110 बाबा की क्लास ( विश्वमाया से बचने के उपाय )
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रवि- आपने बताया कि प्रकृति अर्थात् क्रियात्मक शक्ति को ही महामाया कहते हैं जिसका साक्ष्य देने वाली सत्ता ही उपास्य है परन्तु कुछ विद्वान शिवानी, कौशिकी, महासरस्वती, भैरवी, भवानी आदि नामों का भी उल्लेख करते हैं ये सब क्या हैं?
बाबा- ये सब उस निराकार परमसत्ता के साकार होने की क्रमागत स्थितियाॅं हैं।
राजू- तो इन सबके नियंत्रक भी अलग अलग ही होंगे?
बाबा- वह निर्गुण निराकार सत्ता जिसे तन्त्र की भाषा में परमपुरुष, हर या शिव कहा जाता है एक ही हैं और समस्त ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल कारण हैं। उनकी क्रियात्मक शक्ति जिसे प्रकृति कहते हैं वह भी नित्य निवृत्ता कहलाती है अर्थात् लगातार अपने रूप बदलती रहती है परन्तु परमपुरुष अपरिवर्तित रहते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे घी , आग को जलाये रखने के लिये स्वयं जलकर राख में बदलता जाता है। चूंकि प्रकृति परमपुरुष की आज्ञा के बिना किसी भी प्रकार का रूपान्तरण नहीं कर सकती अतः उसकी प्रत्येक रूपान्तरित अवस्था के लिए परमपुरुष की सहमति और संयोग होने पर प्रकृति और पुरुष के नाम भी दार्शनिक आधार पर ही कहे जाते हैं ।
इन्दु- फिर कन्फयुजन ! इसे क्या और सरल रूप में नहीं बताया जा सकता?
बाबा- तुम लोगों को यह बताया जा चुका है कि उस निर्गुण निराकार परमसत्ता की विचार तरंगों को साकार करने के लिये ही, उनकी ही क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति अनेक रूप बनाती जा रही है। बिलकुल प्रारंभिक अवस्था में जब केवल आधार ही निर्मित हो रहा होता है तो उसके साक्षी सत्ता का दार्शनिक नाम ‘परमशिव‘ और क्रियात्मक शक्ति का नाम ‘शिवानी ‘ या ‘कौशिकी‘ होता है क्योंकि इस समय तक कोशों का निर्माण हो चुकता है। संस्कृत में इसे ही महासरस्वती कहा गया है। अगले स्तर पर आकाश अर्थात् स्पेस और काल अर्थात् टाइम का निर्माण होता है जिसे साक्ष्य देने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम ‘भैरव‘ और मूल क्रियात्मक शक्ति '' भैरवी ‘‘ कहलाती है। अगले स्तर पर अन्य दृश्य पदार्थ आते हैं जिनकी गतिशीलता हेतु उचित कम्पन देने के लिये साक्षी सत्ता ‘भव‘ और क्रियात्मक सत्ता ‘भवानी ‘ कहलाती है। भव और भवानी के मेल से बना यह संसार इसीलिये भवसागर कहलाता है । इस प्रकार शिवानी, भैरवी और भवानी की साक्षी सत्तायें क्रमशः परमशिव, भैरव और भव से ओतप्रोत यह ब्रह्माॅंड ही उस निर्गुण ब्रह्म का सगुण रूप है।
चन्दू- तो क्या देवियों की आठ और दस हाथों वाली मूर्तियाॅं बना कर जो लोग पूजते हैं, ये वही हैं या और कुछ?
बाबा- नहीं , नहीं । अभी बताये गये नाम दार्शनिक व्याख्या के लिये ही कहे गए हैं इनका कोई भौतिक आधार नहीं है। विभिन्न आकार प्रकार और अनेक संख्याओं में मूर्तियाॅं बनाकर जिनकी पूजा कुछ लोग करते देखे जाते हैं वह माकण्डेय पुराण में वर्णित काल्पनिक कहानियों के आधार पर ही अस्तित्व में आई हैं उनका इन दार्शनिक तथ्यों और नामों से कोई तारतम्य नहीं है। इनका विस्तार से विवरण पिछली कक्षाओं में समझाया जा चुका है।
राजू- तो क्या ‘हर‘, और क्रियात्मक शक्ति महामाया के सम्मिलित रूप अर्थात् सगुण ब्रह्म को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है?
