Sunday, 12 February 2017

108 बाबा की क्लास (एकर्षि अग्नि या मुखाग्नि)

108 बाबा की क्लास (एकर्षि अग्नि या मुखाग्नि)
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राजूः- कुछ लोग आग को एकर्षि अग्नि क्यों कहते हैं?
बाबा- एकर्षि उस अग्नि का नाम है जिसे प्राचीनकाल में लोग बहुत ही पवित्र मानते थे।

रवि- क्यों?
बाबा- अत्यन्त प्राचीन काल में लोग अग्नि को जानते ही नहीं थे। वे अपना जीवन कन्द, मूल, फल और कोमल हरी पत्तियाॅं कच्चे माॅंस को खाकर व्यतीत करते थे। वे लोग आग उत्पन्न करने अथवा उपयोग करने के कोई तरीके नहीं जानते थे। जंगलों में आॅंधियों के समय सूखे पेड़ों के आपस में रगड़ने से आग लग जाती थी। भय और पूज्यभाव के कारण उन्होंने इसे अग्नि देवता मान लिया। वे बिजली की तड़क और कड़क से डरते थे इसलिये इन्द्र को परम सत्ता मानकर पूजने लगे। इन्द्र का एक अर्थ ‘‘सबसे अच्छा‘‘ भी होता है। इसी प्रकार वर्फीले तूफान और वायु के देवता मरुत उनके दूसरे आराध्य देवता हुए। विशाल समुद्री लहरों के डर से वरुण देवता की पूजा करने लगे। यही उन इतिहास पूर्व लोगों के प्रमुख देवता थे। जिन लोगों ने इन्हें खोजा वे ऋषि कहलाये। आग की खोज का दिन मानव इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण है । उस समय के लोगों ने आग के पता चलने के शताब्दियों बाद इसके उपयोगों के बारे में जाना । इसके साथ ही वे दूसरे प्राणियों की तुलना में श्रेष्ठ हो गए। आग के अनेक उपयोग होना सीख लेने के बाद वह जीवन का अपरिहार्य अंग बन गई।

चन्दू- लेकिन अग्नि के साथ एकर्षि जोड़ने का क्या आशय है?
बाबा- आग को उत्पन्न करना, उसको बनाये रखना, उसकी रक्षा करना और उससे दूसरों की रक्षा करना बड़ा ही कठिन कार्य था। यह कार्य कोई भी नहीं कर सकता था इसलिये कुछ ऋषियों को इसकी रक्षा करने के लिये ही नियुक्त कर दिया गया। इस प्रकार के अग्नि रक्षक ऋषियों को ‘साग्निक‘ या ‘अग्निहोत्री‘ कहा जाने लगा। इस प्रकार आग को बनाये रखने के लिये उसे पवित्र देवता मानकर उसे सन्तुष्ठ करने के लिये प्रचुर भोजन (अर्थात् पवित्र लकड़ियाॅं और कुछ मंत्र आदि) दिया जाने लगा इसे बाद में हवन का नाम दिया गया। इस प्रकार के कार्य को सामान्य शब्दों में ‘यज्ञ‘ नाम दिया गया। (यज्ञ = यज + न) अर्थात् क्रिया या विशेष प्रकार का पवित्र और शुभ कार्य। यज की मूल क्रिया का अर्थ है ‘कार्य करना‘ (  ‘यज‘ + ‘घ´  ´‘ = ‘याग‘)। साग्निक के अस्वस्थ हो जाने या अनुपस्थित हो जाने के समय उसकी पत्नी या बेटा उस अग्नि की रक्षा का दायित्व निभाते थे और इसे लगातार ईंधन जुटाते रहते थे ताकि वह बुझ न जाये ।

