107 नीलकण्ठ दिवस
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12 फरवरी 1973 को आनन्दमार्ग दर्शन के प्रवर्तक महासम्भूति सदगुरु बाबा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी को राजनैतिक षडयंत्र पूर्वक दवा के नाम पर विष दे दिया गया था। उन्होंने अपने योगबल से उसका प्रभाव अपने ऊपर नहीं होने दिया। जब सम्बंधित अधिकारियों को ही नहीं देश के राष्ट्रपति को भी न्यायिक जाँच कराने का निवेदन करने पर भी षडयंत्रकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई तब बाबा ने अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए 1 अप्रैल 1973 से 1 अगस्त 1978 तक अर्थात पाँच वर्ष चार माह एक दिन तक लगातार उपवास किया था, यह शासकीय अभिलेखों में प्रमाणित है ।
पाप और पुण्य शक्तियों के संघर्ष में एक ओर विष, तो दूसरी ओर अमृत का ध्रुवण होता रहता है। सभी लोग अमृत को पाने के लिए तैयार रहते हैं परंतु विष पान करने के लिए सब दूर हो जाते हैं। संसार और सृष्टिचक्र को यथावत चलते रहने देने के लिए शिव को ही इस विष को पीकर अपने कण्ठ में योगबल से स्थिर कर अप्रभावित रहने की लीला करना होती है , इसीलिए उन्हें नीलकण्ठ कहा जाता है।
मानवता की रक्षा करने के लिए इस दानवीय कृत्य को करने वालों के प्रति बाबा ने अपने दिव्य तरीके से उन्हें शिक्षा देने की हमें प्रेरणा दी। प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को सभी शिष्यगण नीलकण्ठ दिवस मनाते हैं। इस दिन सभी लोग कम से कम एक गरीब व्यक्ति को नारायण समझकर रुचिकर भोजन कराते हैं , एक से अधिक को भी अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन करा सकते हैं। इस कार्य द्वारा सात्विक रूप से हम यह प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं कि हे दानवो ! तुम अपनी प्रकृति के अनुसार भले ही विष फैला कर मानवता को मार डालना चाहो परन्तु हम अमृतमय भोजन देकर उसे मरने नहीं देंगे।
सदगुरु बाबा की कार्यप्रणाली अनोखी है, दिव्य है। वे हमेशा हमारे साथ ओत योग और प्रोत योग से जुड़े रहते हैं।
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12 फरवरी 1973 को आनन्दमार्ग दर्शन के प्रवर्तक महासम्भूति सदगुरु बाबा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी को राजनैतिक षडयंत्र पूर्वक दवा के नाम पर विष दे दिया गया था। उन्होंने अपने योगबल से उसका प्रभाव अपने ऊपर नहीं होने दिया। जब सम्बंधित अधिकारियों को ही नहीं देश के राष्ट्रपति को भी न्यायिक जाँच कराने का निवेदन करने पर भी षडयंत्रकारियों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई तब बाबा ने अपना विरोध प्रदर्शित करने के लिए 1 अप्रैल 1973 से 1 अगस्त 1978 तक अर्थात पाँच वर्ष चार माह एक दिन तक लगातार उपवास किया था, यह शासकीय अभिलेखों में प्रमाणित है ।
पाप और पुण्य शक्तियों के संघर्ष में एक ओर विष, तो दूसरी ओर अमृत का ध्रुवण होता रहता है। सभी लोग अमृत को पाने के लिए तैयार रहते हैं परंतु विष पान करने के लिए सब दूर हो जाते हैं। संसार और सृष्टिचक्र को यथावत चलते रहने देने के लिए शिव को ही इस विष को पीकर अपने कण्ठ में योगबल से स्थिर कर अप्रभावित रहने की लीला करना होती है , इसीलिए उन्हें नीलकण्ठ कहा जाता है।
मानवता की रक्षा करने के लिए इस दानवीय कृत्य को करने वालों के प्रति बाबा ने अपने दिव्य तरीके से उन्हें शिक्षा देने की हमें प्रेरणा दी। प्रत्येक वर्ष 12 फरवरी को सभी शिष्यगण नीलकण्ठ दिवस मनाते हैं। इस दिन सभी लोग कम से कम एक गरीब व्यक्ति को नारायण समझकर रुचिकर भोजन कराते हैं , एक से अधिक को भी अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन करा सकते हैं। इस कार्य द्वारा सात्विक रूप से हम यह प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं कि हे दानवो ! तुम अपनी प्रकृति के अनुसार भले ही विष फैला कर मानवता को मार डालना चाहो परन्तु हम अमृतमय भोजन देकर उसे मरने नहीं देंगे।
सदगुरु बाबा की कार्यप्रणाली अनोखी है, दिव्य है। वे हमेशा हमारे साथ ओत योग और प्रोत योग से जुड़े रहते हैं।
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