बाबा- है, इन सबको नियंत्रित करने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम है ‘‘ पुरुषोत्तम‘‘। इसलिए मुक्ति और मोक्ष पाने की इच्छा करने वालों को इन्हीं पुरुषोत्तम की उपासना करना चाहिए अन्य किसी की नहीं ।
रवि- जब यह केवल दार्शनिक नाम ही हैं तो उनकी उपासना कैसे की जा सकती है?
बाबा- यह समस्या तब आती है जब हम परमपुरुष या पुरुषोत्तम को अपने से अलग और भौतिक जगत या ब्रह्माॅंड को पृथक मानने लगते हैं। जब आप यह जानते हैं कि यह सब कुछ उस एक ही परम सत्ता की मानसिक तरंगें है तो सब कुछ तो उसी सत्ता के मन के भीतर ही हुआ कि बाहर ?
राजू- जब सब कुछ उनके भीतर ही है तो ‘बाहर‘ नाम का अस्तित्व ही कहाॅं रहा।
बाबा- यही बात समझने और समझाने के लिये मनीषियों ने अनेक दर्शनों, कहानियों और दृष्टाॅंन्तों का सहारा लिया है। शब्दजाल में भ्रमित न होकर अपना लक्ष्य निर्धारित कर , बिना देर किए, उसी की ओर चल पड़ना ही बुद्धिमत्ता है। आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में दार्शनिक शब्द, ‘शिवानी‘ को ‘स्पेस‘, ‘भैरवी‘ को ‘टाइम‘ और ‘भवानी‘ को ‘पर्सन‘ कह सकते हैं जिनकी तरंग लम्बाई क्रमशः घटती जाती है और आवृत्ति बढ़ती जाती है। इसलिए ‘पुरुषोत्तम‘ की उपासना करने का तात्पर्य यह हुआ कि हम अपनी भवानी को क्रमशः भैरवी और शिवानी में बदलते हुए परमशिव में स्थापित करें। उन्हें कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं है वे हमारे भीतर ही हैं।
इन्दु- तो पुरुषोत्तम की उपासना करने के लिए उनकी विश्वमाया से निवृत होना पड़ेगा? अर्थात् भवानी को भैरवी और भैरवी को शिवानी में बदलने और अंततः शिव में लीन हो पाने का क्या उपाय है?
बाबा- ‘‘ तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयाश्चान्ते विश्वमायानिवृत्ताः ‘‘ अर्थात् उस परमपुरुष के अभिध्यान (अर्थात् ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान), योजन (अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ना ) और उसीमय हो जाना (अर्थात् उसमें अपने को अनुभव करना) आदि से इस विश्वमाया से निवृत्त हो सकते हैं।
चन्दू- आपने अभिध्यान को दो भागों में बाॅंटकर फिर से कठिन बना दिया, क्या इसे और सरल ढंग से नहीं बताया जा सकता?
बाबा- अभिध्यान से तात्पर्य है ध्यान करने की विशेष प्रक्रिया। इसके दो भाग होते हैं पहले बाहरी संसार की सभी वस्तुओं और संबंधों से मन के प्रवाह को हटाकर केवल एक निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रवाहित करने का प्रयास किया जाता है, इसे इष्टमन्त्र की सहायता से किया जाता है अतः इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। दूसरी स्थिति में आध्यात्मिक मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है जिसे अनुध्यान कहते हैं । जैसे, किसी भक्त को यह हीनभाव आ रहा है कि मैं तो पापी हॅूं, नीच प्रवृत्तियों में जुड़ा रहा हॅूं , मैं कैसे ईश्वर के निकट जाऊं? परन्तु इसके बाद भी वह अभ्यास में लगा रहता है यह मानकर कि भले ही मैं हीन हॅूं परन्तु मैं तो उनकी शरण में आकर ही रहॅूंगा, उनको पाए बिना नहीं रहॅूंगा, आखिर जैसे वह पुण्यात्माओं के पिता हैं तो पापात्माओं के भी पिता हैं, वे तो परमपिता हैं मुझे अपने से दूर कैसे कर सकते हैं? आदि।
रवि-तो ‘योजनात्‘ अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ने की प्रक्रिया क्या है?