इन्दु- अग्नि की खोज और संरक्षण की व्यवस्था तो आदि काल से सम्बंधित है, परंतु आपने पहले बताया है कि परिवार अर्थात् माता, पिता और पुत्र पु़ित्रयों आदि की संकल्पना का व्यावहारिक रूप तो साढ़े सात हजार वर्ष पहले भगवान सदाशिव के आने के बाद ही सामने आया?
बाबा- हाॅं सही है। यहाॅं एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखना होगी वह यह कि भगवान शिव के आने के पूर्व समाज में विवाह नाम की कोई संस्था ही नहीं थी। माता और पिता के पारस्परिक कोई कर्तव्य निर्धारित नहीं थे माताओं को ही बच्चों की देखभाल और पालन पोषण की जिम्मेवारी उठाना पड़ती थी। इस कारण महिलाओं की प्रगति विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में पिछड़ती गई। शिव ने अपने तर्क और शक्ति के प्रभाव से पुरुषों को सामाजिक उत्तरदायित्व से बाॅंधा। यह पहला अवसर था जब समाज मंे विवाह नाम की संस्था स्थापित हुई। शिव के बाद अवसरवादियों ने महिलाओं के सामाजिक स्तर को अनेक वर्गो में बाॅंट दिया। जैसे,
पत्नी - इसे पति के समान ही सामाजिक और धार्मिक अधिकार दिये गए और इनके बच्चों को भी यह अधिकार विरासत में ही मिल जाता था।
जाया- इसे पति के धार्मिक अधिकारों से बंचित किया गया परन्तु उसके बच्चे पिता के  धार्मिक और सामाजिक अधिकार पा सकते थे।
भार्या - इसके विवाह को तो मान्यता प्राप्त थी परन्तु पति के किसी भी धार्मिक और सामाजिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उसके बच्चों को यह अधिकार प्राप्त थे क्योंकि भार्या केवल इसलिये विवाह की जाती थी ताकि वंश चल सके। इसीलिये कहा गया कि ‘‘पुत्रार्थे क्रियते भार्या‘‘ ।
कलत्र- इस प्रकार के पति पत्नी सम्बंध में कलत्र को अपने पति के धार्मिक और सामाजिक अधिकार नहीं थे और उसके बच्चों को भी यह अधिकार नहीं थे। यह प्रणाली ‘बुद्ध‘ युग से पहले प्रारम्भ हुई परन्तु प्रभाव में उनके बाद आई। इसमें पिता उच्च वर्ण का और माता निम्न वर्ण की होती तो बच्चों को माता का गोत्र ही रखना पड़ता था। यदि इस प्रकार के विवाह को सामाजिक मान्यता नहीं होती तो बच्चों को माता के गोत्र को भी नहीं दिया जाता था , उन्हें अग्नि की सुरक्षा भी नहीं दी जा सकती थी। उन्हें व्रात्य अर्थात् जाति विहीन, कहा जाता। माता यदि उच्च वर्ण की होती और विवाह को सामाजिक मान्यता होती तो उसके बच्चों को पैत्रिक धार्मिक और सामाजिक अधिकार मिलते थे और यदि माता को अपने गोत्र में अग्नि की रक्षा का अधिकार मिला था तो उसके बच्चों को भी यह अधिकार मिल जाता था।

रवि- आश्चर्य है! इतना सब गड्ड मड्ड होता रहा फिर भी महिलाएं अधिकार विहीन भी बनी रही? क्या इन कुप्रथाओं के कारण ही अनेक जातियों का उद्गम हुआ?
बाबा- इतना ही नहीं, इस प्रकार तथाकथित कुलीनों के उद्गम के साथ ही अन्य पृथा उत्पन्न हुई जिसे ‘नियोग‘ कहा जाता था। ये कुलीन जो अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करते थे उन्हें उन सबके भरण पोषण उचित रूपसे करने में अनेक कठिनाइयाॅं आने लगीं। इस कारण कुछ स्त्रियाॅं अपने पति के पास तो कुछ अपने पिता के पास रहा करतीं थीं। इन परिस्थितियों में सामाजिक रूप से अमान्य पतियों के द्वारा भी संतान उत्पन्न होने लगी जो नियोगज सन्तान कहलाती थी। इस प्रकार की सन्तान को यद्यपि अपनी माता के विवाहित पति का नाम ही पिता के रूप में मान्यता प्राप्त था परन्तु उसको सामाजिक और धार्मिक अधिकार से बंचित रखा जाता था। इस कुप्रथा से कुलीन तो बढ़ते गये परन्तु उनकी गुणवत्ता में कमी आती गई। नियोगज सन्तान को अपने मामाओं के घर ही रहना पड़ता था और उन्हें पिता की तरह अग्नि की रक्षा करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता था। यदि पिता उच्च गोत्र का और माता निम्न गोत्र की हुआ करती तो सन्तान को पिता का गोत्र और सामाजिक, धार्मिक अधिकार  मिलता था परन्तु यदि माता उच्च गोत्र की और पिता निम्न गोत्र का होता तो उत्पन्न सन्तान को माता का गोत्र और सामाजिक स्तर नहीं मिलता था। अतः यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि इस प्रकार की सन्तान को अग्नि की रक्षा करने का भी अधिकार नहीं होता था। इन कुप्रथाओं के कारण मानव समाज में सैकड़ों जातियों का उदय हुआ जो आज भी अभिशाप बना हुआ है।

