस काम में वे अपने पुत्रों या पत्नियों का भी सहयोग नहीं लिया करते थे। इस प्रकार की अग्नि को एकर्षि अग्नि कहा जाता था और इसे बहुत ही पवित्र माना जाता था। आदि काल में मृत देह को पानी में बहा दिया जाता था, वैदिक युग के पहले और बाद तक भी मृत देह को धरती के भीतर गाड़ने की पृथा थी , परन्तु आग के अनुसंन्धान हो जाने पर भी बहुत बाद में उसे जलाया जाना उचित समझा जाने लगा। जब मृत देह को जलाने की पृथा आई तो लोगों ने अग्नि को संरक्षित रखने वाले ऋषियों के मरने पर उन्हें जलाने के समय सोचा कि जिसने जीवन भर अग्नि की इतनी देखरेख की और मौखिक रूपसे मंत्रों के द्वारा एकर्षि अग्नि को बनाये रखा अब उनके जाने के बाद उस अग्नि को संरक्षित रखने के लिये उसके मंत्रों का लाभ नहीं मिलेगा इसलिये उनके शरीर को अग्नि में समर्पित करने के पहले अंतिम रूप से एकर्षि अग्नि को उनके मुंह से स्पर्श करना उचित होगा इसके बाद सूखी घास का संपर्क करना। इस तरह दाह संस्कार के समय अग्नि को मुह के सम्पर्क में लाने की पृथा का प्रचलन हुआ, जिसे आजकल मुखाग्नि देना कहा जाता है। इस तरह जिनके पास एकर्षि अग्नि न भी होती वे भी और अन्य जिन्हें इससे कोई मतलब ही नहीं था वे सभी, अनिवार्यतः इस पृथा का व्यापकता से पालन कने लगे।

इन्दु- बड़ी ही विचित्र बात है?
बाबा- हाॅं। जब कोई रूढ़ि जन्म लेती है तो वह लोगों को क्रमशः अपने जाल में फॅंसाती जाती है। यह मुखाग्नि देना भी इन्हीं रूढ़ियों में से एक है। जो कर्मकाॅंडी पंडित हैें उन्होंने मुखाग्नि देने का मन्त्र भी बना लिया जिसका प्राचीन एकर्षि अग्नि से लेशमात्र भी सम्बंध नहीं है। इस प्रकार अपने प्रिय के देहावसान पर उनके मुंह में अग्नि देना असामान्य लगता है वह मंत्र भी असंगत है परन्तु सामान्य लोग उस मन्त्र का  या तो अर्थ नहीं जानते या फिर भय के कारण उसे पढ़ लेते हैं। मौलिक एकार्षि अग्नि से इसका कोई भी संबंध नहीं है। वह मंत्र यह है-
"कृत्वा तु दुष्कृतम कर्म जानता वाप्यजानता, मृत्युकालवशम प्राप्य नरम पंचतत्वमागतम।
धर्माधर्मसमायुक्तम् लोभमोहसमावृतम्, दहेयम सर्व गात्राणि दिव्यान लोकान सह गच्छतु।"
इसका अर्थ है कि ‘‘ हो सकता है इस मृत व्यक्ति ने जानकर या अनजाने में दुष्कर्म किये हों, उसे आज मृत्यु ने वरण कर लिया है और उसने अपने को पंचतत्वों बिलीन कर दिया है। उसमें अच्छाईयाॅं और बुराइयाॅं दोनों ही थीं , वह लोभ और मोह में भी फॅंसा था। अब उसके पूरे शरीर को अग्नि जला डाले और उसे स्वर्ग मिले।‘‘

राजू- तो क्या आज के परिप्रेक्ष्य में इन कुप्रथाओं का पालन करना उचित होगा?
बाबा- आज का मानव अपने विवेक, तर्क और विज्ञान से इसका निर्णय करे। जो इसे पसंद करे वह इसे याद करे परन्तु जो रूढ़ियों से स्वतंत्र विचारों के लोग हैं वे तो अपने विवेक और शुद्ध विचारों के आधार पर ही कार्य करेंगे। किसी समय सतीपृथा जैसी अमानवीय और दुष्टता भरी गतिविधियों की रूढ़ि के प्रति भी शास्त्रों की आड़ ली जाती थी। बाद में पाया गया कि वह आधार भी गलत था। बुद्धिमान और पढ़ेलिखे लोगों को सोचना चाहिए कि यह मुखाग्नि देना वाॅंछनीय है या नहीं। यह सती पृथा की तरह भयंकर भले न हो परन्तु निःसन्देह यह घृणित कार्य है। एकर्षि अग्नि जो मुनियों के मुंह में रखी जाती थी वह उन्हीं के द्वारा संरक्षित की गई होती थी। आज जो अग्नि मुंह में रखी जाती है वह तो माचिस से उत्पन्न की जाती है। क्या यह इतिहास का उपहास करना नहीं है? जब महिलाएं अग्नि की रक्षा करने के योग्य ही नहीं मानी जाती थीं तो उनके मुंह में अग्नि रखे जाने का औाचित्य क्या है? जो भी हो, वैज्ञानिक युग के उन्नत बुद्धि और विवेकी लोगों को इस पर विचार करना चाहिए।  