बाबा- वास्तव में ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान के द्वारा ही उस परमसत्ता के साथ अधिक निकट हुआ जाता है। संस्कृत में दो क्रियाएं हैं ‘युज‘ और ‘युञ्ज ‘ । युज का अर्थ है अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए निकट होना जैसे शक्कर और रेत। यहाॅं रेत और शक्कर मिल तो जाते हैं पर अपना अलग अलग अस्तित्व बनाए रहते हैं। युञ्ज का अर्थ है अपना अस्तित्व खोकर मिल जाना, जैसे नदी का महासागर में मिलकर एक हो जाना । इस एकीकरण का तात्पर्य है व्यक्ति के इकाई मन का परम.मन में विलय होना, छोटे ‘‘मैं‘‘ का ‘‘बड़े मैं‘‘ से मिलकर एक हो जाना।
राजू- और ‘ततत्वभावात्‘ का अर्थ क्या है?
बाबा- ततत्व = तत् + त्व । तत् अर्थात् वह (परमपुरुष), और त्व है प्रत्यय जिसे लगाकर उसे गुणवाचक संज्ञा बनाया गया है अर्थात् मय। अंग्रेजी में तत = that और त्व त्= ness इसलिए ततत्व का अर्थ हुआ thatness अर्थात् उसमय । और भावात् का मतलब है ‘विचार से‘। इसका मूल अर्थ हुआ कि अपने मन को उस परमपुरुष के भावों में मग्न कर इस प्रकार मिला लेना कि कोई भिन्नता न रहे। यह कार्य ‘गुरुमन्त्र‘ की सहायता से ही हो पाता है जिसमें, जो भी देखते हैं, जिसमें भी रहते हैं, जो भी काम करते हैं उस सबमें परमपुरुष को ही देखने का अभ्यास करना होता है।
इन्दु- विश्वमाया, महामाया और योगमाया क्या एक ही हैं या अलग अलग?
बाबा- परमनिर्माण सत्ता को विश्वमाया कहते हैं और यही जब व्यक्त जगत के सभी स्तरों पर कार्य करती है तो महामाया कहलाती है, चूॅंकि ये सभी परमपुरुष से जुड़ी हुई हैं अतः योगमाया भी कहलाती हैं। इसलिए जो भी व्यक्ति परमपुरुष से अभिध्यान अर्थात् प्रणिधान और अनुध्यान तथा योजनात और ततत्वभावात विधियों से जुड़ जाता है वह विश्वमाया के चंगुल से मुक्त हो जाता है।
नन्दू- यह बात तो समझ में आई लेकिन मेरी तो अभी भी वही समस्या है कि अभिध्यान, योजन और ततत्वभाव में अपने को स्थापित कैसे किया जाय?
बाबा- उसके लिए एक ही उपाय है, वह है ‘‘भक्ति‘‘ । इसे वैज्ञानिक भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है, " अपने इष्टमंत्र ( fundamental frequency) की सहायता से लक्ष्य निर्धारित कर उस ओर बढ़ना और गुरुमंत्र की सहायता से वातावरण अनुकूल बनाना और फिर परमसत्ता की आवृत्ति (cosmic frequency ) के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने की क्रियाविधियाॅं ही भक्ति के अन्तर्गत आती हैं।" तान्त्रिक भाषा में इसे ही 'भवानी को भैरवी' , 'भैरवी को शिवानी' और 'शिवानी को शिव' में स्थापित करना कहा जाता है। इनसे बिना देर किए जुड़ जाना चाहिए।
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रवि- आपने बताया कि प्रकृति अर्थात् क्रियात्मक शक्ति को ही महामाया कहते हैं जिसका साक्ष्य देने वाली सत्ता ही उपास्य है परन्तु कुछ विद्वान शिवानी, कौशिकी, महासरस्वती, भैरवी, भवानी आदि नामों का भी उल्लेख करते हैं ये सब क्या हैं?