नन्दू-  यह बात समझ में आई, परन्तु मुखग्नि क्या है क्या यह एकर्षि अग्नि का ही पर्याय है या इन्हीं कुप्रथाओं में से एक?
बाबा- अग्नि को संरक्षित रखने के नियम बने थे परन्तु उनमें अपवाद भी थे। कुछ ऋषि ऐसे थे जो स्वयं ही अग्नि की विभिन्न प्रकार से रक्षा करने के काम में लगे रहते थे जैसे कर्मकांड, अग्नि को जलाये रखने के लिये लकड़ियों का प्रबंध आदि। इस काम में वे अपने पुत्रों या पत्नियों का भी सहयोग नहीं लिया करते थे। इस प्रकार की अग्नि को एकर्षि अग्नि कहा जाता था और इसे बहुत ही पवित्र माना जाता था। आदि काल में मृत देह को पानी में बहा दिया जाता था, वैदिक युग के पहले और बाद तक भी मृत देह को धरती के भीतर गाड़ने की पृथा थी , परन्तु आग के अनुसंन्धान हो जाने पर भी बहुत बाद में उसे जलाया जाना उचित समझा जाने लगा। जब मृत देह को जलाने की पृथा आई तो लोगों ने अग्नि को संरक्षित रखने वाले ऋषियों के मरने पर उन्हें जलाने के समय सोचा कि जिसने जीवन भर अग्नि की इतनी देखरेख की और मौखिक रूपसे मंत्रों के द्वारा एकर्षि अग्नि को बनाये रखा अब उनके जाने के बाद उस अग्नि को संरक्षित रखने के लिये उसके मंत्रों का लाभ नहीं मिलेगा इसलिये उनके शरीर को अग्नि में समर्पित करने के पहले अंतिम रूप से एकर्षि अग्नि को उनके मुंह से स्पर्श करना उचित होगा इसके बाद सूखी घास का संपर्क करना। इस तरह दाह संस्कार के समय अग्नि को मुह के सम्पर्क में लाने की पृथा का प्रचलन हुआ, जिसे आजकल मुखाग्नि देना कहा जाता है। इस तरह जिनके पास एकर्षि अग्नि न भी होती वे भी और अन्य जिन्हें इससे कोई मतलब ही नहीं था वे सभी, अनिवार्यतः इस पृथा का व्यापकता से पालन कने लगे।

इन्दु- बड़ी ही विचित्र बात है?
बाबा- हाॅं। जब कोई रूढ़ि जन्म लेती है तो वह लोगों को क्रमशः अपने जाल में फॅंसाती जाती है। यह मुखाग्नि देना भी इन्हीं रूढ़ियों में से एक है। जो कर्मकाॅंडी पंडित हैें उन्होंने मुखाग्नि देने का मन्त्र भी बना लिया जिसका प्राचीन एकर्षि अग्नि से लेशमात्र भी सम्बंध नहीं है। इस प्रकार अपने प्रिय के देहावसान पर उनके मुंह में अग्नि देना असामान्य लगता है वह मंत्र भी असंगत है परन्तु सामान्य लोग उस मन्त्र का  या तो अर्थ नहीं जानते या फिर भय के कारण उसे पढ़ लेते हैं। मौलिक एकार्षि अग्नि से इसका कोई भी संबंध नहीं है। वह मंत्र यह है-
"कृत्वा तु दुष्कृतम कर्म जानता वाप्यजानता, मृत्युकालवशम प्राप्य नरम पंचतत्वमागतम।
धर्माधर्मसमायुक्तम् लोभमोहसमावृतम्, दहेयम सर्व गात्राणि दिव्यान लोकान सह गच्छतु।"
इसका अर्थ है कि ‘‘ हो सकता है इस मृत व्यक्ति ने जानकर या अनजाने में दुष्कर्म किये हों, उसे आज मृत्यु ने वरण कर लिया है और उसने अपने को पंचतत्वों बिलीन कर दिया है। उसमें अच्छाईयाॅं और बुराइयाॅं दोनों ही थीं , वह लोभ और मोह में भी फॅंसा था। अब उसके पूरे शरीर को अग्नि जला डाले और उसे स्वर्ग मिले।‘‘

राजू- तो क्या आज के परिप्रेक्ष्य में इन कुप्रथाओं का पालन करना उचित होगा?
बाबा- आज का मानव अपने विवेक, तर्क और विज्ञान से इसका निर्णय करे। जो इसे पसंद करे वह इसे याद करे परन्तु जो रूढ़ियों से स्वतंत्र विचारों के लोग हैं वे तो अपने विवेक और शुद्ध विचारों के आधार पर ही कार्य करेंगे। किसी समय सतीपृथा जैसी अमानवीय और दुष्टता भरी गतिविधियों की रूढ़ि के प्रति भी शास्त्रों की आड़ ली जाती थी। बाद में पाया गया कि वह आधार भी गलत था। बुद्धिमान और पढ़ेलिखे लोगों को सोचना चाहिए कि यह मुखाग्नि देना वाॅंछनीय है या नहीं। यह सती पृथा की तरह भयंकर भले न हो परन्तु निःसन्देह यह घृणित कार्य है। एकर्षि अग्नि जो मुनियों के मुंह में रखी जाती थी वह उन्हीं के द्वारा संरक्षित की गई होती थी। आज जो अग्नि मुंह में रखी जाती है वह तो माचिस से उत्पन्न की जाती है। क्या यह इतिहास का उपहास करना नहीं है? जब महिलाएं अग्नि की रक्षा करने के योग्य ही नहीं मानी जाती थीं तो उनके मुंह में अग्नि रखे जाने का औाचित्य क्या है? जो भी हो, वैज्ञानिक युग के उन्नत बुद्धि और विवेकी लोगों को इस पर विचार करना चाहिए।  

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