Saturday, 11 February 2017

107 नीलकण्ठ दिवस

107 नीलकण्ठ दिवस 
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12 फरवरी 1973 को आनन्दमार्ग  दर्शन के प्रवर्तक महासम्भूति सदगुरु बाबा श्री श्री आनन्दमूर्ति  जी को राजनैतिक षडयंत्र पूर्वक दवा के नाम पर विष दे दिया गया था। उन्होंने अपने योगबल से उसका प्रभाव अपने ऊपर नहीं होने दिया।  जब सम्बंधित अधिकारियों को ही नहीं देश के राष्ट्रपति को भी न्यायिक जाँच कराने का निवेदन करने पर भी षडयंत्रकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई तब बाबा ने अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए 1 अप्रैल 1973 से 1 अगस्त 1978 तक अर्थात पाँच वर्ष चार माह एक दिन तक लगातार उपवास किया था, यह शासकीय अभिलेखों में प्रमाणित है ।

पाप और पुण्य शक्तियों के संघर्ष में एक ओर विष, तो दूसरी ओर अमृत का ध्रुवण  होता रहता  है।  सभी लोग अमृत को पाने के लिए तैयार रहते हैं परंतु विष पान करने के लिए सब दूर हो जाते हैं। संसार और सृष्टिचक्र को  यथावत चलते रहने  देने के लिए शिव को ही इस विष को पीकर अपने  कण्ठ में योगबल से स्थिर कर अप्रभावित रहने की लीला करना होती है , इसीलिए उन्हें नीलकण्ठ कहा जाता है।

मानवता की रक्षा करने के लिए इस  दानवीय कृत्य को करने वालों के प्रति बाबा ने अपने दिव्य तरीके से उन्हें शिक्षा देने की हमें प्रेरणा दी। प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को सभी शिष्यगण नीलकण्ठ दिवस मनाते  हैं। इस दिन सभी लोग कम से कम एक गरीब व्यक्ति को नारायण समझकर रुचिकर भोजन कराते हैं , एक से अधिक को भी अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन करा सकते हैं। इस कार्य द्वारा सात्विक रूप से हम यह प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं कि हे दानवो ! तुम अपनी प्रकृति के अनुसार भले ही विष फैला कर मानवता को मार डालना चाहो  परन्तु  हम अमृतमय भोजन देकर उसे मरने नहीं देंगे।

सदगुरु बाबा की  कार्यप्रणाली अनोखी है, दिव्य है। वे हमेशा हमारे साथ ओत योग और प्रोत योग से जुड़े रहते हैं।


Sunday, 5 February 2017

106 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 15)

106 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 15)

राजू- लेकिन जीवधारी तो असंख्य हैं मनुष्यों की सख्या भी धरती पर कम नहीं है, धरती के अलावा अन्य ग्रहोंपर भी जीवन सम्भव है तो फिर परमपुरुष को सभी से व्यक्तिगत रूपसे जुड़कर आनन्द पाना किस प्रकार सम्भव होता है?
बाबा-  परमपुरुष ओतयोग और प्रोतयोग से सबसे जुड़े रहते हैं। ओतयोग का अर्थ है व्यक्तिशः  जुड़ना और प्रोतयोग का अर्थ है सामूहिक रूपसे जुड़ना। बृजगोपाल ओतयोग से और पार्थसारथी प्रोतयोग से सब से जुड़े रहे। समाजिक चेतना को भीतर तक हिला देने के लिये छः घटकों की आवश्यकता  होती है, आध्यात्मिक आदर्श , सामाजिक द्रष्टिकोण, सामाजिक आर्थिक सिद्धान्त, साहित्य और निर्देशक। कृष्ण ने अपने समय में उच्चस्तरीय सामाजिक चेतना जाग्रत की और बताया कि सभी के मिलजुल कर रहने से ही सामाजिक प्रगति हो सकती है पृथक पृथक रहकर नहीं। इसीलिये उन्होंने सामान्य जीवन को स्वाभाविक रूपसे उन्नत किये जाने पर बल दिया और जो भी इसके मार्ग में बाधक बना उसे समाप्त कर दिया। इस प्रकार कृष्ण की सामाजिक चेतना से कुछ लोगों के आनन्द में बाधा भले ही पहुँची हो पर इससे नन्दन विज्ञान का क्षेत्र और विस्त्रित हो गया।

