Sunday 19 February 2017

109 बाबा की क्लास ( ध्यान का विषय )

109 बाबा की क्लास ( ध्यान का विषय )

इन्दु- कुछ लोग कहते हैं कि काल अर्थात् समय ही सब कुछ है उससे ताकतवर और कोई नहीं है, इसलिये वही ध्यान करने योग्य है ।
चन्दु- लेकिन वैज्ञानिक तो समय को दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ही मानते हैं?
रवि- इतना ही नहीं वे समय को स्पेस के साथ बुना हुआ लचीला रेशा भी कहते हैं, सच्चाई यह है के वे स्पष्टतः उसे पारिभाषित ही नहीं कर पाते हैं।
बाबा- देखो, समय या काल , वास्तव में क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है जबकि पात्र, मन की सहायता से इसे ग्रहण करने वाला और स्पेस, पात्र तथा काल के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली सत्ता है। स्पष्ट है कि समय अलौकिक घटक नहीं है।  इसका कारण यह है कि जहाॅं क्रिया नहीं होगी वहाॅं समय भी नहीं होगा। जैसे सूर्य के चारों ओर धरती चक्कर लगाती है इससे हम सौर वर्ष, सौर माह , सौर दिन पाते हैं और चन्द्रमा धरती के चक्कर लगाता है जिससे चन्द्र वर्ष, चन्द्र मास और चन्द्र दिन पाते हैं। यह सभी गतियाॅं हमारे मन के द्वारा किये गये मापन से ही इन नामों के द्वारा प्रकट की जाती हैं। इसलिये मन एक सापेक्षिक घटक है, मन और गतिशीलता में से किसी एक के न होने पर समय का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्पष्ट है कि वह परम या निर्पेक्ष घटक या अखंड सत्ता नहीं है इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकता।

बिन्दु- तो क्या प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय माना जा सकता है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि ब्रह्माॅंड का क्रियात्मक पक्ष क्या है। किसी समय विशेष पर क्रियात्मक पक्ष द्वारा प्रयोग में लाई गयी प्रणाली ही प्रकृति कहलाती है। कुछ लोग मानते हैं कि प्रकृति से ही ब्रह्माॅंड उत्पन्न हुआ है जो गलत है। यह तो उस क्रियात्मक सिद्धान्त की शैली है इसलिये यह सर्जनात्मक सत्ता नहीं है। पदार्थवादियों ने प्रकृति को सर्जनात्मक माना है जो सही नहीं है, इसलिए प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय नहीं माना जा सकता।

राजू- तो क्या भाग्य को ही मार्गदर्शक घटक मान लेना चाहिए?
बाबा- नहीं, भाग्य मानव गतिशीलता को नियन्त्रित नहीं करता। भाग्य क्या है? वह है तुम्हारे पिछले अभुक्त संस्कारों का परिणाम। सभी को अपने अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब तक क्रिया की प्रतिक्रिया को (जो बीज रूप में रहती है) पूरी तरह सन्तुष्ठ हो जाने का अवसर नहीं मिलता है तब तक मुक्ति नहीं मिलती। यही सुप्त बीज रूपी संस्कार भाग्य कहलाते हैं अतः वे मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं।

रवि- कुछ लोग कहते हैं कि इस धरती पर या अन्य ग्रहों की संरचना और उनकी स्थिति के आधार पर ही जीवों का जन्म होता है, ज्योतिषी तो यही कहते हैं?
बाबा- नहीं । जिस प्रकार के किसी ने कर्म किए होते हैं उस प्रकार की ग्रह स्थिति के अनुसार ही उसे संस्कार भोग पाने का अवसर जुट पाता है और उसे जन्म मिलता है, और अपने पूर्व कर्मों के अनुसार सुख या दुख मिलता है। स्पष्ट है कि ग्रह जीवों को नियंत्रित नहीं करते उनके अपने कर्म ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। जहाॅं मूल क्रिया अथवा कर्म का पता नहीं होता है परन्तु उसका फल मिलता है तो उसे कहते हैं नियति। इसलिए भाग्य न तो नियंत्रक और न ही रचनात्मक घटक है अतः वह ध्यान का विषय भी नहीं हो सकता।