बाबा- ये सब उस निराकार परमसत्ता के साकार होने की क्रमागत स्थितियाॅं हैं।
राजू- तो इन सबके नियंत्रक भी अलग अलग ही होंगे?
बाबा- वह निर्गुण निराकार सत्ता जिसे तन्त्र की भाषा में परमपुरुष, हर या शिव कहा जाता है एक ही हैं और समस्त ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल कारण हैं। उनकी क्रियात्मक शक्ति जिसे प्रकृति कहते हैं वह भी नित्य निवृत्ता कहलाती है अर्थात् लगातार अपने रूप बदलती रहती है परन्तु परमपुरुष अपरिवर्तित रहते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे घी , आग को जलाये रखने के लिये स्वयं जलकर राख में बदलता जाता है। चूंकि प्रकृति परमपुरुष की आज्ञा के बिना किसी भी प्रकार का रूपान्तरण नहीं कर सकती अतः उसकी प्रत्येक रूपान्तरित अवस्था के लिए परमपुरुष की सहमति और संयोग होने पर प्रकृति और पुरुष के नाम भी दार्शनिक आधार पर ही कहे जाते हैं ।
इन्दु- फिर कन्फयुजन ! इसे क्या और सरल रूप में नहीं बताया जा सकता?
बाबा- तुम लोगों को यह बताया जा चुका है कि उस निर्गुण निराकार परमसत्ता की विचार तरंगों को साकार करने के लिये ही, उनकी ही क्रियात्मक शक्ति अर्थात् प्रकृति अनेक रूप बनाती जा रही है। बिलकुल प्रारंभिक अवस्था में जब केवल आधार ही निर्मित हो रहा होता है तो उसके साक्षी सत्ता का दार्शनिक नाम ‘परमशिव‘ और क्रियात्मक शक्ति का नाम ‘शिवानी ‘ या ‘कौशिकी‘ होता है क्योंकि इस समय तक कोशों का निर्माण हो चुकता है। संस्कृत में इसे ही महासरस्वती कहा गया है। अगले स्तर पर आकाश अर्थात् स्पेस और काल अर्थात् टाइम का निर्माण होता है जिसे साक्ष्य देने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम ‘भैरव‘ और मूल क्रियात्मक शक्ति '' भैरवी ‘‘ कहलाती है। अगले स्तर पर अन्य दृश्य पदार्थ आते हैं जिनकी गतिशीलता हेतु उचित कम्पन देने के लिये साक्षी सत्ता ‘भव‘ और क्रियात्मक सत्ता ‘भवानी ‘ कहलाती है। भव और भवानी के मेल से बना यह संसार इसीलिये भवसागर कहलाता है । इस प्रकार शिवानी, भैरवी और भवानी की साक्षी सत्तायें क्रमशः परमशिव, भैरव और भव से ओतप्रोत यह ब्रह्माॅंड ही उस निर्गुण ब्रह्म का सगुण रूप है।
चन्दू- तो क्या देवियों की आठ और दस हाथों वाली मूर्तियाॅं बना कर जो लोग पूजते हैं, ये वही हैं या और कुछ?
बाबा- नहीं , नहीं । अभी बताये गये नाम दार्शनिक व्याख्या के लिये ही कहे गए हैं इनका कोई भौतिक आधार नहीं है। विभिन्न आकार प्रकार और अनेक संख्याओं में मूर्तियाॅं बनाकर जिनकी पूजा कुछ लोग करते देखे जाते हैं वह माकण्डेय पुराण में वर्णित काल्पनिक कहानियों के आधार पर ही अस्तित्व में आई हैं उनका इन दार्शनिक तथ्यों और नामों से कोई तारतम्य नहीं है। इनका विस्तार से विवरण पिछली कक्षाओं में समझाया जा चुका है।
राजू- तो क्या ‘हर‘, और क्रियात्मक शक्ति महामाया के सम्मिलित रूप अर्थात् सगुण ब्रह्म को नियंत्रित करने वाला कोई नहीं है?