इन्दु- परन्तु पार्थसारथी से तो केवल राजा लोग ही मिल पाते थे ?
बाबा- सत्य है, पर पार्थसारथी के निकट आकर लोग अपने मन की तरंग लम्बाई में बृद्धि का अनुभव करते थे। वे उनका स्मरण और चिन्तन करने पर भी अपनी तरंग लम्बाई में बृद्धि होने से आनन्द का अनुभव करते थे जो सामाजिक चेतना के जाग्रत होने पर ही सम्भव था। पार्थसारथी के अनन्त सद गुणों  के चिन्तन में लोग उन्हीं में खो जाते थे, परमपुरुष का इस प्रकार चिन्तन करते उन्हीं में खो जाना रहस्यवाद कहलाता है। इस प्रकार सभी लोग उनसे अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध बनाये थे और केवल उन्हीं के सम्बन्ध में सोचना और उन्हीं का नाम सुनना चाहते थे जो प्रकट करता है कि वे नन्दन विज्ञान के स्वयं जन्मदाता थे अतः नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में उनका परीक्षण कौन कर सकता है ?
रवि- कुछ लोग मोहनविज्ञान की चर्चा करते पाए जाते हैं और कहते हैं कि कृष्ण तो सबको मोह लेते थे, यह क्या नन्दन विज्ञान से अलग है ?
बाबा- नन्दन विज्ञान में आनन्द का आदान प्रदान होता है, पर मोहन विज्ञान इससे भिन्न है। निःसन्देह मानवता ने इसके थोड़े से पक्ष को अनुभव किया है पर यह विज्ञान विशिष्ठ रूप से परमपुरुष से संबंधित है कृष्ण से सम्बंधित है। यहाॅं कृष्ण से तात्पर्य दोनों  बृज और पार्थसारथी कृष्ण से है। मोहन विज्ञान में ये दोनों एकसाथ मिल जाते हैं। मोहन विज्ञान में परमपुरुष, मनुष्यों को तन्मात्राओं या एक्टोप्लाज्मिक आकर्षण से अपने निकट खींचते हैं अथवा अन्य लोग उनके अनवरुद्ध आकर्षण से खिंचे चले जाते हैं। कृष्ण अपने आन्तरिक प्रेम से लोगों को अपने निकट खींचते हैं, मन में वे लोग सोचते हैं कि नहीं जाऊँगा, नहीं जाऊँगा पर फिर भी आकर्षण इतना अधिक होता है कि न चाहते हुए भी उनकी ओर चले जाते हैं यह है मोहन विज्ञान। नन्दन विज्ञान और मोहन विज्ञान में यही अन्तर है। यहाॅं कृष्ण ही परमसत्ता होते हैं अन्य कोई नहीं और वे भक्तों को अपने व्यक्तिगत सम्बंधों से आकर्षित करते हैं। संसार से जुड़े होने के कारण तन्मात्राओं से परिचित लोगों को इन्हीं से परमपुरुष आकर्षित करते हैं पर ये तन्मात्रायें भौतिक संसार से सम्बंधित होती हैं मानसिक संसार से संबंधित नहीं होती हैं। परमपुरुष का जब गहराई से चिन्तन किया जाता है तो भक्त एक्टोप्लाजिमक सैलों से निकलने वाली गन्ध तन्मात्राओं को भौतिक संसार की तरह ही अनुभव करता है। इसी प्रकार रुप, रस, स्पर्ष और षब्द तन्मात्राओं के बारे में भी घटित होता है। एक्टोप्लाज्मिक संसार में कृष्ण कहते हैं आओ, आना ही पड़ेगा ,तुम आने के लिये रोक नहीं सकते। पास आ जाने पर उनके सुन्दर रूपको देखकर आॅंखें चोंधिया जाती हैं तथा भक्त का प्रत्येक अंग अपने भीतर कृष्णमय ही अनुभव करता है और फिर उनसे पृथक नहीं रह सकता। इस प्रकार परमपुरुष तन्मात्राओं के माध्यम से सबको अपने अधिक निकट ले आते हैं, मोहन विज्ञान का यही सार तत्व है।