इन्दु- पर कुछ लोग तो इसको एक दुर्घटना अर्थात् एक्सीडेंट कहते हैं ?
बाबा- वे अपने अज्ञान को छिपाने के लिए  यह कहते हैं। तुम लोग  तो जानते हो कि ब्रह्माॅंड में कुछ भी बिना कारण के नहीं घटित होता, यह अलग बात है कि हमें वह पहले से मालूम हो भी सकता है और नहीं भी होता। हाॅं कभी कभी यह होता  है कि  कारण बहुत कम समय के लिए अपना प्रभाव डालता है और उसे लोग एक्सीडेंट कहने लगते हैं, जो उचित नहीं है। अतः यह भी ध्यान करने का विषय नहीं हो सकता।

रवि- तो क्या पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया जाए?
बाबा- यदि पदार्थ ही सब कुछ होता तो ‘कारण मन‘ उससे कैसे आ सकता है? मन पदार्थ से श्रेष्ठ होता है, मानव बुद्धि और आत्मा उससे भी श्रेष्ठ होती है। इसलिए पदार्थ को पूजा का या ध्यान का विषय नहीं बनाया जा सकता अन्यथा वह व्यक्ति पदार्थ में ही बदल जा सकता है।

इन्दु- तो क्या जीवात्मा को मूल तत्व माना जा सकता है?
बाबा- नहीं, क्योंकि असंख्य जीवात्माऐं  हैं, हर सत्ता की अपनी जीवात्मा है। इतना ही नहीं पदार्थों में भी जीवात्मा है यह अलग बात है कि उनका मन अविकसित होने से वे उसका अनुभव नहीं कर पाते। किसी भी इकाई मन के सुख दुख के अनुसार वह जीवात्मा भी प्रभावित होती रहती है, जैसे दो टीमें फुटवाल मैच खेलती हैं और तुम देखते हो, उनके जीतने हारने से तुम्हें कोई मतलब नहीं है परन्तु फिर भी मैच देखते हुए तुम प्रभावित होते हो कि नहीं?  इसे इस प्रकार भी समझ सकते हो, जैसे दर्पण का कोई रंग नहीं है परन्तु लाल रंग का फूल उसके सामने लाने पर वह लाल दिखने लगता है वैसे ही जीवात्मा भी सुख दुख से प्रभावित होता  है। अतः स्पष्ट है कि कोई विशेष जीवात्मा, विशेष सत्ता या इकाई चेतना पूरे ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं हो सकती इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकती ।

नन्दू- तो क्या काल, प्रकृति या स्वभाव, नियति, और दुर्घटना, इन सब घटकों का संयोजन ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति का मूल घटक है?
बाबा- नहीं, क्योंकि इनमें  से प्रत्येक में कोई न कोई अपूर्णता अवश्य है अतः ये अथवा ये सभी मिलकर भी ब्रह्माॅंड के होने का परम कारण नहीं हो सकते ।

इन्दु- परन्तु कुछ लोग तो महामाया को इसका कारण मानते हैं?
बाबा- महामाया अर्थात् क्रियात्मक सत्ता कोई भी कार्य कर सकती है परन्तु संज्ञानात्मक सत्ता की स्पष्ट अनुमति के बिना कुछ नहीं कर कर सकती। शिव के बिना शक्ति का पृथक अस्तित्व नहीं है, अतः महामाया भी ब्रह्मांड की रचना का मूल कारण नहीं है।

राजू-इकाई चेतना कर्मफल के अनुसार रूप बदलती रहती है, प्रकृति भी सदा ही अपने रूप बदलती रहती है तो फिर वह कौन है जो इनका संज्ञान रखता है?
बाबा- तुम हो, तुम्हारे होने का तुम अनुभव करते हो, परन्तु इसका साक्ष्य कौन देता है कि तुम हो ? वही संज्ञानात्मक परम सत्ता जिससे सभी आते हैं, जिसमें रहते हैं और अन्त में जिसमें जा पहुँचते हैं उसे ही शिव, परमब्रह्म या अखंड सत्ता कहते हैं। केवल वही चिन्तन करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मनन करने योग्य और पूजनीय है अन्य सब व्यर्थ है।

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