बाबा- है, इन सबको नियंत्रित करने वाली सत्ता का दार्शनिक नाम है ‘‘ पुरुषोत्तम‘‘। इसलिए मुक्ति और मोक्ष पाने की इच्छा करने वालों को इन्हीं पुरुषोत्तम की उपासना करना चाहिए अन्य किसी की नहीं ।
रवि- जब यह केवल दार्शनिक नाम ही हैं तो उनकी उपासना कैसे की जा सकती है?
बाबा- यह समस्या तब आती है जब हम परमपुरुष या पुरुषोत्तम को अपने से अलग और भौतिक जगत या ब्रह्माॅंड को पृथक मानने लगते हैं। जब आप यह जानते हैं कि यह सब कुछ उस एक ही परम सत्ता की मानसिक तरंगें है तो सब कुछ तो उसी सत्ता के मन के भीतर ही हुआ कि बाहर ?
राजू- जब सब कुछ उनके भीतर ही है तो ‘बाहर‘ नाम का अस्तित्व ही कहाॅं रहा।
बाबा- यही बात समझने और समझाने के लिये मनीषियों ने अनेक दर्शनों, कहानियों और दृष्टाॅंन्तों का सहारा लिया है। शब्दजाल में भ्रमित न होकर अपना लक्ष्य निर्धारित कर , बिना देर किए, उसी की ओर चल पड़ना ही बुद्धिमत्ता है। आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में दार्शनिक शब्द, ‘शिवानी‘ को ‘स्पेस‘, ‘भैरवी‘ को ‘टाइम‘ और ‘भवानी‘ को ‘पर्सन‘ कह सकते हैं जिनकी तरंग लम्बाई क्रमशः घटती जाती है और आवृत्ति बढ़ती जाती है। इसलिए ‘पुरुषोत्तम‘ की उपासना करने का तात्पर्य यह हुआ कि हम अपनी भवानी को क्रमशः भैरवी और शिवानी में बदलते हुए परमशिव में स्थापित करें। उन्हें कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं है वे हमारे भीतर ही हैं।
इन्दु- तो पुरुषोत्तम की उपासना करने के लिए उनकी विश्वमाया से निवृत होना पड़ेगा? अर्थात् भवानी को भैरवी और भैरवी को शिवानी में बदलने और अंततः शिव में लीन हो पाने का क्या उपाय है?
बाबा- ‘‘ तस्याभिध्यानात् योजनात् ततत्वभावात् भूयाश्चान्ते विश्वमायानिवृत्ताः ‘‘ अर्थात् उस परमपुरुष के अभिध्यान (अर्थात् ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान), योजन (अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ना ) और उसीमय हो जाना (अर्थात् उसमें अपने को अनुभव करना) आदि से इस विश्वमाया से निवृत्त हो सकते हैं।
चन्दू- आपने अभिध्यान को दो भागों में बाॅंटकर फिर से कठिन बना दिया, क्या इसे और सरल ढंग से नहीं बताया जा सकता?
बाबा- अभिध्यान से तात्पर्य है ध्यान करने की विशेष प्रक्रिया। इसके दो भाग होते हैं पहले बाहरी संसार की सभी वस्तुओं और संबंधों से मन के प्रवाह को हटाकर केवल एक निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रवाहित करने का प्रयास किया जाता है, इसे इष्टमन्त्र की सहायता से किया जाता है अतः इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। दूसरी स्थिति में आध्यात्मिक मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है जिसे अनुध्यान कहते हैं । जैसे, किसी भक्त को यह हीनभाव आ रहा है कि मैं तो पापी हॅूं, नीच प्रवृत्तियों में जुड़ा रहा हॅूं , मैं कैसे ईश्वर के निकट जाऊं? परन्तु इसके बाद भी वह अभ्यास में लगा रहता है यह मानकर कि भले ही मैं हीन हॅूं परन्तु मैं तो उनकी शरण में आकर ही रहॅूंगा, उनको पाए बिना नहीं रहॅूंगा, आखिर जैसे वह पुण्यात्माओं के पिता हैं तो पापात्माओं के भी पिता हैं, वे तो परमपिता हैं मुझे अपने से दूर कैसे कर सकते हैं? आदि।
रवि-तो ‘योजनात्‘ अर्थात् अपने को उसके साथ जोड़ने की प्रक्रिया क्या है?