चन्दू- यह बृन्दावन क्या है?
बाबा- भक्तगण भौतिक बृन्दावन में नहीं वरन् भाव के बृन्दावन में यात्रा करते हैं। कृष्ण ने कहा भी है कि आघ्यात्मिक बृन्दावन छोड़कर वे एक कदम भी कहीं नहीं जाते। इस प्रकार भक्त के हृदय के बृन्दावन में बृजगोपाल और पार्थसारथी दोनों मिलकर एक हो जाते हैं और परमपुरुष का लीलानन्द पक्ष, नित्यानन्द पक्ष में बदल जाता है। इसलिये उत्तम यह है कि मोहन तत्व के आभास होते ही बिना देर किये उनकी शरण में आ जाना चाहिये।

Saturday, 4 February 2017

105 सृष्टि का उद्गम और अन्त

105 सृष्टि का उद्गम और अन्त

 आध्यात्मिक दर्शन के अनुसार, अपनी चिदानन्दघन अवस्था में रहते रहते अचानक परमसत्ता के मन मेें विचार आया कि एकमेव हूँ अनेक होकर देखूँ क्या होता है। इतना सोचते ही उनकी क्रियात्मक शक्ति ने उनके मन के एक छोटे से भाग में ही, स्पेस-टाइम में बाँधकर इस सगुण सृष्टि को वर्तमान रूप में असीमित आकार देकर रच डाले गुरुत्वाकर्षण, ब्लेकहोल, गेलेक्सियाॅं और असंख्य सौर परिवार। इतना ही नहीं वनस्पति सहित असंख्य जीवधारियों की रचना कर, संचर और प्रतिसंचर में इन्हें गतिशील करके ब्रह्मचक्र को पूरा कर दिया। उनकी अपेक्षा यह थी कि ये सभी छोटी बड़ी मानसिक तरंगें अपनी क्रमागत यात्रा करते हुए यथा समय वापस उन्हीं के पास ही आ जाएंगी परन्तु इस चक्र का पचहत्तर प्रतिशत भाग तय करने के बाद भी पृथ्वीवासी इन मनुष्यों ने तो उन्हें बड़े ही असमंजस में डाल दिया है। वे वापस आनेवाले रास्ते को भूलकर धूल के कण से भी छुद्र इस धरती को ही सर्वसुखकारक और आनन्ददायक मानकर अपने को बना बैठे हैं स्वयंभू पृथक सम्राट। नाभिकीय शक्तियों से एक दूसरे को नष्ट करने की धमकी देते, अपने गन्तब्य को बिसारे ये लोग अहंकार, लोभ, मान अपमान, छोटे बड़े, ऊँचनीच, धनी गरीब, प्रबल निर्बल, जैसे न जाने कितने द्वन्द्वात्मक दुर्ग बनाकर ढहाने तुले हैं मानवता के पवित्र मन्दिर को। अपने को उनसे पृथक मानकर रच डाली हैं भिन्नता और असमानता। उनकी एक कल्पना के भीतर ही अनेक कल्पनाओं में डूबे, उनके ही इन स्वरूपों को उनका स्वप्न में भी बिचार नहीं आता। वह दुखी होकर कभी कभी सोचते हैं कि अपना विचार समाप्त कर दूँ लेकिन ‘‘कार्य कारण प्रभाव और क्रिया प्रतिक्रिया नियम‘‘ से बँधी जब तक सभी विचार तरंगें अपनी सगुणता के सूक्ष्मतम भाग को भी उसके कर्मफल का भोग करा कर स्वच्छ नहीं हो जातीं उन्हें विवश होकर इनका साक्षी बने रहना होगा।

आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिगबेंग सिद्धान्त को मानते हैं पर यह नहीं बता पाते कि यह बिगबेंग किसने किया। इस के अनुसार कॉसमॉस अर्थात् ब्रह्माॅड, 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ 10⁻³⁷ सेकेंड ( दस के ऊपर माइनस सेंतीस की घात, सेकेंड ) में उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में दृश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ के परिमाण की गणना करने पर पाया जाता है कि वह  3 से 100x10²² तारों की संख्या ( दस के ऊपर बाइस की घात ) बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बिग बेंग की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि 10¹⁵ केल्विन (दस के ऊपर पन्द्रह की घात केल्विन ) ताप के विकिरण के साथ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद 10⁻²⁹ सेकेंड ( दस के ऊपर माइनस उनतीस की घात केल्विन) में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार 10²⁷  (दस के ऊपर सत्ताइस की घात ) अथवा अधिक के गुणांक में हुआ। जो कि कास्मिक इन्फ्लेशन कहलाता हैं । ब्रह्माॅड का ताप 10,000 केल्विन से अधिक सैकड़ों हजार साल रहा जिसे रेसेड्युअल कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड कहते हैं। यूनीवर्स का कुल घनत्व, अर्थात् डार्क एनर्जी, वर्ष 2013 में की गयी गणना के अनुसार 68.3 प्रतिशत पाया गया है और डार्कमैटर घटक , द्रव्यमान ऊर्जा घनत्व का 26.8 प्रतिशत। शेष 4.9 प्रतिशत में सभी सामान्य पदार्थ, दिखाई देने वाले परमाणु, रासायनिक तत्व गैस और प्लाज्मा , दृश्य  ग्रह, तारे और गेलेक्सियाॅं हैं। इस ऊर्जा घनत्व में बहुत कम परिमाण  लगभग 0.01 प्रतिशत कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड रेडियेशन भी होता है और 0.5 प्रतिशत से भी कम रेलिक न्यूट्रिनो होते हैं। अभी इनकी मात्रा भले ही कम हो पर बहुत पिछले काल में ये पदार्थ 3200 से भी अधिक रेड शिफ्ट में अपना अधिकार जमाये थे। इस प्रकार अत्यन्त अकल्पनीय समय में ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति होना पूर्वोक्त दर्शन के अनुसार परमपुरुष के मन की कल्पना से साम्य होने को प्रकट करता है।

  ब्रह्माॅंड की स्थानिक वक्रता शून्य के निकट है। हमारे मस्तिष्क में पाये जाने वाले न्यूरानों की संख्या ब्रह्मांड के सभी तारों की संख्या से अधिक है। जीवन की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिक मानते हैं कि जल के भीतर जीव उत्पन्न हुए पहले एक कोषीय और क्रमागत रूपसे बहुकोषीय जीव। डारविन के सिद्धान्त के अनुसार इसी क्रम में अति उन्नत जीव मनुष्य हुए हैं। पृथ्वी के अलावा अन्य गेलेक्सियों के किन्हीं सौर मंडल के ग्रहों में जीवन की संभावनायें भी बताई गयीं हैं। ये जीव मनुष्य की तरह या मनुष्य से अधिक उन्नत  या अन्य प्रकार के भी हो सकते हैं, यह भी कहा गया है। तारे और गेलेक्सियाॅं मरते हुए ब्लेक होल में लय हो जाते हैं और अंततः ब्लेक होल भी समाप्त हो जाता है, इसी प्रकार जीव भी मनुष्य होकर अंततः मर जाता है, इसके आगे क्या होता है विज्ञान को इसकी कोई जानकारी नहीं है। वैज्ञानिकों का कहना है कि 10⁴⁰ वर्ष ( दस के ऊपर चालीस की घात, वर्ष ) बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में  2x10⁶⁶ वर्ष  ( दस के ऊपर छियासठ  की घात, वर्ष ) लेता है, परंतु इनमें से अधिकांश  अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x10⁹⁹ वर्ष ( दस के ऊपर निन्यान्वे की घात, वर्ष ) लेगा । ब्रह्मांड, गेलेक्सियों को समेटे ऐंसा गोला है जो लगातार फैलता जा रहा है। सबसे दूरस्थ गेलेक्सी सबसे तेज चलती है अतः उसकी लंबाई की दिशा  में संकुचन हो जाने के कारण केन्द्र में खडे़ अवलोकनकर्ता के लिये वह छोटी दिखाई देती है।

इस प्रकार वैज्ञानिक गणनाऐं भी सिद्व करती हैं कि ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेकहोलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , बिजली , रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। अतः पूर्वोक्त आध्यात्मिक दर्शन के अनुसार परमपुरुष का विवश होकर अनन्त काल तक सबका  साक्षित्व बनाए रखना विज्ञान के सिद्वान्तों से मेल करता है और परमसत्ता के अस्तित्व का प्रमाण देता है।