बाबा- वास्तव में ईश्वर प्रणिधान और अनुध्यान के द्वारा ही उस परमसत्ता के साथ अधिक निकट हुआ जाता है। संस्कृत में दो क्रियाएं हैं ‘युज‘ और ‘युञ्ज ‘ । युज का अर्थ है अपना अलग अस्तित्व बनाए हुए निकट होना जैसे शक्कर और रेत। यहाॅं रेत और शक्कर मिल तो जाते हैं पर अपना अलग अलग अस्तित्व बनाए रहते हैं। युञ्ज का अर्थ है अपना अस्तित्व खोकर मिल जाना, जैसे नदी का महासागर में मिलकर एक हो जाना । इस एकीकरण का तात्पर्य है व्यक्ति के इकाई मन का परम.मन में विलय होना, छोटे ‘‘मैं‘‘ का ‘‘बड़े मैं‘‘ से मिलकर एक हो जाना।
राजू- और ‘ततत्वभावात्‘ का अर्थ क्या है?
बाबा- ततत्व = तत् + त्व । तत् अर्थात् वह (परमपुरुष), और त्व है प्रत्यय जिसे लगाकर उसे गुणवाचक संज्ञा बनाया गया है अर्थात् मय। अंग्रेजी में तत = that और त्व त्= ness इसलिए ततत्व का अर्थ हुआ thatness अर्थात् उसमय । और भावात् का मतलब है ‘विचार से‘। इसका मूल अर्थ हुआ कि अपने मन को उस परमपुरुष के भावों में मग्न कर इस प्रकार मिला लेना कि कोई भिन्नता न रहे। यह कार्य ‘गुरुमन्त्र‘ की सहायता से ही हो पाता है जिसमें, जो भी देखते हैं, जिसमें भी रहते हैं, जो भी काम करते हैं उस सबमें परमपुरुष को ही देखने का अभ्यास करना होता है।
इन्दु- विश्वमाया, महामाया और योगमाया क्या एक ही हैं या अलग अलग?
बाबा- परमनिर्माण सत्ता को विश्वमाया कहते हैं और यही जब व्यक्त जगत के सभी स्तरों पर कार्य करती है तो महामाया कहलाती है, चूॅंकि ये सभी परमपुरुष से जुड़ी हुई हैं अतः योगमाया भी कहलाती हैं। इसलिए जो भी व्यक्ति परमपुरुष से अभिध्यान अर्थात् प्रणिधान और अनुध्यान तथा योजनात और ततत्वभावात विधियों से जुड़ जाता है वह विश्वमाया के चंगुल से मुक्त हो जाता है।
नन्दू- यह बात तो समझ में आई लेकिन मेरी तो अभी भी वही समस्या है कि अभिध्यान, योजन और ततत्वभाव में अपने को स्थापित कैसे किया जाय?
बाबा- उसके लिए एक ही उपाय है, वह है ‘‘भक्ति‘‘ । इसे वैज्ञानिक भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है, " अपने इष्टमंत्र ( fundamental frequency) की सहायता से लक्ष्य निर्धारित कर उस ओर बढ़ना और गुरुमंत्र की सहायता से वातावरण अनुकूल बनाना और फिर परमसत्ता की आवृत्ति (cosmic frequency ) के साथ अनुनाद (resonance) स्थापित करने की क्रियाविधियाॅं ही भक्ति के अन्तर्गत आती हैं।" तान्त्रिक भाषा में इसे ही 'भवानी को भैरवी' , 'भैरवी को शिवानी' और 'शिवानी को शिव' में स्थापित करना कहा जाता है। इनसे बिना देर किए जुड़ जाना चाहिए।
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